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मरू-गर्जर जैन कवि
तसु मज्झि निविट्ठउ जलहर वन्नउ, सामिउ नेमि कुमारु ।
जिणि हेलई जित्तउ नव जुम्वण भरि, तिहण रगडण मारु ॥१ मन्त-रेवइ गिरि मंडणु पाव विहंडण, तिहुयण पणमिय पाय ।
भत्तिहि सथुणियउ इणि मणि रहिय उ, इकु तुहं जादव राय ।। तिम तिम तिम करि मह भालथलि, जिम हुइ नेमि तिल उ सुपहाणु जय जय जय जियवर तुह परमेसरु, जाम गयणि ससि भाणु ॥७
प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय
(४८) अज्ञात (५८) श्री युगादि देव जन्माभिषेक कलश गा० २०
मादि-निसुरणेहु भविय लोयह रोलवइ ऊण इक्कु वणयम्मे ... मद मयणादि भन्नइ जम्माभिसेयं च रिसहस्स ।। १ अन्त–त घणु सारि भवियणहु जिणह अभिसे उ विहिज्जइ ।
राय सोय जर मरण झत्ति, सुजलं जलि दिज्जइ ।। विहि करहु सरहु सुहगुरु वयण, भविय लोय भव भय हरण चित्त घड़ि न्हवरण रिसहेसरह, नर नरवर संतिहि करण ॥२०
प्रतिलिपि-प्रभय जैन ग्रन्थालय
(४६) अज्ञात (५९) श्री युगादि देव कलश गा० ५ आदि-जस्स पय पकयं निप्पडिम स्वयं ... सुर असुर नर खयर वयसी कयं ।
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