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मरू-गूर्जर जैन कवि मूरिख बिरहणि बहु सोता पणु पंच बागन नमनि प्राणी ।। रति अनइ प्रीति दिवसि विधि वतणु, कवण कुमति तुव बिघि रूठउ। भुजइ सुडि.पंहु दंतूसलि मुनि केहरू जब दिठि दीठउ ॥१ पंच विसइ जिनि मुनिवर जीत्या, प्रष्ट कर्म जिनि खै करिया । चारितु रयणि प्रमलु जो पालइ, पंच महाव्रत जिनि धरिया ॥ वादी अंधकार सहस करु विद्या नाम बिरुदु छाज। ससि गच्छ सिरि जिनभद्र सूरि पाटिहिं, श्री जिनचंद्र सूरि राज ॥२
वि० जिनचंद्र सूरि प्राचार्य पद सं० १५१४ स्वर्ग १५३०
(१६४) अज्ञात (१९३) रयणावली गा० ३३
(सं० १५२० वि०) आदि-पणमवि वीर चलण बहु भत्ति, हंस गमणि समरउ सरसत्ति ।
सुणउ भविक जण चिंत अवधारि, इणि संसारि रयण छइ च्यारि ।। जीवदया जिण सासण धम्म, सुविहित गुरु सावय कुलि जम्म ।
वड़इ मागिए लाभइ ए च्यारि, नहीय मूढ नरि हेला हारि ॥२ अन्त-च्यारि रतनावलि गुणधार, पाटसूत्र मुक्ताफल हार सरल कंठि निय हियड़इ घरउ, मुगति रमणि सइंवरि तुम्हि
वरउ ॥३३ इति श्री रयणावली समाप्ता सं. १५२० वर्षे ज्येष्ठ वदि ४ दिने श्री सीरोही नगरे महोपाध्याय शिरोमणि श्री श्री सुधानंदन गणि शिष्येण ति० श्र० रिषीयोग्य
[पत्र १ अभय जैन ग्रंथालय ]
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