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अज्ञात
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सोलहवीं सदी
सोलहवीं शताब्दी
( १६२) मतिशेखर (वा) ( १९१) बावनी गा० ५३
सं० १५१४ लग०
प्रादि- पहिलउ परम ब्रह्म असरी, तेहनि एक अविचल चिति धरी । कहइ मतिशेखर सुणो सुजाण, माई बावन, वर्ण व खाणि ॥ १
[ ११७
भलई भलिय परि लागु पाय, गुरु गणवइ सरसति पियु माइ | नमतां नर भवि आवइ खोड़ि, अग भले जिम दोवड़ मोड़ि २
अन्त - माई अखर नी बावनी, इणि परि कही विश्व पावनी ।
वाचक मतिशेखर इम कहइ, भणई सु नर अक्षय पद लहइ ।। ५३ इति श्री माई अक्षर बावनी समाप्ता ।
( अभय जैन ग्रन्थालयस्थ गुटके में ) वि० दे० जे० गु०क० भा० १ पृ० ४८ ( अन्य रचना सं० १५१४ की प्राप्त भा० ३ पृ० ४६७ )
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( १६३) अज्ञात [केहरु ?]
( १९२ ) श्री जिनभद्र सूरि पट्टे श्री जिनचन्द्र सूरि गीतम् गा० २
राग मल्हार
कुंजर मयण नमनि मच्छरु करि, हरि हरु ब्रह्म नयहु जाणी |