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जयसिंहसूरि पन्द्रहवीं सदी
[६७ (६२) जयसिंहसूरि (कृष्णर्षिगच्छीय)
(१०७) प्रथम नेमिनाथ फागु गा० ३२
सं० १४२२ आसपास
प्रादि-पणमिवि जिण चउवीस पइ, सुम रवि सरसइ चित्ति ।
नेमि जिणेसर के वि गुण, गाएमउ वहु भति ॥१ जादव कुल सिंगारु पह नेमिकमारो। समुद्र विजय नरहि, पूतु, सिवदेवि-मल्हारो ।। सोहग सुदर तरुणदेह, गुण गण भडारो।
सिसिरि रत्तउ गणइ चित्ति, ससारु असारो ।।२ अन्त-भास-इम विलवतिय रायमई, नेमिनाह परिचत्त ।
परियर कह नवि बूझवइ, विरहानल सतत्त ॥३१ दाणि दलिछ दलेवि, लेवि सं जमु भरु दुद्ध। . केवल नाणु लहेवि, सिद्धि, पत्त उ नेमीसह । भविय जिणेसरभवण रंगि, रितुराउ रमेवउ । कन्हरिसी जयसिंहसूरिकि उ फागु कहवउ ॥३२॥
प्रकाशित-प्राचीन फागु-संग्रह पृ० १२-१६
(१०८) द्वितीय नेमिनाथ फागु गा० ५३
___ सं० १४२२ आसपास
प्रादि-वंदिदि सिवदिवि नंदनु, चदनु जिम जगि सारु ।
गाइसु नेमि कृपागरु, सागर गुणहं अपारु ।१ .. समुद्रविजय नृप संभवु, दंभु विवज्जितु चित्ति
नेमि न यौवनि माचइ, राचइ साचइ तत्ति ।।२ अन्त-केवल नाणिहि वाणिहि, छेदि उ ससय कंदु ।
सीघउ सिवपुरगामिउ, सामिउ नेमि जिणिंदु ॥५२
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