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मरू-गूर्जर जैन कवि धम्मसुरि पट्टि आणंदसरि मुणिवरो, अमरपहसूरि तसृ पट्टि नव
दिणयरो। तासु सीसेण निय भत्ति भरि पणमित्रो सिद्धि सुह देउ पहु वीर जिणसामिग्रो ।।७ कुमय तय दिणिदो पायनम्मामरिंदो. भविय कुमय चदो वद्धमाणो जिणिदो । परमसुह निवासं मुत्ति कंता विलासं, ववगय भव पास देउ नाणप्पयासं ॥८
प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय
(२३) देल्हणि (श्री देवेन्द्र सूरि प्राज्ञा से रचित)
(३०) गयसुकमाल रास गा० ३४ आदि- पणमेविणु सुयदेवी सुय रयण विभूसिय
पुत्थय कमल करी ए कमलासणि संठिय ।।१।।
पभणउौं गय सुकुमार चरित्तु पुवि भरह खिति ज वित्त । अंत- सिरि देविंद सूरिदह क्यो, ख मि उवसमि सहियउ
गय सकुमाल चरित्तू मिरि देल्हणि रइयउ ॥३३॥ एह रास सुयडेयह जाई, रक्खउ सयलु संघु अंबाई । एह रासु जो देसी गुणिसी, सो सासय सिव सुक्खहं लहिसी।।३४।।
(जैसलमेर भंडार) प्र० राजस्थान भारती ३।२ वि० यदि देवेन्द्रसूरि प्रसिद्ध कर्मग्रथं के कर्ता हों तो उनका समय स० १३०० के लगभग है अतः इस रास का रचना-काल इसी के आसपास होना चाहिए।
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