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जयतिलकसूरि
पंद्रहवीं सदी
अन्त-सकल लोक मनि आणंदण पूरउ, सूरउ वर तप तेज । भवीयण जण जिम तम्हि चिरनंदउ, वंदउ मन नइ हेज ॥८ प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय
(१०१ ) जयतिलकसूरि
( ११७ ) गिरनार चंत्य परिपाटी गा० १८
आदि - सरसति वरसति अमियज वाणी, हृदय कमल प्रब्भिंतर आणी जाणीय कविर्याणि छंदो ||
गिरिनार गिरिवरहज केरी, चेत्र प्रवाड़ि करुउ नवेरी, पूरीय परमाणो ।।१
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अन्त-हुँ मूरख पणइ अच्छु अजाण, श्री जयतिलकसूरि बहु मानं, मानु मन मांहि एहो ।
पढई गणइ जे ए नवरंगी, चेत्य प्रवाड़ी प्रतिहि सुचंगी - चंगीय करई सुदेहो ॥१८
प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय
( ११८) आबू - चैत्य परिपाटी गा० १७
आदि- चरण कमल पणमेत्रि भत्ति, सिरि सरसति केरा । चेत्र प्रवाeिs नमिसु देव, आबूय नवेरा ||
मण तण वयण ज उल्हसई, जस दरिसण दिट्ठइं । बहु भव अजीय पाव- कम्म, पण निश्चिई नीठइं ||१
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