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जिनेश्वर सूरि शि०
तेरहवीं सदी
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(२३) मंगल गाथा ४
आदि--जो मंगलु सिरि रिसह नाह मरु देविहि दिन्नउ
जो मगलु नेमिहि कुमार सिव देवि पवन्न उ जो मगलु पहु पास नाइ वम्मा इवि किज्जइ
जो मंगलु च उवीसह जिणह, सुरनाह करहि मेरू वरहि ।
सो मगलु चउविह सु सघ सणि, मिलि ठवियउ सासण सुरिहि ॥१॥ अन्त- कर उ संति संघस्स सति जुगपवर जिणेसर ।
सति सयल लोयस्स सति उद्दयह नरेसर ॥ .अइग-एविहि जाइ राइ विससेणइ नदर । चक्क लच्छि परिचत्त जयइ जिण पाव विहंडणु । कमट्ट कर हि धड़ पंच मुह भविय लोय भव भय हरगु । जय जयहि जयहि जय संनियर संतिनाह सिव सह कर गु ।।४ ।
(२४) गुरु गुण षटपद गा० ८ प्रादि -जिण वल्लह पमुहाणं, सुगुरुणं जो पढ़ेइ वर-कप्पं ।
मंगल-दीव मि कए, सो पावइ मंगलं विमलं ॥१॥ अन्त–जिण वल्लह जिणदत्तसरि जिणचन्द्र जु जिणवइ
तुय सुव्वई आसीस दिति जिरणेसर सूरि भुणिवइ । उयहि जाम जलु रहइ गयणि जाम मह दिणेसरु । ताम पयासिउ सूरि धम्मु जुगपवरु जिरणेसरु ।।
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