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(७८) देवचन्द्रसूरि (८८) रावण पार्श्वनाथ वीनती गा० ९
आदि- रावण मंडण पास जिण, पणमउ तुह पय सामि । महुयर के तकि कुसम जिम, मरण लीणउ तुह नामि । १ अन्त - कलि कप्पद्दम पास जिण, पयड़इ तुह पय सेव । देवचंद सूरिप्पमुह, पाव पंक गय लेव ॥८
मरू - गुर्जर जैन कवि
रावण मंडण भव भय खंडण, पास जिणेसर पय कमल । जे तुझ नमसिइ भत्तिई पसंसई, ते नर पावई सुह अमल || प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय
(७८) अज्ञात (८९) जिनस्तवना गा० १७
आदि- नमिर नर पवर सिरि, हीरमणि अच्चियं. नमवि सिरि सारया, देवि पय पंकयं ।
तयण गुरुराय कम, कमल वदिय सयं भत्त भवियाण, संपावए सुह सुयं ॥ १
अन्त -भव भमण भंजण मोहगंजण, सज्ज रज्जन अत्थउ, दुह दुरिय वारण सुक्ख कारण, प्रवर किंपि न पत्थउं । निय देवी देवा चरण सेवा, करण करुणा सायरा, दइ दाण वंछि पाव वंचिय, सयल सेवई सुरतरा ॥१७
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प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय