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मरु-गुर्जर जैन कवि
गुरु प्रणमीय जय सीयलं सार, दुत्तरु जीव तरय संसार ||१
गरथ तणउ करई परिहारु, सो गुरु जाणे तिहुयणि सारु । बायालीस दोस विसद्ध श्राहारु, सूघउ विहरद्द करइ विचारु ॥२
अन्त - पुष्व भवंतरि सचीया जोइ, पाप सुद्धि सामायक होय । धम्म रई ते प्रक्चिल मत्ति, सामाइक्क सीधउ दमदंत ॥३१ पास जिलेसर तणइ पसाई, विघ्न सवे ते दूरिइ जाई । पंढत्त गुरांत नइ आस, लहई सुखो ते सिद्धि निवासु ॥३२ प्रति० प्रभय०
(१४७) समरा (१७६) नेमि चरित रास गा० २८
प्रादि-तोरणि जादव आइलइ, पसूत्रा दीधा दोसू ए ।
ती कारण प्रभ तजीय रायमइ, नेम चडउ गिरनार रे ।। १ नज सिणगार करि अभिनवा, नेमिकुमर चाल्यंउ परिणिवा | छपन कोड़ि जादव परिवार, हइ गइ संखि न लाभइ पार ॥२
अन्त - असो ग्रमावस केवल नाण, नेमि तणू तु निखार | राजमती सु सु सइ गउ, बावीसय जरणेसर भउ ।
मगति राणी राजल तणउ योग, पढत गरणंता नासइ रोग । नेमिचरित सूसा नारी सुणइ, पाप (प ) णासइ समरुउ भणइ ॥ २८
प्रति० प्रभय
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टि० समरो दे० जे० गु० क० भा० ३, पृ० १४०२