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लखमसीह
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सोलहवीं सदी (१६६) लखमसीह (१९९) शालिभद्र चौपई गा० १०४
सं० १५२७
आदि-प्रथम विनवउ प्रथम विनवउ देवि सरसत्ति । .
कासमीरह मुख मडणीय, हंसगमणि कर कमलि वंगिय । गायंती महुर सरे सुकवि, कंत नव नेह रजिय । वीणा पुस्तक धारणीय, सातय सर पयडति । सा सरसति निय रुलीय भरि, जिणह भुवणि गायति ॥१ पहिलउ वीनवउ सारद माय, लघु दीरघ जा आणइ ठाइ । कूड उ अक्खर राखे होइ, तिम करि जिम सलहइ सहकोइ । दियउ दानु धनु वे बउ ठांहि, पुहिहि (भहु?) सहु रहइ कलि माहि । दान सील तप भावन वर उ, भव समुद्र जिम लीला तरउ ॥३ जा अछइ कसमीरह देसि, हंस गमणि सेयं वर वेसि । उर पिहर विजयवंती माल, करि वीणां वर वाइ ताल ।।४ लखमसीह कवि बोलइ एहु, भवियउ निसुण कन्नि सुणेहु ।
पढत गुणंता नासइ दूरिउ, सालिभद्र वखारणु चरिउ । ५ अन्त- महा विदेहि मरणया ? भव लहि (य), सिद्धि रमणि ते वीरेसइ
सही । सालि भद्द जे चरिउ पठंति, भाव भगति जे नरनि सुणंति । हरषि जाई जिणहरि जे देंति, मुगति रमणि फल ते पावति ।।१०४
इति शालिभद्र चतुष्पादिका चरित्र समाप्त । लेखन काल- संवत् १५२७ वर्षे भादवा वदि षष्ठी बुधवासरे लिखितमिदं
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