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जिनप्रभसूरि शिष्य
चौदहवीं सदी
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हव पुण थाकई जे दिण केई, सफल करउ ते अणसणु लेई । इम भणि संधु कमावइ सुहमणु, एगारस दिण पालइ अणसणु ॥३८ मुणिहिं गुणीतइ समइ सुहारसि, बाहत्तरइ माह वदि बारसि । गच्छ सीख देविणु मह चित्तू, हेमतिलय सूरि दिव संपत्तू ॥३६ जस महिम करंतइ, जणि गुणवंतइ, जिण सासरण उज्जोइयो । सो गुरू निय गच्छह, अणु मणि सत्थहं, संघह मण वंछियदियो ॥४०
इति श्री हेम तिलक सूरि संधि ॥ प्र० परिषद पत्रिका
प्राप्ति-अभय जैन ग्रन्थालय
(३४) ख० जिनप्रभसूरि शिष्य (४४) जिनप्रभसूरि गीत त्रय
सं० १३८५ लगभग (१) आदि के सलहउ ढीली नयरु हे, के वरनउ वखाणू ए ।
जिनप्रभसूरि जग सलहीजइ, जिणि रंजिउ सुरताणू ए॥" अन्त-ढोल दमामा अरु नीसाणा, गहिरा वाजइ तुरा ए।
इण परि जिणप्रभसूरि गुरु प्रावइ, संघ मणोरह पूरा ए ॥६
(२) आदि-उदयले खरतरगछ गयणि, अभिनवउ सहस करो
सिरी जिणप्रभसूरि गणहरो, जंगम कलपतरो॥१ तेर पंचासियइ पोस सुदि पाठमि सणिहि वारो।
भेटिउ प्रसपते महमदो, सुगुरि ढीलिय नयरे ॥२ अन्त-सानिधि पउमिणि देवि इम, जगि जुग जयवंतो
नंदउ जिणप्रभसूरि गुरो, संजमसिरि तणउ कंतो ॥१०
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