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मरू-गूर्जर जैन कवि अन्त-सिरि पास जिणेसरु भुवण दिसरु, जीगउलि रमणी तिल उ । सुरनर गणि महियउ भाविण मइथुणिय उ, उदयकरण भवि
भवि सरगु ।। प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय
(९६) श्री फलवद्धि पार्श्वनाथ स्तोत्रम् गा० ८
आदि -जय फलवद्धिय पुरि रमणिहार, जय पास जिणेसर भवण सार । जय जण मण चितिय सुह दतार, जय दस दिसि पसरिय जस
विचार ॥१ अन्त-फलवद्धिय मंडण दुरिय विहंडणु, पास जिणेसर उदयकरणु। तुह चलणि विलग्गउ ह इत्तउ मग्गउ, भवि महु तुह सय
सरणु ॥८ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय
(८६) विनयप्रभ (बोधिबीज)
श्री जिनकुशल सूरि शि० (९७) श्री सीमंधर स्वामि स्तवनम् गा० २१
आदि-नमिर सुर असुर नर विंद वंदिय पयं,
रयणि कर कर निकर कित्ति भरपूरियं । पंच सयं धणुह परिमाण परि मंडियं, थुण भत्तीइ सीमंधरं सामिय॥१
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