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मरू-गूर्जर जन कवि खाह पियह धनु विद्रवह वाहि अवारिय सत्तु ।। जं जं भावहि तं करहि, किवणु भणइ विहसंतु ॥६
प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय
(४१) अज्ञात (५१) श्री चतुर्विशति जिन चतुष्पदिका गा० २७ प्रादि-माय पियर लंछण नयर तणु पमाण वर वन्न भिहाण सत्त-ठाण
संजुत्त जिण । चउवीसवि घण गुणह निहाण, अरशु दिणु सुमरहु भविय जण ।।१ अन्त-पढइ गुणइ सो सुणइ विचारु, सो नरु पावइ मोख दुवारु । सासण देवि हरउ दुह दूरि, पूरउ संघ मणोरह भूरि ॥२७
प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय
. ४२ शांतिभद्र
(५२) चतुर्विशति नमस्कार गा० २५ आदि-पढम जिणवरजण मणाणद,
सरनाह संथुय चलण भरह जणय जय पढम सामिय । संसारवण गहण दव चत्त दोस अपवग्ग गामिय ।। लोयालोय पयासयर, पयडिय धम्माहम्म
सविहाणउतह रिसह जिण, दुज्जय निज्जिय कम्म ॥१ अन्त-जसु सावयरसाहु वर चित्त
सुपसत्थ सुपसन्न मण निसि विरामि थिरु करिवि नियमण
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