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आदि
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मरू-गूर्जर जैन कवि
(२१) अज्ञात
( २८ ) मयणरेहा रास गा० ३६
तां राणी ।
र रूबह लीला दवंदती, रायमए जिम नेहु करती ॥६॥ समकितु अविचल हियइ धरती, जिण गणहार पय पउम नमंती | चन्द्रजसे कुमर सोहंती, गमइ दीह सा बहु गुणवंती ॥७ ॥ ग्रह जातरि ईसि हसंती, उरि एकावलि हारू वहती । करयलि लीला कमलु करती, कल कंठी जिम किंपि भांति ॥ ८ ॥
परख मणिरहु राम्रो, हा धिगु पेखइ कम्म विवाओ । पेखिउ मयणा मुह रमणीसरू, तो सायरू जिम नहासिउ नरेसरू ॥ ६ ॥ जं नवि वेय पुराण सुणीजइ, जं चिय पामरि लोइ हसीजइ । तपि नरेसर मंडिउ कजू, पेखउ मयण महाभड़ रजू ||१०|| कुलि कमलेहिम बुद्धि करतर, नियगुण वल्ली अग्गि दहंतउ | हाहारत तिहुयणि पावतउ, मणिरहु मयणा मदिरि पत्तउ || ११||
अन्त -- जिणहरि पूजिउ मल्लिनाडु, पवतिणी पण मेई ।
मिल्हिउ वालह तणउ नेहु, तउ दिक्खा लेई ॥ कुमरह सयलह जिणह वर्याणि पड़िबोहु करती । केवल नार धरेवि मयण, सा सिद्धि पहूती ||५|| सयलह रयणह वयर रयणु, जिव मूल न जाए । तिम जिम सामणि सीलु - रयरणु कवि कहण न माए । वीर जिरणेसर जाम तित्थु, अनुसूरू पयासइ ।
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ता चिरूनंदउ एहु चरिउ, अनु मयण महासइ |9|| छ ॥ मयण रेहा रास समाप्तः ॥छ ।
प्र० हिन्दी अनुशीलन