Book Title: Dharmpariksha Kathanakam
Author(s): Saubhagyasagar Gani, Rangvimal Gani
Publisher: Muktivimal Jain Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ croommmmxmconnecoooooooooooompoooooooo का aam00000000000000mmomir न कि म क न । पं. श्री मुक्तिचिमलजी जैन ग्रन्थमाला प्रन्यात १३. पं. श्री मुक्तिबिमलजी जैन ग्रन्थमाला प्रन्थाः १३. _ _ _ _ वा न शांतमूर्ति पं. श्री दयाविमलजीगणिवरपादपद्मभ्यो नमोनमः पंडितप्रवर श्रीसौभाग्यसागरगणिविरचितम् ॥ श्रीधर्मपरीक्षाकथानकम् ॥ सकलसिद्धांतवाचस्पति-बालब्रह्मचारी-अनेकसंस्कृतग्रंथप्रणेता-श्रीमद् पंन्यासप्रवर मुक्तिविमलजी गणिवरान्तेवासी विद्वय-व्याख्यानवाचस्पति-कविदिवाकर श्रीमत्पन्यास रङ्गविमलगणिवरोपदेशेन मालवाडानिवासीस्वर्गीय श्रेष्टिवर्य उमाजी ओखार्जा स मनुभाई मुलचंद च मगनलाल चीमनलालस्यार्थिकसाहाय्येन श्रीमुक्तिविमलजीजैनग्रंथमालायाः कार्यवाहकेन शांतिलाल हरगोवनदासेन प्रकाशितम् । वीर सं. २४६८. ज्ञानत्रि सं. २१६. वि. सं. १९९८. मुक्ति. सं. २४ प्रत ५०० ___ साधु-साध्वीने भेट. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान शाह शांतिलाल हरगोषनदास ठे. देवीशाहनो पाडो मु. अमदावाद नगरशेठ मणिलाल मोहनलाल दोसी ठे. दोशीवाडो मु. विजापुर [उ. गुजरात] शाह. ममुभाइ मुलचंद मुलजो जेठा मारकीट गणेशवाडी मु. मुंबई शाह मगनलाल चोमनलाल मुलजी जेठा मारकीट माधवराय गली मु. मुंबई ___ मुद्रक-शेठ देवचंद दामजी आनंद प्रेस-भाषनगर. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ अहं नमः ॥ प्रस्तावना अनादिकालथी निरन्तर परिवर्तनशील आ असार संसारमां विविध प्रकारनी धर्मोनी प्रवृत्ति दृष्टिगोचर थई रही छे, यद्यपि पूर्वाचार्यांने भव्यात्माओना उद्धारने वास्ते व्या. न्या. काव्य, कोषादि अनेक ग्रन्थरत्न बनाव्या छे, तथा अनेक मव्यजीवोने बोधप्रद चारित्रो बनाव्या छे. तथा संप्रति वर्तमानकालमां पण अनेक ग्रन्थरत्नोनो आविष्कार थई रह्यो छे, एमां पण अमूल्य ग्रन्थरत्नोमांथी एक अमूल्य ग्रन्थ अत्यार सुधी अप्रकाशित रह्यो हतो जेनुं नाम “ श्रीधर्मपरीक्षा कथानक " छे. आ अग्थ अत्यंत अपूर्व छे. मां मनोवेग ने पवनवेग नामना बे मित्रोनो संवाद अतीव रमणीय ने ग्राह्य छे. ज्यारे पवनवेग दैववशात् वीतराग भगवानना धर्मथी बहिर्मुख थई अन्य धर्मावलम्बी थई गयो त्यारे मनोवेगे विद्वानोनी सभामां रूपान्तर करीने पवनवेगने दृष्टांत तथा द्राष्टतद्वारा प्रतिबोध आप्यो, विविध प्रकारनी युक्तियोथी समजावीने वीतराग प्रभुना धर्ममां स्थिर कर्यो, अने पचनयेगे पण पोतानी मूल स्वीकारीने मनोवेगना वचननो स्पीकार कर्यो. तेवी रीते सत्यमार्गना इच्छक भव्यात्माओए मनोवेग तथा पवनवेगना समान सच्चारित्रोनुं पठन-पाठन करीने तथा आ अनुपम ग्रन्थनुं आदि अन्तनुं अवलोकन करीने लाभ उठावे ने सत्यासत्यनुं अन्वेषण करीने वीतराग प्रभुना धर्ममां स्थिर कामना राखे एज सद्ग्रन्थोनो पढवाने सार छे. ग्रन्थकारना जीवनपरिचय संबंधी विशेष माहिती नथी मलती परंतु तेमनी लखेली पट्टावली उपरथीज तेमना समयनो Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख्याल आवे छे. पू. इन्दुरिजीथी मांडीने अन्धकार सुधीना पूज्य पुरुषोए लखेला ग्रन्थो तेमना समयनो निर्णय आपे छे तेमनी परंपरामा थयेल पू. उदयवल्लभमूरिजीना शिष्य बानसागरसूरिए विमलनाथचरित्र रच्युं छे. तेमज " लब्धिसागरमूरिभ्यो नमः " करीने शरुआतमा लख्यु छे ते लब्धिसागरसूरिजीए सं. १५५७ ना वर्षमा संस्कृतमा श्रीपालचरित्र लख्यु छे अने तेमचा शिष्य आ पू. सौभाग्यसागरजी छे जेमणे आ ग्रन्थ संवत् १५७४मां लख्यो छे. आ ग्रन्थना शोधक अनंतहस छे. तेमने इडरमां उपाध्याय पंद आपवामां आव्युं छे, अने तेमणे सं. १५७१मा दश द्रष्टांत चरित्र लखेल छे, एथी पू. सौभाग्यसागरजी बने संशोधक समकालीन छे ते बराबर समजाय छे. तेमज ग्रन्थमा जणावेल पट्टावलीमा सूचवायेल पूर्व सुरिवरोए " सिद्धहेम" लखाव्याना तथा बीजा ग्रन्थो बनाव्यानी पण सविशेष नोंध मले छे. धर्मपरीक्षा* ग्रंथ बेत्रण छे छतां आनी रचना सुंदर, सरल अने हृदयंगम छे ते जोवाथी समजाय तेम छे.. ___सर्व मुमुक्षुओने आ पुस्तक मेट आपवा निर्णय कयों छे कारण के सौ विना परिश्रमे विशेष लाभ उठावे ते ज आशय छे. अने जे प्रमाजे आ पुस्तकनो जेटला प्रमाणमा लाभ उठावशे तेटला प्रमाणमां आ प्रकाशन सफल थयुं मानशुं. पूज्यपाद ब्याख्यानवाचस्पति कविदिवाकर गुरुदेव पन्यासजी श्री रंगविमलजीगणिवरान्तेवासी मुनि कनकविमल * जेनुं भावनगरमां आवेली श्री जैन धर्म प्रसारक सभा तस्फथी भाषाम्तर थयुं छे, CREAMREKAXXXXXXXXXXXXXX881 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gamayanayanent आभारप्रदर्शन waterayer Prod°0, 3000000000000000000000000 । प्राभ Cooreed*000000000000000000@ G ०:09 DADA.CO.NOORD-9000 आ धर्मपरीक्षा कथानकनो ग्रन्थ प्रकाशन करवामां खुडालानिवासी शेठ पृथ्वीराज, भभूतमल, ओटरमल, हजारमिलजी तरफथी रु. ३००) त्रणसो ने मालवाडानिवासी स्वर्गस्थशेठ उमाजी ओखाजी ते शा. मनुभाई मूलचंद ने शा. मगनलाल चीमनलाल तरफथी रु. ३००) त्रणसोनी मदद मली छे ते बन्ने सद्गृहस्थोनी आर्थिक सहाय्यथी आ ग्रंथ प्रकाशित करवामां सफल थया छीए. उपरोक्त बन्ने सद्गृहस्थो स्वोपार्जन करेली लक्ष्मीनो हमेशां आवं साहित्य प्रकाशित करवामां व्यय करे एज इच्छा ॥ ॐ शान्तिः ३ । Dekno@GOOGOOGGODonlo DEMOCKGROCO DEODODENDEGDOGIDOSODEDOOGOODon: 00 Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ परमपूज्य महा क्रियायोगी निष्कलंक चारित्रचूडामणि सकलसंवेगी शीरोमणि विभातेस्मरणीय तपागच्छाधीश्वर श्रीमत्पंन्यास गुरुवर्य श्री दयाविमलाष्टकम् || शिखरिणी ॥ विलोले संसारे निखिलजनराशौ स्थिरचरो, यतः कम्पाभावाद्भवति च महाप्रेमनिवहः । भजन्ते यदर्या हृदि च मुनयः शान्तमनसो, हृदा तङ्कौ वन्देगुरूदयदया वैमल मुनिम् यतः स्वान्ते शान्ति जिनपतिकजांड्रौमतिरसो, यतो धर्मे प्रीतिः कुमतवनदाहे शिवततिः । लभन्ते वै यस्मादिह च मनुजाश्चिन्तितफलं, हृदा तङ्कौ वन्दे गुरूदयदयावै मलमुनिम् यतो हेये ग्राह्ये भवति च विचारो जनिजुषां विवेकाम्भः शुद्धे मनसि समुदेति प्रतिजनम् । निजात्मायो भावः सुगतिपथदाता भवहरो, हृदा तङ्कौ वन्दे गुरूदयदयावैमलमुनिम् पदैर्यो पंन्यासाभिघविमलसंज्ञैः सुविदितो, धिया भावान् त्यक्त्वा भवभवचिताञ्जन्मददकान् । विरागी मोक्षेहः समजनि महापुण्यजलधि-ईदा तङ्कौ वन्दे गुरूदयदयावै मलमुनिम् निरागारो भृत्वा विरतिवनचारी व्रतधरः प्रभूतान्भूतौघान् निजमधुरवाण्या शुभपथि । शनैः कीर्तिभ्राजी विदधदमलो योऽत्र मुनिराड्, हृदा तङ्कौ वन्दे गुरूदयदयाचैमलमुनिम् १ दयाभावात्, ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ 8888888 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXXXXXXXXX ॥६॥ ॥७॥ भ्रमन्ममौ भूमा जिनमतसुबोधी घनगुणः, क्रियाधर्मोद्धारं प्रतिनगरमागे जनहितः तपोनिष्ठः कुर्वन् बुधजनमहामान्यचरितो, हृदा तडौ वन्दे गुरुदयदयावैमलमुनिम महाप्रीतिर्हृद्या दुरितगजयथार्जमृगपे, ह्यभूदस्यामोधे । जिनगृहमहावैमलगिरौ। जिनादेशग्राही भविजनमनोनीरजरवि, हुंदा तकौ वन्दे गुरूदयदयावैमलमुनिम् महानन्दः संघो विमलगिरिराजस्य बहुशो, यदादेशभक्तः कुगतिमुषि निष्काशित इह । धिया ध्येयः पुंसां सुमतिसरलो ज्ञानमहितो, हृदा तङ्को वन्दे गुरूदयदयावैमलमुनिम् रम्ये शुमे पुरवरे खुडलाभिधाने, सप्ताङ्कतचविधुवत्सरबाहुलाख्ये। मासे सिते रचितमष्टकमच्छदर्श पंन्याससंज्ञमुनिरङ्गमहोदयेन भक्त्याऽटक प्रतिदिनं भुवि यः शरीरी निर्दोषशुद्धमनसा प्रयतः प्रभाते । दिव्य पठेदिह परे सुखराशिभोक्ता जाजायते निजमनो बहुधा प्रमाणम् । २ समर्थमहिमा, ३ पृथिव्यां, ४ बलम् , ५ अमोधे, सफले, ६ कार्तिक पूर्णिमायां । ॥९॥ ॥१०॥ XXXXXXXXXXXX Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EEEEEK परमपूज्य महान् क्रियोद्धारक शासनसम्राट तपागच्छाधिपति श्रीमद् आचार्यदेव ज्ञानविमलसूरीश्वराष्टकम् ॥ शार्दूलविक्रीडितम् ॥ वन्द्यान्वन्यतमाञ्जनोत्तमशिरः प्रासूनमालाश्चितान् वादोदर्पसुप्रज्ञमण्डलजयस्फाराच्छकीर्तित्रजान् । प्रोद्धी डिण्डिमनादनादित के कुव्वास्तव्यजीवोत्करान् वन्दे, ज्ञाननिधीन् गुणैः सुविभलान् श्रीज्ञानसूरीश्वरान् विश्वप्राणिसमानभावविलसत्सत्तच्च बोधोद्धरान्, सद्धर्मो घृतिदत्त शुद्धधिषणाऽलङ्कारदिव्यत्तनून् । विद्वन्मान्यसुदेशनाऽमृतरस प्रक्षालितैर्नस्ततीन, वन्दे ज्ञाननिधीन् गुणैः सुविमलान् श्रीज्ञानसूरीश्वरान् गोत्रा पूतसुर्पू: परिभ्रमपटून् श्रीजैनधर्मालयान, मिथ्यामोहगभीरगर्त पतितानेकोङ्गिबोधप्रदान् । द्राक्षेक्ष्वा प्रसुमिष्टवाक्यकलनास्वात्मीक वेला जनान्, वन्दे ज्ञाननिधीन् गुणैः सुविमलान् श्रीज्ञानमूरीश्वरानः सज्जज्ञानाच्छसुदीप्तदीपकलिकाप्रादर्शितांहोगतीन्, श्रीमत्तीर्थ पतड्यपादकमलप्रोल्लासिरागो मतीन् । तद्वाणीप्रथनैकहृद्यमनसः सद्बोधधारारतीन्, वन्दे ज्ञाननिधीन गुणैः सुविमलान् श्रीज्ञान सूरीश्वरान देवोदासरस्वतीरसमयान् ग्रन्थानने कांश्च ये प्रश्नव्याकरणादिसूत्रदशमस्याङ्गस्य टीकान्था । जग्ग्रन्थुः करुणाक्तहृद्यहृदयास्तान्धीमहासागरान् वन्दे ज्ञाननिधीन् गुणैः सुविमलान् श्रीज्ञानसरीश्वरान् १ दिगू, २ एनः पापम्, ३ पृथिवी, ४ मुनगरी, १ प्राणी, ६ घरा, ७ पपम्, ८ गीर्वाणवाणीमयान् । ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैलोक्या जठरे विभान्ति शतशोवन्यानि बिम्बानि बै, श्रीमतीर्थजुषाञ्जनायहरतां यैः कारित सरिमिः। तेषां स्थापनमनाचनविधिस्तान्मौलिना भूस्थिो, चन्देशाननिधीन् गुणैः सुवियनान् श्रीज्ञानसूरीश्वरान संघो यैः सुरताभिधाननगरानिष्काशितो हिमा, श्रीसिद्धाचलमेरुराजशिखरस्यानन्द : सद्धियाम् । ध्यानानन्दनिमग्नमानसरूचीन् सारणाभावितान्, वन्दे ज्ञाननिधीन गुणैः सुविमलान् श्रीज्ञानसूरीश्वरान् दिव्यत्कोविद मण्डलौसमुकुटैZर्ज्ञानयोगीश्वरः, पूर्वातेषु परोपदेशनिपुणैजैनिक्रियो चोद्धता ज्ञानं तद्रहितं न भाति विमलश्चत्थं क्रियाकारकान्, वन्दे ज्ञाननिधीन गुणैः सुविमलान् श्रीज्ञानम्ररीश्वरान् ॥८॥ अशाडूतत्वेशर्शिवत्सरमार्गमासे, रम्येऽसितेऽनलतिथी विधुवासरे वै पंन्याससंज्ञमुनिरङ्ग-तपोधनेन, मक्याऽष्टकं विरचितं गुरुगौरवाढ्यम् ( नगरे खुडाले ) ॥९॥ देही विमत्सरधियाकिल यतप्रभाते, मूत्वा शुचिः प्रतिदिनं मनसोऽभिबुद्ध्या संरुध्य खानि पठताल्लभतामिलायां, चित्तानुकूलकमलां विमलां सुकीर्तिम् ॥१०॥ १ उदरे, २ अञ्जनशलाका, ३ शिरसा, ४ भूयान्, ५ नगरसमहेषु, ६ तृतीयायां, ७ इन्द्रियाणि, ८ पृथिव्याम् । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री पार्श्वनाथाय नमः।। ॥ जगत्पूज्य शांतमूर्ति श्रीमत्पन्यास दयाविमलगणिवरपादपद्धेभ्यो नमोनमः ॥ ॥ पू० पंडित प्रवरश्री सौभाग्यसागरविरोचत् ॥ ॥श्री धर्मपरीक्षाकथानकम् ॥ Keramश्री लन्धिसागरमरिसद्रुभ्यो नमः प्रथम परिच्छेदः अर्हसिद्धपतीन्द्रवाचकयति । श्रेष्ठाः प्रतिष्ठासदम्। पंच श्रीपरमेष्ठिनो विदधतां श्रेयाश्रियं शाखतीम् । कि 'भीमाटनदुःखखानिविलसत्संसारदन्तावलोत-सर्पदर्पसमायने सममहः पञ्चास्यरूपा इव यात्याः पदोपास्तिवशाजाडोऽपि विनाऽभयं वाङ्मयपारमेति, सदा निदानंदमयस्वल्या सा भारती रातु संत विरामे ॥२॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ १ ॥ REESEX881 लब्धिसागरसूरीन्द्राः प्रसभास्ते भवन्तु मे । यत्प्रसतेरहं किञ्चिदिह जानामि बालिशः कियन्तः सन्त एवात्राथना सन्तु सहस्रशः । कस्यचिद्रूषणोच्चारे निष्णाता नैव किन्तु वे अथ चेद्दषणोद्धारे सर्वे ते सन्ति शिक्षिताः, तर्हि ते न प्रतीक्षन्ते यावद् याचां वरोद्यमाः दोषाभावं यथाऽऽदित्याः स्वयं कर्त्तार एव ते । सतामभ्यर्थये किन्तु कृत्वाऽञ्जलिमिमं सममू जैनधर्मस्थापकस्य ग्रन्थस्यास्य पदे पदे । दृष्टिर्देया विधायोच्चैः कृपां भोः ! साधवोऽभितः विश्वे समस्तवस्तूनां परीक्षा मदिता बुधैः । तां विना कोऽपि भूमिस्पृक् न संगृह्णाति किञ्चन विशेषतस्तथा धर्मः परीक्ष्यः सुपरीक्ष्यकैः । यतः शुद्धो गृहीतः सन्मोक्षसौरव्याय जायते तस्यावदातधर्मस्य श्रीगुरूणां सकाशतः । परीक्षा नान्यतः प्राप्या यथा शास्त्रे निवेदितम् इह लोकविधीन् कुरुते स्वयं जनो नतु गुरुं विना धर्मम् । अश्वो हि तृणानत्ति स्वयं घृतं पाय्यतेऽन्येन अवगत्य जिनेन्द्रोक्तमतो धर्मस्य लक्षणम् । सम्यक् तनिश्चयः कार्यों नरैरात्महितार्थिभिः यथा स वायुवेगेन मनोवेगेन सद्धिया । परीक्षाऽकारि धर्मस्य केवलज्ञानिवाक्यतः तथाहि - जंबूद्वीपाभिघो द्वीपः सुवृत्तः सुभगाकृतिः । लक्षयोजनमानेन विस्तृतो वेष्टितोऽब्धिना तत्रास्ति मरतक्षेत्रं सर्वमध्ये समुभतिम् । सिद्धाचलादिसत्तीर्थसम्पदाऽमिनिभर्ति यत् 11 3 11 ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ ॥ ७ ॥ ॥ ८ ॥ ॥ ९ ॥ ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ ॥ १४ ॥ ॥ १५ ॥ प्रथम परिच्छेदः ॥ १ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहास्ते भूमिवामाधीशीर्षसीमंतसबिभः। वियच्चरनिशांताढयो वैताढयो नाम भूधरः ॥१६॥ रत्नौधरुचिरो दिक्षु शृंगश्रेणिफणागणः । यः शेष इव निर्यातः स्वरूपक्षापनाकृते तत्रोदीच्यामपाच्या द्वे स्यातां श्रेण्यो श्रियाऽश्रिते। पुराणि षष्ठिपश्चाशत् तयोः सेव्यानि खेचरैः निषेव्या येषु नित्याहातिमा प्रन्ति कल्मषम् । दीव्यधुताशनस्येव शिखास्तुहिनसंहतिम् ॥१९॥ चारणा यतयो यत्र जंघाविद्याविभेदतः । समापयन्ति मिथ्यात्वगरलं वचनामृतः ॥२०॥ श्रेण्यामासीदक्षिणस्यां वैजयन्तीतिनामतः। नगरी न गरीयस्या वर्जिता सा सुसम्पदा ॥२१॥ देव्योंगनाभिर्देवेशः खगेंद्रेण सुराः खगैः । नंदनं वनराजीभिर्विमाना भवनैनवैः ॥२२॥ दंतावलैश्चतुर्दतो गायनैर्देवगायनाः । जीयेरन् स्वश्रिया सा पू: शक्या वर्णयितुं कथम् (युग्मम् ) ॥ २३ ॥ पम्मिल्ले बंधनं यत्र स्नेहहानिस्तु दीपके । करपीडनमुद्वाहे कलिस्तरुषु दृश्यते ॥२४॥ सद्धर्मकारमेषु प्रबंधास्तिथिषु क्षयः । सनिपातश्च तालेषु गुल्मित्वं वनभूमिषु ॥२५॥ चापल्यं च पताकायां दण्डः प्रासादमूर्धनि । खड्गे नित्रिंशता मारि रक्षेषु न पुनर्जने (विशेषकम्) ॥२६॥ नदहिरहत्सदनेषु नाट्य क्षणे गमीरक्वणनैर्मृदङ्गः। यत्राफलचारुमयूरपड्क्ते वर्षा विना नीरदगर्जिताशा ॥२७॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRIERMA प्रथमः परिच्छेद धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥२॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ नाखण्डि पाखण्डिजनेन धर्मभावः सतां सम्धृदि भाषमाणः। कोत्करेणोदयशैलशीर्ष पूषेव भीमं धनतापि यत्र तस्यामनभोगेन्द्रो जितशत्रुर्धराधिपः । न्यायवृक्षवसंतश्री:, विक्रमाक्रान्तविष्टप: गर्जज्जगद्व्यापि यशो यदीयं सार्क द्विषद् दुर्यशसा समेन । दिग्योषितां मञ्जुलमाल्ययुक्तधम्मि ल्लशोभा दधते स्म दिव्याम् दीप्रप्रतापदइनो निवहनम्यां यस्य प्रतापि बडवामिजिगीपयेव । पाथोनिघौ विशति विद्रुमदमतः कि संशोषयमपि यशोभवनं रिपूणाम् प्रियाऽस्यासीद्वायुवेगा प्रेमपात्रमनिदिता । या पोव हरेः शंभोरुमाग्लाश्च कौमुदी यस्याः पुरोगांकुरिता शयाम्यां फुल्ला सुदृग्म्यां फलिता कुचाम्याम् । युवाक्षिभृङ्गः परिगाहमाना प्रत्यग्रतारुण्यलता विरेजे यस्याः सुशीलवतशीलनाया वक्त्र श्रिया निर्जितमम्बुजन्म। अंत:पयोदुर्गमिव प्रविश्य तेथे तपस्तीव्रतमं जयाय पचा कि स्वयमागता मधुरिपोर्देवस्य वक्षःस्थलात, क्रोधाद्भर्तुरुतावतारमकरोत्पृश्यां कुमारी सुरी। नीलोत्फुल्लपयोजपक्ष्मललसम्मेवामिमा मानिनीम्, दृष्ट्वा सन्मतयो मता मतिमतामेवं स्फुरन्ति स्फुटम् ॥३३॥ ॥३५॥ ॥२॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३६॥ ॥३७॥ ।। ३८॥ ॥३९॥ अंजानस्य तया सार्ध भोगान भूमीभुजो मुदा। बहवो वत्सरा याता एकवासरसनिमा: साऽसूत समये मर्नु मनोवेगाहमन्यदा । सहस्रांशुमिव प्राची रत्नं वा रोहिणाद्रिमः कलाकलापेन विशुद्धवृत्तिः शीतद्युतिर्वा प्रहितान्धकार । . दिने दिने वृद्धिमितः स पोतः सार्ध गुणैः कुन्दहिमाद्रिशुद्धैः अमेयसत्या खचराधिपानां जग्राह विद्याः सकलाः कुमारः। पयोधि रामा इव वेलयाब्धिः पद्माश्रितः प्रोन्नतिमानगाधः यो नीतिरीतिप्रततो पयोदो वाल्ये 'विपश्चिजनमोददाता। बभार सम्यक्त्वमुदारचेता (2) सत क्षायक कर्मकृशानुवारि प्रियपुरीशस्य सूनुहृद्यविद्यादिसद्गुणी । पवनोद्वेग इत्याहः सखाऽऽसीत्तस्य सुन्दर अन्योज्यं न क्षमौ स्थातुं क्षणं तौ प्रीविनिर्मरौ। दिनार्थाविव लोकानामभूतां मार्गबोधको दुर्भद्यमिथ्यात्वतमोऽवलीढः प्रियापुरीशस्य सुतो बभूव । जिनेन्द्रधर्मेऽतिपराङ्मुखोऽयं यशाम्रवृक्षे करभो विमेधः मिथ्यात्वयुक्तं तं वीक्ष्य जिनधर्मपराङ्मुखम् । मनोऽतरे मनोवेगोऽचिन्तपद् दृढधर्मधी: पतन्तं सहदं दुःखे वारवामि कुहेतुकम् । तं मित्रमाहुविद्वांसो धर्मे यो योजयेज्जनम् ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REMORE प्रथमः धर्मपरीक्षा कथानकम् परिच्छेदः ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ यता-पापं निवारयति योजयते हिताय । गुह्यं निगुहति गुणान् प्रकटीकरोति । आपद्गतं च न जहाति ददाति काले। सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः असौ मिथ्यात्वमुत्सार्य योज्यो धर्मे मया कथम्। चिन्तयन्मेवमनिशं स निद्रा लभते स्म नो जिनचैत्यानि लोकेऽस्मिन् वंदमानो भ्रमत्यसौ । यतः कुर्वन्ति नालस्य धर्मकार्ये कदोत्तमाः प्रवंद्य जिनपादस्य बलमानस्य चैकदा । विमानं स्खलित स्त्रीय विमानाध्वनि वायुगम स्खलितं द्वेषिणेदं किं लन्धिमाजाऽथ साधुना । कुमारो व्याकुलः सोऽपि दध्याविति हृदन्तरे ततो विलोकमानोऽसौ स्वस्थीभूय घरामधः । ग्रामाकरपुरीरम्यानपश्यद्देशमालवान तदन्तःस्थामालुलोके विशालां विमलालयाम् । प्राकारपरिखोद्यानवेष्टितां स कुमारराट् अस्त्युदीच्या महोद्यानं नानानोकुहराजितम् । सर्वर्तुमिश्वारुचेष्टैविगाह्यमविरोधकैः तत्रापश्यन्दमुनीन्द्रं स केवलज्ञानभासुरम् । मरुकृताऽर्जुनावस्थं धर्म दिशन्तमुत्तमम् तं यतीन्द्रं निरीक्ष्यासो नरामरनिषेवितम् । मुदमाप कलापीव गर्जन्तं घनमुनतम् ततो विमानं सत्यज्य घरामवततार सः । आगमव्याहतश्री?कविंशतिगुणालयः विधीयाभिगमान्पंच मुनिमानम्य सन्मनाः । सभायां कृतशोभायां स निविष्टो नृपात्मजः मुनिना देशनाऽब्धा तमः प्रलय भानुभा । सुधानुसारिणी भव्यतम वीक्ष्य विशेषतः ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५४॥ ॥ ५७॥ ॥ ५८ ॥ ॥३॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६२॥ ॥ ६४॥ RAKAKKAKKAKXEXKAKKARXXXXX mernamannmannnnr तथा च-संसारे भ्रमता दुःखसुखयोरन्तरं महत् । तत्वतो जायते काम मेरुसर्षपयोरिव रत्नसानूप में दुःखं संसारेणूपमं सुखम् । संसारत्यजनोपायो नित्यं चिन्त्यस्ततो बुधैः सृजन्ति मोगभजनमणुमात्रसुखाय ये । मन्येऽहं शीतनाशाय व्याधामाग्निं भजन्ति ते मृग्यमाणस्तुषारस्तु जातु वहौ विलोक्यते । अंतर्भ सुखवं नास्ति कथंचन कदाचन मूर्खा वैषयिकं दुःखं मन्यन्ते सुखसंज्ञया । प्रदीपः किं न विध्यातो वृद्धो दीपः प्रजलप्यते मन्यन्ते विषयव्याप्ता दुःखदं शर्मदं जडाः । धत्तरिता विपश्यन्ति सर्व स्वर्णमयं जगत् प्राप्तं यद्धर्मतः शर्म सेव्यं स्वधर्मरक्षया । शाखिनो हि फलं भूतं सेव्यते शाखिरक्षया पश्यन्तस्तमसो दुःखं तमो मुश्चन्ति पण्डिताः । विदंतः पावका दाहं पावके प्रविशन्तिके धीमन्तो धनिनो धन्याः स्थामवंतो यशस्विनः। कुलीनाः शालिनोमोगा जायन्ते धर्मतो जनाः निःपुण्यका जना द्वेच्या निःस्वा दौर्भाग्यमाजिनः । जायन्ते पापतो मंदा व्याधिताः क्षुधिताश्चलाः यान्ति दन्तिनमारूढा पुण्यतः पुरुषार्चिताः । पापतः पुरतस्तेषां धावन्ति लोकनिदिताः देव दुमा व द्रव्यं केचन यच्छन्ति पुण्यत । प्रसार्य पाणिमन्ये तु याचा कुर्वन्ति पापतः रामा मनो रमायन्ति पुण्यादेववशाः समाः। झंपानंतमिमे दीना वहन्ति हृदि दु:खिताः कृतिनः प्रिययाश्लिष्टाः शिरोगृहेषु शेरते । अधमाः कुर्वते तेषां रक्षणं दुःखमाजनम् BORDERAYAKKAKKARXXX ॥६८॥ ॥६९॥ ॥७ ॥ ॥७१ ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः परिच्छेदा धर्मपरीक्षा कथानकम ॥४॥ ॥ ७४॥ ॥ ७५ ॥ अञ्जते सरसाहार रैस्थालपरिवेषितम् । धर्मिष्ठाश्च तदुत्सृष्टं पापिष्ठा मंडला इव धर्मिणः क्षोमवसनैर्महाच्यः परिवेष्टिताः । लभन्ते शीर्णकौपीनं नो जीर्ण पापिनः परे गीयन्ते धर्मतो धन्या जगद्विदितकीर्तयः । तेषामग्रे पुनर्गानं कुर्वन्ति पापपूरिताः हलिनस्तीर्थक रश्चक्रिणोऽप्यचक्रिणः । भवन्ति पुण्यतः सर्वे सतश्लोकव्याप्तविष्टपाः हीनाङ्गा रोगिणो मूका भुजिष्या वामनाः शठा । दुस्थावस्थाः कुकर्माणो जायन्ते पंकयोगतः धर्मः समर्थः कामार्थमोक्षाणां फलहेतवे । अधों ध्वंसकस्तेषां दुःखदुर्गतिदायका प्रशस्तं पुण्यतः सर्वमप्रशस्तमपुण्यतः । प्रसिद्धमिति लोकेषु बुद्धयते बालिशैरपि प्रत्यक्षमवगत्येति पुण्यपापफलं जनाः । पुण्यं कुर्वन्तिहच्छया पापमुत्सृज्य दूरतः स धर्मो द्विविधः प्रोक्तो यति श्राद्धमिदाजिनः । पालनीयो यथाशक्ति भव्यमोक्षास्पदप्रदः दानशीलतपोभावैः श्राद्धधर्म चतुर्विधम् । निर्व्याजं व्याजहार श्रीजिनः संसृतितारका दानाबहुमुनिः सिद्धः क्षत्रियो मूलदेवराट् । सुखं च चंदना प्राप श्रीधन्यः कृतपुण्यकः सुदर्शनस्य संजातं शूलिका सिंहविष्टरम् । स्थूलभद्रः प्रसिद्धोऽभूत् शीलात् ब्रह्मापनारदः तपसो लब्धिरुत्पन्ना सनत्कुमारचक्रिणः । शिवं बाहुबलिः प्राप शालिभद्रश्च सद्गतिम् प्रसमचंद्रो राजर्षिः केवलं प्राप भावतः । पृथ्वीचंद्राखाढभूतीमरूदेवो खिलासुतः ॥ ७७॥ ॥ ७८॥ ॥७९॥ ॥८ ॥ ॥ ८१॥ ॥ ८३॥ ॥ ८४॥ ।। ८५॥ ॥८६॥ ॥४ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥८७॥ ॥८८॥ ॥८९॥ अतश्चतुर्विधो धर्मः श्राद्धैः श्रद्धाभरोत्तमैः । प्रमादं दुःखदं त्यक्त्वा प्रसेव्यः श्रेयसे सदा एवं निपीय तत्साशेर्देशनां मुमुदे समा । जीमूतस्येव सदृष्टि समवाप्य वसुन्धरा केचित्तपस्यां कतिचिद्वतानि सम्यक्त्वरत्नं नियमांश्च केचित् । स्वदारसंतोषमलं प्रच: भव्योत्तमास्तन्मुनिनाथपार्थे __ इति धर्मपरीक्षायां मनोवेगपवनवेगोत्पत्तिबोधनाम प्रथम परिच्छेदा अथ द्वितीयः परिच्छेदः अथ मानसवेगाह्र कुमार माररूपिगम् । धर्मोपदेशविरतो भद्रं पप्रच्छ सन्मुनि: भद्र ! भद्रेण ते बीजी समस्ति धर्मतस्परः । स श्रुत्वेति यतीन्द्रं तं सगौरवमवोचत । तस्य विघ्नान भवेयुः यस्य रक्षन्ति ते पदाः । सः किं पीब्यते सोऽपि सुपर्णाः पालयन्ति यम् इत्युक्त्वा मस्तकन्यस्त पाणिपयः कुमारराट् । प्रापृच्छन यतिनाथं तं स्फुट व्याचष्ट शिष्टधी सुहत प्राणप्रियः स्वामिन् ! मिथ्यात्वाकुलितोऽस्ति मे । वतिष्यते सार्वधर्मे किंवा नेति निवेदय बजाशुशुक्षिणिशिखामिव चितां ममोच्चका । कुपथि वर्तमानोसो दचे सुहृद्यतीश्वर ! मिथ्यापथे रक्तचित्तं न मित्रं वारयन्ति ये । निपतत्रूपमध्ये तद्धीपणे नोदयन्ति ते । ॥४॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय | परिच्छेदा धर्मपरीक्षा ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ RAEXECERTAIEEEEEEEEEK सम्यक्त्वाअपरं तेजो मिथ्यात्वान परं तमः । निर्वाणान परं प्राप्य निषेध्यं न परं भवेत मद्वचोरे न वैव्यर्थ जायतेऽस्मिन् जडात्मके । विपाकविधयो मुद्रे कंकके यथा किल निशम्येति ततः सम्यक् खेटात्मजं गुरुर्जगौ । तस्य यास्यति मिथ्यात्वतिमिरं पुण्य पत्तने मिथ्यात्वशल्यमवगाह जगत्प्रविष्टं, दृष्टान्तहेतुनिचयैः प्रविणाशय त्वम् । ___ संदंशकैरिव शरीरगतं हि तस्य, वाणादि दुःसहनिरन्तरदुःखकारि सदूषणानि द्रव्यवादुमतानि विलोकयन । मिथ्यात्वं प्रोज्झ्य तत्रासौ सम्यक्त्वमुपयास्पति वासि जैनस्य वसन्ति तत्र, मिथ्यादृशो यत्र वसन्ति नो वै। सूर्योदये कि हि परिस्फुरन्ति, तारागणानां विलसन्महांसि जिनेन्द्रवचन: कब त्यक्त्वाऽभव्यं न बुध्यते । धूकं विमुच्य सर्वो हि पाशुभिर्विलोकते निशम्येति वचस्तस्य पापव्यापारनोदकम् । नत्वा च पत्रमारूढो यो स स्वपुरं ततः यावद्याति मनोवेगस्तदनु स्वपुरी प्रति । तावत्पवनवेगोऽपि संगतस्तस्य सन्मुखम् संवीक्ष्य तं ततोऽवादीत स्थितस्त्वं क मया विना । इयत्कालं सुहृद्वर्य ! मां प्रसद्य निवेदय त्वया विना प्रभुनों यः स्थातुमेकक्षणं किल । विवस्वता यथा घस्रस्तिष्ठामि स कथं चिरम् यतस्ततो मया मित्र ! त्वं सर्वत्र विलोकितः । धर्मः शौघदायीव कैवल्यपदकांक्षिणा ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्याने पत्तने हड्डे गिरौ पार्थिवसबनि । सर्वेषु सर्वगेहेषु यदा त्वं नेक्षितो मया उद्विप्रचेतसा पृष्टस्त्वत्पिताऽपि तदा मया । अस्पृशा क्रियते सर्वमिष्टसंयोगमीप्सुना वृत्तान्तमप्राप्नुवता त्वदीयं पृच्छता भृशम् । आगच्छता सता दैवाचमत्र मयकेक्षितः स्वस्थं भ्रमसि किं हित्वा मां मित्रं विरहासहम् । वाचंयम इवार्थादिसंग निःसंगमानसः विख्यातं भुवि नौ सख्यं तद्वियोगेऽपि तिष्ठतोः। बिहारीणोस्तिर्यगवं पावकाशुगयोरिव मिलन कीदृशं धत्से त्वं यथा पुष्पदन्तयोः । मिलतोरेकदा मासि सप्रकाशाप्रकाशयोः तन्मित्रं तत्कलत्रं च कर्तव्यं विबुधोत्तमैः । चित्रस्थमिव जायेत यज्जातु न पराङ्मुखम् यः क्षीणे धीयते भद्र । वर्द्धते वर्षिते सति । तमाम शस्यते सख्यमिन्दोरिव मितद्रुणा ततोऽजल्पन्मनोवेगो मा कोपीस्त्वं महाशय ! । क्षेत्रेऽहं मानुषे भ्रान्तो नमस्कुर्वन जिनाकृती: कृत्रिमाकृत्रिमाः काश्चित् सुरासुरनरार्चिताः। प्रतिमा मानिताः सर्वास्तीर्थेषु वन्दिताः स्तुताः विष्ठाम्यहं क्षणं च त्वया विना न जातुचित् । भव्येनोपशमेनेव यमिनः सयमोऽमितः भ्रमता भरतं भूमिभामिनीमालभूषणम् । पाडलीपुत्रमालोकि नगर नगरंजितम् वसुधावहिरन्तश्च नानारामोपशोमिताः । विचित्रवयसां यत्र मुदं कुर्वन्ति सर्वदा विहारा यत्र शोभन्ते मत्तवारणराजिताः । नृपमार्गाश्च दृश्यन्ते मत्तवारणराजिताः ॥ २०॥ ॥२१॥ ॥ २२ ॥ ॥ २३ ॥ ॥२४॥ ॥ २५॥ ॥ २६ ॥ ॥२७॥ ॥ २८॥ ॥२९॥ ॥३१॥ ॥ ३२ ॥ ॥३३॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **** X 1॥३४॥ ॥३५॥ द्वितीयः परिच्छेदः धर्मपरीक्षा कथानकम XXXXXXXX*****&+.. यत्र खे प्रसरन् यज्ञजातधूमो निरीक्ष्यते । तमालालिकुलश्यामो वेणीदण्ड इव स्त्रियः चतुर्वेदध्वनि श्रुत्वा व्याप्तपुष्करमण्डलम् । यत्र कुर्वन्ति सन्नृत्यं शिखिनो घनशंकिनः विशिष्टशिष्टवाल्मीकिविश्वामित्रादिभिः कृतः। पठ्यन्ते स्मृतयो वर्या यत्र वेदार्थदाः सदा निरीक्षन्तेऽभितः छात्राः प्रसरन्तो विचक्षणाः। आत्तसत्पुस्तका यत्र शारदादारका इव कुर्वते विगतक्षोभा विवादं वादिनो मिथः । व्याहारैर्दारितं बोधैर्योधा युद्ध खगैरिख सर्वत्र यत्र दृश्यन्ते पण्डिताः सूक्तिमण्डिताः। शिष्यैः परिगता नित्यं पद्मखण्डा इवालिभिः दुस्तपं यत्र कुर्वन्ति तपोवातं तपोधनाः । रंगदूगांगतरङ्गेषु घोतोनोहारिणः सदा अग्नौ होत्रादिकृत्यानि कुर्वन्तो यत्र भूरिशः। निवसन्ति द्विजन्मानो वेदा इव ससंवरा: यत्र सर्वत्र मीमांसां पठन्ति वाडवोत्तमाः । हृद्यविद्याविदः सद्यो मारत्या इव विभ्रमाः अतो हि महती वेला जातस्तत्पश्यतः सतः । प्रक्षिप्तमनसा मित्र ! न ज्ञातः समयो गतः यच्चित्रं मयका दृष्टं तत्र चित्रं च केवलम् । तद्वक्तुं नहि शक्नोमि साक्षेपैर्वचनैरहम् त्यक्त्वा पुण्यमिव त्वां यत्तत्र मित्र ! स्थितश्चिरम् । क्षन्तव्यं मम निःशेष दुविनीतस्य तत्त्वया प्रोक्तं पवनवेगेन स्मित्वा निर्मलचेतसा। को धूतच्यते नापि धृर्लागारैः विसंवदैः यदीक्षितं त्वया चित्र ममा पीदं प्रदर्शय । संविभागं विना भद्र ! भुंजते न हि साधवः ॥ ३८॥ ॥३९॥ ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ ॥ ४६॥ ॥४७॥ FORU॥६॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रज मित्र ! पुनस्तत्र ममोप्तनं सकौतुकम् । सखायो हि सखीनां नो याश्चां मोघां प्रकुर्वते तं सखेटस्ततोsवादी यास्याम्यहं स्थिरीभव । नो पच्यते महाभाग ! प्रोत्सकत्वान् ह्यदुंबर: आवां कृत्वाऽशनं प्रातः यास्यावः स्वस्थमानसौ । क्षुधार्त्तानां नराणां हि पलायेत कुतूहलम् जग्मतुस्तौ ततः प्रीतावेकीभूय स्वमन्दिरम् । काञ्चनाचलवद्धीरौ न्यायोत्साहाविवोत्तमौ एकत्र शयितो मुक्कावासितौ मिलितौ च तो । न शक्तो क्षमितुं प्रीतिनिर्भरौ विरहं क्षणम् प्रत्यूषे यानमारुह्य तौ खगौ प्रस्थितौ ततः । हारार्द्धहारकोटीरा - दिकभूषाविभूषितों प्राप्तौ तो पाडलीपुत्रं पावनं वनशोभिनम् । नानैश्वर्यसमाकीर्णम् गीर्वाण नगरोपम् उत्तीण तौ तदुद्यानेऽमंदपादपसुन्दरे । नंदनोद्यानवत्प्रौढे सर्वाक्षसुखकारके जैनेन तेन तत्रोक्तं कौतुकं ते महामते । । पूरयामि तदाऽहं त्वं वचो मे कुरुषे यदि श्रुत्वा पवनवेगोऽपि तद्वचो व्याजहार तम् । मा शैकिष्ठा महाभाग ! करिष्यामि गिरं तब सर्व करोमि भोः साधो ! त्वदुक्तमिव निश्रयः । मिथो व्याहारसंवादे मित्र ! स्वं कीदृशं यतः यदीच्छेद्विपुलां प्रीतिं त्रीणि तत्र न कारयेत् । वाग्वादमर्थ संबंध परोक्षे दारदर्शनम् निशम्येवं वचः सख्युर्दध्यौ हृदि स धर्मधीः । भविष्यत्येष सद्दृष्टिः नान्यथा मुनिभाषितम् अथोsवादीत प्रमोदेन वायुवेगं स आस्तिकः । यद्येवं तर्हि भो भद्र ! विशावो नगरीमिमाम् २ ॥ ४८ ॥ ॥ ४९ ॥ ।। ५० ।। ॥ ५१ ॥ ॥ ५२ ॥ ॥ ५३ ॥ ॥ ५४ ॥ ॥ ५५ ॥ ।। ५६ ।। ॥ ५७ ॥ ॥ ५८ ॥ ।। ५९ ।। ॥ ६० ॥ ।। ६१ ।। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरीक्षा कथानकम द्वितीयः परिच्छेदा ॥६२॥ ॥ ६३॥ ॥६४॥ ॥६५॥ ॥६७॥ आत्तकाष्ठतृणभारौ प्राजिभूषणभूषितौ । द्रंगस्य तौ गतौ मध्यं लीलया व्योमगौ ततः वीक्ष्य तावीदृशौ लोका आश्चर्य प्रतिपेदिरे । चित्रीयं तेन के पृथ्व्यां प्रदृष्टेऽदृष्टपूर्वके परीतौ प्रेक्षकैलोकै रटन्तौ तौ समन्ततः । गुडखण्डौमहाघोष-मैक्षिकाप्रकरैरिव प्रोचुः केचिजनास्तत्र चित्रं पश्यत पश्यत । वहन्तौ तृणकाष्ठानि सालंकाराविमौ कथम् केचित्साहुरिति स्वानि विक्रीय भूषणानि किम् । बहुमूल्यानि न नराविमौ सुखेन तिष्ठतः आहुरन्ये किमु प्राप्तौ दिव्यौ दमाद्धरातलम् । सुरौ विद्याधरौ वेतौ लात्वा काष्ठतृणोत्करम् भाषिरे चान्ये भोः लोकाः! कि कार्यमन्यचिन्तया। अन्यचिन्ताप्रशक्तानां तमसो न फलं परम् तो निरीक्ष्य पुरीरामाः क्षुभ्यन्ति स्म महारुची() । विमुक्तगृहकाँधः कलाकेलिवशीकृताः एको मानसवासी किमिति ख्यातिनिवृत्तये । अनंगोऽभूद्विधा नूनं वर्णिन्यः काश्चिदूचिरे तार्णिकाः काष्ठिका दृष्टा जगादेति परांगना । नैतादृशौ परश्रीको मयका रूपिणौ तदा मधुदीपार्दितावादीदन्या तज्वल्पकामुका । आकारय वयस्ये द्राक् विशिष्टौ काष्टिकाविभौ तृणकाष्ठं यथामूल्यं तथा गृहाम्यहं ननु । इष्टे वस्तुनि संप्राप्ते क्रियते गणना किमु वचांसीति जनानामाकर्णयन्तौ खगोत्तमौ । वादिशालां विशालांतोप्राप्तौ सेभारिविष्टराम् त्यक्त्वा तौ तृणकाष्ठन्याताड्य मेरी धनस्वराम् । हरी इव समारूढौ निर्भयो कांचनासने ॥ ६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥ ७५॥ SEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RKEEEEEEXXXKARWAREEN क्षुभिता वादिनः सर्वे तनिशम्य महारखम् । वादीति कोऽत्र संप्राप्तो जल्पन्तः सभ्रमं कुतः विद्यामानामिना दह्यमानाः सस्वरमाययुः । जयस्य कामुकास्तेन सार्ध वादजिगीषया केचिदाहुस्तदा तत्र तर्कवादेन कोपिनः । कृत्वा पराजयं याति हत्वाऽस्माकं यशःश्रियम् जगुः केचित् घना वादाः श्रीयुष्माभिर्विनिर्जिताः । मौनमाश्रित्य तिष्ठन्तु वादं विदध्महे वयम् अपरेऽवादिषुस्तत्र द्विजन्मानः स्म योद्धताः । एवमेवं ययौ काला सृजतां मणनोधमम् तदाहुरपरे तत्र समाहत्य यशःफलम् । वादिनांजयदण्डेन लास्यामो वादशाखिनः इत्यादि दर्पवाक्यानि वदन्तो वादिपुङ्गवाः । प्रपन्ना वादिशालां तां वादकंडूययाश्रिताः भूषाभिभूषितं दृष्ट्वा मनोवेगं मनोरमम् । सस्मया विस्मयं प्रापुर्वादिनस्ते गुणोन्नताः प्राप्तोऽयं कि हरिनम सूत्रकंठानुकंपया । शरीरस्येशी शोभा नान्यस्यास्ति प्रशस्तिका उदित्वेति नमन्ति स्म केचित्सद्भक्तिभावतः । विश्रान्तबुद्धिभिः सर्व कार्य हि क्रियते शुभम् अन्ये प्राहुरयं स्थाणुर्विगोप्याक्षि तृतीयकम् । आगतोऽस्ति धरां दृष्टुं रूपमन्यस्य नेदृशम् आहुरन्ये वीक्षमाणा पृथुलं पृथिवीतलम् । क्रीडां करोति विविधां कोऽपि विद्याधरेश्वरः ध्यायनित्येकको विद्वान निर्णयार्थमवोचत । करस्थे कङ्कणे कुर्यु दरं केपि दर्पणे कस्त्वं कुतः समेतोऽसि किमर्थमिहपत्तने । विरुद्धचेष्टितो धीमन सर्व शीघ्र निवेद्यताम् ॥ ७६॥ ॥७७|| युग्मम् ॥ ७८॥ ॥७९॥ ॥८०॥ ॥८१॥ ॥८२॥ ॥८३॥ ॥ ८४ ॥ ॥८५॥ ॥ ८७॥ ॥८८॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ ८ ॥ ततोsवादीमभोगस्तं भद्र ! निर्धनवरहम् । भगतस्तृणकाष्ठानि विक्रेतुं नगरान्तरे बभाषे तं द्विजः सोऽप्युपविष्टो विष्टरे कथम् । किं न जानामि को वादमजित्वाऽत्र न तिष्ठति इच्छा चेन विवादेषु तव मूढमतेः कथम् । भेर्यस्यां वादिशालायां वादिता वादिचिका नमश्वरस्ततोsवोचत् वृथा किं कुप्यसि द्विज । न रुष्यते निर्दिदानं पद्मगेन बुधेन च सिंहासनं वरं वीक्ष्य श्रतत्वाद्विनिविष्टवान् । कियानिति ध्वनिर्मेर्या ध्यात्वाऽसौ ताडिता मया वयं दुर्गतजा विद्मः शास्त्रमार्ग कदापि न । वादनामेति ते वाक्यात् बुद्धं भट्ट मयाऽधुना ईदग्विधा वरतराः पुरुषाः प्रभूताः किं भारतादिषु कथासु न सन्ति साधो ! आलोकयन्त्यधमपंचजनाः परस्य दोषं परं जगति नात्मन एव सत्यम् काश्चनासनमधिष्ठिते मयि दुर्मना भवसि चेन्महामते ! | प्रोचरामि तरसेत्यवातरत् व्योमगोऽमितगतिः सुबुद्धिमान् इति धर्मपरीक्षायां मनोवेगपवनवेगपाडलीपुत्रगमनो नाम द्वितीय परिच्छेदः अथ तृतीयः परिच्छेदः अथो जगौ तमालोक्यासनोचीर्ण स वाडवः । काष्ठिकास्तार्णिका दृष्टा न भूषाभूषिता मया ॥ ९० ॥ ॥ ९१ ॥ ॥ ९२ ॥ ॥ ९३ ॥ ॥ ९४ ॥ ॥ ९५ ॥ ॥ ९६ ॥ ॥ ९७ ॥ ॥ १ ॥ तृतीयः परिच्छेदः ॥ ८ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२॥ ॥४॥ वहन्तस्तृणदारूणि मणिमौक्तिकमण्डिताः । परकर्मकरा मा न दृश्यन्ते कदाचन स जगाद पुराणेषु भारतायेषु भूरिशः । श्रूयन्ते न विचार्यन्ते यूयं मूढधियः परम् भारतादिषु चेद्दष्टास्तेनेत्युक्ते त्वयेदृशाः । तदा मे पुरतो ब्रूहि प्रत्यक्षमथ सोऽब्रवीत ब्रवीम्यहं परं विप्र ब्रुवाणोत्र बिमेमि भोः । न प्रेक्ष्यते यतः कोऽपि भवन्मध्ये विचारका मूढास्तथ्यमपि प्रोक्तं गृहीत्वा तथ्यवादिनः । मुष्टिषोडशकन्यायं प्रकुर्वन्त्यविवेकिना सन्न्यायः कीदृशः साधो वदेति कथिते द्विजैः । स ब्रूते स्म मनोवेगः श्रूयतां वो वदाम्यहम् देशे पुण्यतमोद्देशे मलये निलये सताम् । अतिस्वस्ति भरैः शस्तं श्रियोहं श्रीपुरं पुरम् कस्यापि गृहिणस्तत्र धर्मकर्ममहामतेः । पवित्रः सुगुणैः पुत्रो नाम्ना मधुकरोजनि अन्यदा पितृकोपेन निर्गत्यासौ स्वगेहतः । भ्रमति स्मेक्षितुं पृथ्वी क्रियते रोषो न किम् यतः-तुल्यो यो मधुनो विकारकरणे संत्राससंगदने । सर्पस्य प्रतिबिम्बमन्यदहने सप्तापिः सोदरः चैतन्यस्य निषूदने विषतरोः स ब्रह्मचारी चिरम् । सक्रोधः कुशलाभिलाषकुशलैर्निर्मूलमुन्मूल्यताम् आभीरमण्डले दृष्टाश्चनकानां च राशयः । अनेन भज्यमानानां क्षेत्रप्राप्तेन भरिशः तेन विस्मयमाप्तेन विभुनान निरीक्ष्यताम् । चित्रं चित्रमिदं दृष्टम् मयकाब्रेति जल्पितम् किं चित्रं त्वयका दृष्ट क्षेत्रशेनेति भाषितः । अबादीदिति मुखोऽसौ वेत्यप्राज्ञो हिनापदम् ॥८॥ ॥९॥ ॥ १२ ॥ ॥१३॥ ॥१४॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥९ ॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥ १७॥ ॥१८॥ तृतीया परिच्छेदा प्रोन्नता मण्डलेऽप्यत्र यथा चनकराशयः । मण्डले मम विद्यन्ते तथा मरिचराशयः क्षेत्रेऽनेन ततः प्रोक्तं भृशं कुपितचेतसा । प्रस्तोऽसि वायुना त्वं कि येनातथ्यानि भाषसे दृष्टा पापिष्ठ नास्मामिः कदापिक्कापि मण्डले । राशयः चणकस्यात्र मरिचाराशिसभिभाः मरिचाचणका नूनं देशेऽस्मिन्नति दुर्लमाः । गणना मम नो कापि मरिचेषु विजायते विज्ञायेत्ययमस्माकं दुष्टो भद्रत्वकर्मणा । विधत्ते हास्यमीदृक्षं तूर्णमेषो निगृह्यताम् क्षेत्रेशस्येति वाक्येन तं वबन्धुः कुटंबिनः । अमान्यवचनो वादी को न प्राप्नोति बंधनम् तदा तत्र दयाइँणावर मयेन केनचित् । मुग्धस्यास्य जना दण्डो यथोचितो विधीयताम् दीयन्तां मुष्टयः शिष्टा वर्तुला अष्टमूर्धनि । न कस्यापि पुनर्हास्यं न दुष्टः करोत्यसौ तस्यैवं भाषितं श्रुत्वा पुरुष्टैनिघृणात्मभिः । वराङ्गे वर्तुला दत्ता मुष्टिकास्तस्य निष्ठुरम् लाभोऽयमेतितन्मुक्तः परमो मम मुष्टिमिः । अन्तर्दुष्टस्थितानां हि जीवितव्यस्य संशयः विचार्यैवं पुनर्मीतो गतोऽसौ निजमण्डलम् । निवर्तन्ते यथा जाता न कदाचित्कदर्थिताः तत्र तेन पुनः प्रोक्तमाभीरविषये मया । मरिचौघनिभो दृष्टयणकौघो महान् जनाः पूर्ववन्कुपितस्ताक् पृष्ट्वा दण्डः कृतो जनैः । अमेधो भवति प्रायस्ताडितोऽपि न पण्डितः मष्टिषोडशक प्राप्त तथ्येऽपि भाषिते यतः । मुष्टिषोडशको न्यायः प्रसिद्धिमगमत्ततः ॥२०॥ ॥ २१ ॥ ॥२२॥ ॥ २२॥ ॥२४॥ ॥२५॥ KAIXXXKAKKARMAKAKKARAK ॥२७॥ ॥२८॥ ॥९॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88888888888888 न तथ्यं साक्षिरहितं वक्तव्यं हि क्षितिस्पृशा । अतथ्यमपि मन्यन्ते लोकास्तत्साक्षिकान्वितम् सता तथ्य तथ्यं वा वाच्यं जनप्रतीतिकम् । अन्यथा वार्यते केन भवन्ती यातना परा बालिशा न प्रपद्यन्ते तथ्यमेवं सतोदितम् । यतस्ततो न वक्तव्यं तन्मध्ये हितमीप्सुभिः ईक्षितं विश्रुतं ज्ञातमाकर्णितं प्रपद्यते । न परं मनुजो यस्मान वक्तव्यं वचस्ततः ममापि जल्पतो यस्मान्मध्येऽस्मिन्नविचारिणाम् । दूषणं जायते तादृग् मया नातो निगद्यते विलोकयति यः कश्चित् पूर्वापरमुदंतकम् । कथ्यते तस्य पुरतो नान्यस्य हि पटीयसा इत्युदित्वा स्थिते खेटे तं बभाण द्विजोत्तमः । मा गादीर्भद्र नास्त्यत्र शालायां को विचारकः आभीरसदृशानस्मान् मा स्थास्त्वं नृपुङ्गव । अरिष्टसन्निभाः सन्ति कलहंसा न कुत्रचित् अत्र न्यायविदः सर्वे सत्यासत्यविचारणाः । सन्त्यत्र वाडवाः शंका मा कुरुत्वं वद स्फुटम् यद्युक्त्या घटते वाक्यं कोविदैर्यच्च बुद्धयते । निःशको वद तद्भद्र गृहीष्यामो विचार्य च विप्रणोक्तो मनोवेगो जिनपादाब्जषट्पदः । वदति स्म ततो युक्त्या मित्रप्रबोध हेतवे रक्तो द्विशे मत्तो मुँढो व्युद्ग्राही पित्तदूषितः । भूतैः क्षीर्रा गुरुः, ज्ञेयादेंनो बालिशा दश युस्मासु यद्यमी सन्ति पूर्वोक्तदोषदूषिताः । अहं बिभेमि भो विप्रास्तदा वदन् यथातथम् मनुष्याणां तिरथां च परमेतद्विमेदकम् । विभेदयन्ति ये सर्व प्रथमास्ते परे नहि ॥ २९ ॥ ॥ ३० ॥ ॥ ३१ ॥ ॥ ३२ ॥ ॥ ३३ ॥ ॥ ३४ ॥ ॥ ३५ ॥ ॥ ३६ ॥ 11 30 11 1132 11 ॥ ३९ ॥ ॥ ४० ॥ ॥ ४१ ॥ ॥ ४२ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः परिच्छेदः धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ SEXXXEEEKSEEKER अपि च न्यायमार्गनिरता मतिमन्तो धर्मकर्मविहितादरवाराः । पक्षपातरहिता भुवि सत्या मध्यवर्त्तिगुणिनो गदितास्ते मूर्खेषु भाषितं शिष्ट युक्तयुक्तियुतं मतम् । ददाति महती पीडां पयःपानमिवाहिषु अथ च-शिलासु पय सिकतासु तैलं चंद्र प्रतापस्तुहिने कृशानुः। विषं सुधायां हि कदाचन स्यात् न बालिशे चारुविचारबुद्धिः अपि च-अरण्यरुदितं कृतं शबशरीरमुर्तितम् श्वपुच्छमवनामित बधिरकर्णजापः कृतः। स्थले कमलरोपणं रूचिरमूषरे वर्षणम् तदंध मुखमण्डनं यदसुधीजने भाषितम् । कीदृक्षा भद्र ! ते सन्ति गदिते ब्राह्मणैरिति । सगौरवं जगौ सोऽथ रक्तद्विष्टादिचेष्टितम् दक्षिणे नर्मदातीरे सामतनगरे वरे । क्षत्रियो विजयो नाम बभूव द्रविणान्वितः सुंदरी च कुरंगी च तस्याभूतां प्रिये प्रिये । मंदाकिनी मृडानी च वृषांकस्येव सुंदरे वृद्धा तत्याजलब्ध्वा स कुरङ्गी यौवनोद्धताम् । मृबीकामाप्य को(श्ना)ति नीरसां बदरी किल सुन्दरी प्रति तेनोक्तं लात्वा स्वं भागमुत्तमम् । सपुत्रा तिष्ठ भार्ये ! त्वं विभक्ता सदनान्तरे यथा प्रजल्पितं तेन सापि साध्वी तथा स्थिता । न करोति सुशीला स्त्री पतिवाक्यस्य लंचनम् विमोहितः कुरणत्याज्य अञ्जानो भोगमन्वहम् । गतं नावगमत्कालं वरुण्येव मदातुरः ॥४६॥ ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभगाकृतिमाप्यासौ तां भार्यौ चारुपोवनाम् । पौलेग्न्याश्लिष्टदेवेश-मिवात्मानममन्यत मण्डलस्वामिनाऽऽहूय भणितो विजयोऽन्यदा । कृत्वोचितां त्वं सामग्रीं व्रज शीघ्रं वरूथिनीम् स्वामिमहं करोमीति प्रोच्य स्वालयमाययौ । समालिंग्य प्रियां गाढं स प्रोचे विजने स्थिताम्र कुरङ्गि ! स्वं गृहे तिष्ठ सेनायां गम्यते मया । निजेशानां हि नादेशश्श्रोल्लंघ्यः सुखमीप्सुभिः पृतना मम संपना स्वप्रभोस्तत्र वल्लभे । अवश्यं गमनं भावि कुप्यति प्रभुरन्यथा निशम्येति वचस्तस्य जगाद युवती तदा । सार्धं त्वया समेतव्यं विरहासहया मया सुखेन शक्यते सोढुं स्फुरघ्घूमध्वजो मया । विरहो न पुनः स्वामिन वियोगजनितो भृशम् स्थितामेकाकिनीं मारो मां निशुंभति सुन्दर । मृगीमिव मृगाधीशो विपिने शरणौञ्झिताम् यदि यास्यसि याहि त्वं मार्गे भवतु ते शिवम् । गच्छतो जीवितव्यस्य ममापि प्रेतपालयम् विजयाख्यस्ततोऽवादीत् मेति वादीः शुभानने । धाम्नि तिष्ठ स्थिरीभूय विप्रं मा कुरु मद्गती परदाररतो राजा लाति त्वामीक्षितां यतः । अतो मुक्त्वा गृहे कान्ते! स्कन्धावारं व्रजाम्यहम् सुरूपां त्वां निरीक्ष्या सौ नृपो गृह्णाति निश्चितम् । अनन्यरूपसामान्यं स्त्रीरत्नं कस्त्यजेत् पुमान् प्रबोध्येति प्रियां त्यक्त्वा सदने घनपूरिते । आदेशजनकः सोऽपि प्रययौ सबलं बलम् सरागस्य स्थितिरियं यत्प्राप्य कामितं परम् । विश्वस्येमहि कस्यापि विरहे च मुमूर्षति ॥ ५४ ॥ ।। ५५ ।। ॥ ५६ ॥ ॥ ५७ ॥ ॥ ५८ ॥ ॥ ५९ ॥ ॥ ६० ॥ ॥ ६१ ॥ ॥ ६२ ॥ ॥ ६३ ॥ ॥ ६४ ॥ ॥ ६५ ॥ ॥ ६६ ॥ ॥ ६७ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 建 ॥ ६८॥ परिच्छेदः धर्मपरीक्षा कथानकम् 案基本要求是: भषणो भाषणी लब्ध्वा वेत्ति स्वं विष्टपाधिकम् । भषति गृहणागीतो नीचः सुरपतेरपि कपिलः कृणपं प्राप्य दुर्गन्ध कृमिकाकुलम् । स्वचित्ते मन्यते दीनः पीयूषमप्यसद्रशम् यो रक्तो यत्र रक्षा स विधत्ते तस्य मोदतः । किं न संचिनुते काकः शकृद्राशिच सर्वतः इतब-क्रीडां चकार कुटिला कुरङ्गौच विटैः समम् । निःशंका विगते रुच्ये दर्पकादेशकारिणी विविधान्यशनादीनि प्रभूतान्यंशुकानि च । यच्छति स्म विटेम्यः सा श्रीनंदनवशं गता विटैविलय सा वामा सत्यक्ता सर्ववस्तुभिः । मार्गे स्थिता फलैराढथा बदरी तस्करैरिव सा भर्ना गमनं ज्ञात्वा सती वेषं ततो व्यधात् । स्त्रीणां दुश्चारिणीनां हि प्रायशः गतिरीदृशी न वेत्ति कोऽपि कुटिला तथारूपेण सा स्थिता । विमोहयति या शक्रं तस्याः का गणना नृषु यत-आवर्चः संशयानामविनयभवनं पत्तनं साहसानाम, दोषाणां संनिधानं कपटशतगृहं क्षेत्रमप्रत्ययानाम् । स्वर्गद्वारस्य विघ्नं नरकपुरमुखं सर्वमायाकरण्डम्, स्त्रीयंत्र केन सृष्टं विषममृतमयं प्राणिलोकस्य पाशः। ननं हि ते कविवरा विपरीतबोधा ये नित्यमाहुरवला इति कामिनीनाम् । यामिविलोलतरतारकदृष्टिपातैरिन्द्रादयोऽपि विजिता अबलाः कथं ताः ॥ ७१॥ ॥७२॥ ॥ ७३ ।। ॥ ७४॥ ॥ ७५ ॥ ॥ ७६॥ 来来来来 ॥ ७७॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथागत्य पुरोपान्तं विहितोर्वीश कार्यकः । स्वालये विजयोत्कोऽसौ प्रजिघाय सुसेवकम् तामुपेत्य स बभाण समेतो बंधुरस्तव धवो विजयाख्यः । वल्नं कुरु विचित्ररसाढ्यं प्रेषितो कथयितुं तव वार्ताम् तस्य वाक्यमवगत्य भुजिष्यं भाषते स्म परुषं निजचिते । याहि वृद्धयुवतीं कथयैतत् नो सतां क्रमविलंघनमर्हम् सैत्य तेन सह सर्वमुदन्तं जल्पति स्म वरसुन्दरि ! सेत्का । आगतः शुमरसाङ्कुरजग्धि मोक्ष्यतेऽद्य तव सद्मनि नूनम् सा जगाद रसलाऽथ कुरङ्गी भाजनं हि विदधामि विचित्रम् । केवलं स रमणो मम गेहे मोक्ष्यते न तव रूपविलीनः सा पुनः छलवतीत्यवदत्तां मन्यते स यदि मां ध्रुवमिष्टाम् । वाक्यतो मम तदा तव गेहे मोक्ष्यते सुनिवसं कुरु शीघ्रम् तदीयमेतद्वचनं निशम्य रराघ भोज्यं विविधं विमुग्धा । . सुसाधवः स्वस्य समं गुणौघैः जगत्समस्तं गणयन्ति नूनम् 1107 11 ।। ७९ ।। 11 20 11 1168 11 ॥ ८२ ॥ ॥ ८३ ॥ ॥ ८४ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥१२॥ RESERai परिच्छेदा निजालयं धान्यधनविहीनम् छलेन साज्योपयदप्रशस्या । स्वदूषणान्यैव विकारसंस्थांगना परिच्छादयति प्रकामम् इति धर्मपरीक्षायां मूर्खकथाकथनो नाम तृतीयः परिच्छेदः अथ चतुर्थः परिच्छेदः सोत्कंठं क्षत्रियः सोऽथ दर्पकादिति मानसः । त्वरितं गृहमागत्य कुरङ्गीमुखमैवत पुरोत्तमं पौरलोकै बलाकैारिव पुष्करम् । ईक्षमाणोऽपि सदन विहीनं सर्ववस्तुमिः रक्तदोषा द्विमूढात्मा कुरङ्गथा दुष्टचेतसा । मन्यते स्म निजं विष्वक चक्रवर्तिगृहाधिकम् न वेत्ति मनुजो रक्तो यशो धर्मगुणं सुखम् । कृत्यं हेयमुपादेयं महत्त्वं वालयक्षयम् रागाक्रान्तः पुमान शीघ्रं प्रामोति विपदं पराम् । सक्रव्ये किं गले लग्ने निधनं याति नो झपः दुर्निवारैः शरै रक्तं निशुंभति मनोभवः । युकायुकमजानानं कुरङ्गमिव लुब्धका क्षण स्थित्वांगणे सोऽथ प्रत्युवाचेति तां प्रियाम्। मृगाक्षि! देवि मे भोज्यं सरसं कि विलंबसे सातत्यभृकुटी भीमां यमस्यैव धनुर्लताम् । स्पष्टमाचष्टपाषिष्ठा दुष्टानिष्टं वचो धवम् स्वमातुः सदने तस्याः भुक्ष्व पापिष्ठा याहि भोः। त्वयका भोजनोदंतो यस्याः पूर्व निवेदितः ॥२॥ ॥३॥ युग्ममा ॥९॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१०॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ MEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX कथयित्वा स्वयं तस्या वाता भत्रे चुकोप सा । किं दूषणं न कुर्वन्ति जिते सेक्तरि योषितः तथाध्यात्वा प्रजल्पन्ति प्रमदाः कुटिलाः स्वतः। भ्राम्यते कब्च्यते स्वान्तं यथा मतिमतामपि कषायवारिणा रक्तं रमणी चित्रकारिणी । नृणां कषायितं सद्यः चेतो रंजयते पुनः स निशम्य वचस्तस्याः तूर्ण कृत्वा व्यवस्थितः । संकोचितसमनांगो विशल्यामिव मूषका तदा पुत्रेण तातेत्यागच्छ भुक्ष्वेति साग्रहम् । आहूतोऽपि स मूकः संचित्रालेखितवत् स्थितः कोतवं किं त्वयाऽऽरेमे व्रज खाद जनीगृहम् । स तयेत्युदिते तत्र गतो मीतित उन्मना: पुष्कलं कोमलं तस्य तया दत्तं वराशनम् । विदधत्या नवां प्रीतिमवदातां स्वचित्तवत् विधाय सा पुरस्तस्य भाजनानि नवानि च । व्याणयद्रसोपेतम् तारुण्यमिव वरभनम् विमुक्तो रुचयेन्यादः सुंदर्यास्तस्य नाऽभवत् । अमव्यस्येव चारित्रमई गिरा विशुद्धया इदं सर्व मयाऽनिष्टं जायते सुन्दरीकृतम् । करीं यत्सृजत्येव नाप्रियं तत्कदाचन पीनस्तनी पुरोगांगी हरिवामेव सुन्दरा । रूषिता किं कुरङ्गी यन्मयि दत्तेऽपि नेक्षणम् नूनं मुजिष्यया साकं ज्ञात्वा सुप्तं चुकोप माम् । मन्ये तनास्ति भवने दक्षा ज्ञायते न यत् विच्छायवदनेवादीत स्वकान्ते सा ततः परम् । भवतां रोचते कि नो सर्व भुंक्ष्य मनोहरम् स प्रोचे किमु जेमामि किचिन जेमनोचितम् । कुरङ्गोसदनान्यादः किश्चिदानीयतां त्वया ॥१८॥ ॥ १९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥ २२॥ ॥२३॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ १३ ॥ श्रुति सुन्दरी गत्वा कुरङ्गीस तां जगौ । भद्रे त्वं देहि किञ्चिच्चरुच्यस्य रुचयेऽशनम् सामणन मया राद्धं किश्वनद्यापि सुन्दरि ! । तस्य त्वद्भाजने मन्ये मानयोदरपूर्तिकाम् यद्यस्य प्रेष्यते किश्चित् तत्सर्वं तु सहिष्यते । यतः सदूषणायां वै समस्ति रक्तधीर्मयि इति ध्यात्वा तयाऽऽदाय कवोष्णं छगणं नवम् । एकैकगोधूमकणं तस्याः समर्पितं लघु तया दत्तं तदानीय सुस्वादं तेन भक्षितम् । सरसं भोजनं त्यक्त्वा पुरीषमिव शूकरः नीरागस्य प्रशस्यं प्रशस्यमपि जायते । प्रशस्यं रागिणः सर्वमप्रशस्यमपि स्फुटम् नास्ति विष्ट किश्चित्कुर्वते स्त्रीवशा न यत् । उच्चारमपि खादति पवित्रं गोमयं म किम् केवलं छगणं शुक्त्वा शय्यायामुपविश्य च । तस्याः सकलवृतान्तं पृच्छति स्म स सुन्दरीम् प्राशा किं मम क्रुद्धा किश्चित्कि गदिता त्वया । ममापि दूषणं किञ्चित् सारंगाक्षि निवेद्यताम् सावोचदुच्यतावर्त्ते तिष्ठतु प्रेयसी स्थिति । चेष्टितं श्रूयतां स्त्रीणां कथयन्त्यां मयि स्फुटम् स नास्ति वने दोषोंनायां यो न विद्यते । स कस्तमः समूहो यो विभावय न जायते जलानां जलधेर्मानं विधातुं किल शक्यते । निसर्गकुटिलस्त्रीणां दोषाणां नैव जातुचित् परछिद्रनिलीनानां द्विलोलानां महारुपाम् । सर्पिणीनामिव स्त्रीणां जातु रोषो न शाम्यति अमतां यत्सदा विश्वेऽसंगतानां परस्परम् । दोषाणां मिलनस्थानं धात्रा मन्ये कृता वशा ॥ २४ ॥ ।। २५ ।। ॥ २६ ॥ ॥ २७ ॥ ॥ २८ ॥ ॥ २९ ॥ ॥ ३० ॥ ॥ ३१ ॥ ॥ ३२ ॥ ॥ ३३ ॥ ॥ ३४ ॥ ।। ३५ ।। ॥ ३६ ॥ ॥ ३७ ॥ चतुर्थः परिच्छेदः ॥ १३ ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३८ ॥ दुःखानां सेवधिर्नारी दकानामिव निम्नगा । वसतिः कैतवानां च गराणां सर्पिणी यथा विमुञ्चति निजाधीनं दुःसाध्ये रच्यतेऽगना । भीषणं कुरुते धैर्य लज्जते न बिभेति न स्नेहप्रपूर्णा परितापकी निर्मेयकालुष्यवती स्वभावात् । यादीपलेखेव वशा विलोला लब्धप्रसारोरुभयं ददाति भोः प्रभो! किंबहूक्तेन सर्व सम्यग् विबुध्यताम् । वैरिणी धाग्नि प्रत्यक्षा कुरङ्गी तव तिष्ठति पापिष्ठया कुरङ्गया ते विटेभ्यः सकलं धनम् । दत्वा विनाशितं साधोः दुःप्रापः संयमो यथा निःशंकं हरते स्वामिन् द्रविणं तव या प्रिया । हरती जीवितं साऽपि दुष्टा केन निवार्यते यो विश्वसिति मूढात्मा स्त्रीणां निर्दयचेतसाम् । क्षुधादिवशरीराणां व्यालीनां विश्वसित्यसौ सर्पिणी शाकिनी रुद्रा राक्षसी कुलटा गृहे । वसती तब सा दुष्टा प्रदत्तेऽसुविपर्ययम् नो तस्या हितभाषिण्याः भाषितं रक्षितं हितम् । गत्वा निवेदयामास कुरङ्गन्याः सकलं सकः ततस्तयोक्तमभितमीjया दूणानि मे । सद्गुणैर्दह्यमाना साऽऽविक्रशेति सकूटकम् दह्यमानाः सुतीवेण नीचाः परयशोऽग्निना । अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दा प्रचक्रिरे सापि निःकाश्यतां स्वामिन् सतनूजा पृथग् गृहात् ।। दुष्टावस्था दुराचारा दुर्मुखा दोषदायिनी ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ ॥४६॥ ॥४७॥ ॥४८॥ KXXXCX ॥४९॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५०॥ चतुः परिच्छेदा धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ १४ ॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥ ५५॥ निर्घाटिता तद्वचसा सा साध्वी तेन दुधिया । रकः किं कि विधत्ते नो हरिणाशीरितः पुमान् सद्वचो निर्विचाराणां दत्तं दत्ते महद्भयम् । पयःपानं भुजङ्गानां न भवेद्वितकारकम् कथ्यमाने हि ते दोषो दुर्बप्तिभिः प्रदीयते । अन्यैरप्यत्र रागान्धैर्विजयक्षत्रियोपमैः सर्व मया द्विजो रक्तो गदितो दुष्टचेष्टितः । साम्प्रतं श्रूयतां द्विष्टः सावधानहृदस्ततः तथाहि-कोटीनगरवास्तव्यौ ग्रामकटौ बभूवतुः। प्रथमो गदितः स्कन्दो वक्रो वक्राशयः परः एतयोर्भुजतोरेकं पुरं वैरमभूमिथः । एकार्थस्यामिलाषित्वं परं स्याद्वैरकारणम् स्वभावज महावैरं दुर्निवारमजायत । स्कन्दवक्रकयोवेरै चूकारिघकयोरिव पीडां करोति लोकोनां वक्रः पापमतिः सदा । दोषोपेतः पुमान् वक्र: कस्प स्यादिहशर्मणे अन्यदानाप वक्रोऽसौ दुःसाध्यं व्याधिमुबलम् । यान्यस्य कुरुते दुःखं स दुष्टः किमुपैति नो पीडयाऽकुलितः सोऽथ मुक्तः स्वकज भुवि । तदोक्तं तत्तनूजेन किश्चिद्धर्म पितः कुरु कलत्रपुत्रद्रविणादिमध्ये परत्र सार्ध नहि कोऽपि याति । . विहाय कर्म स्वकृतं समर्थ कर्तुं प्रभुः यन्सुखदुःखवारम् निजोऽस्ति कोऽपि भ्रमतां पगे वा भवेऽङ्गिनां नो बहुदुःखभाजि । मत्वेति मोस्तात ! विमूढभाव विमुच्य कार्य क्रियतां हितं स्वम् ॥ ५७॥ ॥५८॥ ॥६१॥ ॥१४॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६२॥ ॥६३॥ ॥६४॥ अपास्य मोहं तनुजादिकेषु वितीर्य द्रव्यं बहु साधुलोके । स्मरेष्टदेवं सुखदायिन यत् प्राप्नोपि मो वयं ! गति परत्र श्रुत्वेति तं सोऽथ खलो बभाषे विधेहि कार्य त्वरित मदुक्तम् । पितुर्वचो लंघयतीह पूज्यं साधो स पुत्रो न कदाचिदेव स्कन्दो रिपुर्वत्स ! कदापि सौख्यं समाप्तवानो मयि विद्यमाने । भुजंगशवाविव वर्यवीर्ये भुजंगवंशो विषदोषदृप्यः क्षयं यथाऽयं समुपैति वत्स ! तथा विधेहि त्वरित विकर्म । वसाम्यहं येन सुख सहर्षः सुरालये चारुशरीरयुक्त कृत्वा मृतं मां च विशिष्टयष्टिस्थितांगक क्षेत्रममुष्य नीत्वा । तुरगो पूर्वहचक्रवालं विमुच्य शस्पक्षयहेतवे त्वम् वृक्षान्तरे तिष्ठ निरीक्षितुं मे समीपवागतिमस्य विष्वक् । घाते कृते तेन मयि क्रुधा वं विधेहि लोकश्रवणाय बुबाम् मत्वेति दण्डं क्षितिपो हतं मामनेन मोस्तस्य करिष्यति द्राक। ततः सको गोनिधनं हि येन प्रयास्पति प्राज्ञ ।सुकार्यकः (1) ॥ ७॥ ॥ ६८॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरीक्षा कथानकम् चतुर्थः परिच्छेदः ॥६९ ॥ ॥ ७०॥ = इत्थं बदन पापमनाः स तूर्ण जगाम वक्रो यमराजगेहम् । पुत्रस्ततस्तस्य चकार वाक्यं युक्तं घनाः स्युर्दुरिते सहायाः पापाशयो यो मनुजोंऽन्तकाले न मुञ्चति द्वेषममेयदुःखम् । हित्वा कृतान्त नहि तस्य कोऽपि प्रबोधदायी भुवने परोऽस्ति वक्राभिषः श्रेष्ठिसुतोऽपि दुष्टः चकार यदाक्यमिदं सपापम् । चेद्वाऽवास्तस्य समा भवन्ति नो सूचयाम्यत्र तदा हितानि शेते न मुक्क्ते न विना परस्य चितां प्रभुनों चरमा विसोढम् । क्रोधाग्निना दग्धमना नरो यः परत्र सौख्यं न च तस्य चेहवे दुरन्तं चिरं स्वभ्रवाह ज्वलन्तम् सहन्ते प्रविश्य प्रकृष्टार्तिभाजः। क्षमा नो परस्पर्धि वृद्धि विसोढुं सदा रोषणाः पापसक्ता निकृष्टाः ईशस्य न पुरो वचनानि कोविदः प्रकटयन्ति वराणि । प्रत्युत द्विजवरा विभजते विक्रियां गुणयुता निहितानि इति धर्मपरीक्षायां रक्तदुष्टदृष्टान्तयुतो नाम चतुर्थः परिच्छेदः XXXXXXXXXKARIXERAREERS ॥७२॥ ॥७३॥ ॥ ७४॥ ॥ १५॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२॥ ॥४॥ अथ पञ्चमः परिच्छेदः गदितोऽथ मया द्विष्टः कृशानुरिव दाहकः । अधुनाऽऽकर्ण्यतां मूढो दृपबद्दष्टचेष्टितः अथाऽऽसीदेवपुरवत् रम्यं देवपुरं पुरम् । तत्र भूतमतिविप्रो वेदविद्याविशारदः समानां तस्य पंचाशत्कुमारत्वे गता किल । स्वजना ग्राहयामासुः यज्ञा कन्यां तमन्यदा उपाध्यायपदं प्राप्तश्छात्राध्यापनशुद्धधीः । अय॑मानो द्विजगणैर्यज्ञविद्यादिकार्यवित् महाऽऽभोगान् महाभोगान कियन्तस्तस्य मुंजतः। विययुर्यज्ञया साधं वासराः शुभभासुराः यझनामा बटुस्तत्रको यौवनवनस्थितः । रामाक्षिषट्पदाम्भोजो भ्रमन् पृथ्वी समागतः विद्यार्थी तेन विप्रेण दृष्ट्वा विनयलालसः । नीतः स्वधाम्नि पटुधीः मूर्तोऽनर्थ इव स्वयम् तस्य दर्शनमात्रेण यज्ञा बभूव विह्वला । रथाङ्गस्येव सद्रूपा रथाङ्गी दर्पकार्दिता यज्ञायज्ञकयोः स्नेहशाखी वृद्धि गतस्ततः । परस्परं विमुक्ताभ्यां नयनाभ्यां समन्ततः दुष्टावस्थस्य गोष्ठी च प्रेष्यस्य प्रतिकूलता । जरतस्तरुणी जाया वंशप्रक्षयकारिणी विद्यते सकलं दोष सुन्दरी परसङ्गिनी । वज्रधूमध्वजजालेव तापं के तनोति नो । उपेक्षिता सती नारी प्राप्नुवन्ती परामवं । प्राणानां कुरुते हानि व्याधिवृद्धिरिवानिशम् FEEREKKK SKCEEK XEKXCXXXXX ॥८॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१३॥ ॥१४॥ परिच्छेदः धर्मपरीक्षा कथानकम् अबलीकुरुते लोकानतो निगद्यतेऽवला । विवर्णयति या विश्वं वर्णिनी तेन वै मता अत उक्ता कुमारीयं धरी मारयते यतः । यतोऽमुष्यां प्रमाद्यन्ति रागिणः प्रमदा तता दूषयति यतो विश्वं बुधैर्योषा मता ततः । इत्यादिसकलं नाम वामानां क्लेशकारणम् तटिनीनां भुजङ्गीनां व्याघीणां वामचक्षुषाम् । उत्तमा जातु कुर्वन्ति न विश्वासं हितार्थिन: पुण्डरीकं महासत्रं विधातुं किल सोज्यदा । दवा मूल्यं समाहूतो मथुरायां परैर्द्विजैः रक्षन्ती स्वगृहं भद्रे ! शयीष्ठा अन्तरे सुखम् । शाययेर्यज्ञकद्वारे शिक्षा दवेति सोऽगमत गत्वा स्वरुच्ये सा पापा चकमे बटुकं विटम् । पुंश्चलीनां महाराज्यं शून्ये गेहे हि जायते स्पर्शनैर्दर्शनैः कामैर्गुह्यप्रकाशनैमिथः । तयोः प्रववृधे प्रीतिः घृतसेकैरिवानला अबलामिः सकलाभिः सर्वस्य हियते मनः । स्वैरिण्या स्वैरिणः किं न तरुण्णा तरुणस्य च तां यज्ञां बुभुजे सोऽपि पीनवक्षोजपीडितः । विजने प्रमदामाप्य विराम कस्य नो भवेत् ? यज्ञयाऽऽलिङ्गतो गाढं सद्विलासप्रधानया । मुदोऽमन्यत यज्ञोऽसौ पद्ययेव नरायणः मृगदृष्टया स्पृश्यमानो नरः क्षिप्रं विलीयते । शिखया दहनस्यैव सर्पिःकुम्भः स्वभावतः इन्द्राद्या अपि क्षुम्यन्त्येकान्ते प्राप्य वराङ्गनाः । मन्मथव्यथितस्वान्तः किं पुनर्बटुको विटा तयोरिति महाप्रेमयंत्रयंत्रितचेतसोः । चतुर्मासी व्यतीयाय रतिपाथोधिमप्रयोः BXXXXXXXXX ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥ २१ ॥ ॥२२॥ ॥ २३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३२॥ तन्मन्यदा जगौ यज्ञा परमप्रेमनिर्भरा । म्लानास्यो दृश्यसे भद्र ! किमद्य मम कथ्यताम सोऽवदत्तां सुनयने गता मम दिना घना । त्वया मे सुजतः शर्म केशवस्येव पाया अधुना सुभ्र । विद्यन्ते द्विजन्मागमवासराः। हृदयेशां विहाय त्वां क गच्छामि करोमि किम् ? त्वद्मदासक्तस्य मे तन्वि! गमनेंड्रीन गच्छतः । दुस्तटीत इतो व्याघ्रः किं कुर्वे द्वयसंश्रया? तयोक्तं प्रति तं सौम्य धीरो भव भयं त्यज । अधृतं मा विधेहि वं मदुक्तं कुरु सत्वरम् धनं धनं गृहीत्वेतो गच्छावोऽन्यत्र सुन्दर। । क्रीडावः स्वेच्छया हवं सेवमानौ रतामृतम् दुःप्रापं सफलीकुर्वे मनुष्यत्वं मनोरमम् । तारुण्यस्य रसं सारं निर्विशावोऽस्य गच्छतः प्रविहायाकुलीमावं मृतकद्वयमानय । करोमि वजनोपायमगम्यं निखिलैजैन: प्रपन्नं तेन तद्वाक्यमशेष इष्टचेतसा । भवन्ति नेदृशे कृत्ये कामिनो हि निरुद्यमाः आनिनाय विभावर्या स वदुः कुणपद्वयम् । विधत्ते किं न दुःकार्य बीभीरभ्यर्थितो नरः एक सा कुगपं द्वारे गेहस्याम्यन्तरे परम् । निधाय धनमादाय दहति स्म स्वमंदिरम् निर्गत्याथ धनोपेतो तावुदीचीपथं गतौ । यथा विनाशकारिण्याः वागुरायाः कुरङ्गको (शशाम) पावको दग्धा वदालयं शनैः शनैः । अकुर्वन् शोचनं लोकाः पश्यन्तो मस्म केवलम् साध्वीनामग्रणीर्दग्धा ब्राह्मणी शीलशालिनी। बटुकेन कथं साधं पश्यतोऽहो विधेः कृतम् ॥३४॥ ॥ ३५॥ ॥३७॥ ॥ ३८ ॥ ॥ ३९ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ १७ ॥ लोका विलोक्य बाह्यांतर्मारद्वाजकदंबकम् । निजं निजं गृहं जग्मुः विषण्णीभूतमानसाः प्रपंचो बने कोsपि नास्ति रामाभिरन्वहम् । निसर्गाद्दगयुक्ताभिः स्थाने यो न विबुध्यते लोकप्रेषित लेखेन तन्मत्वाऽऽगत्य वाडवः । दग्धं निरीक्ष्य गेहं च विललाप जडात्मकः विदधानो मदादेशं विधेयः शास्त्रपारगः । ब्रह्मचर्य क्रिया शुद्धः कुलीनो लोकवल्लभः अक्षुद्रः सत्वसंपन्नो निःस्पृहः सत्यभाषणः । निर्दयेनाग्निना दग्धो यज्ञोऽमंदमतिः कथम् वर्तमाना मदाज्ञायां गृहकृत्येषु तत्परा । पवित्रा त्वं कथं यझे ! दग्धाऽनलेन कोमला वृहत्रपा भर्तुर्भवता शालिशीलगुणोज्ज्वला । त्वत्समा प्रेयसी सुभ्रु ! भविष्यति कदापि नो स्पर्शनं दर्शनं दृष्टया हसनं जल्पनं मम । दूरिकृतं कृतान्तेन सर्व तन्वि ! त्वया सममू त्वया मम विहीनस्य चन्द्रास्ये ! का सुखासिका । निर्वृतिश्चक्रवाकस्य चक्रवाकी मृते कुतः एवमेकेन शोकार्त्तः सोऽभणि ब्रह्मचारिणा । प्रयोजने व्यतिक्रान्ते मुधा रोदिष्यसीति किम् संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते कर्मणा प्राणिराशयः । प्रेरिता नित्यगतिना पत्रपुञ्जा इव ध्रुवम् जीवितं विकृतिर्विश्वे प्रकृतिर्मृतिरंगिनाम् । तिष्ठत्यपि क्षणं चेदुवै स्वसन सल्लाभवानसौ रसामिषमेदोऽस्थिमज्जावीर्यादिभाजने । कांतं कि कामिनीकाये सूक्ष्मासुग्घरयाssवृते लोलानिष्ठीवन श्लेष्मदंशकीटसमाकुलम् | तदास्यं ग्लौसमं दक्षैः कथं हा व्युपमीयते ॥ ४१ ॥ ॥ ४२ ॥ ॥ ४३ ॥ ॥ ४४ ॥ ॥ ४५ ॥ ॥ ४६ ॥ ॥ ४७ ॥ ॥ ४८ ॥ ॥ ४९ ॥ ।। ५० ।। ॥ ५१ ॥ ॥ ५२ ॥ ॥ ५३ ॥ ॥ ५४ ॥ पञ्चमः परिच्छेदः ॥ १७ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ५७॥ ॥५८॥ ॥ ५९॥ ॥ ६०॥ पयोधरौ पलग्रन्थी सुवर्णकलशोपमौ । कामं कामातुरैः प्राः निगयेते कथं मुधा ? वस्नसास्थि पलोपेतं सद्यस्तु तु कदलीसमम् । कथ्यते जघनं मुखैः परार्थविमुखैनरैः दुःखोत्कर्षमयी भीमा दुर्गतिः प्राप्यते यया । अनर्थसार्थदा दक्षैः सेव्यते सांऽगना कथम् ? ततः क्रोधोद्धरो मूढः स वाडवो जगाद तम् । मदने लपसि व्यर्थ किमर्थ वं नराधम ! इन्द्रोपेन्द्रविरंच्याचा यदि तां हृदये कथम् । दधन्ते सुकृतोपेता यदि निद्या वराङ्गन्नाः सते सत्पुरुषाबारी याऽर्हचक्रिवलादिकान् । अनिंद्या निघते केन विश्वे सा मुढचेतसा तन्वते सेवनां यस्याः सुरासुरनरोत्तमाः । मोददा सुन्दरी सापि कैम॒दैरवगण्यते मूढाः स्युः सेवया स्त्रीणां सकला: पुरुषा यदि । तदा तत्संगरहितो विश्वे ना नास्ति कश्चन निगद्येति प्रविश्यासौ दग्धगेहे द्विजाधमः । यज्ञायज्ञास्थि तल्लावा चलितो जाह्नवी प्रति दैवानुभावतो गंगां व्रजतः कुत्र पुर्यपि । मिलितस्तस्य स बटुर्दुःकृत्य कारणे पटुः ततो बटुर्जगादेति तं निपत्य पदाब्जयोः । ममेश ! सापराधस्य सहस्त्र दुरनुष्ठितम् त्वं कोऽसि वटुकेत्युक्ते पुनः स पाहतं द्विजम् । जज्ञको नाम विद्यार्थी त्वदीयानुचरोऽस्म्यहम् तमाचष्टेति मूढात्मा क बटुर्मे स तस्थिवान् । दूरं त्वं याहि भो धूर्त ! बुधाः केन न वञ्चिताः इत्युक्त्वा पुरमध्येऽस्य गतस्य मिरिता प्रिया । ततो भयेन भीता तं पदोनिपत्य साऽवदत EXCKEXXXXXXXXXXXXKK***** ॥६२॥ ॥६४॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा कथानकम् 11 86 11 मद्दुः कृत्यं सहस्वेश तवास्ति सफलं धनम् । भवन्ति विबुधाः विश्वे प्रायो गंभीरमानसाः यतः - महिउ सुरेहि पीउ अगत्थि वाचाशिना कयानेहि संतत्तो । दहरयह मुयेण वद्धो रयणनिही तहवि गंभीरो asarane काप्यन्या नवा त्वमसि यज्ञका । सदृग्रूपाः घनाः सन्ति वसुमत्यां मृगीदृशः गदित्वेति तया मूढः स विप्रो निर्विचारकः । धूतैराकुलितं ग्रामं मन्यमानः स्वमानसे एवं विवेकविकलो मूढों निवेदितो मया । स्वाभिप्रायरतो विप्रा ! व्युद्ग्राही कथ्यतेऽधुना अथाऽऽसीत्सुस्थितग्रामे जितशत्रुर्नराधिपः । जात्यन्धः पापतस्तस्य जात्यन्धो नाम नंदनः हारकुण्डल केयूरादीनि सभूषणानि सः । मार्गणेभ्यस्तनुस्थानि प्रयच्छति दिने दिने अन्यदा वीक्ष्य तद्दानं घीसखोऽवग् नराधिपम् । कुमारेण विभो ! सर्वो दवा कोशो विनाशितः ततो भूपोऽमणमास्य दीयते यदि भूषणम् । तदा स्यात् हृदये खेदः किं करोमि महामते ! भ्रूपं मन्त्री ततोऽवोचदुपायं विदधाम्यहम् राज्ञोक्तं कुरु सद्बुद्धे ! मया स्वं न निवार्यते दवाsयो भूषणं मन्त्री सोऽयो दण्डं समर्प्य च समस्त जनघाताय जगादेति कुमारकम् भवद्राज्यक्रमायातं भूषण गत दूषणम् । दातव्यं वार्थिनः शर्मरमाकरमिदं ननु इति ब्रूयादिद यो यस्ताडयेस्त्वं वराङ्गके । अयोदण्डेन मा कार्षीः कुमार ! करुणां क्वचित् । । ॥ ६९ ॥ ।। ७० ।। ॥ ७१ ॥ ॥ ७२ ॥ ॥ ७३ ॥ ॥ ७४ ॥ ।। ७५ ।। ।। ७६ ।। ॥ ७७ ॥ 11 02 11 ॥ ७९ ॥ ॥ ८० ॥ ॥। ८१ ।। पञ्चमः परिच्छेदः ॥ १८ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥८२॥ ॥८३॥ ॥ ८४॥ ॥८५॥ ॥८६॥ धीसखोक्तं कुमारेण प्रतिपयं वचस्ततः । पुषस्य भाषितं केन पृथ्व्यां न प्रतिपद्यते ? गृहीत्वाघ्यो मयं दण्डं निराकुलितमानसः । ततः स्थितः कुमारोऽसौ पुलकातितविग्रहा हिताहितं न जानाति यो नरो निजचेतसि । अनेकविबुधैः सोऽपि बोधयितुं न शक्यते यो जात्यंधसमो मूर्ख परवाक्याविचारकः । स व्युझाही मतो दक्षः स्वकदाग्रहसक्तधी परेषां च शुमं हित्वा गृह्णाति यः स्वसुन्दरम् । जात्यन्ध इत्र सौवर्ण्य मूढोऽलं कारमायसम् पाणिप्रहारात्तपनीयशैलो मेत्तु कदाचित्परिशक्यते वै। न कोविदेोधयितुं प्रशक्यः कदाग्रही बंधुवाक्पवारैः शुभाशुभ यो मनुजः स्वचिते जानाति नैकैकवच:प्रसक्तः । न जल्पते तस्य पुरा कदापि विशारदः रक्तिमयं हि वास्यम् इति धर्मपरीक्षायां मूढव्युग्राहिदृष्टान्तविशिष्टो नाम पंचमः परिच्छेदा अथ षष्ठमः परिच्छेदः व्युद्ग्राही कथितो विप्राः साम्प्रतं पित्तदूषितः। भूपतां सावधानेन हृदा कथयतो मम त्रापि नगरे कबिदजनिष्ट नराधमः । पिचवरेण तीवेण विहलीभूतविग्रहः ॥ ८७॥ ॥८८॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्ठमः परिच्छेदः धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥१९॥ केनापि शर्करामिथं तस्य तुष्ठिप्रदायकम् । अदायि मधुरं क्षीरी पीयूषमिव पावनम् । ॥३ ॥ त्यवमेतत्ततो मत्वा तेनारिष्टरसोपणम् । दिवान्धो मास्ववस्तेमस्तमःस्तोमं हि मन्यते-- ॥४॥ अमृतं प्राप्य मूढात्माऽमंदमोदप्रदायकम् । स्वचित्र गणमत्येक कालकूटसमं चत प्रशस्तं मन्यते सर्वसप्रशस्तं हि यो-नरः । सोजानव्याकुलस्वान्तो।। गद्यवे, पित्तदूषितः निर्विचारस्य तस्याग्रे विवेकविकलात्मनः । न किंचिदुपदेष्टश्यं . नियतं . तत्त्वबुद्धिभिः भवत्पुरो मयाज़ाचि भो विप्राः! पिचषितः । अतो निशम्यतां सूक्तं एकाग्रमनसाऽधुना अंगदेशे पुरी चंपा बभूव भूमिविश्रुता । प्रतिक्षोभयितुं शक्या प्रतिपक्षगणैन या. निषेव्यमानः सामतैस्तत्राभून्नृपशेखरः । पार्थिवो निर्जरदंगे मघवानिव नाकिमिः ॥१०॥ सर्वामयजरोच्छेदं दुरखापं मनोहर । प्रमोदितजनस्वान्तं सौरम्याकृष्टराष्ट्रकाम्याम् ॥११॥ वंगनाथेन भूपेन तस्य प्रेषितमद्भुतम् । सद्यस्कं. निर्भरप्रीत्या मार्कदस्यैकसत्फलम्( युग्मम् ) ॥१२॥ जहर्ष पृथिवीनाथः फलस्य तस्य दर्शनात् । न मोदो जायते कस्य रमणीये हि वीक्षिते ॥१३॥ फलेनैकेन सर्वस्य पूर्णेनामयवातिना । जायते राजलोकस्य संविभागो न निश्चितम् ॥ १४ ॥ यश भवति मूरीणि विदधामि तथाऽधिपः । ध्यात्वेति वनपालस्य समर्प्य निजगाद च ॥१५॥ यथा मवति चूतोज्यं मद्रामंदफलप्रदा | नीत्वा' तथा कुरुव त्वं रोपयस्ववमान्तरे ॥१६॥ ॥ १९ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१७॥ ॥१८॥ वनपालोऽवनीपालं नत्वोवाच करोम्यहम् । वृद्धि संप्रापयालादारोप्यांतर्वनेऽथ तत् तस्याऽभूत्गुरुचूतत्वं खचितं भूरिमिः फलैः । आहादजनक सबा सच्छायं सज्जनोपमम् । द्विजेन नीयमानस्यापोमुखस्याथ मोगिनः । गरल गलितं तस्यैकफलोपरि दैवतः तत्फलं अन्ततश्युत्वा विषतापेन तापितम् । भूमौ पपात रोद्रेणान्यायेनेव कुलं स्वयम् आनीय भूमिपालस्य वनपालेन दर्शितम् । तत्सुपक्वं फलं नव्यं स्वान्तसमोददायकम् तच्चूतस्य फलं दुष्ट निर्विकल्पेन ममजा । अदावि युवराजस्य तूर्ण निर्वर्ण्य बन्धुरम् प्रसाद इति भाषित्वा तदादाय नृपाङ्गजः' । सद्र सालफलं कालकूटमित्रं चखाद च स तत्वादनमात्रेणाभवत्राणविवर्जितः । दुष्टसेवाकृता किं न हरते कस्य जीवितम् ? निधनं वीक्ष्य तस्यासोराजा कोपाग्नितापितः । आराममंडनीस्तं रसालांघ्रिमखण्डयत् ततः कासजराकुष्टशूलछर्दिक्षयान्वितैः । मक्षितं मृत्यवे पुंमि: तस्य पत्रफलादिकम् पुरोगरोगरहिताः सुन्दराकारधारकाः । बभूवुस्ते नराः सर्वे वर्यवीर्ययुतास्तदा ततस्तान पुरुषान् दृष्ट्वा विषाद प्राप्तवान् नृपः । अविचार्य कृतं चित्त मया दुर्मेधसा किमु विचित्रपत्रसंकीर्णो समिमण्डलमण्डनः । सफलो रसालशाखी' कथमून्मूलितो मया एवं वज्रानलेनेव पचात्तापेन संततम् । अदखत चिरं तस्य भूमीववस्य मानसम् ॥२०॥ ॥२१॥ ॥ २२॥ ॥ २३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ = = ॥२७॥ ॥२८॥ = = = Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श Baal षष्ठमः ॥३१॥ ॥३२॥ परिच्छेद धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥२०॥ ॥३४॥ ॥३५॥ पुमान् सर्वाणि कार्याणि यः करोत्यपरीक्षया । पश्चात्तापमसौ तीव्रमाम्रघातीव गच्छति विदधाति नरः कृत्यं योऽविचार्य दुराशयः । क्षिप्रं पलायते तस्य मनीषितमशेषतः नरस्य निर्विचारस्य क्रोधव्याहतचेतसः । सकलान्यपि दुःखानि भृशं भवन्ति सर्वदा दुर्वारा निर्विचारस्य ज्ञात्वेत्थं दोषसंहतिम् । विवेको हृदि कर्तव्यो लोकद्वयसुखप्रदः चूतछेद्यविचारी भो गदितो मयका द्विजाः । अधुना कथ्यते धीरं श्रूयतां सावधानको लोहारविषये ख्याते सुस्थितं नाम पत्तनम् । वणिक्सागरदत्तास्तत्राऽभूवविणान्वितः अन्यदा पोतमारुह्य चचाल श्रेष्ठिपुंगवः । अगण्यपण्यवांचोलद्वीपं प्रति शुभे दिने क्वचित द्वीपे परे तेन निरीक्ष्य क्षीरदायिनी । गच्छतेका सौरमेयी गृहीता चारुविग्रहा कियद्भिर्वासरः श्रेष्ठी तं द्वीप प्राप्तांस्ततः । प्रोवीर्य द्वीपपं गत्वा प्रणनाम सढौकन: दत्त्वा वांसासि वासायार्पयति स्म स्वमंदिरम् । तस्मै तुष्टोऽथ संतस्थौ तत्र श्रेष्ठिवरः सुखम् संस्कृत्य तत्पयोमिदं सच्छाल्यो दनमुत्तमम् । तेनाकार्य निजागारे द्वीपेशो भोजितोऽन्यदा अलब्धपूर्वक भुक्त्वा विशिष्ट मिष्टमोजनम् । प्रहृष्टमनसाज़ाचि द्वीपेशेन स वाणिज: मद्र ! त्वयेदृशं दिव्यमशन लम्पते कुतः । तेन प्रोक्तं मम स्वामिन् ! कुलदेव्या प्रदीयते मणितो द्वीपनाथेन तेनासौ वणिजोचमः । स्वकीयकार्यताम् साधो ! ममाशु कुलदेवता ॥३८॥ BXXXXXXXXXXXXXXXXXX ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥ २०॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेन प्रोक्तं तदात्मीयं यच्छामि कुलदेवताम् । कामितं यच्छति द्रव्यं नराधीश्वर ! मे यदि अमितं तेन गदितं संशयं भद्र ! मा कुरु । गृहाण कामितं वित्तं देहि मे कुलदेवताम् गृहीत्वाकांक्षितं वित्तं समर्प्य तस्य वंजुलाम् । यानपात्रं समारूढः सोऽचलत्स्खपुरं ततः तदा धेनोः पुरः पात्रं निधाय तेन जल्पितम् । ददासि श्रेष्ठिनो यन्मे देहि तद्दिव्यभोजनम् तेनैवं गदिता धेनुः मूकत्वेन व्यवस्थिता । सीमंतिनी विदग्धेव निर्विदग्धेन कामिना अजल्पन्ती तु तेनोक्ता देहि मे कुलदेवते । प्रसादेनाशनं वर्ग भक्तस्य भाषितं कुरु कां वीक्ष्यामुनाऽवाचि प्रगे दद्या ममाशनम् । स्मरन्ती वाणिजं देवि ! तिष्ठताचं निराकुला द्वितीये दिवसेवादि तेन सा नैचिकी तथा । स्वस्थभूता ममेदानीं यच्छ भोज्यं मनोरमम् धेनुं वाचंयमीभूतां तां दृष्ट्वा स क्रुधात्मकः । तं बिलोकयितुं भृत्यान् प्रेषयामास सर्वतः प्रेक्ष्यतामस्य मूर्खत्वमिदं योऽपि न बुध्यते । न दुग्धं याचिता दत्ते गौः कस्यापि कदाचन पयोऽददाना तेनासौ निरस्ता सुरभिर्वरा । अज्ञानात् पाणिपतितं यथा रत्नं पलायते अकर्णस्य सद्गीतमन्धस्य नृत्यं शुचित्वं द्विकस्पोरुमोज्यम् शवस्य । कलत्रं च पदस्य रागो मुमुक्षोर्न सौख्याय रत्नं तथाऽज्ञस्य दत्तम् उष्णमरीचो ध्वांतनिवासः शीतल भावः पावकमध्ये । ।। ४५ ।। ॥ ४६ ॥ || 80 || ।। ४८ ।। ॥। ४९ ।। ।। ५० ।। ॥ ५१ ॥ ॥ ५२ ॥ ॥ ५३ ॥ ॥ ५४ ॥ ।। ५५ ।। ।। ५६ ।। 3881 1************** Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा परिच्छेदः ॥ ५८॥ ॥२१॥ स्वादयतापो जातु मृगांके चारुविचारो मूर्खजने नो वस्मवगाझं भीषणकथं वरमनुगम्पो वजहुवाया। सिरिशिखातबारुनिपातः परमपि सेव्यो जातु न मूर्खः इदं कर्ष सिद्ध्यति कार्यजातं हानि कर्ष पाति कर्ष प्रद्धिम् । इत्यं न पश्चिन्तयति प्रकार्म-स दुःखमम्येति भवदयेऽपि कर्ष यच्छति मे दुग्धमियं गौरमृतोपमम् । योऽपीदं हृदि नो वेत्ति तस्य नास्ति समो जडः प्रोक्तं धीरमिदं प्राप्तं द्वीपेशेन विनाशिनी । यो निगयते विप्राः सांप्रतं मयका गुरुः मगधमिषदेशेऽभूत् ख्यातो गजरतो नृपः । सपलमत्तमातंगकुम्मभेदनकेसरी सक्रीडया घराधीशो निर्ययो पहिरन्यदा। सैन्यं विहाय कान्तारं गतो मंत्रिद्वितीयका दृष्टैकं पुस्तो भृत्यं सूपोऽयम् घीसखं तदा । कोऽयं वा कस्य भृत्योऽयं सुतोऽयं कस्य गद्यताम् ततोऽवम् घीसरवो देव! ख्यातो ये हालिकाख्यया । हरेर्महत्तरस्येह तनयस्तव किंकरः भवदीयक्रमाम्योजसेवा विदधता सतः । अस्य द्वादश वर्षाणि जातानि क्लेशपूर्वकम् सपनाभाणि मंत्रीशो विरूपं त्वयका कृतम् । कथितं मद्र ! यो ममास्य क्लेशकारणम् केशोऽक्लेशोऽथवापचेरमक्किमेक्तिरभुता । मंत्रिणा सकळवावा कथनीयं घरापत ॥६२॥ ॥६४॥ ॥६६॥ ॥ ६८॥ ११ ॥ २१ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७०॥ साध्यायः साधुन्देन गेहकृत्य कुलखिया । घीसखेन प्रमोः कृत्यं चिन्तनीय निरन्तरम ततो महीजावादि तुष्टचिन हालिका । शंस यद्रोचते भद्र ! मटबं स्वीकुरुत्तमम् भद्रेद संश्रित वामः पञ्चशतप्रमैः । इदानैः कामितं वस्तु देवदुमैरिवापर निश्चम्येति वचो राजो हलिना गदित'तदा । किं कुर्वेई धनमरेकाकी करुणापरः गृहीतुं तम्य सङ्ग्रामा दीयमाना अनेकशः। युज्यन्ते सेवका यस्य भवन्ति प्रतिपालकाः स पुनर्गदितो राजा भद्र ! प्राममनोरमैः । विद्यमानैर्भविष्यन्ति स्वयं भृत्याः प्रपालकाः ग्रामेभ्यो जायते वित्तं वित्तो भृत्यः संहतिः । सेव्यतेऽथ नृपो भृत्यैर्विततो नोत्तमं परम् मान्योऽभिजातः शुचिदर्शनीयो महामना वाममतिर्गुणः। सतपुण्यवान्यायरतिविनीतः सजायते द्रव्यत एव मर्त्यः बहुश्रुताः शासविदो विदग्धा.योगाना वीरवरा प्रबद्धाः ।। कुर्वन्धि सेवां द्रविणाविकस्य नरस्य सर्वे प्रियवादिनोवै विशीर्णनाशाकरकर्णपादं कुष्ठश्रवपूनमरं छुपम् । प्रशेरते द्रव्ययुतं पुमांसमालिदाय रामा नवयौवनान्याः ॥७२॥ ॥७३॥ ॥ ७४॥ ॥ ७५ ॥ ॥७६॥ ॥ ७७॥ ॥ ७८॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ २२ ॥ ********8** चक्रयर्द्धिचक्रिनलदेवघराघराधा ग्रामप्रसचिवशतो नेरपुंगवाः किम् प्रार्न गौरवपदं विशदं ह्यनन्यसाधारणांबुनिधिजं विपुलान्तराले ततोsवादीदसौ देव ! दीयतां मे प्रसादतः एकं क्षेत्रं सदा कृष्यं कारस्कारविवर्जितम् । ततो दध्यौ नरेशोऽयं बुध्यते नात्मनो हितम् निर्भाग्यानां भवत्येव विशदा शेमुषीकृतः यतः - अभ्याससारिणी विद्या लक्ष्मी पुण्यानुसारिणी । ॥ ८१ ॥ ॥ ८२ ॥ ॥ ८३ ॥ ।। ८४ ।। दानानुसारिणी कीर्तिः बुद्धिः कर्मानुसारिणी भूपेन मणितो मंत्री जीवितावधि दीयताम् । अस्य राजाईराजीमी राजितं क्षेत्रमद्भुतम् भूपवाक्येन मंत्रीशस्तस्य क्षेत्रमदर्शयत् । गीर्वाणद्रुमसंकाशैः प्रपूर्ण मगरुडुमैः तटेहलिको दध्यौ अहो राजैष वाष्णिकः । नानाविधद्रुमैः कीर्ण कीदृशं क्षेत्रमर्पितम् छिन्नं भिनं मया क्षेत्रं विस्तीर्णनिरुपद्रवम् । निराकुलं भूमिरुहैर्याचितं दत्तमन्यथा गृहामीदमपि क्षेत्रं करिष्यामि शुभं स्वयम् । यदीदमपि दत्ते नो राज्ञः किं क्रियते तदा प्रसादस्तत इत्युक्त्वा गृहमागत्य हालिकः । कुषीः कुठारमादाय स्वयं क्षेत्रमशिश्रियत् सच्छाखाप्रविशाखाभिः समुपेताः सुमाद्भुता । छायाकारिवरच्छायाः सौरभ्याकृष्टषट्पदाः सफलाः शालिनो रम्याः सज्जना श्वशर्मदाः । राजाईशाखिनः छित्वा दग्वास्तेन जडात्मना (युग्मम्) ।। ८९ ॥ ।। ८५ ।। ।। ८६ ।। ॥ ८७ ॥ 11 26 11 ॥ ७९ ॥ ॥ ८० ॥ षष्ठमः परिच्छेदः ॥ २२ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ९० ॥ ॥ ९३ ॥ ॥ ९४ ॥ कृष्टिकमोचित सद्यः शुद्ध करवलोपमम् । अकारि हालिकेनेदमन्यायेनेव मंदिरम् दर्शितं तेन संतोषात् तत्क्षेत्रं पृथिवीमुजः । नरस्याज्ञानिनस्तस्य मूढत्वं वीक्ष्यतामहो । सोऽभाणि मभुजाका स्यात् त्वयेदमीदृशं कृतम् । तेनोदितं प्रभो ! दृष्टा विष्वक् मया शुभद्रुमाः आलोक्य कुमति तस्य भूपेन मणितो हली । माणामत्र दग्धानां करे किंचन विद्यते तेनाथ खण्डमानीय हस्तमात्र प्रदर्शितम् । दग्धमेकं क्षितीशस्य दुरायागरशाखिनः राजा तद्वीक्ष्य सो वाद्यस्यापणे विक्रय कुरु । किं मूल्यं ! देव तेनोक्तं काष्ठस्यास्य भविष्यति हसित्वाऽभाषि भूपेन बालिशो हालिकस्तदा । तदेव भद्र ! गृह्णीया यत्ते यच्छति वाणिजा तेन हट्टे ततो नीतं दारूखण्डं निरीक्ष्य तत् । दीनारपंचक मूल्यं प्रादत्त तस्य वाणिजः हालिकोऽसौ ततो दध्यौ विषादानलतापितः। अज्ञात्वा कुर्वतः कार्य तापः कस्य न जायते यदीदं विक्रये द्रव्यं खण्डेनैकेन लम्यते । सकलानां तदा मूल्यं गम्यते केन शाखिनाम महीभुजा वितीर्ण तत् क्षेत्र सेवधिसभिभम् । अज्ञानिना पापवता निरर्थ हारितं मया अकरिष्यमहं रक्षां शाखिना यदि यत्नतः । तदाऽभविष्यद्व्यौष माजन्मसौख्यसाधन: एवं सहालिको दग्धः पश्चात्तापाग्निना चिरम् । मदनेन वियोगीव दु:सहेन निरन्तरम् महारम्मेण यो द्रव्यं प्राप्य नि षवेबडः । हलीव जमते दुखं दुनिवारमसौ तदा ॥ ९८ ॥ ॥ ९९ ॥ ॥१०॥ ॥१०२॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः परिच्छेदः धर्मपरीक्षा ॥१.४॥ ॥२३॥ ॥१.६॥ यो वेचि वस्तूनि मिरस्तबुद्धिः अमाधुमानींह न मानसे स्से । नरवति प्राप्यमपि प्रथरत रत्न करे दुर्लभमेष मूर्खा न जानाति यो प्रायममासमेव नरोज्ञानमूच्छावपर्याप्तपित्तः। हलेनेष हैमेन मूढो धरित्री समावर्मतीहार्कतूलायनूनम् हलीव तत्वेषु गोल्बुद्धिर्मवेन्मनुष्योन जडात्मको यः। हितं वचस्तस्य पुरर प्रवाच्यं न सर्वथा विप्रवराः सुधीमिः इति धर्मपरीचायां पित्तक्षितचूतक्षीरागुरुदृष्टान्तप्रकृष्टो नाम षष्ठः परिच्छेदः अथ सप्तमः, परिच्छेदः दरापाजारुविच्छेदी गक्तिो निर्विचारकः । युप्माकं चंदनत्यागी मयाय कथ्यतेश्चना मध्यदेशेऽस्ति मधुरा यन्त्र होपमा नराः । इष्टकान्तोमात्रीकाः सर्वदारूपराजिता यत्रारामोपमा रामा सदाना रंगसंश्रिताः । मनोहरतरच्छाया मांतिः सदूपशोमिताः जितारिस्तत्र राजाऽमयेनेंद्रकुलशायितम् । पश्चोच्छेदं विदधता स्मयोद्धतमहीभृताम् अन्पदा बुर्निवारण ग्रीमार्केणेव सिन्धुरः । पित्तन्वरेण अमीको पम्व विहूबलात्मक: XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX ॥२॥ ॥२३॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१०॥ EKEKXSEEKEEXXXXXXXXXXX तेन तापेन तीत्रेण तप्तो वलवलायते । सः तरूपे मृदुव्र्येण स्तोके मीन इवाम्मसि तस्योपमाणस्य मैषज्यैः वीर्यधारिमिा । तापोजईत दुसाध्यः काष्ठरिव धनंजयः दाहं देहे महीशस्य वर्धमानं निरीक्ष्य तम् । मथुरायाममात्येन घोषणाकारि सर्वतः बुधो निर्नाशयेदांई यः कश्चन नृपाङ्गताः । द्रंगाणाममेते तस्य शतमेकं सगौरवम् दीयतेऽम्बरयुग्मं च राज्ञा परिहितं बलम् । सत्कांचनमयी कांची कंठभूषणमद्भुतम् निवाम्येति वणिक कबित नगराधितो बहिः। तापापनोदकं शीतं बीक्षित हरिचन्दनम् दव दैवयोमेन सदा वत्खण्डमुज्ज्जानाम् । स वाणिजो विमूढस्प स्वकप करस्थितम् हरिचंदनं सत्खण्डं ज्ञात्वेद के जगाद सः । कुन लब्धं त्वया मद्र! पिचुमन्दस्य काष्टकम् तेन प्रोकं ममा प्रासं वहमानं सरिजाले । योऽवग् ममः देहीदमादाप दारूसंचयम् गृहाण मद्र ! को दोषस्तेनोक्त्येति कि तस। आकाप दासबोहं वितीर्ण वाणिजाय तक तूर्णमागत्य वणिजा घर्षिला मविवालिना । चंबनामुना देहो विनितो धरणीभुजः कामानुमावतस्तस्स समाधिषिप्रजनि । मंत्रिणोतं वणिक पवातासर्व पूर्वमासवान दारूमसादतः पूजां वाणिजस नियम्या ताम् । आक्रन्दीद्रजकः सोधी र शोकेन तापितः हा ! कथं वणिजाऽनेन वशितोऽहं दुरात्मना । परहानिस्तस्येदं दुर्जनस्थात्र लक्षणम् ॥१५॥ ॥१८॥ 363EXSS Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ २४ ॥ यतः - दूरादुच्छ्रितपाणिरार्द्रनयनः संयोजितार्द्धासनः । गाढालिङ्गनतत्परः प्रियकथाप्रभे प्रसन्नोचरः अन्तर्गुढविषो बहिमधुमययातीवमायापटुः । को नामायमपूर्वनाटकविधि शिक्षितो दुर्जनः प्रोच्यारिष्टं गृहीतं मे कथं हि हरिचन्दनम् । वाणिजैर्वच्यते नूनं यमोऽपि सत्यमोचिभिः एवं शोकेन तीव्रेण रजकोऽदलतानिशम् । यतो ज्ञानवतां पुंसां न जायेत सुखासिका एकस्यारिष्टकाष्ठस्य कृतेऽन्यकाष्ठसंचयः । वणिजाऽनेन मे दत्तं कथं ज्ञातं तदेवि नो दुश्छेभानुभानूनाम् अगम्यं चन्द्ररोचिषाम् । इदं दुर्वारमज्ञानं तमसोऽपि परं तमः रजकस्य समो विप्रः चेत् विद्यतेऽत्र कश्चन । भाषितुं पृच्छमानोऽपि तवं तदा निमेम्यहम् इत्येष चन्दनत्यागी गदितो मयका ततः । निगद्यतेऽधुना मौर्यमप्रशंसास्पदं सदा चत्वारो बालिशाः कापि गच्छन्तो घनलीलया । मुमुक्षुमेकमद्राक्षुर्वीतरागमिवानघम् निर्मलः समलाङ्गोऽपि विरूपो जनवल्लभः । निर्ग्रन्थो ग्रन्थसहितो निर्बंधो गुप्तिमानपि मितद्भुवि गंभीरो रत्नसानुरिव स्थिरः । गमस्तिरिव तेजस्वी सोमवत् सौम्य लेश्यकः पारीन्द्र इव निर्भीकः सुरशाखीव शर्मदः । सर्वसहो धरित्रीव सुरमार्ग इवामल: उपेन्द्रदेवेन्द्र विधातृशंकरा विनिर्जिता येन निहत्य मार्गणैः । प्रपेदिरे रूपशतानि सर्वतस्तं दुर्जयं यो मदनं जघान ॥ २० ॥ ॥ २१ ॥ ।। २२ ।। ॥ २३ ॥ ॥ २४ ॥ ।। २५ ।। ॥ ॥ २६ ॥ २७ ॥ ॥ २८ ॥ ।। २९ ।। ॥ ३० ॥ ।। ३१ ।। सप्तमः परिच्छेदः ॥ २४ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रवज्रायितं येन शुद्धात्मना पापतापापनोदे लसद्बुद्धिना । चारुचारित्रसंपालनोच्चेतसा दुः कषायाचले दुःखसंदोहके निरीक्ष्य ते नराः साधुं सुरासुरनमस्कृतम् । वनंदिरे मुदा भूमिपृष्ठे निविष्टमस्तकाः ततस्तेषां धर्मलाभं चतुर्णामप्यसौ सकृत् । विततार महासौख्यवनोल्लासनंनीरदम् अन्योऽन्यं विवदते स्म चत्वारस्ते नरास्ततः । एकोऽवग् मम धर्माशीर्दत्ता तेन मुमुक्षुणा प्रोक्तं तथैव सर्वेश्व निरस्तमतिवैभवैः । इत्थं प्रजल्पतां तेषां चतुर्णामभवत् कलिः एकोऽवग् भोः तदा राटिर्मिथः कथं विधीयते । असौं प्रपृच्छ्यतामेत्य न विष्ठति तमो खौ सतो मुनीन्द्रमासाद्य जडास्तेऽपि बभाचिरे । दत्ताशीः कस्य भगवन् ! प्रसादाद्भवताऽधुना मुनिनोक्तं भवन्मध्ये यो नरो मातृशासितः । सा तस्य विवदंते स्मेतशोऽहं तु ते ततः तेषां कलिं मिथो मत्वा पुरमेत्य जगौ स तान् । विवेचयध्वं सल्लोकाज्जडा जडत्वमत्रं नो श्रुत्वेति ते पुरं गत्वा पौराणां पुरतोऽवदन् । जना ! युष्माभिरस्माकं व्यवहारो विचार्यताम् पौरेर्निवेदिता भद्रा व्यवहारोऽस्ति कीदृशः । एते ततो वदन्ति स्म सोऽस्माकं मौगोचरः अवादिषुस्ततो लोका वार्ता स्वा स्वा निगद्यताम् । एकोनोक्तं जडेनैवं तावन्मे श्रूयतामिदम् मार्गे द्वे कठिनोदय लंबस्तन्यौ विरूमके । वितीर्णे वेधसा साक्षाद्राक्षस्याविव भीषणे ५ ॥ ३२ ॥ ॥ ३३ ॥ ॥ ३४ ॥ ॥ ३५ ॥ ॥ ३६ ॥ ॥ ३७ ॥ 11 3 12 11 ॥ ३९ ॥ ॥ ४० ॥ ॥ ४१ ॥ ॥ ४२ ॥ ॥ ४३ ॥ ॥ ४४ ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरीक्षा कथानकम् सप्तमः परिच्छेदा क्रोधोबुरे भुजङ्गीव सर्वस्यासुखदायिक । अमतां कलहासत्के शोणनेत्रे ममाप्रिये (युग्मन) ॥४५॥ राक्षसीम्यामिवाभीक्ष्णं ताभ्यां भृशं विमेम्यहम् । स नास्ति विष्टपे प्रायो योषितो यो न शंकते ॥४६॥ सार्ध मे क्रीडतस्ताम्यां कियत्काले गते सति । अन्यदाऽहं त्रियामायां शय्यायां शयितः सुखम् ॥४७॥ द्वे समागत्य भार्ये ते सुप्ते पार्श्वद्वये तदा । बाहुद्विकं तयोः कंठे मया मुक्तं महामिया ॥४८॥ भालोपरि ममाऽमोचि ताभ्यांदीपः स्वकेलये । कामिनी हि न जानाति भवन्तीं विपदं सदा ॥४९॥ तदा दैवान्मूषकेन नयनोपरि वर्तिका । ज्वलनी पातिता मेव नीयमाना दुरात्मना ॥५०॥ विचितयितुमारब्धं मयाऽथ व्याकुलात्मना । जागरित्वा दह्यमाने सर्वांगोत्तमलोचने ॥५१॥ दक्षिणं पाणिमाकृष्य यदि विध्यापयामि ताम् । तदा कुप्यति मे भार्या दक्षिणाऽथ परा परम् ॥५२॥ ततः कान्तामयत्रस्तः स्थितो यावदहं स्थिरः। स्फुटित्वा लोचनं तावद्वाम काणं ममाजनि ॥५३॥ शशाम स्फुटिते नेत्र ज्वलित्वा ज्वलनः स्वयम् । न व्यधायि मया भीत्योपाय: कथन शांतये ॥५४॥ ममेह सदृशो मूढो विद्यते यदि कथ्यताम् । दह्यमानं निजं नेत्रं य खीत्रस्त उपेक्ष्यते निजमूर्खत्वमित्युक्त्वा तमिन् मुखें स्थिते सति । लोकाग्रे द्वितीयोऽवोचन्मन्मूढत्वं निशम्यताम् दयिते द्वे ममामतां व्याघीव प्रतिषोदुरे । रासभीव महारावे पापाशये गतत्रपे ॥५७॥ प्रेयसी परमां प्रीति वहन्ती चरणं मम । एका झालंबते वाम द्वितीया दक्षिणं तथा ॥ ५८॥ ॥ २५ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1888888888888*888888888888 धात्री खरीति संज्ञाभ्यां ताभ्यां सह विभुञ्जतः । भोगान्मे लीलया कालः कियान् जातः सुखान्वितः प्रीतिधात्री प्रिया धात्री विलसल्लीलयान्यदा । पादस्योपरि मे पादं विचिक्षेप स्मरार्दिता वीक्ष्यान्यया वदन्त्येति मत्क्रमोऽग्राहि किं त्वया । भग्नो मुशलमादाय खर्याऽऽशु मम स क्रमः दृष्ट्वा स्पष्टं महारिष्टं सा रुष्टाऽऽचष्ट तां खरीम् । कृतं किमद्य दुःकृत्यं त्वया रे ! दुष्टमानसे ! नैष मार्गः सुसाध्वीनां पापिष्ठे ! कुटहारिके । । रुच्ये निष्ठुर घातेन प्रहारः परिदीयते ततः खयोंदिता घात्री पांसुलेऽकृत्यकारिणि । परनिंदारते ! ऽशेषं दोषं यच्छसि मे खले ! आरोप्य गर्द मे शीर्ष मुंडयित्वा दुराशये । भ्रमयामि बलात्कारात् कुटिलां त्वां पुरान्तरे एवं तयोर्महाराटी प्रवृत्ता दुर्निवारणा । जनानां प्रेक्षणीभूता वेताल्योरिव दुष्टयोः धात्री तामाह चेच्छक्तिः पोटे रक्षतु ते क्रमम् । तयेर्ष्यया निगद्येति पादो भग्नो द्वितीयकः ताभ्यां चकितचितोऽहं मुकीभूय व्यवस्थितः । व्याघ्रीभ्यामिव रूष्टाभ्यां वस्तः कंपित संवरः मम पश्यत मूर्खत्वं गृहिणीभीतितो मया । विमूढचेतसा लोकाः ! पादभंगोऽप्युपेक्षितः उदित्वेति निजां वार्ता द्वितीये विरते सति । तृतीयस्तान् महामूढस्ततो वक्तुं प्रचक्रमे मदीयं साम्प्रतं पौराः ! मूर्खत्वं कथयामि वः । सावधानेन सुष्मा मिरवधार्यताम् अन्यदाश्वशुरागारेगत्वाऽऽनीता मया प्रिया । भगदती निशि प्रोक्ता शयनीये निषेदुषी चित्तेन ॥ ५९ ॥ ॥ ६० ॥ ॥ ६१ ॥ ॥ ६२ ॥ ॥ ६३ ॥ ॥ ६४ ॥ ॥ ६५ ॥ ॥ ६६ ॥ ॥ ६७ ॥ ॥ ६८ ॥ ॥ ६९ ॥ ॥ ७० ॥ ॥ ७१ ॥ ॥ ७२ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः परिच्छेदः धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥२६॥ ॥ ७३॥ ॥७४॥ ॥ ७५॥ ।। ७६॥ ॥ ७८॥ यो जल्पत्यावयोः पूर्व हार्यते तेन निश्चितम् । मृगनेत्रे दशापूपा गुडसपिर्विलोडिताः तदनु प्रियया प्रोक्तं भवत्वेवं विशंसयम् । साध्वीमिर्वचनं भर्तुरुलंध्येत कदापि नो आवयोः स्थितयोरेवं प्रतिज्ञासक्तयोस्तदा । प्रविश्यापहृतं वित्तं चौरेण सकलं गृहे गृह्णता द्रविणं गेहे त्यक्तं तेन न किश्चन । चौराः परस्य जानति गति कि हि दुराशया: यतः-चौरा चेल्लक्काविय, मग्गणविप्पा तहेव पाहुणया। नव्वणि धुत्तनरिंदा परस्स पीडं न याणति कान्तायाः ऋष्टुमारब्धे तच्चौरेणोत्तरीयके । तयोक्तं मो दुराचर ! किमद्य त्वं मामुपेक्ष्यसे कथं जीवसि धूर्तत्वं व्याकृष्ट परिधानके । कुल्यानां जीवितव्यं हि कान्तापरिभवावधि तदीयं वचनं श्रुत्वाऽवोचं विहस्य तामहम् । हारितं हारितं कान्ते! प्रथमं भाषितं त्वया अंभोजाक्षि ! दशापूपा मिश्रा गुडेन सर्पिषा । प्रतिज्ञानिरते! शीघ्र दीयन्तां मम साम्प्रतम् इदं पश्यत मूढत्वं मदीयं येन हारितम् । पूर्वार्जितं धनं सर्व दुःप्रापं शर्मधर्मदम् स्वं गदित्वेति मूर्ख वं तृतीये विरते सति । प्रारेमे भाषितुं तुर्यों बालिशो जनताग्रतः गतोऽहमन्यदा नेतुं श्वशुरस्य गृहं प्रियाम् । कामितार्थप्रदं कामं स्वर्गवासमिवापरम् न ब्रीडां वहमानेन मया तस्य निकेतने । अज्ञानवान्तयुक्तेनाऽभोजि किश्चित् प्रियंकरम् ॥८१॥ ॥८२॥ ।। ८३ ॥ ।। ८४ ॥ ॥८५॥ OKSEEKEE* ॥२६॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये वासरे तत्र मयाsकारि विबुद्धिना । ग्रामेयकवधूवृन्दं निरीक्ष्य लघुभोजनम् तृतीये दिवसे जातः प्रबलो जठरानलः । लज्जापरिगतस्याहो मूढस्य मम दुःसहः शयनाधस्तनोद्देशे मयाऽलोकि ततो निशि । वीक्षितं भाजनं तत्र शालेयैस्तन्दुलैर्भृतम् मया वीक्ष्य गृहद्वारं पूरितं तंदुलैर्मुखम् । प्रचंडा नलवतस्य मर्यादा हि कुतस्तनी यतः - आदौ रूपविनाशिनी कृशकरी कामार्थविध्वंसिनी । तेजोमंदकरी तपःक्षयकरी धर्मस्य निर्मूलनी पुत्र भ्रातृ कलत्र मेदनकरी लज्जाकुलच्छेदनी । सा मां बाधति सर्वदोषजननी पाणापहारी क्षुधा तदा तत्र प्रविष्टा सा कुलीना मम वल्लभा । लज्जमानमनास्तस्याः फुल्लगल्लाननः स्थितः निरीक्ष्योत्फुल्लगल्लं मां विकाशीकृतलोचनम् । सा मातुः सूचयामास शंकमाना महाव्यथाम् श्रश्रूरागत्य मां वीक्ष्य जीवितव्ये च शंकिता । ततो रोदितुमारेमे मदीयप्रियया समम् रुदन्तीं तां प्रियां श्रुत्वा सकला ग्रामयोषितः । मिलित्वाऽवादिषुः व्याधीन कल्पयत्यः सहस्रशः एका जगाद दोषोऽयं दुर्देवानां विनिश्चयम् । अन्यथा जायते कस्मादाकस्माकीदृशी व्यथा अभाणीदपरो दोषः पूर्वजानामयं स्फुटम् । नरस्यास्येदृशी पीडा परथा जायते कथम् ? अपरा लष्मिकं दोषं पित्तभूतं च काचन । सांनिपातिकमपरावातीयमपराऽगदत् प्रदुष्टानामयं दोषः शाकिनीनां पसऽवदत् । यतोऽस्त्राऽऽआकस्मिकी भूता विद्यते तीत्रवेदना ॥ ८६ ॥ ॥ ८७ ॥ ॥ ८८ ॥ ॥ ८९ ॥ ॥ ९० ॥ ॥ ९१ ॥ ॥ ९२ ॥ ॥ ९३ ॥ ॥ ९४ ॥ ।। ९५ ।। ॥ ९६ ॥ ॥ ९७ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः धर्मपरीक्षा ॥९८॥ ॥९९॥ ॥१०॥ परिच्छेदा ॥२७॥ अपरा न्यगद्रामा निवेश्य बदन करे । करसादोषादियं जाता दुःसहा कर्णसचिका इत्थं तासु गर्दतीषु वामासु व्याकुलासु च । सर्वदोषेषु निष्णातः तदाऽऽययौ चिकित्सक बाहय वेगतः कृत्वा दोषोत्पत्तिनिवेदनम् । श्वश्वाऽहं दर्शितस्तस्य वैद्यस्यातुरचित्तया पूर्ण निरीक्ष्य मे वक्त्रं स्पृष्ट्वा गल्लौच निष्ठुरौ। पाणिना हृदि सोऽध्यासीदिगिताकारकोविदः अनेन वदने क्षिप्तं क्षुधादितेन किंचन | भविष्यति हि मन्ये चेष्टा परस्य नेशी वल्पाधास्थं निरीक्ष्यासो वैद्यस्तंदुलभाजनम् । भाषते स्मेति मो मातः दुर्व्याधिस्तंदुलीयका दुःसाध्योऽयं महाव्याधिः प्राणच्छेदविधायकः । यदि त्वं काङ्कितं द्रव्यं दरसे मे हन्म्यहं तदा श्वश्वा प्रोक्तं भिषग्! दास्ये कामितं द्रविणं तव । नीरोगत्वं विधेहि त्वं कुमारस्यास्य सत्वरम् शस्त्रेण गल्लो मम पाटयित्वा कीटा: समाना वरतंदुलानाम् । ___ प्रदर्शिताः सर्वनितंबिनीनां शोकोद्धराणां मिषजाऽथ तेन निजालये कामितवित्तमेष ययौ गृहीत्वा च दुकूलयुग्मम् । वाचंयमीभ्य तदा स्थितोऽहं तद्वदनामिः प्रगतो विबुद्धिः ततः प्रभृति श्वशुरस्य गेहे सन्मंगलाली धनधान्यपूर्णे। मूर्खत्वमेवं मम दृश्यतां भोः स्वयं कृतोऽनर्थगणो निरर्थकम् ॥१०२॥ ॥१०३॥ ॥ १०४॥ ॥१०५॥ ॥१०६॥ ॥१०७॥ ॥ २७॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१०९॥ ॥११ ॥ ॥१११ ॥ इत्थं चतुर्मिर्गदिता नरेस्तैः स्व स्व विचाराभितकिंवदन्ती। अवादिषुर्नागरिकास्वतस्तान सर्वे हि मूढत्वयुता भवन्तः ततो विमूढाः स्वपदे गतास्ते विध्वस्तसंशुद्धमतिप्रपंचाः । अनर्थसार्थस्य करं च मौख्यं निंदास्पदं भो गदितं मयेवम् युष्मन्मध्ये कोऽपि यद्यस्ति तादृग् वक्तुं तत्वं मोस्तदानीं विमेमि ।। प्राः शुद्ध वाऽविशुद्ध जडाने किश्चिद्वाक्यं जल्पनीयं यतो नो इति धर्मपरीक्षायां चंदनत्यागिबालिशदृष्टान्तयुतो नाम सप्तमः परिच्छेदः अथाष्टमः परिच्छेदः रागान्धः कथितो रक्तो द्विष्टो देषकरः किल । विज्ञानरहितो मूढो व्युग्राही स्वमतग्रहः पैसिको विपरीतात्मा चूतश्छेदोऽविचारका । अक्षानो जुलात्यागी सशोकोजारुविक्रयी विक्रीतचंदनो लोभी वैधेयो निर्विवेचकः । मया निवेदिता विप्रा दशैते भवतां पुरः जातचिद्भवतां मध्ये नेशः स्पाद्विवालिशः । स्ववास्यहिणः शंका तथापि विद्यते मम ॥२॥ ॥४॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सप्तमः परिच्छेदः धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ २८॥ ॥१०॥ ऊचुस्ततो द्विजन्मानो मा भैषीः प्रस्तुतां क्द । चर्विते चर्वणं कर्तुं न युज्यते महात्मनाम् मनोवेगस्ततोऽवोचत् यद्येवं द्विजपुङ्गवाः । तदाङ्गीक्रियतां वाक्य पूर्वापराश्रित मम इहास्ति केशवो देवो विष्टपत्रयविश्रुतः । सृष्टिस्थितिविनाशानां जगतः कारण परम् यस्यानुभावतो लोका लभन्ते पदमक्षयम् । व्योमेव व्यापको नित्योऽवदातो योऽध्ययोऽनिशम् गदाकंषुधनुश्चक्रैः भूषिता यस्य पाणयः । त्रिलोकीमंदिराधारस्तमा वैरिदवानला: लोकोपद्रवजनका हन्यते यैश्च दानवाः । दिवाकरकरैर्दुष्टा यथाज तिमिरोत्कराः यस्य देहे स्थिता पद्मा जनानंदविधायिनी । कामितार्थप्रदा हया ज्योत्स्नेव हिमरोचिषः कौस्तुभो विग्रहे यस्य भासते विशदपुतिः । पद्यया स्थापितो दीपं किमु वर्षे निजालये भवतां तत्र किं विप्राः प्रतीतिर्विद्यते न वा । सर्वदेवाभिधे दैवे गोविन्दे परमात्मनि क्लेशकृशानुपर्जन्यो जन्मांबोधिबहित्रिकः । यैर्नाङ्गीक्रियते जिष्णुः पशवस्ते नृविग्रहाः द्विजा यदीशो जिष्णुस्तदा किं नन्दगोकुले । त्रायमाणः स्थितस्तंपादं गोपीकृताङ्गक: कलापिनां कलापेन कलितो धूलिधूसरः । कुर्वाणो वल्लवैः सार्ध रासक्रीडां पदे पदे याचितः किंवलिः पृथ्वीं कृत्वावामनरूपताम् । विष्णुना दीनवचनैः दुःखसंदोहहारिणा जागरूकः कथं ते केशवो मकराकरे । निरस्तप्रतिघातं का शखं स्वीकुरुते कथम् । ॥१२॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥ १७॥ ॥१८॥ ॥ २८॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRAKAR XXXXXXXXXXSEXCOM दानवास्तेन हन्यन्ते विधाय प्रभुणा कथम् । न लोके दृश्यते कोऽपि सुतानामपकारका सूक्ष्मो निरञ्जनो नित्यमृत्यूत्पत्तिविवर्जितः । अवतारं कथं प्राप्तो दशधासो नरायणः द्विजरूपं जराजीणमातेनने तत्प्रविष्णुना । आपापरिगतः कर्णो कथं दंभेन मार्गितः वसाशोणितमांसास्थिमज्जवीर्यादिदूषिते । गर्ने स सर्वतोपूते कथं तिष्ठति सर्ववित इत्यादीनि कुकर्माणि युज्यन्ते कि महात्मनः । देववंद्यस्य योगीन्द्रगम्यस्य जगतां गुरोः यदीदृशानि कर्माणि विमोहः कुरुते हरिः । तदाऽदो दुःस्थपुत्राणां को दोषः काष्टविक्रये तस्येशी मुकुन्दस्य चेष्टा चेत्परमेष्ठिनः । तदा दरिद्रपुत्राणामस्माकं केन वार्यते निशम्येति वचस्तस्या वादिषुर्वाडवोत्तमाः । अस्माकमीशो देवो दीयते किं तवोत्तरम् सांप्रतं वर्तते भ्रान्तिरस्माकमपि चेतसि । करोति मृत्युकर्माणि विश्वाधीशः कथं हरि: त्वया प्रबोधिता भद्र ! विमूढमानसा वयम् । निशि दीपं विना रूपं सचक्षुरपि नेक्षते प्रेरितः कुरुतेऽनंतो यदीगकर्मणाऽथवा । विधत्ते प्रेरितः पित्रा तदेष दारुविक्रयम् देवे कुर्वति नान्यायं भक्तानां प्रतिबोधनम् । द्रव्यापहारके मापे वार्यते केन तस्करः इहकर्मकरे जिष्णौ नान्यस्यात्रास्ति दूषणम् । श्वश्रुर्दुचारिणी यत्र तत्र दुष्यति न स्नुषा आत्मनः संशयं शक्तो निराकर्तुं न यः पुमान् । उत्तरं स कयं दत्ते परेषां हेतुवादिनाम् ॥१९॥ ॥ २०॥ ॥ २१ ॥ ॥ २२॥ ॥ २३ ॥ ॥ २४ ॥ ॥ २५॥ ॥ २६ ॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३१॥ ॥ ३२॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा कमानकम् ॥ २९ ॥ *E*R**SEEK गच्छ त्वं स्वपदे भद्र भद्रं स्यात्तव नित्यशः । मार्गयामोऽथ सदेवं वयं निरस्तदूषणम् इत्युक्तः खेचरो विप्रैः जगाम सुहृदा समम् । सर्वज्ञवचनाम्भोभिर्विशदीकृतमानसः उपेत्योपवनं मित्रं व्याजहारेति खेचरः । सुरोऽयं जनसामान्यस्त्वयाऽश्राव्यविचारतः सांप्रतं संशयध्वान्तव्यापादनदिवाकरम् । अपरं प्रक्रमं साधो कथयामि तवोत्तमम् षट्खण्डा भद्र ! विद्यन्ते भरतेऽस्मिन् यथाक्रमम् । स्वस्वभावेन निष्पन्ना जंतवः सर्वदा यथा शलाका: पुरुषास्तत्र चतुर्थे त्वरकेऽभवन् । त्रिषष्ठिमितयः पूज्याः मृगांकोज्ज्वलकीर्त्तयः चक्रिणो द्वादशार्हन्तश्चतुर्विंशतिरीरिताः । प्रत्येकं नव रामाथ केशवः प्रतिकेशवः सर्वे तेऽपि व्यतिक्रान्ता महीमण्डलमण्डनाः । कालेनानेन भीमेन के के न ग्रसिता नराः १ हरीणां यो हरिवयों वसुदेवाङ्गजोऽजनि । स विप्रैः कथितसर्वैः परमेष्ठी निरञ्जनः अच्छेद्यं व्यापिनं देवं जराजन्मनिवारकम् । यो ध्यायति शतावर्त स प्राप्नोति परमं पदम् मीनचतुर्गतिःकोले नरसिंहोऽथ वामनः । रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धकल्की दश स्मृताः कुशाग्रबुद्धे ! मित्रैतद्दशावर्तगतो हरिः । भण्यते किं बुधैः सार्वः पूर्वापरविरोधतः संबंध बलिबंधस्य कथयामि तवाधुना । योऽन्यथा वाडवनतः प्रसिद्धिं मूढबुद्धिभिः बद्धो विष्णुकुमारेण यतिना लब्धिभागिना । भद्र ! विप्रो बलिर्दुष्टो निर्ग्रन्थोपद्रवोद्यतः ॥ ३३ ॥ ॥ ३४ ॥ ॥ ३५ ॥ ।। ३६ ।। ॥ ३७ ॥ ॥ ३८ ॥ ॥ ३९ ॥ ॥ ४० ॥ ॥ ४१ ॥ ॥ ४२ ॥ ॥ ४३ ॥ ॥ ४४ ॥ ॥ ४५ ॥ ।। ४६ ।। अष्टमः परिच्छेदः ॥ २९ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४७॥ ॥४८॥ *XXXXXXXXXXXXXXXHORS यतिना वामनीमय बद्धो बलिस्विमिः क्रमैः । इत्येवमन्यथा लोकैः गदितो भ्रान्तमानसै: पूर्वापरविरोधाढ्यमथ यल्लौकिक तव । वदाम्यन्यदपीत्युक्त्वा स खेचरांगमत्यजत् तदनुश्यावदन्तोऽसौ वक्रकेशो धनुः करः । विद्यानुभावतः स्थूल: पुलिन्दो भीषणोऽभवत् ततः पवनवेगोऽपि विडाल: कपिलेक्षणः । विडालविद्यया कृष्णः किश्चितखंडवा अभूत प्रविश्य नगरं लात्वा मार्जारं च विरूपकम् । खेटोऽन्यवादिशालायां स ययौ जैनधर्मवान स खेटस्तूर्यमाताब्य घंटां च सुस्वनां ततः । अमेयमतिमिर्युक्तो निविष्टो हेमविष्टरे तरवश्रुतेविप्राः प्रोचुः समेत्य वेगतः । किं रे वादमकृत्वा त्वं स्वर्णासनमधिष्ठितः ततोऽवादीदसौ विप्रा ! वादाभिधान वेदम्यहम्। रचयामि कथं वादं पशुरूपो बनेचरः चामीकरासने मूर्ख । यद्येवं त्वं कथं स्थितः । आहत्य वेगतस्तूर्य वादिवादनिवेदकम् सोऽवोचदहमारूढो विनोदेनात्र विष्टरे । तूर्यमास्फाल्य न पुनर्वादस्मयेन माहनाः मय्यासने स्थिते स्याद्रोदोयामवतां हृदि । उत्तिष्ठामि तदा विप्रा! इत्युक्त्वा प्रोत्ततार स: द्विजैरुक्तः किमायातस्त्वमति ततोऽगदत् । समायातः पुलिन्दोऽहं कर्तु विडालविक्रयम् माहात्म्पमस्य कि भद्र मूल्यं कि विद्यते वद । इत्यसो वादिमिः प्रोक्तः व्याजहार वनेचरः गन्धेनास्य हि नश्यन्ति देशे द्वादशयोजने । खनकाः सकलाः शीघ्रं सुपर्णस्येव भोगिनः ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥ ५४॥ ॥ ५८॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ ३० ॥ मूल्यं पलानि पंचाशत् स्वर्णस्यास्य महोजसः । यदि वोऽस्ति द्विजाः कार्य तदाऽयं गृह्यतां रयात् मिलित्वा माहनाः सर्वे वदन्ति स्म मिथस्तदा । गृह्यतामेष मार्जारः खनकप्रमथक्षमः एकत्र दिवसे वित्तं मूषकैर्यद्विनाश्यते । हीयते मूल्यमेतस्य सहस्रांशेऽपि तस्य नो अर्पयित्वा ततो मूल्यं शीघ्रमग्राहि स द्विजैः । कार्यः कालविलम्बो नो सारे वस्तुनि पण्डितैः यतः- लंचौचित्यादिदानेषु सद्ववस्तुनि सुभाषिते । धर्मे रोगरिपूच्छेदे कालक्षेपो न शस्यते स खेचरस्ततोऽवोचत्परीक्ष्य गृह्यतामयम् । अन्यथा वाडवाः कामं भविष्यन्ति दुरुत्तराः कर्णेनैकेन रहितमोतुं वीक्ष्याथ तेऽवदन् । अनश्यदस्य भोः कर्णः कथं क्षिप्रं निवेद्यताम् ततोऽवदत्खगेन्द्रस्तान् वयं पथि श्रमातुंराः । ओतुयुक्तास्त्रियामायां संस्थिता निर्जरालये तदाऽगत्य वृषैः कर्णो विडालस्यास्य भक्षितः । क्षुधाग्निपीडितांगस्य निद्रापरिगतस्य च बभाषिरे ततो विप्रा नितान्तहाससंकुलाः । भो ! भो ! विचार्यतां चित्ते विरोधो दृश्यते महान् यदीयगन्धमात्रेण द्विष योजनान्तरे । न भवन्ति वृषास्तस्य श्रवणं भक्ष्यते कथम् ? तान् जगाद नमोगोऽसौ सार्वाहि किजषट्पदः । किमेकदोषमात्रेण गता गुणाः परस्य तु तैरुक्तमस्य दोषेणैकेन सर्वे गता गुणाः । पयो विलीयते किं हि न कांजिकैकबिन्दुना खगेनोक्तं गुणाः सर्वे नास्य यान्त्येकदोषतः । किं व्रजति दिनेशस्य पादास्तिमिरमर्दिताः ॥ ६१ ॥ ॥ ६२ ॥ ॥ ६३ ॥ ॥ ६४ ॥ ॥ ६५ ॥ ॥ ६६ ॥ ॥ ६७ ॥ ॥ ६८ ॥ ॥ ६९ ॥ ।। ७० ।। ॥ ७१ ॥ ॥ ७२ ॥ ॥ ७३ ॥ अष्टमः परिच्छेदः ॥ ३० ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७४॥ ॥ ७७॥ वयं निस्वांगजा मूढाः पशूपमा वनेचराः । प्रजल्पितुं महाप्राज्ञैर्भवद्भिः सह न क्षमाः जजल्पुर्वाडवा भद्र ! नात्रास्ति तव दूषणम् । अU सदोषमार्जारमङ्गीकुरुष्व सादरम् करोम्यहं परं विप्रा भवद्भिविबुधैः समम् । जल्पतो जायते शंका मम चित्ते यथातथम् कूपमंडूकसहशा नरास्सन्ति घना भुवि । अस्यां मो! वादिशालायां भविष्यति कदाचन यथा च पक्षिनागतस्त्वं कुत इह सरसः तत्कियोः विशालम् । कि मद् धाम्नोऽपि बाढं नहि नहि सुमहत पापमाजल्प मिथ्या इत्थं कूपोदरस्थः श्पति तटगतं दुर्दरो राजहंसम् । नीचः स्वल्पेन गर्यो भवति हि विषया नापरे येन दृष्टाः मद्वा मिति भो विप्रा! मण्डूकसदृशा नराः । ज्ञानप्रकाशविकला न संगृह्णन्ति निश्चितम् ये स्युग्रामीणसदृशा अथवा पुरुषाधमाः । तेषामने न वक्तव्यं बुधैर्वचः शुभाशुभम् यथा-दंताः सप्त चलं विषाणयुगलं पुच्छाचलः कर्बुरः । कुक्षिचंद्रकितो वपुः कुसमितं सत्वच्युतं चेष्टितम् अस्मिन् दुष्टपणे वृषाग्रिमगुणग्रामानभिज्ञात्मनः। ग्रामीणस्य तथापि चेतसि चिरंघुर्येति विस्फूर्जितम् ॥ ७८॥ ॥८ ॥ ॥८ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ ३१ ॥ ये कूपमंडूकसमा भवन्ति ग्रामीणतुल्याः पुरुषाधमा वा । तेषां पुरः प्राज्ञजनैर्न वाच्यं कुर्वन्ति कार्य हि मुधा न सन्तः ॥ ८२ ॥ तरेतु समुद्रं वरवीचिभीषणं समुद्धरेद्वै मकरास्यतो मणिम् । ॥ ८३ ॥ प्रकोपितं कंचुकिनं च धारयेत् प्रबोधयेज्जातु न मूर्ख मर्त्यम् इतिश्री धर्मपरीक्षायां ब्राह्मणप्रतिबोधपुनरपि वादिशालागमनो नाम अष्टमः परिच्छेदः । अथ नवमः परिच्छेदः अथ ते प्रोचिरे के भो मेकग्रामीणसन्निभाः । अंगीकुर्मो हि सर्वेषां युक्तियुक्तं वचो वयम् मनोवेगस्ततोऽवादीद्वादशधुतिबुद्धिमान् । यद्येवं श्रयतां विप्राः । कथयामि मनोगतम् कुत्रचित्तापसो दिव्यो भवन्मंडपको शकः । स्थानं दुस्तपतपसां महसामिव भास्करः एकदा तापसैः सार्धं विशुद्धसंवरैः सकः । निविष्टो भोजनं भोक्तुं नक्षत्रैरिव चन्द्रमाः एनं निषिद्धमालोक्य मातङ्गमिव गर्हितम् । संस्पर्शभीत चेतस्काः सर्वे ते तरसोत्थिताः पृष्टास्ते तेन भुंजानाः यूयं हि कथमुत्थिताः । दयां विधाय मुग्धस्य निदानं मे निगद्यताम् ते सर्वे तं ततः प्रोचुः तापसेभ्यो वहिर्भव । कुमारब्रह्मचारी त्वं अदृष्टदारकाननः ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥५॥ ॥ ६॥ || 61 || नवमः परिच्छेदः ॥ ३१ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥८॥ ॥ १२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ = अपुत्रस्य गतिनास्ति स्वगों नैव च नैव च । तस्मात्पुत्रमुखं दृष्टा पश्चात् धर्म समाचर गत्वा तेन ततः कन्या याचिता स्वजनान्तिके । वयोऽतीततया तस्मै परं कोऽपि ददाति न तेन ते तापसा पृष्टा भूयोऽप्यागत्य सत्वरम् । वृद्धस्य कोऽपि कन्यां मे न ददाति करोमि किम् ? प्रोक्तं तैविधवांकांचित् संगृह्य त्वं गृहीभव । नात्र दोषोऽस्ति मोः साधो! यदुक्तं तापसागमे यथा-पत्यो प्रबजिते क्लीबे प्रनष्टे पतिते मृते । पश्चस्वापत्सु नारीभिः पतिरन्यो विधीयते तेनाथ विधवा कापि तापसादेशवर्तिना । अंगीकृता चारुरूपा यौवनोद्धरमानसा विविधान मुंजतो भोगान् तस्य सार्ध तयैकदा । कन्याजनिगु णैर्धन्या प्रमाप्राग्भारमासुरा छायारूपा वरच्छाया छायानाम्न्यजनिष्ट या । छायामृद्वदनाच्छाया पितृच्छायापरायणा श्रीकंठश्रीधरब्रह्मदेवेन्द्रादिदिवौकसाम् । दुर्वारं वर्द्धमाना यावर्धयद्विषमायुधम् क्रमाचापसजा कन्या साजनिष्टाष्टवार्षिकी । रूपसंपत्तिभिः पूर्णा चतुष्पष्टिकलोज्ज्वला अवोचदन्यदाकान्तामसौ मंडपकोशकः । तीर्थयात्रां प्रिये कुर्या पापव्याद्यविनाशिनीम् कान्ते कस्य करन्यस्ता देवस्य यौवनामृताम् । छायां करोम्यहं पुर्वी शुभलक्षणलक्षिताम् सार्प्यते यस्य वै धन्या समादाय स तिष्ठति । लोके न विद्यते कोऽपि वामारत्नपराङ्मुखः रुद्रः सरीसृपैः रुद्रो वामादचा संवरः । स्मराग्निवप्तचेतस्कः सदा विषमलोचनः = = = वापसजा कन्या वासाम्लामबदनाच्छाया = = ॥ १८॥ ॥ १९ ॥ ॥ २०॥ ॥२१॥ = Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ ३२ ॥ देहस्थां गिरिजां हित्वा स्वर्धुन यो निषेवते । स मुश्चति कथं कन्यां संप्राप्योत्तमलक्षणाम् दुःसहो ज्वलति स्वान्ते यस्य कन्दर्पपावकः । दिवानिशं महातापो मितद्रोरिव वाडव: सुतां तस्यार्पयाम्येनां शिवस्य कामिनः कथम् । रक्षणाय विडालस्य न बुधैर्दीयते पयः हरिस्तृप्तो न गोपीनां सहस्रैः षोडशप्रमैः । नदीभिः सेव्यमानोऽपि यथा घनरसाशयः गोपीर्निषेवते हित्वा यारमां मानसे स्थिताम् । आसाद्य बन्धुरां रामां स मुंचति कथं हरिः अर्पयामि कथं विष्णोरीदृशस्य शरीरजाम् । हस्ते स्वेनस्य रत्नं हि केन त्राणाय दीयते ? रंमादर्शनमात्रेण निजं वृत्तं मुमोच यः । स विधिः कुरुते किं न प्रमदां प्राप्य सुन्दराम १ अन्यदा विष्टरक्षोभे जाते सति सुराधिपः । पप्रच्छां गिरसौ साधो ! केनैतत्क्षुभितं दृढम् उवाच विषणो देव ! विधेर्विदधतस्तपः । अब्द्युष्टशब्दसहस्राणि बभूवू राज्यकांक्षा स्वामिस्तपोऽनुभावेन तस्यायं गुरुणा तव । अजनिष्टासनक्षोभं स्तपसा किं न साध्यते यतः - यच्च दूरं दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् । तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् तपसस्तं पातयितुं प्रेषय स्त्रियमुत्तमाम् । नापायो रमणीं हित्वा देवेश ! सर्वथा परः यतः - तावत्तपो वपुषि चेतसि तच्चचिन्ता वैराग्यभारकलित। सुकथा च वाण्याम् । यावन पश्यति मुखं मृगलोचनानां शृंगारवृचिमिरुदाहृतकामसूत्रम् ॥ २२ ॥ ॥ २३ ॥ ॥ २४ ॥ ।। २५ ।। ॥ २६ ॥ ॥ २७ ॥ ।। २८ ।। ।। २९ ।। 11 30 11 ॥ ३१ ॥ ॥ ३२ ॥ ॥ ३३ ॥ ॥ ३४ ॥ नवमः परिच्छेदः ॥ ३२ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = = = ॥ ३८॥ = = = = तद्वाक्यमकरोत्स्त्रीणां दिव्यानां तिलमात्रकम् । गृहीत्वा सत्प्रदेशं च रामा तिलोत्तमां हरिः गत्याशु तपसा रिक्तं कुरुष्व त्वं पुराणगम् । इत्युक्त्वा प्रेषयामास हरिस्ततस्तिलोत्तमाम अथागत्य वरं नृत्यं जीर्णमद्यमिवार्जितम् । प्रजापतेः पुरश्चक्रे सा सुरी रससंकुलम् शरीरावयवान् रम्यान दर्शयन्त्याः समन्ततः । प्रस्फुरच्चारतारुण्यवरेण्यायाश्च तत् खियः दृष्टिर्विश्रम्य विश्रम्य धावमाना सविभ्रमा । विधौ दर्पकजननी चिरं चिक्रीड चंचला (युग्मम्) विभेद मानसं तस्य विलासभ्रमवारिणी । मंदसंचारकर्वी सा बंध्यस्येव मृगांकजा विज्ञाय रागभृत् तस्य भ्रामयन्ती मनः क्रमात । सापाचीपश्चिमोदीचीहरित्रयमशिश्रयत् ततश्च-नृत्यं निरीक्षितुं दचा सहस्राब्दमवं तपः । एकैकस्यां सा काष्ठायां लज्जया खं व्यधान्मुखम् तमासक्तदृशं वीक्ष्य सारोह नमस्तलम् । अंगनारक्तचित्तानां वचनां के न कुर्वते पंचवर्षशतोत्थेन तपसाथाबरेकरोत् । खरोपममसौ शीर्ष पतितः क्रियते न किम् ? सा तं सर्वतपोरिक्तं कृत्वा तिलोत्तमा ययौ । मोहयित्वाऽखिलं वामा वंचयन्ति हि रागिणम् इमामवीक्ष्यमाणोऽसौ विवक्षत्वमुपागतः । दर्शनागतदेषेभ्यः कुप्यति स्म जडात्मकः स प्रावर्तत देवानां रखवक्रेण खादने । विलक्षो हि स्वभावेन सर्वोऽन्येभ्यः प्रकुप्यति भवदनमरा गत्वा धूर्जटेरस्य चेष्टितम् । आत्मदुःखप्रतीकारे सकलो यतते जनः = ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ ॥४६॥ ॥४७॥ ॥४८॥ = Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ॥४९॥ ॥५०॥ धर्मपरीक्षा नवमः परिच्छेदः ॥५२॥ ॥५३॥ ॥ ५४॥ ततश्चकर्त तच्छीर्ष शंभुः समेत्य पंचमम् । परापकारिणां कष्टं जायते नात्र संशयः त्वदीयकरतो नैतच्छिरो मम पतिष्यति । इति तं शप्तवानैष ब्रह्महत्याकर क्रुधा कुरुष्वानुग्रहं स्वामिन् ! ब्रह्महत्याकृतो मम । इत्येवं मणितो ब्रह्मा भयभीतेन शंभुना स तमूचेऽसृजा विष्णुर्यदीदं पूरयिष्यति । करतस्ते तदा शंभो ! शीर्ष मम पतिष्यति वचोंगीकृत्य तस्यासौ कपालव्रतमग्रहीत् । स्याद्देवानामपि क्लेशः कदाचित्कर्मयोगतः ब्रह्महत्याऽपनोदाय स ययौ हरिसनिधिम् । किं पूतीकर्तुमात्मानं विधत्ते नोद्यभंजनः अथो जगाम स ब्रह्मा कीर्ण मृगगणैर्वनम् । तीवस्मराग्निसंतप्तचेतस्को गतधर्मधी: मल्लूक्यूतुमती दृष्टा (भ्राम्य)ता तत्र वेधसा । ततः सा सेविता तेन गतलज्जेन कामिना गर्भमासाद्य तरसा सा पूर्णसमये सुतम् । असूत जाम्बुदं दिव्यं विख्यातं भुवनत्रये यः स्मरामिना ब्रह्मा तिरश्चीमपि सेवते । स बन्धुरां कथं कन्यामेनां मोक्ष्यति बालिशः तस्येन्द्रस्यान्तिके भद्रे कन्यका मुच्यते कथम् । मुक्त्वा देवीमहिल्याया येनैव गमनं कृतम् एवं मोहेन कामेन यो रागेण न पीडितः । नासौ निषणो विश्वे गीर्वाणः कोऽपि दृश्यते एक एव यमो विश्वे सत्यशौच्यपरायणः । प्रत्यर्थिमईको धीरः समवर्तीह विद्यते ततः करोम्यहं यात्रां कर्ममर्मविनाशिनीम् । कन्यां धन्यां स्थापयित्वा यमराजस्य सनिधी ॥ ५६॥ ॥ ५७ ॥ ॥५८॥ ॥ ५९॥ ॥६०॥ ॥ ६१॥ ॥ ६२॥ ॥३३॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ध्यात्वेति मानसे तेन चिरं सन्मतिभाजिना । श्राद्धदेवस्य साभिध्ये स्थापिता दुहिता निजा तीर्थसार्थस्य यात्रार्थं स्वस्त्रीयुतो ययौ सकः मृत्वा निराकुलो विद्वान् धर्मकार्ये प्रवर्तते अथ स्मरतरुक्षोणी गृहीता तेन सा कनी । विश्वे हि कोऽपि वामासु नास्ति वामासु निस्पृहः सोऽन्यापहारमीतस्तामकरो सुंदवर्तिनीम् । कामितां कामिनीं कामी क न स्थापयते किल आविःकृत्य तया सार्धं समयेऽसौ खगात्मजः । भोगान् मुङ्क्ते ततोऽन्तःस्थां कुरुते नाशशंकितः इत्थं तस्य तया सार्व भुंजानस्य रतामृतम् । कालः प्रावर्त्ततात्मानं पश्यतो देवताधिपम् खटिकापुस्तिकावामापरपाणिगता सती | नैवायात्यथवा पुंसा घृष्टा स्पृष्टोपलभ्यते अन्यदा वायुनाऽवाचि कृशानुर्भद्र ! सर्वदा । एकः स्वधाभुजां मध्ये यमो जीवति सौख्यतः तेनैका सांगना लब्धा सुरतामृतवाहिनी । दृढमालिङ्गन्य यां शेते शर्माकूपारमध्यगः निशम्येति वृहद्भानुर्निजगाद समीरणम् । कथं मे जायते सङ्गः सार्धं तयैणचक्षुषा तमाशुगोऽवदद्भद्र ! शय्यमानाऽमुना प्रिया । न द्रष्टुं लभ्यते क्वापि तस्याः सङ्गः कुतस्तव १ चेदिच्छा तव नामाप्तुं तदुपायं वदाम्यहम् । यदा विशति गंगां स मुक्त्वा शौचार्थमंगनाम् भविष्यति तदा तस्याः प्राप्तेरवसरः सखे ! । आकर्णेति ययौ तत्र कामार्तः पावकस्ततः प्रविष्टं सुरवाहिन्यां कृतान्तमवगत्य सः । कान्तं सुतन्वीममजच्चताम् सुरूपमातत्य ॥ ६३ ॥ ॥ ६४ ॥ ।। ६५ ।। ॥ ६६ ॥ ॥ ६७ ॥ 11 12 11 ॥ ६९ ॥ ॥ ७० ॥ || 192 || ॥ ७२ ॥ ॥ ७३ ॥ ।। ७४ ।। ॥ ७५ ॥ || 198 || Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ ३४ ॥ संगं विधाय ज्वलनेन साकं जगाद सा त्वं व्रज शीघ्रमेव । निरीक्ष्य मां सत्वका समेतां लुनाति नासां नियतं मदीयाम् विवृद्धकोपश्च निशुम्भति त्वां जारं पर्तिर्न क्षमते हि विद्वान् । आलिङ्ग पीनस्तनपीडितां तां बमाण बहिर्ललिते ! यदि त्वाम् विमुच्य गच्छामि तदैष मां वै वियोगहस्ती पिशुनो हिनस्ति । ॥ ७८ ॥ वरं हतोऽहं दयिते तवाग्रे यमेन रुष्टेन निशातवाणै: । दुःसाध्यमारज्वलेन दग्धो विना त्वया नोज्ज्वलता सदैव ॥ ७९ ॥ एवं वदन्तं तरसा गृहीत्वा चकार साऽग्निं जठरस्थितं तम । नरोचमानं पुरुषं हि वामा खल्वस्ति चित्रं हृदये करोति कृत्वा कृतान्तस्तमबुध्यमानः स्नानं समागत्य तदंतरस्थाम् । चकार मध्ये जठरस्य कान्तां स्त्रीणां प्रपंचो विदुषामगम्यः जाणन्ति बुद्धिमता महिलाचरियं ण याणंति बिना हुताशेन निरीक्ष्य नाशं प्रपेदिरे व्याकुलतां नृदेवा: गंगाए वालूयं सायरे जलं हिमवउय परिमाणम् । ॥ ७७ ॥ सर्वत्र लोके किल धन्यपाकप्रदीपयोग प्रमुखक्रियाणाम् । 11 02 11 ॥ ८१ ॥ ॥ ८२ ॥ ॥ ८३ ॥ नवमः परिच्छेदः ॥ ३४ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततो विडौजाः पवनं जगाद गवेषय त्वं ज्वलनं महौजाः । सर्वत्र गामी त्रिदशेषु मध्ये जानासि लोके स्थितिभूमिमस्य उवाच वायुर्मघवानमेवं गवेषितो नेश ! मया न दृष्ट निर्देशतोऽयो भवतः कृशानुं गवेषयाम्यादरतः समन्तात् उक्त्वेति वायुः परिकल्प्य जग्धिं गीर्वाणवर्ग सकलं निमन्त्र एकैकमातत्य परेषु पीठं यमस्य पीठत्रितयं स दचे इति धर्मपरीक्षायां मण्डपकोशसंबंधवर्णनो नाम नवमः परिच्छेदः अथ दशमः परिच्छेदः स्वस्य भागत्रयं वीक्ष्य यमोऽथ पवनं जगौ । त्रिगुणो विहितो भागो वरेण्यो मम किं त्वया द्वितीयान्तर्गता कान्ता यदि मे विद्यते किल । भागद्विकं तदा देयं तृतीये कारणं वद जल्पति स्म ततो वायुर्भद्रोलि ! तव प्रियाम् । स्वयं विभोत्स्यसेऽद्य त्वं भागत्रितयकारणम् तदुद्गीर्णेऽनिलोऽवादी च्छायां भद्रे त्वमुद्गिल । तयोद्गीर्णे ततो वही भासुरे विस्मिताः सुराः योषा गिलतिया व िज्वलन्तं दर्यकार्दिता । दुर्गमं दुष्करं वस्तु न तस्या भुवि विद्यते ॥ ८४ ॥ 11 64 11 ॥ ८६ ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ || 3 || 11 8 11 ॥ ५ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बी धर्मपरीक्षा कथानकम परिच्छेदः ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ तं दृष्टा शमनः क्रोधादंडमादाय धावितः । संप द्यते क्षमा कस्य दुष्टे जारे निरीक्षिते दंडपाणि यमं वीक्ष्य धूमध्वजः पलायितः । नीचानां जारचौराणांजायते स्थिरता कुतः? वृक्षपाषाणवर्गेषु प्रविश्य भीतितः स्थिताः । चौरजारा न तिष्ठन्ति प्रत्यक्षा हि कदाचन शाखिपाषाणभेदेषु यः प्रविष्टस्तदानलः । स्पष्टत्वं याति नाद्यापि प्रयोगव्यतिरेकतः ईदृशं भवतां विप्राः पुराणे विद्यते न वा । खगेनेत्युदिते भद्र ! तैरेवमिति भाषितम् नैकदोषैर्न देवत्वं यथा तेषां पलायते । मदुक्तावेकदोषेण न नश्यन्ति तथा गुणाः असिषुस्ततो विप्राः भाषितं योभनं त्वया । परं धिषण सद्बुद्धे ! पक्षसिद्धिः समर्थ्यताम् यं शतधा नो विशीर्यन्ते पुराणानि विचारणे । अंबराणीव जीर्णानि वयं कुर्मो विबुद्ध ! किम् निशम्येत्यवदत्खेटो विप्रा! यस्य न भिद्यते । वामाक्षिमार्गणैश्चेतः तं देवं नमत त्रिधा कैवल्यकारणं योग शम्भुर्विहाय पावनम् । विग्रहार्धगतां चक्रे कुमारी स्मरपीडितः हरिणा कुर्वताऽऽदेशं यदीयं सौख्यकाङ्क्षिणा । कमला हृदयेऽऽकारि गोपीनखविदारिते दृष्ट्वा तिलोत्तमारूपं ब्रह्माऽभूञ्चतुराननः । वृत्तं तृणमिव त्यक्त्वा स्मरसायकताडितः येनाहत्य मुराधीशो दुर्वारस्तीक्ष्णमागेणैः । सहस्रमगतां नीतो विधायाकीर्तिभाजनम् निरस्ताशेषदोषेण सर्वेभ्योऽपि बलीयसा । प्रेतमा स्मार्तेन छायाऽकारि प्रियाऽभयम् ॥१२॥ ॥१३॥ ॥ १४ ॥ ॥१७॥ ॥३५॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखीभूतोऽपि देवानां विष्टपोदरवर्त्तिना । पाषाणवृक्षवर्गेषु येन वह्निर्निवेशितः स स्मरो निर्जितोऽनेन सर्वेषामपि दुर्जयः । सिद्धिः प्रसादतः तस्य जायते सर्वदर्शिनाम् द्विजानां पुरतः कृत्वेदृशं धर्मविचारणम् । आगत्योपवनं मित्रमजल्पत व्योमगांगजः श्रुतो मित्र ! त्वया देवविशेषः परसम्मतः । विचारणाऽसहस्त्याजो विबुधैः सिद्धबुद्धिभिः रागद्वेषविनिर्मुक्तः केवलालोकनिर्मलः । स देवो निपुणैः ख्यातः शत्रौ मित्रे समेक्षणः विवाहे स्पर्शतो ब्रह्मा पार्वत्या: पार्वतीपतिः । हहा पुरोहितीभूय क्षुभितो दर्पकार्दितः नर्तनंप्रक्रमे रुद्रस्तापसीक्षोभणोद्यतः । लिङ्गप्रच्छेदपीडां नो विषेहे दुःसहां किमु अहिल्यया सुराधीशश्छायया यमपात्रकौ । कुन्त्या तीक्ष्णरुचिनतो लघिमानं घरातले एवमेकोsपि देवोऽत्र निर्दोषो नास्ति विष्टय । परायचीकृतो हत्वा न यो मकरकेतुना इत्यादिवचनैस्तत् पुराणप्रतिपादितैः । वाडवैः विप्रतार्यन्ते लोकाः स्तोकघियान्धिताः परं चित्रकरं मित्र ! दर्शयाम्यधुना तव । क्षुल्लरूपं निगर्धेति सार्धं जग्राह तेन सः प्रतीचीगोपुरे गत्वा लघुनिर्ग्रन्थरूपिणी । भूयः पुष्पपुरं दक्षौ प्रविष्टौ तौ खगोत्तमौ गत्वाऽथ वादशालायां मेरीमाताडय खेचरः । दर्भाग्रप्रतिभा शिष्टो निविष्टः स्वर्णविष्टरे श्रुत्वा मेरीस्वनं सर्वे निर्गता माहना बहिः । विवादनिरता मेघनिनदं शरभा यथा 11 20 11 ॥ २१ ॥ ॥ २२ ॥ ॥ २३ ॥ ॥ २४ ॥ ॥ २५ ॥ ॥ २६ ॥ ॥ २७ ॥ ॥ २८ ॥ ॥ २९ ॥ ॥ ३० ॥ ॥ ३१ ॥ ॥ ३२ ॥ ॥ ३३ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ ३६ ॥ करोषि मद्र ! किं वा वाडवैरिति भाषिते । विप्राः प्राहुस्तदा मेरी कथं मूर्खेण ताडिता । आजन्मापूर्वमालोक्य समारूढोऽर्जुनासनम् । द्विजैः पृष्टो गुरुः क्षुल्लकस्त्वदीयो निवेदय । स क्षुल्लकोऽगदत्तान् भो वादनामापि वेद्भि नो खगेनोक्तं मया दक्षाः ! कौतुकेन हता द्रुता न पुनर्वादमानेन मा मा कुप्यत माहनाः ! स जगो मे गुरुर्नास्ति मयाऽग्राहि स्वयं व्रतम् दस्ततो विप्राः गुरुणा विना । निदानेन त्वया केनाग्राहि दीक्षा स्वयं विदा ततोsवादीन्मनोवेगो निगदामि परं द्विजाः । मदाक्ये भवतां सत्ये प्रतीतिर्न भविष्यति अभाणिषुर्द्विजन्मानो विद्मः सत्यं तथाऽनृतम् । कथय त्वं महाभाग ! तदनु प्रोंचिवान् खगः चंपायां हरिमंत्रीशो राज्ञोऽभूद्गुणवर्मणः । तरन्ती तेन पानीये एकाकिनी शिलेक्षिता चित्रे निगदिते तत्र राज्ञा बद्धो क्रुधाप्यसौ । तोये तरति किं ग्रावा भो भो दक्षा ! विचार्यताम् गृहीतो धीसखः केन भूतेनैव विनिश्चितम् । कथं वक्तन्यथेदृक्षविरुद्धं मयेदं गदितं देव ! श्रूयतां ऋजुचेतसा । इत्युक्ते तेन भूपेन मंत्रीशो अथ च विविधातोद्यसंकीर्ण संगीतं गीतसंगतम् । हरीणां पौरकैः रम्यं मंत्रिणा तेन कारितम् स्वभावेन गतस्तत्रचैकाकी पृथिवीपतिः । दिव्यं तन्नाटकं दृष्ट्वा विस्मयं प्राप मानसे यावदर्श पूर्व भूपतिर्निजमन्त्रिणः । तावत्संहृत्य संगीतं वने नष्टा दिशोदिशम् चेतनान्वितः मोचितस्ततः ॥ ३४ ॥ ।। ३५ ।। ॥ ३६ ॥ ॥ ३७ ॥ ॥ ३८ ॥ ॥ ३९ ॥ 1180 11 ॥ ४१ ॥ ॥ ४२ ॥ ॥ ४३ ॥ || 88 || ।। ४५ ।। ॥ ४६ ॥ ।। ४७ ।। RITIS दशमः परिच्छेदः ॥ ३६ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ BBBBBCKXXXXXXXXXX जगाद धोसखस्तत्र भूतेनाऽग्राहि भूपतिः । निगति भटैः सोऽपि बन्धयामास तं दृढम् यदा बद्धो महीपालस्तत्थेत्यगदत्तदा । स्मित्वा स तुष्टचित्तेन मैत्रिणा मोचितस्ततः सोऽवग् त्वया यथाऽदर्शि स्वामिन् वानरनाटकम् । तरन्ती सलिले दृष्टा सा शिलाऽपि मया तथा असंभाव्य न वक्तव्यम् प्रत्यक्षं यदि दृश्यते । यथा वानरसंगीतं यथा तरति सा शिला अश्रद्धेयं न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि वीक्षितम् । नून सचिवभूमीशवृतान्तवुरैरपि यतोऽनकाकिनो वाक्ये प्रत्ययं मे करिष्यथ । कथयामि ततो नाहं मा मां पृच्छत वाडवाः । ते विप्राःप्रोचिरे भद्रा खत्समा बालकाः किमु । घटमानं वचो युक्तं जानीमो न यतः स्फुटम् अमाषिष्ट खगो विप्रा यूयं यदि विचारकाः । कथयामि तदा स्पष्टं श्रयतामे कचित्तकैः श्रीपुरे मुनिदत्तोऽस्ति श्रावक स पिता ममः। द्विजस्यैकस्य तेनाहं पाठनाय समर्पित प्रेषितो नीरमानेतुं समर्प्य करपात्रकम् । द्विजन्मनाऽन्यदा तेन क्रीडस्तत्र चिरं स्थितः सत्योक्तं छात्रकैः स्टः पलायस्व गुरुस्तव । मद्रासौ प्रतिघाबादं करिष्यति नियन्त्रणाम् निशम्येति वचो भीत्या कुर्वाहं पलायनम् । तुंर्ग नाग ददर्शाये बने जंगमपर्वतम् कर प्रसार्य क्रोधेन मां निरीक्ष्य स पावितः । सविग्रहो मृत्युरिख न केनापि निवारितः गन्तुं तदअतोऽशक्तः प्रविष्टः करपावके । अनुपविश्य : मां जातुमुघतो. वारणस्वतः ॥५३॥ ॥ ५४॥ SEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX ॥५८॥ ॥६०॥ ॥६१ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६२॥ श्री धर्मपरीक्षा दशमः परिच्छेदः ॥६४॥ ॥३७॥ ॥६६॥ ॥६७॥ नागं वीक्ष्यानुगच्छन्तं निर्गतोऽहं भयाकुलः । नालेन करपात्रस्योपाया: स्युर्जीवितेऽगिनाम् तेनैव निर्गतः सोऽपि विलग्नस्तस्य नालके । पुच्छयालस्तदा नष्टा गतो देशान्तरं द्विजाः प्रसादं सप्रसादं च वीक्ष्य कृत्वाऽथ वंदनाम् । रात्रौ मे तत्र सुप्तस्य वस्त्रं केनाप्युपाहतम् निशाऽवसाने स्वेचित्ते याचितः कोऽवदास्यति । वस्त्रं ममेति ध्यात्वाऽहं जैनदीक्षामुपाददे वसुधां पर्यटन नित्यं क्रमादत्रागतोऽहकम् । बहुचित्रमयी पृथ्वी यतः शाने निवेदितम् दीसइ विवहच्चरीय बाणिज्जइ सुयणदुज्जणविसेसो। अप्पाणं च कलिज्जा हिंडज्जइ तेण पुहवीए इदं मया वो गदितं समासतो दीक्षाग्रहे कारणमात्मनः स्वयम् । गिरं निशम्येति खगस्य वाडवा समूचिरे हासविमासितानना: अतथ्यभाषानिपुणा भनेकशी विचित्ररूपा मनुजा निरीक्षिताः परं न कोऽपि त्वयका समो व्रती व्रतस्थितो यो वितथं विभाषते भवन्ति नो निर्गमनव्यवस्थितिप्रवेशनप्रभ्रमणानि दंतिनः । संकीर्णताढये करपात्रकान्तरे विरुद्धवाक्यैकमते च भोयते खरे विषाणं सलिले कृशानुः ध्वान्तं खरांशी कमलं शिलातले । गिरौ चलत्वं किल जातु जायते न तथ्यता त्वद्वचनस्य दुर्मते ! ॥ ६८॥ ॥ ६९॥ ॥७ ॥ ॥ ७१ ॥ ॥ ३७॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भचष्ट खेटः स्फुटमीदृशं तदा मृषापरास्तावदमी द्विजाः समे । न दृश्यते किं भवदीयदर्शने तथ्यं विरुद्धं घनमीदृशं परम् परगतदोषं कलयति सकलः स्वकुमतपोषं रचयति विकलः । ॥ ७३ ॥ प्रथयति विश्वे परगुणनिकुरं परमिह यो वै भवति स विरलः इति श्रीधर्मपरीक्षायां मनोवेगपवनवेगयोः पुनरपि वादिशालायां गमनो नाम दशमः परिच्छेदः अथैकादश परिच्छेदः अथावोचन् द्विजन्मानः यद्यसंभाव्यमीदृशम् । दृष्टं वेदे पुराणे वा तदा भद्र ! निवेदय अस्माकं सर्वथाऽग्रासं पुराणं शास्त्रमीदृशम् । न न्यायनिरता कापि गतन्यायानि गृहवे साघुरूपधरोऽवोचचतो व्योमगनंदनः । मद्वायं श्रयतां विप्राः ! सावधानतयाऽधुना अन्यदा धर्मपुत्रेण समायामिति जल्पितम् । आनेतुं नागलोकं कः शक्नोत्यत्र रसातलाव अर्जुनेन तदाऽवादि गत्वाऽहं देवभूतलम् । मुनिमिः सप्तभिः सार्घमानयामि फणीश्वरम् ततो धनुः समारोप्य वसुधा तीक्ष्णमार्गणैः । निरन्तरैस्वेन मिश्रा स्मरणेव वियोगिनी ॥ ७२ ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ 118 11 114 11 ॥ ६ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश परिच्छेदः ॥८॥ धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥३८॥ गत्वा क्षोणीतलं तेन दशकोटिफणिश्रितः । आनीतः पनगाधीशः सप्तभिर्मुनिमिः सह कि भो युष्माकमीक्षः सिद्धान्तोऽस्ति नवा द्विजाः । अवोचस्ते यथा प्रोक्तं ततथैवं त्वया मुने! व्याज़हार खगो वाणी विवरे णाप्यणीयसा । दशकोटिभुजंगाढयो यदाज्याति फणीश्वरः करपात्रस्य नो दंती विवरेण कथं तदा । निर्याति माहना ! ब्रूत मुक्त्वा मत्सरमञ्जसा आगमो भवतां सत्यो व्याहारो न पुनर्मम । पक्षपातं विहायात्र निदानं न परं किल सूत्रकंठस्ततोवाचि तत्र प्रोत्तुङ्गकुञ्जरः । कथं याति कथं भग्नो न तत्कुञ्जरमारत: मदोन्मत्तस्य नागस्य निर्गते विग्रहेऽखिले । नालके तत्र वाचाल ! पुच्छवालः कथं स्थितः अंगीकों वचो नेदं त्वदीयं भद्र ! सर्वथा । नभश्चरो जगावं तथ्यमेतदपि द्विजाः। पीतमंगुष्ठमात्रेण सर्वकूपारधवरम् । अगस्तियतिना कि न भूयते भवदागमे कुम्भजन्मोदरे माति सागरस्य पयोऽखिलम् । करेणुः करपात्रे नो मया साकं कथं किल सृष्टिमेकार्णवे नष्ट स्वकीयां कमलासनः । व्याकुलीमय बभ्राम सर्वत्रापि विलोकयन प्रयागवटवृक्षाग्रे पत्रेददर्श केशवम् । उदग्रजठरं धाता सुप्तं व्यात्तमुखं तदा ततस्तस्योदरे ब्रह्मा प्रविवेश निरीक्षितुम् । सृष्टिं जहर्ष दृष्ट्वा स्वां तत्रापत्यं पितेव हि स्थित्वा वेवाः कियत्कालं प्रजारागेण रञ्जितः । नामिनालीकनालेन निर्ययो कमलापते: ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१८॥ ॥ १९॥ ॥२०॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333XXXX = = = BACKXXXXXXSE निरीक्ष्य मुकवालाग्रं विलग्नं तत्र निचलम् । आक्रष्टुं दुःकरं मत्वा विगोपनविषण्णधीः ॥२१॥ पंयं कृत्वा तदेवासौ स्वस्यासनमधिष्ठितः । लोके व्याप्तवती माया न सुरैरपि मुच्यते (युग्मम् ) ॥ २२ ॥ ततः पद्मासनो जातो विश्रुतो विष्टपे विधिः । प्रपंचो हि महापुम्भिः क्रियमाणः प्रसिदयति ॥२३॥ ईदृक्षोः पुराणार्थः किं तथ्यो वितथोऽथ किम् । संत्वज्य प्रतिषं ब्रूत संतो नासत्यवादिनः ॥२४॥ जगुस्तं धरणीदेवाः रव्यातोऽयं ध्रुवमीशः । उदितः सविता केन शक्यः छादयितुं मुने । ॥२५॥ मनोवेगोऽवदद्विप्राः ! नामिछिद्रे विधेर्यदि । वालो लगति नो पीलोरालूछिद्रे कथं किल विश्वभारेण दाशार्हतुदं नो जायते द्विधा । कथं मे करपात्रं च चित्त सम्यग विचार्यताम् ॥ २७॥ विष्टपं सकलं माति संकीर्णे जठरे हरेः । न करेणुर्मया सार्थ कथं भोः करपात्रके ॥२८॥ व्यापकः सर्वगो वेधा योजानाति चराचरम् । कथं सृष्टिपदं नासौ बुध्यते येन मार्गयेत् ॥ २९ ॥ आक्रष्टुं यः प्रभुः क्षिप्रं नरकादपि देहिनाम् । वेत्ति नो मुकवालाग्रमसौ कथं पुराणगः ? ॥३०॥ यो मत्वा प्रलयं धात्री प्रयाति स कथं हरिः । जानकीहरणे हेतुं नहि वेत्ति न रथति ॥३१॥ जगाद दशजन्मानि यो नारदमहामुनेः । स पृच्छति कथं कान्तां स्वकीयां भुजगाधिपः ॥३२॥ लोलेक्षणा पयोजास्या सौंदर्यगुणराजिता । कुत्रापि मोस्त्वया दृष्टा रमणी रमणीयमा दानायवीर्यभोगोपभोगानामन्तरायकाः . । भयो रस्परती हासस्तृष्णा शौचनमेव च ॥३४॥ wwwwwwwwwwwwwww Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ ३९ ॥ स्मरो मिथ्यात्वविज्ञानं प्रमीलाऽविरतिस्तथा । रोगो द्वेषश्च सर्वेषां दोषा अष्टादशाप्यमी एते सर्वे प्रदृश्यन्ते भवद्देवेषु निश्चितम् । निद्रया केशवो व्याप्तो धाता रागेण पीडितः कामेन शंकरो रुद्धः पाण्डुरोगी वृषाकपिः । भीत्या पुरन्दरः खिन्नः पर्शुरामोऽज्ञताश्रितः एतैर्ये पीडिता दोषर्मोच्यन्ते तैः कथं परे । स्वयं निःस्वाः कथं धन्यमीश्वरीकर्तुमीश्वराः गिरीशत्रह्मवैकुंठाः सन्ति यद्येकमूर्त्तयः । तदा कथं प्रकुर्वन्ति शीर्षच्छेदादिकं मिथः एते दोषा यतो नष्टा भानोखि तमोमराः । स नाथः सर्वदेवानां कर्ममर्मच्छिदे क्षमः वेवसा यज्जलस्यान्तवर्य प्रक्षिप्तमात्मनः । अभवद्बुद्बुदस्तस्मादेतस्माज्जगदण्डकम् तस्मिन् द्वेषा कृते जाता त्रिलोकस्य व्यवस्थितिः । कृतान्ये प्रोक्तमेवं चेत्तदा तद्गदितं जलं यत्रैकस्यापि देहस्य कारणं दुर्लभं भवेत् । त्रिलोकीकारणं मूर्त्त कथं तत्रैव लभ्यते विरश्विना शरीरेण सृष्टिर्विधीयते कथम् । विनाऽनेन शरीरेण शरीरं क्रियते कथम् १ विधाय विष्टपं सर्व विधेर्नाशयतः स्वयम् । जनहत्या जायमाना स-पापा केन वार्यते १ सिद्धस्य कृतकृत्यस्य शाश्वतस्य परात्मनः । अरूपिणोऽखिलज्ञस्य किं विश्वोत्पादने कथम् १ पूर्वापर विरुद्धानि पुराणान्यखिलानि वः । न्यायोपेतैः कथं विप्राः श्रद्धीयन्ते विशारदैः ॥ ३५ ॥ ॥ ३६ ॥ ॥ ३७ ॥ ॥ ३८ ॥ ॥ ३९ ॥ ॥ ४० ॥ ॥ ४१ ॥ ॥ ४२ ॥ ॥ ४३ ॥ ॥ ४४ ॥ ।। ४५ ।। ॥ ४६ ॥ ॥ ४७ ॥ एकादश परिच्छेदः ॥ ३९ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५२॥ विधायासौ मनोवेगो भूमिदेवाननुत्तरान् । जगौ सगौरवं गत्वा वचनं सुहृदं प्रति त्वया देवविशेषो यः पुराणेषु श्रुतः सखे । प्रविचारय यत्किनिष तत्र घटते स्फुटम् जनार्दनचतुर्बाहुः विधाता चतुराननः । भवानीशत्रिनेत्रंब केनेदं प्रतिपाद्यते यथो द्विवाहुरेकास्यः सर्वे जगति वीक्ष्यते । विकल्पातेऽन्यथा लोकैः मिथ्यात्वव्यसनार्त्तकैः अनादिनिधनो लोको नभोवच्छाश्वतः स्थितः । नैतस्य वर्तते कर्ता पुष्करस्येव कथन यतः सिद्धान्ते-वयसाहठाणत्थि य पयकडित्थकरयुगनरागईलोगो । उप्पत्तिनासधुयगणधम्माइयदव्वपडिपुनो केणवि न कउ न धउ नाहारो न हि ट्ठिया सयं सिद्धो । अह मुहमहमल्लगद्विय लहुमल्लग संपुड्सरित्यो मत्यागती प्रकुर्वन्ति स्वपूर्वार्जितकर्ममिः । सुखदुःखान्विता जीवा : पत्रपुञ्जा इवानिलैः ये घ्नन्ति विपदं स्वस्प नो ब्रह्मोपेन्द्रशंकराः । अपाकुर्वन्ति दुःखौघ दुष्ट परस्य ते कथम् ज्वलतं नो शमयते नरो यो गेहमात्मनः । सोऽन्यगेहस्य शमनेऽक्षमः कथं प्रवर्तते रागद्वेषमदोपेताः सायुधा वनितारताः । देवाः परस्य ते मोथं कयं ददति शाश्वतम् । ॥५३॥ EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX ॥५४॥ ॥ ५७॥ ॥ ५८॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेदा धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥४०॥ XXXESEXEKXXXXSEX अन्यथा मूढचेतस्कैः जगत्रयमिदं स्थितम् । मिथ्यात्ववासितैः पुम्मिरन्यथा परिकल्पते ॥ ५९॥ भवाब्धिपातिभिर्विश्वे छिन्ने मुक्तिपथेच यः । कापथैः कुरुते तर्क स प्रयाति कथं शिवम् ॥६०॥ निघर्षतापविच्छेदताडनैः कनकं यथा । परीक्ष्यते तथा धर्मों दयाशीलतपः भुतैः ॥६१॥ देवधर्मगुरून येऽपि परीक्ष्यो पासतेऽमवान । तेजस्वरं पदं यांति निकर्त्य कर्माला ॥६२॥ देवो देवेन शास्त्रेण शास्त्रं च यतिना यतिः । दक्षः परीक्षणीयच धमों धर्मेण सर्वदा ध्वस्तका जिनो देवो शातलोकव्यवस्थितिः । सुरासुरनराधीशनिषेव्यपदपंकजा अष्टांगयोगसंयुक्तो विरक्तो भववासतः । दोपवातविनिर्मुका शस्यातिशयसंश्रिता अप्रमादी जनाहादी प्रवृत्तः शुभकर्मणि । ईदृक्षो विबुधै ध्येयो नित्यं कैवल्यहेतवे कलापकम् पंचमहाव्रतधरो गुप्तित्रयपवित्रितः । समितीनां पंचकं च दधद्गुणगणाइतः ॥६७॥ रागद्वेषकषायादिदोर्मुक्त ध माधमः । ईदृग् गुरुर्बुधैः सेव्योऽशेषसंतोषपोषयुक् (युगलम् )॥ ६८ ॥ सर्वज्ञोक्तः सर्वहितो धर्मो जीवदयामयः । एकातपत्रसाम्राज्यधरो विश्वे सुखावहः ॥६९ ॥ संसारांबुधिममानां समुद्भर्ता नृणां चली । सेव्यः सद्भिरसौ शश्वत् काम कामितकामदः (युग्मम् । ७०।। अज्ञानध्वांतसदोहविधंसनरविद्युतिम् । स्वीकार्य तबुधैः शास्त्र नवतत्त्वप्रकाशनम् निष्णातः शान्तकर्माविमलगुणमयोऽमेयशाम्याभिरामः । ॥४०॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७२॥ ॥७३॥ ध्वस्ताज्ञानप्रशान्तान्तरतिमिरमरः सिद्धबुद्धिः सुबोधः। ईग् यो भव्यजीवो भवति भवभवांहोविमंगप्रभाव । पूर्वोक्के वाक्यनारे रुचिरतररुचिर्जायते तस्य चास्मिन् । इति धर्मपरीक्षायां देवगुरुधर्मशास्त्रस्थापको नामैकादशः परिच्छेदः । अथ द्वादशमः परिच्छेदः अथ तेऽन्यद्वयस्याई कथयामि कुतूहलम् । साधुरूपं निगद्येति मुमोच खेचराङ्गजः ततः पुष्पपुरं भूयो दिशोदीच्या विवेश सः । साध पवनवेगेन गृहीत्वा तापसाकृतिम मेरी घंटा वादयिस्वा निविष्टोऽर्जुनविष्टरे । समेत्य माहनाः प्राहुराबातास्तापसाः कुतः दक्षत्वं लक्षणे किं ते तर्के तर्कशतेज्यवा । विधत्से बाडवैः सत्रा वादं किं वादवेदिमिः सोजवीदहमायातो माहना ! ग्रामतो यतः । प्रमाणं लक्षणं वेदि न वादं चापि कंचन वेवादिपुर्वद क्रीडां विहाय त्वं यथोचितं । प्रतिपूच्छिमिः सार्य क्रीडां कर्तुं न युज्यते न्योमगेन ततोऽवाचि तापसाकृतिधारिणा । निगदामि : यथावृत्तं विमेमि भवतां पुरः ॥२॥ ॥४॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ ४१ ॥ गदभोपद्रवं परम् सर्वे युक्तपक्षरता इह युक्तोऽपि गदिते विप्राः प्रकुर्वन्त्यविचारकाः । आरोप्यामुक्ततां मूढा व्याजदुर्वसुधादेवा प्रजल्प त्वं यथोचितम् । विचारचतुराः भष्ट शिष्टगीः स्पष्टं श्रुत्वा तद्वचनं खगः । निगदामि तदोदन्तं यदि यूयं विचारकाः बृहत्कुमारिकाहा मे साकेतनगरे प्रसूः । दत्ता स्वकीयतातेन मदीयजनकाय सा दन्ती तूर्याखं श्रुत्वा कीनाश इव दारुणः । स्तंभं मंच्वा गतो मच उद्वाहसमये तयोः ततः पलायितो लोकः सकलोऽपि दिशोदिशम् । विवाहकारणं हित्वा धीरत्वं क महामये वधूः पलायमाना सा स्वांगस्पर्शेन हस्तिना । दानोन्मत्तेन निश्रेष्टा पातिता पृथिवीतले वीक्ष्य तां पतितां मर्चा लोकापवादसंगतः । चेतसा लज्जमानोऽसौ कापि देशान्तरं गतः वृद्धि प्राप क्रमात्तस्या गर्भो निर्दभचेतसः । मात्रा पृष्टा ततः पुत्रि ! केनेदमुदरं कृतम् साऽऽचचक्षे न जानामि किञ्चित्तत्कारणं प्रमः । परमेतदहं वेशि पत्यंग स्पर्शयोगतः अथैकदा सानुभावास्तपोधनास्तपोधनाः । समाययुर्नरैः पूज्या मातामहस्य भोजयित्वा ततस्तेन सकलास्ते तपोधनाः । पाणी संयोज्य पृष्टाथ के यूयं गन्तुमुद्यताः एतैरुक्तं द्वादशाब्दीं दुःखसंदोहदायकम् । मो भविष्यति दुर्भिक्ष सुभिक्षे प्रस्थिता वयम् मयाऽऽकर्ण्य वचस्तेषां मातृकुक्षिनिवासिना । क्षुधा चकितचित्तेन विचितितमिदं ततः सद्मनि ॥ ८ ॥ ॥ ९॥ ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ ॥ १४ ॥ ॥ १५ ॥ ॥ १६ ॥ ॥ १७ ॥ 11 86 11 ॥ १९ ॥ ॥ २० ॥ ॥ २१ ॥ द्वादशमः परिच्छेदः ॥ ४१ ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्भिक्षं चेद्वादशाब्दीं पदेऽत्रापत्स्यते परम् । तदा क्षुन्प्रियमाणोऽहं किंकरिष्ये विनिर्गतः चितयित्वेति गर्मेऽहं वर्षाणि द्वादश स्थित । बुक्षाभयभीतः सन् क प्राणी नावतिष्ठति आययुस्तापसा भूयो दुर्भिक्षस्य व्यतिक्रमे । मातामहस्य सदनं मयि गर्भेऽपि तस्थुपि प्रणम्य तापसा पृष्टास्तेन तेऽवादिषुस्ततः । व्यतीतं भद्र ! दुर्भिक्षं प्रस्थिता विषयं निजम् मय्याकर्ण्य वचस्तेषां गर्भतो निर्गते सति । जननी मेऽजनिष्टाऽऽशु यातनाऽऽक्रान्तविग्रहा निर्गत्य तुंदतो मातुः पतिताया इलातले । स्वर्णवर्णवरेण्योऽहं पपात शुभमस्मनि प्रोत्थाय पात्रमादाय प्रसूरुक्ता मया रयात् । भोजनं यच्छ मेंडवाई नितरामशनायितः ततो मातामहेनैकः पृष्टः कोऽपि तपोधनः । युष्माभिर्जातमात्रः किं ददृशे कुत्र मार्गयन तेनोक्तमयमुत्पातो धीमन् निर्धार्यतां ध्रुवम् । संपत्स्यतेऽन्यथा तुभ्यं परापायपरम्परा तदनूक्तोंऽवयाऽहं रे गच्छान्तकनिकेतनम् । ततो जातो ममात्यन्तं सैष दास्यति तेऽदनम् डिम्भोऽहं भस्मतो देहमवगुंठ्यविनिर्ययौ । तापसस्तापसैः सार्धं मुंडयित्वा शिरोऽजनि स्थितोऽहं तापसस्थाने तप्यमानस्तपोऽनिशम् । न कार्य शुममारभ्य प्रमाद्यन्ति हि पण्डिताः भई शुममतिः स्मृत्वैकदा सानेकपत्तनम् । अचिन्तयमिदं मातोद्वाहार्हाऽन्यविशा सह निजोदन्तं निवेद्यैवं पृष्टास्तपोधना मया । तेऽब्रुवन्मात्र दोषोऽस्ति परेणास्या विवाहने ॥ २२ ॥ ॥ २३ ॥ ॥ २४ ॥ ॥ २५ ॥ ॥ २६ ॥ ॥ २७ ॥ ॥ २८ ॥ ॥ २९ ॥ ॥ ३० ॥ ॥ ३१ ॥ ॥ ३२ ॥ ॥ ३३ ॥ ॥ ३४ ॥ ॥ ३५ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी ॥३६॥ ॥३७॥ ।। ३८॥ द्वादशमा परिच्छेदा धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥४२॥ पांचाल्याः पतयः पंच नाभूवन किमु पांडवाः । अतस्तव जनन्या नो दोषः कान्तद्वये सति बता-एकदापरिणीतापि विपने दैवयोगता । मर्यक्षतयोनिनी पुनः संस्कारमर्हति प्रतीक्षेताष्ट वर्षाणि प्रसूता वनिता सती । मप्रसूता च चत्वारि प्रोषिते सति भरि पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते । न दोषो विद्यते स्त्रीणां व्यासादीनामिदं वचः मुनीनां वचसा तेन मत्वा मातुरदोषताम् । कर निरीक्षितुं रम्यमाश्रमाभिर्ययौ ततः धमाभटाव्यमानोऽहं तीर्थसार्थनतीरितः । विप्राः पत्नमायातो युष्मदीयमिदं प्रति अथ ते प्रोचिरे विप्राः क्रुधाधूतोद्धराधराः । ईदृक्षं शिक्षितं धूर्त ! कातथ्यं गदितं च यत् कुत्बैकत्वमृषा सर्व विधात्रा त्वं विनिर्मितः । असंभाव्यानिवाक्यानि यतो जल्पसि मो यतिन् ! माचष्ट स खगो विप्रा मिथ्या कि जल्पतेषाम् । युष्माकं कि पुराणेषु वाक्यमीन विद्यत उदितं वसुधादेवैरीदृशं यदि वीक्षितम् । त्वया वेदे पुराणे वा क्वचित्साधो! तदा वद भाख्यत खगो द्विजा! वच्मि परं तेभ्यो विभेम्यहम् । सर्व गृह्णन्ति ये मूढा विचारेण विना वचः अथ च-स्मृतिवेदे पुराणेषु यान्युक्तानि बचांस्यहो । तेषामुत्थापने पुसो ब्रह्महत्या पदे पदे यत:-पुराण मानवो धर्मः सांगोवेदश्चिकित्सितम् । आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुमिः मनुव्यासविषिष्टानां वचनं वेदसंयुतम् । अप्रमाण यतः पुसो ब्रह्महत्या दुरुचरा ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४६॥ ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥४२॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ अवदन वैदिका भद्र ! पातकं वाक्यतः कुतः । निशातो जल्पितः खड्गोलोकांल्लुनाति नो किल वचनोच्चारमात्रेण दुःकृतं यदि जायते । तदोष्णोजल इत्युक्ते लपनं किं न दह्यते ! यथावृत्तं पुराणार्थमाचक्षीथा अशंकितः । गृहीमो न्यायवाक्यं मोः ! सर्वे नैयायिका वयम् ततः स्वपरशास्त्रज्ञो व्याचष्ट खगनंदनः । यद्येवं श्रूयतां विप्राः ! कथयामि मनोगतम् एकत्र सुप्तयोर्नार्योः भागीरथ्योषयोईयोः । संप्राप्तगर्मयोः पुत्रः ख्यातोऽभवद्भगीरथः यदि स्त्रीस्पर्शमात्रेण गर्भः संभवति स्त्रियः । पुरुपस्पर्शतो मातुः जातः कथं न मे तदा ? गान्धारी धृतराष्ट्राय द्विभास्यां दास्यते किल । संप्रदानाच्च सा पूर्व तावद्रजस्वलाऽभवत् चतुर्थे दिवसे स्नात्वा फनसाश्लेषणे कृते । ववृधे पिठरं तस्या गर्भो बभूव भारभूत सा दत्ता धृतराष्ट्राय पित्रोदरविलोकने । लोकापवादनाशाय सकलो यतते जनः तया यदूढया जातं फनसस्य फलं कलम् । तस्य मध्ये बभूवाहो सुतानां शतमूर्जितम् खगोचदत किमीक्षः पुराणार्थोऽस्तिवानहि । ते प्रोचिरेतरामस्ति को भद्रेदं निषेधति फलसाश्लेषणे पुत्राः सन्तीत्यवितथं यदि । पुत्रप्रसूतिर्वितथा तदा नृस्पर्शतः कयम् तस्प वाक्यं निशम्येति गदितं द्विजपुङ्गवैः । त्वं रुच्यःजातः सर्शतो साधो तथ्यमिदं वचः ऋषीणां वचनं शुस्वा वर्षद्वादशकं स्थितः । सवित्रीजठरे नेदं प्रतिपद्यामहे वयम् ॥५६॥ ॥५७॥ ॥६ ॥ ॥६२॥ । ६३॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६४॥ द्वादशमः परिच्छेदः धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥४३॥ बमाण खेचरः पूर्व सुभद्रायास्तमो द्विषन् । चक्रव्यूहस्य रचनां कथयामास युक्तितः मातुः कथं तदाऽश्रावि तुंदस्थेनाभिमन्युना । मया कर्थ द्विजन्मानस्तापसानां वचो न किम् परासरेण कोपीने घोते ससि साधुना । पीतो वीर्यरसोऽभ्येत्य दर्या जीवनस्थया तद्रेता पानतो गर्ने संजाते सति दर्दुरी । सम्पूर्णे समयेऽस्त सुन्दर सा कनी वराम् कुजातेरस्मदीयाया नोचिता वरसंवरा । इति ज्ञात्वा तया क्षिप्ता विशाले नलिनीदले तेनर्षिणान्यदा दृष्टा सार्या कासारमीयुषा । स्नेहतः स्वीकृता ज्ञात्वा स्वरेतः सारसंभवा नानाविद्यैरुपायैः साऽनेन प्रपाल्य वर्द्धिता । प्रवर्तते निसर्गेण सकलोऽपत्यपालने तत् शुक्रकश्मलं तस्य कोपीनं राकया तया । कदाचिद्विहितं स्नान तारुण्ये परिधाय च तस्या जातं ततो गर्भ विज्ञाय निजवीजजम् । ऋषिस्तं स्तंभयामास कनीदूषणभीतितः सप्तवर्षसहस्राणि गर्भस्तेन स्थिरीकृतः । अतिष्ठत पिठरे तस्याः कुर्वाणो यातनां पराम् दशाननेन सा कन्या परिणीता महौजसा । दत्ता तपस्विनाऽस्त सुतमिन्द्रजितं ततः जाते जितामित्रजाते पूर्वमिन्द्रजिति स्फुटम् । अभवद्रावणः पश्चात् ख्यातो मंदोदरीपतिः सप्तवर्षसहस्राणि कथं स इन्द्रजित स्थितः । जननीजठरे नाहं वर्षद्वादशकं कथम् जजल्पुर्माहनाः सर्वे तव तथ्यमिदं वचः । परमुद्भूतमात्रेण तपोग्राहि त्वया कथम् ॥ ६७॥ ॥ ६८॥ ॥ ६९॥ ॥ ७० ॥ ॥ ७१ ॥ ॥७२॥ ॥७३ ॥ ॥ ७४॥ ॥ ७५ ॥ ॥७६॥ ॥ ७७॥ रररर.. ४३॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184888888888888888888881 परिणीता कथं कन्या जाता माता पुनस्तव । दुर्घटं त्वमिदं ब्रूहि संशयध्वान्तविच्छिदे विद्यावानवदत्विप्राः ! श्रूयतां सावधानकैः । पारासरो बभूवात्र तापसस्तापसाग्रणीः horse रभावाऽसौ मुनिर्वाद्यमानया । आपगां कन्यया प्रौढां नवयौवनवर्यगा एप तां भोक्तुमारेभे निरीक्ष्य सुन्दराकृतिम् । श्रीनन्दनशरैर्भिन्नः स्थानास्थाने न पश्यति सा बाला पद्मपत्राक्षी निव्यांअं व्याजहार तम् । लोकालोकभयात् स्वामिन् ! निरालंबा विभेम्यहम् तपोऽनुभावतोऽकारि तत्र तेन तमस्विनी । सुसामग्री बिना कार्य नापि सिध्यति किंचन सुरतानंतरं जातस्ततो व्यासामिधोंऽगजः । देहि तात ! ममादेशं याचयन्निति भक्तिवान् अत्रैव तिष्ठ वत्स ! त्वं विदधत् पावनं तपः । नियोगमेवं तुष्टस्सन् तस्मै पारासरं ददौ पुनर्योजन गंधां तां सुरमीकृतदिङ्मुखाम् । एत्य सोऽस्थापयत् कृत्वा कुमारीं योग्यमाश्रमम् पितुरादेशतो व्यासो जननानन्तरं कथम् । तापसोऽभूद् द्विजन्मानो मय्येतत् किं विचार्यते कैवर्त्ती जायते कन्या व्यासकेऽपि सुते सति । माता मयि न मेऽत्रास्ति किं परं दूषणं द्विजाः १ रविसंगारसुते जाते कुन्ती कन्याऽभवत्पुनः । न कथं मयि मन्माता वितर्क्यमिदमुत्तमैः स्वशुक्रं क्षरितं स्वमे गृहीत्वोद्दालको मुनिः । चकार सुरवाहिन्यां नलिनीपत्रसंस्थितम् तत्र चन्द्रमती काsपि खेटकन्यागताथ च । उत्पलंऽऽलीलया लात्वा तयाऽऽघातं मनोज्ञया ॥ ७८ ॥ ॥ ७९ ॥ ॥ ८० ॥ ॥ ८१ ॥ ॥ ८२ ॥ ॥ ८३ ॥ ॥ ८४ ॥ ।। ८५ ।। ॥ ८६ ॥ 1170 11 ॥ ८८ ॥ 1169 11 ॥ ९० ॥ ॥ ९१ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशमः परिच्छेदः थी धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥४४॥ EXAKEKOK ॥९२॥ ॥ ९३॥ ॥९४॥ ॥९५॥ तवीर्य जठरे तस्या घ्रायमाणे कुशेशये । संप्रविष्टं ततो गर्मो बभूव शिष्टपुष्टिवान निरीक्ष्य तां गर्भवती मात्रा निवेदितो नृपः । वने निवेशयामास संतत्रस्यन्ति दूषणात नृणविन्दमुनेर्धाम्रि नागकेतुमथोत्तमम् । अर्थनाशमनीतिर्वा साऽपूत समये सुतम् गयेषय स्वं पितरं त्वं व्रजोत्येति सा कनी । पेटास्थं वाहयामास गंगास्रोतस्य, सुतम् दृष्ट्वा तरन्ती सुरनिम्नगायामुत्तार्य उद्दालमुनिश्च पेटाम् । स्ववीर्यजं सूनुमवेत्य तस्या मध्ये स जग्राह विशुद्धबोषम् तत्राऽऽगतां चंद्रमती कुमारी विलोकयन्ती तनयं जगाद । स तापसस्त्वं भव मे प्रिया हे तुष्टस्तवाहं मृगशावनेत्रे ! सा प्राह साधो ! मम बीजिनाऽहं दत्ता सती ते गृहिणी भवामि । त्वं गच्छ तं प्रार्थय मुक्तलजा स्वयं न गृह्णन्ति पति कुलीनाः एत्यातः स मुनि नृपंसुविधिना तां प्रार्थ्य मुक्तत्रपः। चक्रे चंद्रमती प्रियां गुणवर्ती लध्वा स्वकीयां ततः रूपेणातिसुरी सुयौवनवरां कृत्वा कुमारी पुनः । किनांगीह करोति दर्पकारैर्मिनोऽमितः पंचमिः इति धर्मपरीक्षायां इन्द्रजित्परासरनागकतु संबंधवर्णनो नाम द्वादशः परिच्छेदः ॥९७॥ &K XXXXX ॥९९॥ ॥१०॥ ॥४४॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = = ॥२॥ = ॥४॥ = अथ त्रयोदशः परिच्छेदः अथ चंद्रमती कन्या जातेऽपि तनये कथम् । कथं न जायते माता मदीयाहो ! निगद्यताम् एवं निरुत्तरीकृत्य व्योमगोऽसौ विपश्चितः । तमभ्यधात् वने गत्वा विमुच्य तापसा कृतिम् अहो लोके पुराणानि विरुद्धानि मिथः सखे । विचारयेन कोऽपीह मिथ्यात्वव्याप्तमानसः अन्तर्वत्नी कथं वामा वामास्पर्शेन जायते । गोः संगेन ने गौर्दश क्वापि गभवती मया नारीणां जायतेऽपत्यं फलस्यालिगने कुतः । पुरुषस्पर्शतो वल्ल्यो न फलन्ति कदाचन दुर्दरी मानुषी सूते केनेदं हि निगद्यते । न कोद्रवान्मया दृष्टा जायमानाः सुशालयः वीर्यभक्षणमात्रेण यद्यपत्वं प्रजायते । कि कार्य कान्तसंगेन तदाऽपत्याय योषिताम शुकस्याशनमात्रेण जायन्ते तनया यदि । बीजसंगममात्रेण शस्यं दत्ते तदा क्षितिः आघाते पंकजे गर्भः सवी जायते यदि । अममित्रे तदा पात्रे केन तृप्तिनिवार्यते कन्यां विज्ञाय मंडूकी धत्ते पद्मदले कथम् । मेकानामीशं ज्ञानं कदा केनोपलम्पते धर्मार्काग्नियमेन्द्राणां तनुजाः संगतोऽभवन् । सत्याः कुन्त्या हृदि इस्य कस्येदं प्रतिभासते सुराणां यदि नारीभिः संगमः सह जायते । सुरीमिः सह मानां तदा नो दृश्यते कयम् ॥८॥ ॥१२॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रा चर्मपरीक्षा कथानकम् ॥४५॥ त्रयोदशा | परिच्छेदः ॥१४॥ ॥१५॥ **** ॥१७॥ ॥१८॥ *** सप्तधातुमये देहे मनुष्यस्थाशुभे कथम् । निर्धातुसंवरा देवा रमन्ते मलवर्जिताः दुर्विचारोपयुक्तानि परशास्त्राणि कोविदः । यथा यथा विचार्यन्ते विशीर्यन्ते तथा तथा स्त्रीणां कुर्वन्ति कन्यात्वं मुक्त्वा देवाश्च तापसाः । प्रौढप्रभावसंसिद्धा नेदं श्रद्दधते बुधैः ये पारदारकीभूय सेवन्तेऽन्यस्त्रियो भुवि । कथं संजायते तेषां सदा तेजः सदेवतम् परः कर्णस्य संबन्धो गदितो जिनशासने । कृतो मिथ्यात्विभिमित्रापरथा ज्ञानिमिधुवम् व्यासो योजनगन्धाया यः सुतः स परो मतः। धन्याया नृपकन्याया चन्द्रवत्याः पुनः पुरः परः पारासरो भूपस्तापसोऽसौ पुनः परः । एकतः कुर्वतो लोकास्तयोर्नामविमोहिताः धृतराष्ट्रेशगान्धार्योः पुत्रा दुर्योधनादयः । कुन्तीतुंदभवाः पञ्च पाण्डवा विदिता भुवि गान्धारी तनुजाः सर्वे युताः कर्णेन पार्थिवम् । निषेवन्ते जरासंधं पाण्डवाः श्रीपति पुन: हत्वा ऽऽहवे जरासंध दामोदरो महत्तरः । अभवत्पृथिवीपीठे सकले पृथिवीपतिः कुन्तीविग्रहजाः कृत्वा तपो जग्मुः शिवास्पदम् । दुर्योधनादयः सर्वे प्रययुत्रिदिवादिकम् आगमोऽर्थोऽयमीदृक्षो ब्राह्मणैरन्यथाकृतः । मिथ्यात्वग्रस्तचित्तानां वाणी तथ्या कुतस्तनी व्यर्थ कार्य कृतं लोके यदि मित्र प्रसिद्धयति । असंबद्धविरुद्धार्थ वेदशास्त्रं कथं नहि कोऽपि विप्रोऽभवत्पूर्वम् दुस्थावस्थास्थितोऽन्यदा । प्रापासौ पृथिवीपीठं पर्यटन् सुरवाहिनीम् ॥ २०॥ *#44444 ॥ २२॥ ॥२३॥ ॥ २६ ॥ ॥४५॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.68*KAKKKKAKKAX...EKX8XKX ताम्रपात्रं निजं क्षिप्त्वा तीरे कर्तुं स मजनम् । तस्योपरि चकारोचं वालुकापुञ्जमुर्जितम् तं निरीक्ष्य जनैरन्यैस्तत्रायातैषार्थिभिः । परमार्थमजानानैः परितश्चक्रिरे तथा स मन्जनं विधायेत्य तत्र पात्रं च पश्यति । तावत्पुञ्जोत्करे स्थानं स्वकृतं नापि बुध्यते पुलिने सर्वतो वीक्ष्य वालुकापुञ्जमूर्जितम् । विज्ञाय जनमूर्खत्वमिमं श्लोकं पपाठ सः गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः । पश्य ब्राह्मणजीवेन हारितं ताम्रमाजनम् मिथ्यात्वध्वान्तसकीर्णे लोकेऽस्मिन निर्विचारके। एकः शतसहस्राणामन्तराले विचारक: इत्थं मत्वा पुराणानि लौकिकानि विशारदैः । प्रमाणानि न कार्याणि वचनानीव चैरिणाम् पुराणं दर्शयाग्यन्यल्लौकिकं ते स्फुरन्मते । इत्युदीर्य स जग्राह रोहितांऽशुकरूपताम् द्वारेण पञ्चमेनासौ प्रविश्य पत्तनं ततः । स्वर्णासने समासीनो घंटामाताड्य पाणिना पूर्ववन्मिलिते विप्रगणे सोऽवग्न वेम्यहम् । किञ्चिच्च क्रीडया घंटामाताड्य विष्टरे स्थितः जगुस्ते तव संबंधमस्मदने निवेदय । स प्राह सूचयाम्येव विमेमि भवतां पुरः ते जगुस्तं त्वमाचक्ष मा भैषीर्भद्र ! सर्वथा । वयं मनीषिणः सर्वे न्यायवासितमानसाः ततो रक्तांशुकोऽवादीत् यद्येवं श्रूयतां तदा । श्रेष्ठिनस्तनयावावां. तापसानामुपासको एकदा वा यष्टपाणीः रक्षणाय नियोजितौ । शोषणाय स्ववासांसि क्षितौ निक्षिप्य साधुभिः ॥२७॥ ॥ २८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥ ३२॥ ॥३३॥ ॥ ३४॥ ॥ ३७॥ ॥३८॥ ॥ ३९॥ ॥४०॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः परिच्छेदः XE धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥४६॥ X*SKKKK ****.. आवयोर्यस्नतस्तत्र भिक्षोवांसासि रक्षतोः । आगती स्थूलदेहौ द्वौ भीषणी मृगधुतको त्रस्तावासं ततो यावद् गृहीत्वा स्तूपमुन्नतम् । तावदुत्पतितौ व्योम्नि निर्मयौ तौ महाभुजो श्रुत्वाऽऽवयोरवं यावनिगच्छन्ति तपोधनाः । योजनानि गतौ तावद् द्वादशैतौ महाधनौ मुक्त्वा स्तूपमिमौ गृघ्नू आवां भक्षितमुवती । तावत्पापदिकास्तत्र समेताः शस्त्रपाणयः ततोऽस्मद्भक्षणं त्यक्त्वा भीतौ तेभ्यः पलायितौ । करोति वल्गनारंमं कि कोऽपि प्राणसंशये गतोपदवमागत्य लुब्धकैः सह मंडलम् । आवाम्या मंत्रितं द्वाभ्यां स्थिरीकृत्य मनः स्वयम् परकीयमिमं प्राप्तौ विषयं दिग्विमोहितौ । कथं श्रुतिमजानतौ यावो गृहमसंबलौ आवां कुलागतं कुर्वः तत्तपो वृद्धभाषितम् । परत्रामुत्र सत्सौख्यं सत्वरं लभ्यते यतः वस्त्राणि सन्ति रक्तानि मुंडयावः शिरः परम् । आवां किमु करिष्यावो गृहेणानर्थकारिणा व्रतं गृहीतमावाभ्यामेवमालोच्य निश्चितम् । धर्मकर्मणि विद्वान्सः प्रवर्तन्ते स्वयं किल अटन्तौ पृथिवीमावां नानाश्चर्य समीक्षितुम् । भवदीयमिदं स्थानमगमाव द्विजाश्रितम् निशम्येति वचो विप्रा विरुद्धं तं वभाषिरे । व्रतस्थो भाषते भद्र ! वितर्थ कथमीदृशम् निशम्य वचनं तेषां व्याजहार स खेचरः । किं नेदृशान्यसत्यानि पुराणे भवतां द्विजाः दोष परेषां लोकोच वीक्षते स्वस्य कोऽपिन । को न स्वलोचनस्थं हि ग्लोकलंक विलोकते ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ ॥४६॥ ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५४॥ ॥४६॥ . Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५८॥ ॥ ५९॥ ॥६०॥ ते पाहुस्त्वयका दृष्टं पुराणे भो यदीदृशम् । गतर्शकस्तदा हि सर्वे सन्त्यत्र पण्डिताः निशम्येत्यवदत् खेटः एवं चेत् श्रूयतां तदा । वनस्थे रावणो रामे सीतां जहार दंमतः वनौकसां बलं लात्वा सेतुं बद्धा पयोनिधौ । रामचंद्रश्च सौमित्रिर्गतो लंकावनं ततः तदैकैको हरिः पंच पंच लात्वा धराधरान् । जगाम लीलया व्योम्नि श्रीभद्रामनि देशतः रामायणामिधे शास्त्रे वाल्मीकयतिना कृते । कि भो दाशरथेवृत्तमीदृशं प्रोच्यते न वा तेऽवदनीदर्श तथ्य केनेदं क्रियतेऽन्यथा । प्रत्यूषं छाद्यते किंतु पाणिनैकेन भो ! वतिन् ततो रक्तांशुकोपाठीदेकैको वानरो द्विजाः । शैलपंचकमादाय यदाऽध्याति विहायसि स्तूपमेकं तदा लात्वा शृगालौ स्थूलविग्रहौ । व्रजन्तो गगने क्षिप्रं वार्येते केन कथ्यताम् भवदीयमिदं तथ्यं मदीयं नात्र दृश्यते | विचारशून्यतां हित्वा निदान न परं मया भवतामीदशे शख्ने देवधर्मावपीदृशौ । कलुषे कारणे कार्य विशदं जायते कुतः नास्माकं युज्यते मध्ये मिथ्याज्ञानयुतात्मनाम् । ईशामामवस्थातुमित्युक्त्वा निर्गतौ ततः त्यत्वाऽरुणांशुकाकारं तमूचे स मनोजवः । परशास्त्रमसंभाव्यं विरुद्धार्थ त्वया भुतम् प्रोक्तमेतदनुष्ठानं कुर्वाणो नाप्नुयात्फलम् । वालुकापीलनात्तैलं कदा केनाप्यते सखे ! हरिमी राक्षसा हंतुं कि शक्यन्ते कथंचन । क दिव्याष्टगुणा देश क तिर्यचो विचेवसा ॥६२॥ ॥६३॥ ॥६४॥ ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी धर्मपरीक्षा चतुर्दशार परिच्छेदा ॥४७॥ BXXXXXXXXXXXXXKXEXXEKKKA उत्थिप्यन्ते नगास्तुगाः प्लवगैलीलया कथम् । कपाषाणमहाभाराः सामान्याः स्वापदाः कच ॥६९॥ वरानुभावतोऽवध्यो यदि जातो दिवौकसाम् । विहन्यते कथं पुम्भिः तदाऽसौ दशकंधरः ॥७०॥ गीर्वाणा वानरीभय निजघ्नू राक्षसाधिपम् । कक्षीकुर्वन्ति नो दक्षा मारतीं वितथामिमाम् ॥ ७१ ॥ शंकरो वरमीक्षं कथं यच्छति सर्ववित् । सुराणामपि दुर्वारो विष्टपोपद्रवो यतः ॥७२॥ नार्थः परपुराणेषु चिन्त्यमानेषु वीक्ष्यते । दघिसारं कदा नीरे मध्यमानं हि लभ्यते ॥ ७३॥ आदित्यनंदनप्रेष्या वानरास्ते न वानराः । लोके संकल्पिता मित्र ! पलादा रावणादयः ॥ ७४॥ पावना मानवा सर्वे सदाचारा महोजसः । दिव्यविद्याधनोपेताः सर्वे तप वमपरायणाः धर्मपरायणाः ॥७५॥ ततो बलीमुखाः प्रोक्ता यतो बलीमुखध्वजाः । सिद्धामंदमहाविद्या राक्षसा राक्षसध्वजाः श्रीमच्छेणिक मेदिनीपतिपुरः श्रीगौतमस्वामिनाऽ-ज्ञानध्वान्तभरप्रवासननमोरलेन शुद्धात्मना प्रोक्तं सर्वविदायगच्छपतिना तेषां चरित्रं यथा,धार्य भव्यनरैः स्वचेतसि तथा कैवल्यसौख्यार्थिभिः वनसखचतास तथा कवल्यसख्यिाथिभिः ॥७७॥ ॥ इति धर्मपरीक्षायां मनोवेगपवनवेगयो भूपोऽपि नगरगमनो नाम त्रयोदशः परिच्छेदः॥ ॥ अथ चतुर्दशपरिच्छेदः ॥ अथान्यत् सन्मते ! भूयः पुराणं दर्शयामि ते । दिगम्बरत्वमित्युक्त्वा जग्राहासौ समित्रका Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8888888888888♠♠♠♠68888 गोपुरेणैष षष्ठेन गत्वा पुष्पपुरं ततः । आवाज्य सहसा घंटामासीनः कनकासने समेत्य माहनैः पृष्टं किं वेत्सि को गुरुस्तव । कर्तुं शक्नोषि किं वादं सहाष्माभिर्दिगम्बर ! प्रोक्तमाशाम्बरेणेति किश्चिनो वेद्भि माहनाः । न गुरुर्विद्यते कोऽपि वादशक्तिश्व नो मम अदृष्टपूर्वकं दष्ट्वा निविष्टो हेमविष्टरम् | आस्फाल्य प्रवरां घंटां महानादसमीहया गोल्लकस्य सुतौ मूढो सर्वशास्त्रवहिष्कृतौ । भ्रमन्तावागतौ भीत्या हालासिष्व स्वयं तप तेऽवादिषुः कुतो मीत्या युवाभ्यां स्वीकृतं तपः । आदेशेन प्रजल्प त्वमस्माकं कौतुकं यतः आशाम्बरस्ततोऽवादीत् सुस्थित ग्रामसंस्थितः । आवयोररुणस्त्वेको जनको गोलकोचमः अन्यदाऽस्मपितुर्जाते ज्वरे दुस्तापकारके । आवां वालेयरक्षार्थं प्रहितावटवीं गतो सहकारः सदाकारः कुटुंबीय फलान्वितः । सर्ववृक्षाग्रणीर्वामस्तत्रावाभ्यां निरीक्षितः aaisवाचि मया भ्रातः सन्माकंदादनेच्छया । अहमद्भिफलान्यस्य प्रतीक्षस्व स्वर्क रक्षितुं गर्दभवृन्दं सांघवे गतेऽग्रतः । रसालं सफलं वीक्ष्य विष्वङ्मयेति चिन्तितम् न शक्नोम्यहमारोढुं दुरारोहेऽत्र शाखिनि । दृष्ट्वा फलावलीं खिनो बुभुक्षाक्षीणकुक्षि कः मया चिरं विचिन्त्येति गत्वा तस्यान्तिकं स्वयम् । छित्वा क्षितं निजं शीर्ष फलान्याम्रस्य भक्षितुम् स्वेच्छयाति वरांगं मे तदाऽऽम्राणि यथा यथा । महाशर्मकरी तृप्तिस्तुन्दे याति तथा तथा क्षणम् ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ || 8 || ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ || 6 || ॥ ८ ॥ ॥ ९ ॥ ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ ॥ १४ ॥ ॥ १५ ॥ 南南東南角 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेदाः धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥४८॥ निरीक्ष्य जठरं पूर्णमधस्तादेत्य म स्त के । लग्ने निस्संधिक कंठे गतो हर्षितमानसः यावत्पुरो व्रजामि स्म रासमान(व)लोकितुम् । तावन्निद्राणमद्राक्षं सोदरं काननान्तरे प्रोत्थाप्य स मया पृष्टो गता एतेक्व गर्दभाः । तेनोक्तं मम सुप्तस्य सर्व कापि पलायिता: ततो भ्रातामयाप्रोक्तो गच्छावः कुत्रचित्पदे । आवाभ्यामन्यथा शिक्षा जनको दास्पति क्रुधा बु भुक्षया मरिष्या वः परदेशे परं गतौ । सौख्यायावामतः क्षिप्रं भवावो भावलिङ्गिन्नौ निर्वस्त्रत्वं सबईत्वं पंचशाखे कमण्डलु । लिङ्गं दिगम्बरस्यैतत् सुखभोजनसाधकम् इति मंत्रं विधायावा माशाम्बरतपोधनौ । आयातौ भवतः स्थानं पर्यटन्तौ घरां क्रमात जगुस्ते न बिभेसि त्वं विवस्त्री मुक्तसंगकः । सर्वथा युज्यते वक्तुं नेदृशं व्रतवर्तिनाम् नमश्चरस्ततोऽवादीत विधृताशाम्बराकृतिः । किं वल्मीकपुराणे भो विद्यते नेदृशं वचः पुराणे माहनैर्भद्र! त्वया कोऽपि यदीदृशः । दृष्टस्तदा वद स्पष्टमित्युक्तेवम् वियचरः यो विशतिमहावायुर्वलोपेतो दशाननः । सोऽभवद्राक्षसाधीशो विदितो विष्टपत्रये तेना राधयता रुद्रं भक्तियुक्तिवताऽन्यदा । शीर्षाणि करवालेन छिनानि स्वयमात्मनः ततः फुल्लाघरदलैः पूजितो वक्रपंकजैः । सन्मुख नेते शंभुस्तथापि ध्यानतत्परः भक्तिं दृष्ट्वा तदा गौरी कृत्वा रावण हस्तकम् । नाटकं कर्तुमादेमे देवदानवमोहनम् ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥ २३ ॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ ॥ २८॥ ॥२९॥ ॥१८॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवानीवक्त्र विन्यस्तां दृष्टिमाकृष्य शंकरः । निरीक्ष्य साहसं तस्य दत्तवानीप्सितं वरम् निस्संधिके कथं कंठे तस्य वक्त्रपरंपरा | लग्ना रुधिरधाराभिः सिञ्चन्ती धरणीतलम् किमक्षः पुराणार्थो वाल्मीकीयोऽस्ति भो नवा । निगद्यतां तदा तथ्यं यूयं चेत्तध्यवादिनः वे विप्राः प्रोचिरे भद्र ! सत्यमेवेदमीदृशम् । प्रत्यक्षं त्वयाऽख्यातं कोऽन्यथा कर्तुमीश्वरः दिमम्बरस्ततोऽयदीत् शीर्षाणि यदि याज्ञिकाः । लग्नानि रक्षोनाथस्य तदैकं न कथं मम यौष्माकीणमिदं तथ्यं मदीयं भाषितं न च । निदानं नहि पश्यामि मुक्तत्रा मोह विजृम्भणम् ः शिरांसि नानि पुनर्योजयते यदि । स्वलिङ्गं शापतः छिन्नं कथं तेन न योजनम् स्वोपकाराक्षमः शंभुरन्येषा मुपकारकः । कथं भवति भो विप्रा ! महदेतदयुक्त कम् अन्यच्च श्रूयतां वाक्यं सुतं दधिमुखाभिधम् । श्रीकंठञाक्षणी ख्यातं शीर्ष मात्र मजीजनव स्मृतयः श्रुतयस्तेन विशदीकरणक्षमाः । सकलाः स्वीकृता क्षिप्रं समुद्रेणेत्र निम्नगाः नानाम्येकदा गस्त्य मुनीन्द्रस्तपसाद्भुतः । त्वयाद्य मे गृहे भोज्यमिति भक्त्या निमंत्रितः तमगस्त्यो जगौ भद्र ! क्वास्ति ते तनिकेतनम् । यत्र भोजयसि त्वं मामात्य परमादरम् नोदितं न किं पित्रोः साचो ! ममास्ति मंदिरम् । अगस्त्योऽवग् न ते कोऽपि संबंधस्तत्र विद्यते यतः प्रोक्तं शास्त्र - दानयोग्यो गृहस्थोऽपि कुमारोनोच्यते गृही । दानधर्मक्षमासाध्वी गृहिणी गृहमुच्यते ९ ॥ ३० ॥ ॥ ३१ ॥ ॥ ३२ ॥ ॥ ॥ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ ॥ ३६ ॥ ॥ ३७ ॥ ।। ३८ ।। ॥ ३९ ॥ ॥ ४० ॥ ॥ ४१ ॥ ॥ ४२ ॥ 11 83 11 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ ४९ ॥ निशम्येति च तत्रैत्य तेनोक्तौ पितरौ ततः । कौमारदोषविच्छेदो युवाभ्यां क्रियतां मम ताभ्यामुक्तः स ते वत्स ! कोsपि दत्ते न कन्यकाम् । आवां निराकरिष्यावो जायाश्रद्धां तथापि ते ate भूरिणा ताभ्यां गृहीत्वा दुर्गताङ्गजाम् । कृत्वा महामहं योग्यं ततोऽसौ परिणायितः दधिमुखोऽवादि स्वल्पकालव्यतिक्रमे । आवयोर्द्रविणं नास्ति पालय त्वं निजां प्रियाम् समाकर्ण्यति तेनोक्ता स्ववधूरे हि वल्लभे । व्रजावः कापि जीवावः पितृभ्यां प्रहितो गृहात् निजं सेक्तारमारोप्य साध्वी शिरसि सा ततः । बभ्राम पृथिवीपीठे दर्शयन्ती गृहे गृहे पालयन्तीमिमां वीक्ष्य विकलं तादृशं पतिम् । कृपया नित्यशो भक्ति प्रवरां चक्रिरे प्रजाः तथा पतिव्रता पूजां प्राप्नुवन्ती पुरे पुरे । विशालां सान्यदा प्राप्ता भूरिराजन्यराजिताम् सैकस्मिन् सदने मुत्वा सिककं पतिसंयुतम् । ययौ प्रार्थयितुं भोज्यं सोद्यमा निगमान्तरे द्यूतकारक योज महायुद्धे मिथस्तदा । एकस्यैकः शिरः छेदं चक्रे खड्गेन रोषतः तथा दक्षता दृष्ट्वा शीर्षमानीय सत्वरम् । सिक्का भिजकान्तस्य मुक्तं तत्र कबंधके ततो दधिमुखस्तत्र लग्न निःसंधिमस्तकः । बभूव भुवि विख्यातोऽपरः सर्वाग सुन्दरः इदं तथ्यमतथ्यं वा मैत्रावरुणभाषितम् । निगद्यतां मम क्षिप्रं पर्यालोच्य स्वचेतसि तं जगुर्याज्ञिकाः खेटं केनेदं क्रियतेऽन्यथा । प्राच्यामभ्युदितो भास्वान् छाद्यमानो न जायते ॥ ४४ ॥ ॥ ४५ ॥ ॥ ४६ ॥ ॥ ४७ ॥ ॥ ४८ ॥ ॥ ४९ ॥ ॥ ५० ॥ ॥ ५१ ॥ ॥ ५२ ॥ ॥ ५३ ॥ ॥ ५४ ॥ ।। ५५ ।। ॥ ५६ ।। ॥ ५७ ॥ चतुर्दशः परिच्छेदः ॥ ४९ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खमेनावाचि मो विप्राः ! शीर्षमन्यकबंधके । यदि निःसंधिकं लग्नं तदा तथ्यं कथं न मे ॥५८॥ अन्यच्चाकर्ण्यतां पिंडं प्राप्य देवान्मनीषितम् । दानवेन्द्रोऽन्यदा भूपः तनयोत्पत्तिहेतवे द्विधाकृत्य स्वदेवीभ्यां ददौ कलहसाध्वसात् । ततस्तयोबिधा गर्मों मवतिस्म द्वयोरपि ( युग्मम् ) ॥ ६ ॥ जातं खण्डद्वयं वीक्ष्य सम्पूर्णे समये सति । नीत्वा ताम्यां बहिः क्षिप्तं संहितं जरया पुनः ततोञ्जनि जरा संघो विनिर्जितनरामरः । सर्वकर्मक्षमः ख्यातो विक्रमाक्रान्तविष्टपः ॥ ६२॥ गतवणं योज्यमानं विलग्नं शकलद्वयम् । सवणं न कथं शीर्ष मदीयं गद्यतां द्विजाः ॥ ६३॥ विप्रेरुक्तमिदं सर्व भाषितं सभ्यतान्वितम् । परं कथं फलैः पूर्ण तुदं ते शीर्षभक्षितैः ॥६४॥ ततो जगाद खेटोऽसौ मुक्तेषु माहनेषु भोः !। दग्धा व्यतीतास्तृप्यन्ति कथं पितामहादयः मुक्तेष्वन्येषु तुष्यन्ति विपना यदि माहनाः ।। तदा देहो न मे मूर्ध्नि कथं समीपवर्तिनि ॥६६॥ क शंकरः क पौलस्त्यः क मस्तकं क पूर्वजाः। सर्वमेतदहो विप्राः! मिथ्यात्वस्य विजृम्भणम् ॥ ६७॥ निरुत्तराँस्तान् वीक्ष्य वियच्चरो द्विजन्मनः । निर्गत्य पौरके यातो भरिभूरुहभूषिते ॥ ६८॥ खगपुत्रौ निविष्टौ तौ मुक्त्वा दिगम्बराकृतिम् । माकन्दपादपस्याघो विचित्रफलशालिनः ॥ ६९॥ ततः सोऽवग् वायुवेग वेदशास्त्रं द्विजन्मनाम् । प्रमाणीक्रियते नात्र विचारचतुराशयैः ॥७ ॥ यतो निगदिता वेदे हिंसा शातप्रदायिनी । दुर्गतेर्तिनी मित्र ! जन्मोर्वीरुहवर्द्धिनी ॥७१॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥ ७४॥ चतुर्दशा परिच्छेदः धर्मपरीक्षा कथानकम् PRXXREER3333 वेदशास्त्रोदिता हिंसा जागते धर्मसाधनम् । आहो मित्र ! महचित्रं तत्रैतद् दृश्यते मया हन्यमाना हठाज्जीवा याज्ञिकैर्महेतवे । खर्गे यान्तीति मे चित्रं वह्विना व्याकुलीकृताः या धर्मनियमध्यानसंगतैः साध्येतंगिमिः। कथं स्वर्गगतिः साध्या हन्यमानैरसौ बलात् धों वयस्य ! नो जात्या लम्यते देहधारिमिः। वृत्तमात्रेण जातीनां स्याच भेदस्य कल्पनम् ब्राह्मणक्षत्रियादीनां मध्ये सा जातिरुत्तमा । यत्र स्याभियमः शीलं तपो दानं दमो दया शीलवन्तो गताः स्वर्गे नीचजातिभवा अपि । कुलीना दुर्गति प्राप्ताः शीलसंयमनाशिनः संजायते गुणैर्जातिगुणध्वंसे विपद्यते । अतो नित्यं बुधैः कार्यों गुणेषु परमादरः नित्यं जातिमदः कार्यों न नीचत्वप्रवेशका । उच्चत्वजनका सद्भिः कार्यशीलस्य चादरः मन्यन्ते स्नानतः शौचसत्यशीलादिभिविना । ये तेभ्यो न परे सन्ति दुर्दियः पापवर्षका: शुक्रवासिष्टनिःपनं मातगात्रवि वर्धितम् । साध्यते पयसा गात्रमाश्चर्य किमतः परम् मलो विशोध्यते बाझो नीरेणेति निगद्यताम् । तेन प्रहन्यते पापं कस्येदं हृदि विद्यते मिथ्यात्वासंयमानानैदुःकृतं देहिनार्जितम् । सम्यक्त्वसंयमज्ञानमिद्यते नान्यथा ध्रुवम् प्रत्यक्षमीक्षमाणेषु भूतेषु सर्ववस्तुषु । अभावः परलोकस्य कथं मूढैविधीयते लज्जां हित्वा गृह जग्मुः क्वचित क्षुत्तृट्करालिताः। तिष्ठन्ति लज्जया केचिन्मानमा विपिने तदा ॥ ७६ ॥ ॥ ७७॥ ।। ७८॥ ॥७९॥ ॥८१॥ ॥८२ ॥ ॥८३॥ ॥८४॥ ॥३५॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३७॥ ॥ ३८॥ यदि यामो गृहं हित्वा देवमत्र बनान्तरे । तदानीं भरतो रुग्येद् वृत्तिच्छेदं करोति न: वरमत्र स्थिताः सेवां विदधानाः प्रमोर्वने । इत्थं ध्यात्वा परे तस्थुस्तत्र कंदादिखादिनः पाखण्डानां विचित्राणां सत्रिषष्ठिशतत्रयम् । क्रियाक्रियादिवादानामभवत् क्रमतस्ततः यदुक्तं सूत्रे-असियस किरियाणं भकिरियं वाईण होइ चुईसीई। अनाणिय सत्तट्टी वेणईयाणं च वतीसम् एवं नराधिपाः प्राप्ता भरिभेदां विडम्बनाम् । विडंब्यन्ते न के पृथ्व्यां मुक्तयुक्तक्रियादरा: आहारेण विना लग्नाः परीषहकराचिताः । इमे यथा तथाऽन्येऽपि मिथ्यात्वे दुर्गतिप्रदे वर्षान्तेऽम्प जिनेशस्य शुद्धाहारामिलाषिणः । श्रीश्रेयांसकुमारेण कुमाराद्भतशक्तिना वरेक्षुरसपूरेण जातिस्मरणतो मुदा । कारितं शर्मजनकं पारणं पापवारणम् (युगलम्) ततश्च विहरन् स्वामी निममो निरहंकृतिः । क्रोधयोधपरित्यक्तो मायाजायाविवर्जितः लोभलोमविनिमुक्तो मोहद्रोहमदोन्मितः । प्रतिबंधपरित्यागी नीरागी निस्पृहः सहा ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्यदयाक्षमा: । मार्दवार्जववैराग्यतथ्यभुक्तिसमाधयः शौचाकिंचनताब्रह्मचर्यसंयमबुद्धयः । संतोषभावनोदारनिर्जराया गुणाबये अग्रेसरैरमीभिः स्वं भावयन्नाययो जिनः । सहस्राब्द विहत्यासौ पुरे पुरिमतालके ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ ॥४७॥ ॥४८॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ ५१ ॥ SEEEEEEEEEE. शकटोपवन स्थेऽसौ वटवृक्षतलेऽमले । कृताष्टमतपः स्वामी केवलज्ञानमाप्तवान् सर्वदर्शी स सर्वज्ञो बभूव भुवनप्रभुः । त्रिकालविषयं जानन् लोकालोकप्रकाशकः सौधर्मेन्द्रादिभिर्देवैः मरतेन महीभुजा । तत्रैत्य केवलज्ञानोत्सवोऽकारि प्रभोर्मुदा प्रभुणा देशना दत्ता तदांगिबोधहेतवे । तां निशम्य ययुः सर्वे स्वस्वस्थानं प्रहर्षिताः ततो रवीन्दुजी मृतोपमः सर्वसमः प्रभुः । विषयेषु विहारं च विश्वोषकृतये व्यधात् स्थाने स्थाने प्रधाने च चतुर्विधदिवौकसः । चक्रुः समवसरणं शरणं भविकाङ्गिनाम् देवदुन्दुभयो नेदुः शीर्षे छत्रत्रयं दधुः । चामरे चामराः पार्श्वे पद्मानि पुरतस्तथा इत्यादिप्रातिहार्य श्री विहरञ्जिननायकः । अन्यदा तत्र भूयोऽप्याययौ साधुपरिच्छदः उद्यानपालका गत्वा शशंसुर्भरताधिपम् । सार्द्धद्वादशकल्याण कोटीस्वेभ्यो ददौ सकः ततश्च विविधाहारादिपूर्णबकनांसि सः । लात्वा तत्रागतः सार्व दंदितुं सपरिच्छदः जिनदृौ तदा मोदाद्भरतो भरताधिपः । पंचधाभिगमं दक्षसुगमं कृतवान् स्वयम् यथा- सचितदव्वमुष्झण १ सचित्तमणुज्झणं २ मणेगतम् ३ इगसाडिउत्तरासंग ४ मंजलीसरसिजिण दिट्ठे पंच विहाभिगमो अहवा मुश्चंति रायचिह्नाहं । खग्गं १ छत्तो२ वाहण ३ मउडं ४ चमरे व पंचमए तिस्रः प्रदक्षिणा दत्ता नत्वादिमं जगद्गुरुम् । स श्रद्धालुरिलापालः स्थाने तस्थौ यथोचिते ॥ ४९ ॥ ॥ ५० ॥ ॥ ५१ ॥ ॥ ५२ ॥ ॥ ५३ ॥ ॥ ५४ ॥ ॥ ५५ ॥ ॥ ५६ ॥ ॥ ५७ ॥ ॥ ५८ ॥ ॥ ५९ ॥ ॥ ६० ॥ ॥ ६१ ॥ ॥ ६२ ॥ चतुर्दशः परिच्छेदः ॥ ५१ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3888888XXXXXXXXXXX ततो देवाधिदेवेन क्लेशराशिविनाशिनी । हिताय सर्वजन्तूनां प्रारब्धा धर्मदेशना ॥ ६३ ॥ सव्वा कला धम्मकला जिणाइ सव्वा कहा घम्मकहा जिणाइ । सव्वं बलं धम्मबलं जिणाइ सव्वं मुहं मुत्तिमुई जिणाइ ॥ ६४॥ आकण्येवं सकर्णेन तेन नत्वा जगद्विभुः । सद्धर्मस्य स्वरूपं किमिति पृष्टो जिनोऽवद व श्रीधर्मपुरुषस्यास्य दानमौदारिकं वपुः । शीलं वस्त्रं तपरतेजो भावो जीवस्तदीशिता युक्तं तदुक सव्यक्तं श्रुत्वा ध्यात्वेति मानसे । घों दानमयो मोक्षसौख्यसंपत्तिहेतवे साधुभिः सार्धमानीतो भक्ताद्यर्थ नराधिपः । सादरं दरमुक्तानामाकारणं तदाऽकरोत् (युग्मम्) ॥ ६८॥ ततो जगौच तं भगवानकल्पं वतिनां नृप! । राजपिंडादिदोषेण दूषितानमिदं सदा ॥ ६९ ॥ सौधर्मेन्द्रोऽथ तं दूनं ज्ञात्वा भरतचक्रिणम् । निर्व्याजं व्याजहारेति युक्तयुक्तिविचक्षणः ॥ ७०॥ मा विषादं कुरु स्वान्ते धर्मबुद्धे ! घराधर ! । क्षेत्राणि सुपवित्राणि सदा सर्वज्ञशासने ॥ ७१ ॥ यथा-जिणभवणवियपुच्छय संघसरूवे सुसत्तखित्तेसु । ववियं धणं पि जायइ सिवफलपमहो अणतगुणं ॥७२॥ तत्र साधर्मिका येऽपि गृहारंभपराङ्मुखाः । संवेगादिगुणोपेतास्तेषां भक्ति सदा कुरु ॥ ७३ ॥ निशम्येति वचस्तस्य पूर्वानीतसवस्तुमिः । साधर्मिकस्य वात्सल्यमकरोद्भरताधिपः ॥ ७४॥ भावाचारविचाराढ्य चतुरध्यायबन्धुरम् । श्राद्धप्रज्ञप्तिसद्ग्रन्थं सर्वोक्तं पठन्ति ते ॥ ७५॥ XXXXXXXXXXXXXXXXX Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ ५२ ॥ 联或球運運或燃燃泡軟軟軟米米米米 भाज द्वादशव्रतधारिणाम् । लोकेऽस्मिन् माहना एवं प्रसिद्धिरभवचदा काले तेषां ततो वृद्धौ जातायां मन्त्रिवाक्यतः । परीक्ष्यते न काकिन्या कंठे रेखात्रयं कृतम् अथ कालेन भगवान् तीर्थस्यादिविधायकः । सर्वकर्मक्षयान्मोक्षं जगाम भरतोऽपि च इतः संततभिस्तेषां परीक्षापूर्वकं कृतम् । सूत्रत्रयं सुवर्णस्य संजातं राजतं क्रमात् ततः कालेन नवमदशमाधीशवरान्तरे । विच्छिदे सर्वसाधूनां बभ्रुवुर्गुरवो हिते सूत्रत्रयधराः कंठे क्रमेण ब्रह्मचारिणः । एते मिथ्याविनोऽभूवन् शुद्धधर्मस्य वादिनः यदुक्तं सिद्धान्ते - समयसरणभत्तवग्गाह अंगुलिकयमक्क सावया अहिया । जे आवड कागिणिलंछणअणु सम्मण अट्ठ अस्सावगपडिसेहो छट्टेरयमासि अणुओगो । कालेणय मिच्छत्तं जिणंतरे साहु बुच्छेओ अज्ञानतिमिरे मित्र ! मित्रछत्र शिरोमणे । वर्णास्तदनु चत्वारो बभ्रुवुः विदिता भुवि व्रतिनो ब्राह्मणाः प्रोक्ताः क्षत्रियाः क्षिति रक्षणाः । वाणिज्यकुशला वैश्याः शूद्राः प्रेष्यणकारिणः श्रावकाः पूजिताः पूर्वं भक्तितो भरतेन ये । चकिपूजनतो जाता ब्राह्मणास्ते मदोद्धताः अर्क कीर्तिरभूत्पुत्रो भरतस्याद्यचक्रिणः । सोमो बाहुबलेस्ताभ्यां वंशः सोमार्कसंज्ञकः दुग्वाम्भसोर्यथा भेदो मरालेन विधीयते । तथात्मदेदयोः सद्धिरात्मतत्त्वविचक्षणैः ।। ७६ ।। ॥ ७७ ॥ ॥ ७८ ॥ ॥ ७९ ॥ 1160 || ॥ ८१ ॥ ॥ ८२ ॥ ॥ ८३ ॥ || 68 || ।। ८५ ।। ॥ ८६ ॥ 11 20 11 ॥ ८५ ॥ चतुर्दशः परिच्छेदः ॥ ५२ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥८६॥ ॥८७॥ ॥८८॥ ॥८९॥ बंधमोक्षादितवानामभावः क्रियते यकी । तेभ्यो नान्योऽस्ति धृष्टात्मा मन्येऽहं मित्र ! मानसे वध्यते कर्मभिर्मात्मा सर्वदा यदि सर्वथा । संसारसागरे घोरे बंभ्रमीति कथं तदा अवदातस्य नित्यस्य शानिनः परमात्मनः । अवस्थितिः कुतो देहे दुर्गधामेध्यमंदिरे सर्वज्ञस्य विरागस्य शुद्धस्य परमेष्ठिनः । व्यापकस्य महाबुद्धेर्जायन्तेऽवयवाः कथम् यदि सर्वविदामेषां मूर्तिरेकास्ति तत्त्वतः । तदा ब्रह्ममुरारिभ्यां लिङ्गान्तः किं न वीक्षितः प्रलयस्थितिसृष्टीनां विधातुः पार्वतीपतेः । लिङ्गच्छेदकरः शापो दीयते तापसः कथम् ? ये ददन्ते महाशापं वृषाङ्कस्यापि तापसाः । विभिन्नास्ते कथं पाणैः दर्पकेन निरन्तरैः स्रष्टारो जगतो देवा ये सुराः सुरवन्दिताः । प्रकृता इव कामेन किं तेन विजिता रयात स्मरेण येन निर्जित्य सर्वे विडम्बिताः सुसः । शंभुना स कथं दग्धः तृतीयाक्षिकशानुना ये रागद्वेषमोहादिमहादोषवशीकृताः । कथं वदन्ति ते देवा धर्म धर्मास्मनां हितम् देवो रागी यतिः संगी धमों हिंसामयोमतः । राद्धातो वितथो यस्मिन् शासने च कुशासने देवता विविघदोषदूषिताः कोषलोभकलितास्वपोधनाः । बीवहिंसापराषणों वृषः सेविता लघु नयन्ति संसृविम् जन्मजातिबहुमार्गसंकुले द्वेषरागमदमत्सरोगते । ॥९१ ॥ ॥ ९२ ॥ ॥ ९३ ॥ ॥९४॥ ॥९५॥ PROXXXSS Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मर्यपरीक्षा ॥९८॥ परिच्छेदः ॥१०॥ दुर्लभः शिवपथो जने यतस्त्वं तदा भव परीक्षकोऽधुना सुदूपणमरोज्झिताखिदशवंदिता देवताः । निराकृतपरिग्रहस्मरविलासदों यतिः वृषोऽकपटसंकटः सकलजीवरक्षापरो । वसन्तु मम मानसे वरमतेः शिवायानिशम् ॥इति धर्मपरीक्षायां पवनवेगप्रतिबोधनो नाम चतुर्दशः परिच्छेदः।। ॥अथ पञ्चदशपरिच्छेदः ॥ श्रुत्वेति वायुपेगोऽय परदर्शनदुष्टताम् । पप्रच्छ त मनोवेग संशयध्वान्तविच्छिदे मियोऽभूवन विरुद्धानि कथं शास्त्राणि भूरिशः । दर्शनस्यान्यदीयस्य कथ्यतां मम सन्मते ! निशम्येति वचस्तस्य मनोवेगो जगौ मुदा । उत्पत्तिरन्यतीर्थानां श्रूयतां विलसन्मते ! कालो द्विविधोऽवसर्पिण्युत्सर्पिणीविमेदतः। सागरकोटिकोटीनां स विशत्या समाप्यते षडराअवसपिण्यामुत्सपिण्यांत एव विपरीताः। एवमरैदशमिर्विवर्त्तते कालचक्रमिदम् तत्रैकान्तसुषमारश्चतस्रः कोटिकोटयः । समुद्राणां सुषमा च तिस्रस्तत्कोटिकोटयः सुषमदुपमा ते द्वे दु:षमासुषमा पुनः । सैका सहवैवर्षाणां द्विचत्वारिंशतोनिता XXXXXXXXXXXXXXX888 ॥२॥ ॥४॥ ॥५३॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥९॥ ॥१०॥ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX दुषमा चैकविधत्याब्दसहस्रैश्च तावती । सुदुःखमाप्येतत्संख्याविपरीताः परेऽपि च आदिमेऽस्रये माखिन्थेकपल्यजीविताः । त्रियेकयोजनोच्छ्रायास्त्रिद्वयेकघस्रभोजनाः नीमर्त्ययोयुगं तत्र जायते सहभावतः । तेषां जग्धिः क्रमादा बदरामलतुल्यका नास्ति स्वस्वामिसंबंधो नान्यगेहगमागमौ । नहि नो नाधिकस्तत्र न व्रतं नापि संयमः यच्छन्ति युग्मिनां तेषां भाग्यसौभाग्यमाजिनाम् । सकलं कामितं नित्यं दशया कल्पपादपाः अन्यदा तृतीयारान्तेऽयोध्यायां नामिसभृतः । मरुदेवी महादेवी वृषभाप्तमजीजनत अथागत्येह शक्रेणाकारि जन्मोत्सवः प्रमोः । ततस्तं पालयामास मरुदेवी जिनेश्वरम् क्रमात्तस्य जिनेशस्य संजाते यौवनोदये । कन्ये सुमंगलानंदे पुरंदरेण योजिते एतयोः कान्तयोस्तस्य सुतानामभवच्छातम् । शुद्धबुद्धियुते ब्राह्मीसुन्दयौँ कन्यकेपि च निजकल्पद्रुमापाये युग्मिनामाकुलात्मनाम् । शिक्षा दिदेश स पृष्टो जीवनस्थितिकारिणीम् ज्ञानत्रयघरः सोऽपि तीर्थस्यादिविधायकः । रागद्वेषविजेतारं दध्यावित्येकदाहृदि बन्धूनामिह संयोगः पान्थानामिव वर्मनि । सुहृदां जायते स्नेहः प्रकाश इव विद्युतः मित्रपुत्रप्रियागेहधनधान्यादिसंपदाम् । प्राप्तिः स्वप्नोपलब्धिर्वा न स्थैर्यमवलम्बते जन्मजातिजरोपेते संसारे सारवर्जिते । आधिव्याधिभयाकीर्णे न सौख्यं देहधारिणाम् KOKAIXXXIIEEEXXXXXXXXXXX ॥ १७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ॥२२॥ ॥ २३॥ ॥२४॥ पश्चदशा परिच्छेदः धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥५४॥ KXXXXXXXXXXXXXXXXXKXKOS विचिन्त्येति जिनो गेहाबहिर्गन्तुं प्रचक्रमे । संसारासारवादी कथं गेहेऽवतिष्ठते आरूढः शिविकां देवो हाराहारभूषितः । सत्वरं स्वपमानेतु सिद्धिभूमिमिवामलाम् अग्राहिपुनरश्रेष्ठा मुद्दा तां च दिवौकसः । समस्तधर्मकार्येषु व्याप्रियन्ते महाधियः सिद्धार्थवनमागत्य सोज्वातरत्तरोरधः । पर्यकासनमास्थाय भूषणानि निराकरोत चतुर्भिर्मुष्टिभिः क्षिप्त ततोऽसौ दृढमुष्टिकः । केशानुत्पाटयामास कृतसिद्धनमस्कृतिः प्रत्याख्याय जिनः षष्ठं नरामरनिषेवितः । तत्रो/भूय संतस्थौ कनकाद्रिरिव स्थिर: सौधर्मेन्द्रस्ततो हर्षाजिनेन्द्रस्य शिरोरुहान् । समादाय महाभक्त्या चिक्षेप क्षीरसागरे तदा चतुःसहस्राणि जातामापा मुमुक्षवः । सद्भिराचरितं कार्य सकलः कुरुते जनः पण्मासाभ्यन्तरे सर्वे भग्नास्ते नृपपुङ्गवाः । दीनचित्तैर्न सह्यन्ते दुःसहाश्च परीषहाः फलान्यतुं प्रवृत्तास्ते पयः पातुं दिगम्बराः । तनास्ति क्रियते यन्त्र क्षोण्यां बुभुक्षितेनेरे। अथच देव्या तदनु ते प्रोक्ता भो भो भूपा न युज्यते । विधातुमीदृशं कृत्यं लिंगेनानेन निदितम् आदाय स्वयमाहारं मुंजते ये यतीश्वराः । नोत्तारो विद्यते तेषां पतितानां भवाम्बुधेः शुद्धपात्रे परतं प्रासुकं परमंदिरे । आहारं भुजंते जैना यतयो धर्मकाङ्क्षया आकर्येति वचो देव्या कृत्वा कौपीनमाकुलाः। पानीयफलपुष्पाणि अंजते ते प्रमादिनः ॥२६॥ ॥ २७॥ ॥ २८॥ ॥ २९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ EXEXXECREERSIOSEROSEXI ॥३४॥ ॥५४ ।। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ZEEEEEEEEEEEEEEEEEEEERERS हित्वा गृहं जग्मुः केचित् क्षुतट्करालिताः । तिष्ठन्ति लज्जया केचिन्मानवा विपिने तदा यदि ग्रामों गृहं हित्वा देवमत्र वनान्तेरं । तदानीं मरतो रुयेद् वृत्तिच्छेदं करोति नः वरमंत्र स्थिताः सेवां विदधानाः प्रभोर्वने । इत्थं ध्यात्वा परे तस्थुस्तत्र कंदादिखादिनः पाखण्डानां विचित्राणां सत्रिषष्ठिशतत्रयम् । क्रियाक्रियादिवादा (ना ) ममत्रत् क्रमवस्ततः । यदुक्तं सूत्रे - असियस किरियाणं अकिरियं वाईण होइ चुलसीई । अाणि सत्तट्ठी वेणईयाणं च बचीसम् एवं नराधिपाः प्राप्ता भूरिभेदां विडम्बनाम् । विडंब्यन्ते न के पृथ्यां मुक्तयुक्त क्रियादराः आहारेण विना लग्नाः परीषदकरालिताः । इमे यथा तथाऽन्येऽपि मिथ्यात्वे दुर्गतिप्रदे (वर्षान्तेऽथ जिनेशस्य शुद्धाद्दाराभिलाषिणः । श्री श्रेयांसकुमारेण कुमाराद्भुतशक्तिना बरेक्षुरस पूरेण जातिस्मरणतो मुदा । कारितं शर्मजनकं पारणं पापवारणम् युगलम् तत विहरन् स्वामी ( नि ) र्ममो निरहंकृतिः । क्रोधयोधपरित्यक्तो मायाजायाविवर्जितः लोभक्षोभविनिर्मुक्तो मोहद्रोहम दोज्झितः । प्रतिबंधपरित्यागी नीरागी निःस्पृहः सहः ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्यदयाचमाः । मार्दवार्जवचैराग्यतथ्यमुक्तिसमाधयः शौचा किंचनता ब्रह्मचर्यसंयमबुद्धयः | संतोषभावनोदार निर्जराद्या गुणाश्रये ।। ३५ ।। ॥ ३६ ॥ ॥ ३७ ॥ ॥ ३८ ॥ ॥ ३९ ॥ ॥ ४० ॥ ॥ ४१ ॥ ॥ ४२ ॥ ॥ ४३ ॥ ॥ ४४ ॥ ।। ४५ ।। ॥ ४६ ॥ 11 80 11 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चदशः परिच्छेदः धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥५५॥ अग्रेसरैरमीमिः स्वं भावयबाययो जिनः । सहस्राब्दं विहत्यासौ पुरे पुरिमतालके शकटोपवनस्थेऽसौ वटवृक्षतलेऽमले । कृताष्टमतपः स्वामी केवलबानमाप्तवान सर्वदर्शी स सर्वज्ञो बभूव भुवनप्रभुः । त्रिकाल विषयं जानन् लोकालोक प्रकाशक: सौधर्मेन्द्रादिभिर्देवैः भरतेन महीभुजा । तत्रैत्य केवलज्ञानोत्सवोकारि प्रभोर्मुदा प्रभुणा देशना दत्ता तदागिबोधहेतवे । तां निशम्य ययुः सर्वे स्वस्वस्थान प्रहर्षिताः ततो रवीन्दुजीमूतोपमः सर्वसमः प्रभुः । विषयेषु विहारं च विश्वोपकृतये व्यपात स्थाने स्थाने प्रधाने च चतुर्विधदिवौकसः । चक्रः समवसरणं शरण भविकाङ्गिनाम् देवदुन्दुमयो नेदुः शीर्षे छात्रयं दधुः । चामरे चामराः पार्थे पानि पुरतस्तथा इत्यादिनातिहार्यश्रीविहाञ्जिननायकः । अन्यदा तत्र भयोऽप्याययो साधुपरिच्छदः उद्यानपालका गत्वा शशंसुर्भरताधिपम् । सार्द्धद्वादशकल्याणकोटीस्तेभ्यो ददौ सका ततश्च विविधाहारादिपूर्णावध्यनांसि सः । लात्वा तत्रागतः सार्व वंदितुं सपरिच्छदः जिनदृष्टौ तदा मोदादर(तो) भरताधिपः । पंचधाभिगमं दक्षसुगर्भ कृतवान् स्वयम् यथा-सचित्तदन्वमुज्झण१ सचित्तमणुष्मण२ । मणेगत्तम् ३इगसाडिउत्तरासंग ४मंजलीसरसिजिणदिखे इइपंचविहाभिगमो अह्मा मुचंति राय चिहाई । खग्गं १ छत्तो २ वाहण ३ मउड ४चमरे य पंचमए ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥ ५४॥ ॥५५॥ ॥ ५७॥ ॥५८॥ ॥६० ॥ ॥६१॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिस्रः प्रदक्षिणा दत्ता नत्वादिमं जगद्गुरुम् । स श्रद्धालुरिलापालः स्थाने तस्थौ यथोचिते ततो देवाधिदेवेन क्लेशराशिविनाशिनी । हिताय सर्वजन्तूनां प्रारब्धा धर्मदेशना सव्वा कला धम्मकला जिणाड़ सव्वा कहा धम्म कहा जिणार । ॥ ६२ ॥ ॥ ६३ ॥ ॥ ६४ ॥ ।। ६५ ।। ॥ ६६ ॥ ॥ ६७ ॥ ६८ ।। सव्वं बलं धम्मबलं जिणाइ सव्वं मुहं मुत्तिमुहं जिणाइ आकर्येवं सकर्णेन तेन नत्वा जगद्विभुः । सद्धर्मस्य स्वरूपं किमति पृष्टो जिनोऽवदत् श्रीधर्मपुरुषस्यास्य दानमौदारिकं वपुः । शीलं वस्त्रं तपस्तेजो भावो जीवस्तदीशिता युक्तं तदुक्तं सव्यक्तं श्रुत्वा ध्यात्वेति मानसे । धर्मो दानमयो मोक्षसौख्यसंपत्तिहेतवे साधुभिः सार्धमानीतो मक्ताद्यर्थं नराधिपः । सादरं दरमुक्तानामाकारणं तदाऽकरोत् ( युग्मम् ) ।। ततो जगौ च (तं) भगवानकल्पं व्रतिनां नृप । राजपिंडादि दोषेण दूषितानमिदं सदा सौधर्मेन्द्रोऽथ तं दूनं ज्ञात्वा भरतचक्रिणम् । निर्व्याजं व्याजहारेति मा विषादं कुरु स्वान्ते धर्मबुद्धे ! धराधर । क्षेत्राणि सुपवित्राणि जिणभवणर्विवपुच्छय संघसरूवे सुसत्तखित्तेसु । ववियं धणं पि जायह तत्र साधर्मिका येऽपि गृहारंभ पराङ्मुखाः । संवेगादिगुणोपेतास्तेषां भक्ति सदा कुरु निशम्येति वचस्तस्य पूर्वानीत सवस्तुभिः । साधर्मिकस्य युक्तयुक्तिविचक्षणः सदा सर्व (ज्ञ) शासने सिवफलपमहो अनंतगुणं वात्सल्यमकरोद्धरताधिपः ॥ ६९ ॥ ॥ ७० ॥ ॥ ७१ ॥ ॥ ७२ ॥ 11 193 11 ॥ ७४ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी धर्मपरीक्षा कथानकम् ।। ५६ ।। श्राद्धाचारविचाराढ्यं चतुरध्यापत्रन्धुरम् । श्राद्धप्रससिसद् ग्रन्थं सर्वज्ञोकं पठन्ति ते तेषामहद्धर्मभाजां द्वादशव्रतधारिणाम् । लोकेऽस्मिन् माहना एवं प्रसिद्धिरभवचदा काले तेषां ततो वृद्धौ जातायां मन्त्रिवाक्पतः । परीक्ष्यते न काकिन्या कंठे रेखात्रयं कृतम् अथ कालेन भगवान् तीर्थस्यादि विधायकः । सर्वकर्मक्षपान्मोक्षं जगाम भरतोऽपि च इतः संततभिस्तेषां परीक्षापूर्वकं कृतम् । सूत्रत्रयं सुवर्णस्य संजातं राजतं ऋपात् कीलेन नवमदशमाधीश्वरान्तरे । विच्छिदे सर्वसाधूनां बभ्रुवुखो हि वे सूत्रत्रयधराः कंठे क्रमेण ब्रह्मचारिणः । एते मिथ्याविनोऽभवन् शुद्धधर्मस्य वादिनः यदुक्तं सिद्धान्ते - समवसरणभत्तवग्गाह अंगुलिज्झ यमक्क सावया अहिया । ततः जे आवदह कागिणि लंछण अणु सम्भण भट्ट अस्सावगपडिसेहो छट्टेरयमासि अणुओगो । कालेजय मिच्छतं जिणंतरे साहु बुच्छेओ अज्ञानतिमिरे मित्र मित्रछत्रशिरोमणे । वर्णास्तदनु चत्वारो बभ्रुवुः विदिता सुवि व्रतिनो ब्राह्मणाः प्रोक्ताः क्षत्रियाः क्षितिरक्षणाः । वाणिज्यकुशला वैश्याः शूद्राः प्रेष्यण कारिणः श्रावकाः पूजिताः पूर्व भक्तितो भरतेन ये । चक्रिपूजनतो जाता ब्राह्मणास्ते मदोद्धताः अर्ककीर्तिरभूत्पुत्रो भरतस्याद्यचक्रिणः । सोमो बाहुबलेस्ताभ्यां वं शः सोमार्कसंज्ञकः ॥ ७५ ॥ ॥ ७६ ॥ || 6161 || ॥ ७८ ॥ ॥ ७९ ॥ 11 60 11 ॥ ८१ ॥ ॥ ८२ ॥ ॥ ८३ ॥ || 68 || ॥ ८५ ॥ ॥ ८६ ॥ 1120 11 पश्चदशः परिच्छेदः ॥ ५६ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥८८॥ शिष्यः श्रीपार्श्वनाथस्य विदधे पुदर्शनम् । भक्तः श्रीवीरनायस्य गोशाल को मतं नवम् क्रियते भद्र ! कथ्येत मिथ्यादर्शनवनिमिः । दुष्टैः पाखण्डिमेदाधैर्विहित गणनातिगम् शत्रुमित्रकसच्चित्तः सर्वदोषविवर्जितः । सुरासुरनरैर्नम्यः स देवः शिवदः सखे ! पंचेन्द्रियसंवरभाग नववा ब्रह्मगुप्तियुक् । चतुःकषायनिर्मुक्तो रवितुं स गुरुः प्रभुः त्रिकालखोदितो धो भवभीमेमकुंममित् । सर्वजीवस्य सुखकर स दत्ते गतिमुत्तमाम सद्देवगुरुधर्मेषु विदोपेचीदृशेषु यः । निर्दभमादरं विद्वान् विद्यत्ते सोपवर्गमाग सम्यक् निशम्य सम्पक्वपापकं तस्य सद्वचः । प्रोचे पत्रनवेगोऽथ मिममिथ्यात्वपर्वतः हा! हारित निजं जन्म मित्र! मंदषिया मया । मिथ्यात्ववचनवातध्वान्तसंगतचेतसा: त्यक्त्वा जिनवचोरत्नं हा ! मया मंदचेतसा । गृहीतोऽन्यवचोग्रावा धर्मकर्ममहामते ! त्वया दत्तं मया पीतं न हि जैनवचोऽमृतम् । समस्तं पश्यता प्रान्त मिथ्यात्वविषपापिना निवार्यमाणेन मया सदैव निषेवितं जन्मजरादिहेतु । दुरन्तमिथ्यात्वमहोभ्रमेण प्रमुच्य सम्पच्वसुधामदूषणाम् त्वमेव बन्धुर्जनकस्न्त्वमेव सन्मित्र राशिव गुरुः सुवोधः । त्वया पतन् येन भवान्धकूपके धृतो विबुद्धोत्तमवाक्परश्मिभिः ॥ ९२॥ ॥ ९३॥ ॥९४॥ ॥ ९५॥ ॥ ९७॥ ॥९८॥ ॥९९॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ ५७ ॥ BEEKE*********88 दुरन्तमिध्यात्वतमो विमोहितो गतः समन्तात् परवाक्ययामिनीम् । विबोधितो दुःखचयापहारिभिः जिनार्कवा क्यामिरुज्ज्लैस्त्वया विहाय मार्ग जिनदेवभाषितं निराकुलं मुक्तिपुरप्रवेशनम् । चिरं विलमोऽध्वनि दुष्टदर्शिते महाभये व निवासकारके मया त्रिवाग्राहि जिनेशशासनं संत्यज्य मिध्यात्वविषं महामते ! । तथा विधेहि व्रतरत्नभूषितस्तव प्रसादेन यथास्मिसांप्रतम् ॥१००॥ ॥१०१॥ ॥१०२॥ ॥१०३॥ १०४ ॥ १०५ ॥ विध्वस्त मिथ्यात्वविषस्य भारतीमाकर्ण्य मित्रस्य मुदं स आप्तवान् । जनस्य सिद्धे हि मनीषिते हिते न कस्ये तोषः सहसा प्रवर्त्तते खात्वा सुमित्रं जिनवाक्यवासितं प्रचक्रमे गन्तुमनन्यमानसः । असो पुरीमुज्जयिनीं जयान्वितां प्रयोजने कः सुहृदां प्रमाद्यति ॥ विमानमारुह्य मनोहरं ततः तमोपहैराभरणैरलंकृतो । आगच्छतामुज्जयिनी वनं नवं संमोदतस्तौ लघु धार्मिकौ बरौ अन्तर्वैरिजयं प्ररूपितनयं संक्लप्तजीवामयम् । ध्यानप्राग्रहरं सुधोपमगिरं विज्ञानरत्नाकरम् ॥ १०६ ॥ त्यात्यन्तमदं स्वभाव विशदं सद्ब्रह्मतोयहदम् । नत्वा तत्र मुनि मुदा गगनगौ तौ तस्थतुर्भक्तितः ॥ १०७ ॥ इति धर्मपरीक्षायां श्रीवृषभ जिन वृत्तपवन वेगप्रतिबोधसंबंधवर्णनो नाम : पंचदशः परिच्छेदः ॥ पञ्चयाः परिच्छेदः ॥ ५७ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ षष्ठदशः परिच्छेदः अथो ज्ञानी मुनिः प्रोचे मनोवेगं शुभाशयम् । सोऽयं पृष्टस्त्वया धर्म यस्यारोपयितुं ह्यहम् मनोवेगखगोsवादीत् मस्तकस्थकरः स्वयम् । एवं मे तदसौ साधो ! प्राप्तो व्रतजिघृक्षया मयैत्य कुसुमद्रंगं दृष्टान्तैर्विविधै रयात् । सम्यक्त्वं लंभितः साधो ! मोक्षसौख्य प्रवेशकम् यच्चायं वान्तमिथ्यात्वो व्रताभरणभूषितः । सांप्रतं जायते भव्यस्तथा साधो ! विधीयताम् रातो मुनिरभाषिष्ट देवात्मगुरुसाक्षिकम् । सम्यक्त्वंपूर्वकं वत्स ! गृहाणोपासकवतम् साक्षीकृत्य व्रतग्राही व्यभिचारं न गच्छति । अतो विज्ञनरैः ग्राह्यं ब्रतादिकं ससाक्षिकम् जीवेषु रोप्यमाणं नो सम्यक्त्वेन विना व्रतम् । सफलं जायते शस्य केदारेष्विव वारिणा विनाऽमृतं यथाऽऽहारो विहारो जिनपं विना । नायकेन विना हारो शोभां न श्रयति क्षितौ सम्यक्त्तत्वेन विना धर्मो न शर्मोच्चयकृत्तथा । अतः प्रमादं संत्यज्य पालनीयमिदं त्वया अथ च सिद्धान्ते प्रोक्तमस्ति दंसणसंपन्नयाएणं मंते जीवे किं जणयति दंसणसंपद्मयाएणं भवमिच्छत्तत्थेयणं करे परं न विन्मायति परं न विभातिमाणे अणुत्तरेणं नाणदंसणेणं अप्पाणं संज्जोएमाणे सम्मं भावे माणे विहरति दोषैः शंकादिभिर्मुक्तं संवेगाद्यैर्गुणैर्युतम् । दर्शनं दधतः पूतम् फलवज्जायते व्रतम् ॥ १० ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ || 6 || ॥ ८ ॥ ॥ ९ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा कथानकम् ।। ५८ ।। REE-FRRRRRETROS अणुव्रतानि पंचेति सगुणा गुणास्त्रयः । शिक्षाव्रतानि चत्वारि श्राद्धानां द्वादश व्रती सम्पत्वसहिता सैषा पालिता निजशकितः । सुरमर्च सुखानीह विपुलानि प्रयच्छति जह्यात्संकल्पतो वधम् गृहस्थस्य भवत्यहो किंतु हेयं विवेकिना तत्प्रथमं कथयन्ति सुमेधसः sarvaria श्राद्धः श्रद्धयांगीकरोति सः । निर्मतुत्रसजंतूनां कन्यालीकप्रमुखाणि योऽसस्थानीह नो वदेत् । द्वितीयाणुवतं तस्य येनातेनेह चौरोऽयमिति लोकैर्निगद्यते । भदतं तद्विना देवं साचारेषु स्वदारेषु संतोषो गृहमेधिनाम् । तुर्य व्रतं स्मृतं दक्षैस्तथा स्त्रीणां स्वसेक्तरि इच्छयाऽपि प्रमाणं यो धनधान्यादिसंभवम् । करोत्युपासकस्वस्थ वर्तते पञ्चमं व्रतम् विधीयते प्रमाणं यत् सदा दिक्षु दशस्त्रपि । गुणत्रतं भोगोपभोगयोः संख्या यत्र शक्त्या विधीयते । भोगोपभोगमानं च द्वितीयं व्रतं भोगोपभोगाख्यं नरा ये धर्मतत्पराः । धरन्ति मानसे नित्यं सौरूपमाजो भवन्ति ते अर्थ बिना नरो येन दण्डयते कर्मजा । पुण्यविचापहारेणानर्थदण्डः स कीर्तितः त्यजन्त्यनर्थदंड ये नरा आत्महितार्थिनः सामायिकं व्रतं योऽत्र समतासंगतः श्रयेत् दिग्ववे परिमाणं यत् तस्य संक्षेपणं पुनः गुणव्रतम् । ते सर्वमान्या धन्याः स्युः पापकर्मविवर्जिताः । । न याति नरके बोरे तिर्यगत्वं लभते न च बत्रे रात्रौ तु देशावका शिकवत मुच्यते ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ ॥ १४ ॥ ॥ १५ ॥ ॥ १६ ॥ ॥ १७ ॥ ॥ १८ ॥ ॥ १९ ॥ ॥ २० ॥ २१ ॥ ॥ ॥ २२ ॥ २३ ॥ ॥ ॥ २४ ॥ षष्ठदक्षा परिच्छेदः ॥ ५८ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधः चतुष्पा पौषधः सर्वतो बुधैः । कार्यों यतः स्याद् दुःकर्म निर्जर ! सुखदायिनी ॥२५॥ किश्चिद्दत्वाऽतिथेः पश्चाद् भुज्यते तद्विभोजनम् । अन्यथास्योदरस्यात्र काकादेरपि पूरणम् ॥ २६॥ चेदिदं सर्वदानं स्यात्तदा पौषधपारणे । दवा भक्तादि पात्रेभ्यो जेमनीयं विवेकिना अतिथेः संविभागाख्य द्वादशप्रवरव्रतम् । आराधयेत् सुमायेन स सुखी स्थानरोत्तमः ॥२८॥ भो भव्यावेष दुपारः संसारक्षारसागरः । मृत्युजन्मजरारोगलोलकल्लोजमालितः ॥ २९॥ क्रोधसंवर्तकोपेतो गर्वपर्वतवासयुग । मायावेलाश्रितो लोभगमीरावर्तदुस्तर ॥३०॥ प्राणियोनिनक्रचक्रप्रमुखैः परितोऽन्वितः । आश्रव द्वारतटिनीसपंकनीर पूरितः ॥३१॥ परीतो हास्यफेनेन द्वेषदुर्वातदुस्सहः । तृष्णावृद्धिकरो जाड्यजलजंतुभृतोऽमितः (कुलकम्)॥ ३२॥ दर्शनं यत्प्रतिष्ठानां व्रतानि फलकान्यहो । गुणौघाः सुगुणा क्षेपाः कृपको निश्चलं मनः ॥३३॥ सितध्यानं सितपटो निर्याम गुरुः स्मृतः । ज्ञानं धुवात्र विज्ञेया संतोषोऽद्वाजको मतः ॥३४॥ पोलिन्दाः स्युस्ततो भेदाः वान्तिस्तु क्षेरणीवथा। केनिगतास्तु नियमाः कृपा नालिः प्रकीर्तिता बोहित्यमीदृशं यस्य भवेत्पुण्यवतः सतः । स तीर्चे में भृशं यान्ति महोदयाः पुरं वरम् अथ च-कार्या नित्य जिनेन्द्रार्चा सता पुग्यवताहता। नैवेद्यगंधधूपाजदीपावतफलोदकैः ॥३७॥ सुन्दराः सुन्दरास्तेषां प्रधनं प्रधनप्रदम् । विपक्षोऽपि स्वपथः स्याद् विपदोऽपि च संपदः ॥३८॥ XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मपरीक्षा 33333333* षष्ठदशः परिच्छेदः कथानकम् ॥५९॥ पिगृह पितृगृहं काननं च सुखाननम् । ये कुर्वन्ति जिनेन्द्रस्य चारुपूजा शुभाषयाः (युग्मम्) ॥ ३९॥ पुण्यं संचिनुते नित्यं सौभाग्यं विदत्यहो युग्मम् । श्रियं वितनुते कीर्ति सूते करोति भावुकम् ॥४०॥ स्वर्ग यच्छति पुष्णाति प्रीति लुम्पति किल्विषम् । मुक्तिं विरचयत्यत्र सत्पूजा निर्मिता ताम् (युग्मम्) ॥४१॥ फलं पुरोग पूजायाः जिनेन्द्रस्य जगद्गुरोः । आगमे प्रोक्तमेवं भो विद्याधरशिरोमणे ॥ ४२ ॥ जिणपूयणति संज्जं कुणमाणो सोहए असंमत्तम् । तित्थयरनामगुत्तं पावद सेणियणरिंदुब ॥४३॥ जो पूएइति संझं जिणिन्दराय मया वि गयदोस । सो तईयभवे सिज्जा अवा सत्तट्टम जम्मे ॥४४॥ जिनस्य पूजनं हन्ति प्रातः पापं निशाभवम् । आजन्मविहितं मध्ये सप्तजन्मकृत निशि ॥४५॥ अथ च-यास्यामीति जिनालये स लभते धांवश्चतुर्थ फलम् । षष्ठं चोस्थित उद्यतोऽष्टममथो गन्तुं प्रवृत्तोऽध्वनि श्रद्धालुर्दशमं बहिर्जिनगृहात प्राप्तस्ततो द्वादशम् । मध्ये पक्षिकमीक्षते जिनपतो मासोपवासं फलम् ॥४७॥ सयंपमजणे पुण्णं सहस्सं च विलेवणे । सहसा हस्सिया माला अणतं गीयवाईए ॥४८॥ एष्वर्थेषु प्रमाय नो वत्स! स्वच्छगुण ! त्वया । जीवानां मानुषं जन्म विद्यते दुर्लभं यतः ॥४८॥ कदाचित्प्राप्यते रत्नं पातितं सकराकरे । संसारे हारितं जन्म मानुषं लभ्यते न च 34 लम्यत न च ॥४९॥ क्षिपत्यष्टापदस्थालरजः पुजं स मंदघीः । विदधात्यामृतेनैव शौचं पादयस्य च *** *********. ॥ ५९॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88888888888888888888) ॥ ५२ ॥ ॥ ५३ ॥ ॥ ५४ ॥ ।। ५५ ।। विकरत्येव काकस्योड्डायनार्थ करान्मणिम् । दुःप्राप्यं यो मुधा जन्म मानुषं गमयत्यलम् (युग्मम् ) ॥ ५१ ॥ प्रवरैर्दशदृष्टान्तैस्तज्जन्म भव्यदुर्लभम् । जिनेन्द्रैर्न तदेवेन्द्रः सिद्धान्ते गदितं यथा. चुलगपासगधने जूए रगणे य । सुमिणचक्केय चम्म युगे परमाणूदस दिट्ठन्ता मणूयलभे मनुष्यत्वं भवेद्व्यक्तं कदाचित् प्राणिना भवे । परं सद्गुरु संयोगो दुःप्राप्यो विद्यते किल विबुधोऽपि न जानाति बिना गुणगुरुं गुरुम् । चरणाचरणास सद्धर्मसक्तं कथकं हितम् यतः - विना गुरुभ्यो गुणनीरधिभ्यो धर्म न जानाति विचक्षणोऽपि । आकर्णदीर्घायलोचनोऽपि दीपं विना पश्यति नांधकारे त्वया सकलसंयोगः प्राप्तोऽस्ति व्योमगांगज ! । अतो जिनोदितं धर्म्म स्वीकुरुष्व शिवप्रद (तम्) श्रुत्वा वाचमशेदोषरहितां साधोर्व्रवाशंसिनीम् । नत्वा केवलिपादपंकजयुगं मर्त्यामरेन्द्रैर्नुतम् आत्मानं व्रतरत्नभूषितमसौ चक्रे विशुद्धात्मकः । भव्याः प्राप्य मुनेर्गिरं गुणयुता व्यथां कथं कुर्वते? randisan विपश्चितामपश्चिमः । मनोवेगेन मित्रेण साकं निजपदे ययौ तदनु पवनवेगो मुक्तमिथ्यात्वसंगो लघु विरतिविहारी शुद्धसम्यक्त्वधारी । कुमतिमतिनिहन्ता सप्ततार्थवेत्ता जिनपवचनचित्त चारुपात्रोप्तवित्तः स्वबुद्धयाकृतात्मीय मित्रार्थमेवं परीक्षा यथा तेन धर्मस्य वर्या । ॥ ५६ ॥ ॥ ५७ ॥ ॥ ५८ ॥ ॥ ५९ ॥ ॥ ६० ॥ ॥ ६१ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठदशः | परिच्छेदः धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥ ६ ॥ ___ मनोवेगनाम्ना खगेनोत्तमेन तथा कोविदःशास्त्रयुक्तथा हि कार्या ॥६२॥ शश्वत्सच्छुक्लपक्षस्थितिरतिविशदोनाशितश्यामपक्षः । प्रक्षिप्ताशेषदोषोयतिततिसहितो भूरिशोभामिहम्यः लोकाहादं ददानो हतसकलतमाः प्राप्तशस्योदयोऽत्र । श्रीमतश्रीचंद्रगच्छो परशशिवदयं शोभते वृत्तताढयः ॥ ६३॥ कल्याणावलिमालितबसुमनः सेव्योजगदिश्रुतः । स श्रीबद्धतपागणो विजयते स्वर्णाद्रिवनिश्चल: निश्चालंकरणस्य विस्तृतिजुषः सदनस्यानिशम् । शोभन्ते पुरतोत्र यस्य सकलाः पादा इवान्ये गणाः ॥ ६४ ॥ तस्मिन् श्रीविजयेन्दुसरिरभवद्भमीन्द्रसेव्यक्रमः । सच्चारित्र विचारचारुचरितो भव्यांगिकल्पद्रुमः तत्पढे समभन्मुनीन्द्रसहितः श्रीक्षेमकीर्तिगुरुः । पंचेषु द्विरदोरुपंचवदनः पंचेन्द्रियापासनः ॥६५॥ तत्पट्टे कमनीयकीर्तिकलिता बानांपुरत्नाकराः । श्रीरत्नाकरसूरयः समभवन् विध्वस्तवादिवजाः यनाम्ना अविविधतेन विबुधानंदप्रदेनोचमाम् । श्रीमानत्र तपागणोऽयमगमद्रत्नाकराख्यां किल तस्यानुक्रमपूर्वशैलसविता निस्सीमशर्माश्रितः । सूरीन्द्रोऽभयकेशरीति समभूत् प्रौढमावाद्धतः कल्याणावलिकंदशालिजलमुक योगीन्द्रचूडामणिः। तत्पट्टे जयपुद्रसरिरसमो जज्ञे विसर्पघृणिः ॥६७॥ कीर्तिस्फूर्तिमनोहरः शुभगुणश्रेणीजलामोधरः । पट्टे तस्य गणाधिपः शमधरः श्रीरत्नसिंहोऽभवम् 演某某家某集第私家长安长安民多名名名名: Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BOSEX ॥६८॥ ॥ ६९॥ तत्पढे स्फुटबादिकोटिकरटिप्रध्वस्तसपंचाननः । सूरीन्द्रोदयवलमा प्रवचनामोधोशाकोपमः तत्पट्टे वगतागमो गतमदो रंगविमासंगतः । श्रीशानाजलराशिसरिरभवन्मेधाविमिः संस्तुतः तत्पढे प्रकटप्रमावविदितः संक्लृप्तजीवामयः । सूरीन्द्रोदयसागरोजनि तपः सहयविद्यालयः तत्पट्टोदय शैलशीर्षतरणिर्मव्यात्मचिंतामणिः । स श्रीलब्धिपयोधिसरिरमवत सच्छीवलीलामल: यत्पादद्वयनीरजे विजने पृथ्वीतले नित्यशः । श्लीलेलापतिमुख्यपूरुषवरैक के न /गायितम् जीयाचिर श्रीधनरत्नमरिश्चारित्रपाथोधिविभावरीशः । विद्येन्दिरावयसि स्फुरद्गुणश्रेणिलताम्बुधारः भीलब्धिसागरगुरोः शिष्यः सौभाग्यसागरः। भूमिसाधुतिथौ वर्षे कार्षीद्धर्मपरीक्षकाम एतामुपाध्यायशिरोऽवतंसः सिद्धान्तकासारवरेण्यईसः । व्यशोधयत् श्रीमदनंतहसःसध्यहत्पंकजसारहंसः यावत् पृथ्व्यां स्थिरो मेरुरकेंन्दू चरतोऽम्बरे । वाच्यमानाबुधैस्तावदिय जीयात्सकौतुका श्रयध्वं जीरपल्लीशं सदैव तं सदैवतम् । धर्मचिन्तामणिर्यस्मात् श्रेयः श्रीकृज्जयत्यसो ॥ ७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ BREAKERRORREARRIERSEEX ॥७३॥ ॥ ७४॥ ॥ ७५॥ इति धर्मपरीक्षायां मनोवेगपवनवेगयोः प्रतिबोधनामा षोडशा परिच्छेदः Page #132 -------------------------------------------------------------------------- _