Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक अनकान्त (पत्र प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४० कि.१ जनवरी-मार्च १६७ क्रम .. . M 0 इस अंक में विषय १. अनेकान्त-महिमा २. जैन परम्परा में भगवान राम एवं राम-कथा __ का महत्त्व-- डा० ज्योति प्रसाद जैन ३. हिन्दी जैन महाकाव्यों में श्रृंगार रस -डा. कु० इन्दुराय जैन, लखनऊ ४. मूलाचार और उसकी आचार-वृत्ति -सिद्धान्तशास्त्री प० श्री बालचन्द्र जैन ५. सिरसा से प्राप्त जैन मूर्तिया -श्री विद्या सागर शुक्ल ६. सिद्धा ण जीवा -श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली जरा सोचिए मे : १. अपरिग्रह की जीवित मूर्तियो की रक्षा २. विद्वानो की रक्षा और वृद्धि ३. तीर्थ-क्षेत्र रक्षा ४. आविष्कारों का उपयोग -सम्पादकीय 2 प्रकाशक : वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयावनत-विनय इस अंक में धवला के सिद्धा ण जीवा' के पोषण में हमारा लेख है। प्रस्तुत विषय में अब हम और क्या लिखें ? फिलहाल जितना आवश्यक समझा लिख दिया। अब तो धवलानुकूल किसी निष्कर्ष पर पहुंचने-पहुंचाने के लिए इसे विद्वानों को स्वयं ही आगे बढ़ाना-बढ़वाना है। विषय पेचीदा तो है होइसमें दो राय नहीं। हाँ, हम यह संकेत और दे दें कि हम कई मनोषियों की इस बात से भी सहमत नही कि--'सिद्धों मे जोवत्व उपचार से है ।' क्योकि आचार्य को उपचार में सत्यपने का अभाव इष्ट है ओर हम सिद्धों में असत्यपने का आरोप करना इष्ट नहीं समझते । आचार्य ने स्पष्ट ही कह दिया है-'उवयारस्स सच्चत्ताभावादो।' हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि लोग संस्कार-वश आगम के बहुत से कथनों को अपनी सही या गलत धारणाओं की ओर मोड़ते रहे हैं। सिद्धों के स्वाभाविक शुद्ध चेतनत्व जैसे भाव की उपेक्षा कर, उसे जोवत्व जैसे औदयिक भाव की मान्यता में बदल लेना और जीव के पारिणामिक भाव का अर्थ न समझना, या उसे चेतन का भाव मान लेना गलत धारणाओं का ही परिणाम है। वास्तव में तो धवला की मान्यता में चेतनत्व और जोवत्व दोनों में संज्ञा और गुणों की अपेक्षा से भेद है-चेतनसंज्ञा ओर गुण दोनों व्यापक हैं जो संसारी और सिद्ध सभी आत्माओं में हैं और जीवत्व संज्ञा और गुण दोनों व्याप्य हैं जो मात्र संसारियों में हैं। कृपया विचारिए और पत्राचार द्वारा संशोधन के लिए निर्देश दीजिए कि क्या, जीवत्व और सिद्धत्व ये दोनो चेतन की पृथक्-पृथक् अशुद्ध और शुद्ध दो स्वतन्त्र पर्याएं नहीं ? हमारे उक्त लेख के बाद भो जिन्हें धवला के 'सिद्धा ण जीवा' और 'जीवभावो औदइओ' जैसे कथनों मे विरोध दिखे या शंकाएँ हों वे उनके समाधान का बोझा हम पर न डाल, जैन-आगमो में गोता लगाएँ, बुद्धि का व्यायाम करें, उन्हें स्वयं ही समाधान मिलेगा--उनकी विरोध-भावना विलय होगी--हम उन्हें तुष्ट करने या किन्ही प्रश्नों के उत्तर देने का भार लेने को तैयार नही। यतःकथन आचार्यों के है। हमें तो ग्रन्थ राज और आचार्यों के वाक्य प्रमाण है और इसीलिए उनको समन्वयपूर्वक समझने की कोशिश कर रहे है । यदि किन्ही को आगम के उक्त कथन पर श्रद्धा न नहो और वे सिद्ध को जीव-सज्ञक सिद्ध करने के भाव बनाएँ तो हम क्या कर ? हम तो आचार्य मन्तव्य के पोषण में श्रद्धापूर्वक जैसा लिख सके लिख दिया। अँचे तो मानें, हमारा आग्रह नहीं। वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज नई दिल्ली --२ विनीत : पचन्द्र शास्त्री संपादक-अनेकान्त Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् महम् परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमपनं नमाम्यनेकान्तम। वर्ष ४० वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ जनवरी-सार्च किरण १ वीर-निर्वाण संवत् २५१३, वि० सं० २०४३ १९८७ अनेकान्त-महिमा अनन्त धर्मणस्तत्वपश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयीमूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ॥ जेण विणा लोगस्स वि पवहारो सम्वहा ण णिस्वाह। तस्स भुवनेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ॥' परमागमस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्ध-सिन्धुरभिधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥' भइंमिच्छादसण समूह महियस्स अमयसारस्स। जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगमस्स ॥' परमागम का बीज जो, जैनागम का प्राण । 'अनेकान्त' सत्सूर्य सो, करो जगत कल्याण ॥ 'अनेकान्त' रवि किरण से, तम अज्ञान विनाश। मिट मिथ्यात्व-कुरीति सब, हो सद्धर्भ-प्रकाश ॥ अनन्त-धर्मा-तत्त्वों अथवा चैतन्य-परम-आत्मा को पृथक्-भिन्न-रूप दर्शाने वाली, अनेकान्तमयो मति-जिनवाणी, नित्य-त्रिकाल ही प्रकाश करती रहे-हमारी अन्तज्योति को जागत करती रहे। जिसके बिना लोक का व्यवहार सर्वधा ही नहीं बन सकता, उस भुवन के गुरु- असाधारणगुरु, अनेकान्तवाद को नमस्कार हो। जन्मान्ध पुरुषों के हस्तिविधान रूप एकांत को दूर करने वाले, समस्त नयों से प्रकाशित, वस्तु-स्वभावों के विरोधों का मन्थन करने वाले उत्कृष्ट जैन सिद्धांत के जीवनभूत, एक पक्ष रहित अनेकान्त-स्याद्वाद को नमस्कार करता हूँ। मिथ्यादर्शन समूह का विनाश करने वाले, अमृतसार रूप, रसर्वक समझ में आने वाले; भगवान जिन के (अनेकान्त गभित बचन के भद्र (कल्याण) हों। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में भगवान राम एवं राम-कथा का महत्व डा. ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ इक्ष्वाकु की सन्तति में उत्पन्न सूर्यवंशी रघुकुल-तिलक आदि मध्य एशियाई भाषाओं में भी रामकथा के अनुवाद दाशरथी अयोध्यापति मर्यादा पुरुषोत्तम महाराज रामचद्र आदि हो गए । आधुनिक युग में तो कामिल बुल्के प्रति का पुण्य चरित्र अखिल भारतीय जनता में चिरकाल से कई पाश्चात्य विद्वानो ने भारतवर्ष में रह कर तथा कई अत्यन्त लोकप्रिय एवं व्यापक प्रभाव वाला रहता आया अन्यो ने विभिन्न यूरोपीय देशों में रामकथा या रामहै। ब्राह्मणीय पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार उनका साहित्य की प्रभूत गवेषणा की है। जन्म त्रेता-युग में हुआ था, और दशावतारी परिकल्पना अबश्य ही रामभक्ति और रामकथा का व्यापक मे उन्हें भगवान विष्णु का सातवां अवतार मान्य किया प्रचार-प्रसार ब्राह्मणीय परम्परा के वैष्णव हिन्दुओ मे, गया है । अनुमानतः ईसा पूर्व द्वितीय शती के लगभग और सो भी मध्यकाल मे ही, विशेष हुआ । किन्तु इसका रचित संस्कृत भाषा के प्राद्य महाकाव्य वाल्मीकीय रामा- यह अर्थ नहीं है कि राम कथा का पुण्य चरित्र उन्ही की यण मे रामकथा सर्वप्रथम व्यवस्थित रूप में प्रकाश में बपोती रहा या उन्ही तक सीमित रहा । भारतीय संस्कृति आई तदनन्तर अन्य अनेक छोटी-बड़ी तद्विषयक रचनाएँ सुदूर इतिहासातीत काल से द्विविध सहोदरा धाराओ में उदय मे प्राती गयीं। किन्तु ईश्व गवतार के रूप मे भग- प्रवाहित होती आई है, जिनमे से एक तो आहत, व्रात्य वान राम की भक्ति-पूजा-उपासना का प्रचार मध्यकाल मे श्रमण या निर्ग्रन्थ कहलायी और जिनका प्रतिनिधित्व ही हुआ। ब्राह्मण परम्परा में शिवोपासना तो ईसा पूर्व जैन परम्परा करती है। ईसा पूर्व छठी शती मे उक्त ही प्रारम्भ हो चुकी थी, विष्णु की उपासना गुप्तकाल मे श्रमण धारा में से कई अन्य शाखाये भी फूट निकली थी, भागवत धर्म के उदय के साथ प्रारम्भ हुई। वैसे १२वी यथा बौद्ध, आनीविक आदि । अन्य शाखाएँ तो कालातर ई० के प्रारम्भ में बैष्णव सम्प्रदाय के सर्वोपरि पुरस्कर्ता में समाप्त हो गयी। किन्तु तीर्थंकर वर्धमान महावीर रामानुजाचार्य द्वारा ही वैष्णव धर्म का सुव्यवस्थित प्रचार (ई० पू० ५६६-५२७) के कनिष्ठ समकालीन तथागत प्रसार प्रारम्भ हुआ। उन्ही की शिष्य परम्परा मे उत्पन्न गौतम बुद्ध द्वारा प्रवर्तित बौद्ध धर्म निहासिक दृष्टि से रामानन्द स्वामी ने वैष्णव सम्प्रदाय की राम-भक्ति शाखा अधिक महत्त्वपूर्ण रहा, उसका व्यापक प्रनार भी हुआ, का प्रचार-प्रसार किया, जिससे भगवान राम की सगुण और लंका, बर्मा, इडोनेशिया, स्याम, तिब्बत, चीन, भक्ति को प्रभूत उत्कर्ष प्राप्त हुआ और १६वी पाती ई० जापान आदि विदेशो मे अभी तक भी है । यद्यपि स्वय के अन्त के लगभग इसी रामानन्दी सम्प्रदाय के अनुयायी महादेश भारतवर्ष से वह मध्यकाल के प्रारम्भ के लगभग गोस्वामी तुलसीदास द्वारा हिन्दी की अवधी बोली मे प्रायः तिरोहित हो गया था, तथापि उसके प्राचीन धार्मिक रचित रामचरित मानस ने तो भगवान राम की सगुण साहित्यक की जातक-कथामाला में दशरथ जातक नामक पूजा-उपासना की सुदढ़ एवं व्यापक नीव जमा दी। प्रायः रामकथा का बौद्ध रूप उपलब्ध है। वह अति सक्षिप्त भो उसी युग मे हिन्दी तथा बंगला, गुजराती मराठी आदि है, और ब्राह्मण तथा जैन रामकथाओ से अनेक अशो मे अन्य जन जन भाषाओं में भी अनेक रामकथायें लिखी भिन्न भी हैं। उसके अतिरिक्त समग्र बौद्ध साहित्य मे गयी। राम-साहित्य का वैपुल्य एव वैविध्य उतरोत्तर शायद ही कोई अन्य रचना रामकथा विषयक है । वृद्धिंगत होता गया। रामकथा की लोकप्रियता इसी तथ्य जैन परम्परा की बात इमसे सर्वथा भिन्न है। जैन से प्रकट है कि भारतीय संस्कृति से प्रभावित बृहत्तर अनुश्रुतियो के अनुसार भारत-क्षेत्र के आर्य खण्ड के मध्यभारत के अग लंका, जावा, सुमात्रा, स्याम, बर्मा, चम्पा देश में मानवी सभ्यता एवं कर्म युग के आद्य पुरस्कर्ता काम्बुल आदि पूर्वीय देशों एवंद्वीपों में भी रामकथा के प्रथम तीर्थकर आदिपुरुष ऋषभदेव थे। ब्राह्मणीय परम्परा अपने-अपने संस्करण प्रचलित हो गए, और फारसी, तुर्की की २४ अवतारों की परिकल्पना में भी इन नाभेय ऋषभ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में भगवान राम एवं राम- हवा का महत्व देव को भगवान विष्णु का सातवां अवतार मान्य किया गया है। ऋषभदेव का एक नाम इक्ष्वाकु भी था, जिसके कारण उनकी सन्तति इक्ष्वाकु अशी कहलाई । उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती सर्वप्रथम सार्वभौम सम्राट हुए। और उन्ही के नाम से यह महादेश भारतवर्ष कहलाया । भरत के ज्येष्ठ पुत्र एवं उत्तराधिकारी धर्ककीति थे जिनसे यह कुल परम्परा आगे सूर्यवंशी भी कहलाने लगी। इसी वंश परम्परा में सगर, भगीरथ, रघु, दशरथ आदि अनेक प्रतापी नरेश हुए, जिन सबकी राजधानी भगवान ऋषभ एवं भरत चक्री की जन्म एवं लीला भूमि महानगरी अयोध्या (अपर नाम साकेत, विनीता, कोसलपुरी आदि) रहती रही। बीसवे तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ मे उत्पन्न अयोध्यापति महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र महाराज रामचन्द्र हुए। समस्त रामायणो या रामकथाश्री के प्रधान नायक यह श्री रामचन्द्र ही हैं । जैन परम्परा में उनका अपना 'पद्म' विशेषकर उनके मुनिजीवन एवं तपश्चरण काल में विशेष प्रसिद्ध रहा, अतएव जैन रामकथायें बहुधारित या पद्मपुराण नाम से प्रसिद्ध हुई। राम की गणना जैन परम्परा में सर्वोपरि महत्व के सठशलाकापुरुषो में की गई है। वह 'बलभद्र' पदवारी चरमशरीरी-तद्भव मोक्षगामी महापुरुष थे जीवन की सध्या में उन्होंने ससार-देह-भोगों से विरक्त होकर, राज्य पाट पुत्रो को सौपकर सर्वदा निस्सग होकर वन की राह ली और निर्ग्रन्य मुनि के रूप में तपस्या की। फलस्वरूप केवलज्ञान प्राप्त करके वह अर्हन्त परमात्मा हो गए, और अन्त में मोन या निर्वाण लाभ करके सिद्ध परमात्म बन गए। उनकी धर्म जनकसुता वैदेही सीता की गणना जैन परम्परा की सपरि सोलह महा सतियो में की जाती है। भगवान राम से सम्बद्ध भरत, - लक्ष्मण शत्रुघ्न, लव, कुश, हनुमान, सुग्रीव, बालि, रावण आदि अन्य अनेक व्यक्ति भी जैनो के पुराण प्रसिद्ध महत्व के रहे हैं। अत: जैन परम्परा में रामकथा की अपनी एक स्वतन्त्र धारा स्वयं राम के युग से प्रवाह रहती आयी । 1 जिस प्रकार ब्राह्मण पम्परा में रामकथा का मूलाधार मुख्यतया वाल्मीकीय रामायण है और बौद्ध परम्परा में दशरथ - जातक, जैन पम्परा में उसका मूल स्रोत ऋषभादि महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकरों की वाणी पर आधारित तथा परम्परया प्रवाहित श्रुतागम था । अन्ततः अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर के प्रधान गणधर इन्द्रभूति ने, ई० पू० छठी शती के मध्य के लगभग, उक्त श्रुतागम को अन्तिम रूप से ग्रंथित एवं वर्गीकृत किया और उसे द्वादशांग का रूप दिया। इन अंगों में से बारहवें - श्रुत दृष्टि प्रवादांग का तृतीय विभाग प्रथमानुयोग अपरनाम धर्म कयानुयोग था, जिसमें बेसठ शलाकापुरुषों तथा अन्य अनेक पुराणप्रसिद्ध पुरुषों एवं महिलाओं के चरित्र वर्णित थे, और अन्य अनेक पुराणंतिहासिक अनुभूतियां निवड थीं । ये वर्णन अपेक्षाकृत सक्षिप्त एव अल्पकाय थे | अंतिम श्रुत केवल आचार्य भद्रबाहु प्रथम ( ई० पू० ३९४-३६५ ) पर्यन्त प्रथमानुयोग का यह ज्ञान अक्षुण्ण रहा, किन्तु तदनन्तर उसमे शनै शनैः ह्रास होने लगा, और उसका सारभाग : गाथा निबद्ध नामावलियो' एवं 'कथासूत्रो' के रूप में ही प्रवाहित होता रहा। इन्ही दोनों स्रोतों के तथा परम्परा मे प्राप्त तत्सम्बन्धी अन्य मौखिक अनुश्रुतियों के आधार पर कालान्तर में जैन पुराणों, चरित्रग्रन्थों एवं तदाधारित अन्य कृतियों की प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल, हिन्दी, गुजराती मराठी आदि विभिन्न भाषाओं तथा विभिन्न शैलियों में सुविज्ञ आचायों, कुशल कवियों एवं साहित्यकारों द्वारा रचना हुई। परिणाम स्वरूप अपने वैपुल्य एवं वैविध्य की दृष्टि से जैन रामकथा साहित्य को भारतीय रामकथा राम कथा साहित्य मे स्पृहणीय स्थान प्राप्त हुआ । यह ध्यातव्य है कि जैन परम्परा में रामकथा की दो स्पष्ट धारायें प्राप्त होती है। प्रधान पात्रों के नामादि, प्रमुख घटनाओं, स्थून क्रमादि के विषय में विशेष अन्तर न होते हुये भी दोनो मे परस्पर अनेक अन्तर भी है, जो उक्त धाराओं के प्रतिनिधि ग्रंथों के अवलोकन तथा तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हैं। प्रकाशित ग्रंथो के सम्पादकों तथा कई आधुनिक शोधार्थियों ने अपने शोध प्रबंधों में उन पर उचित प्रकाश भी डाला है । प्रथम धारा का प्रतिनिधित्व विमलार्य का प्राकृत पउम चरिय (महावीर निर्वाण स० ५३० सन् १६०) करता है, जो वाल्मीकीय रामायण के प्रकाशन प्रचार के संभवतया एक(शेष पृ० ४ पर) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन महाकाव्यों में शृंगार रस काव्य का प्रयोजन उपदेश आदि कुछ भी हो उसका असाधारण तत्व 'रस' ही है। रसोत्पत्ति का स्थान मानव हृदय है और रसावस्था का सम्बन्ध अतीन्द्रिय जगत से है। काव्य से निरतिशय सुखास्वादरूप आनन्द की उपलब्धि का साधक तत्व 'रस' ही माना जाता है। जैन साहित्य में अन्तर्मुखी प्रवृत्तियो को अथवा आत्मन्मुख पुरुषार्थ को 'रस' कहा गया है। डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री के शब्दों में "जब तक आत्मानुभूति का रस नहीं छलकता रसमयता नही आती। विभाव, अनुभाव, संचारी भाव जीव के मानसिक, कायिक एवं वार्षिक विकार हैं स्वभाव नहीं अतः रसों का वास्तविक उद्भव इन विकारों के दूर होने पर ही हो सकता है। इस भांति तो लौकिक रूप में रस 'विरस' है परन्तु सामान्य अर्थों में, साहित्य में 'रस' की प्रतिष्ठा भिन्न रूप में हुयी। यहाँ यह एक विशिष्ट एवं पारिभाषिक अर्थ का बोधक शब्द है । काव्य शास्त्र में काव्य के अध्ययन, श्रवण एवं रूपक दर्शन से उद्भूत आनन्द को रस कहा गया है । 'रस्यते इति रसः' के अनुरूप रस मे आस्वादनीयता का गुण प्रमुख है और इस आस्वाद का सम्बन्ध आत्मा तथा उसको अनुभूति से है जिल्ला से नहीं । वस्तुतः भावाभिव्यक्ति ही 'रस' है । काव्य का पाठक ( पृ० ३ का शेषांश) डेढ शती भीतर ही रचा गया और कथ्य मे उसके बहुत कुछ निकट है। इसी धारा के दूसरे प्रसिद्ध ग्रन्थ रविषेण का संस्कृत पद्मचरित या पद्मपुराण (६७६ ई०), जो किन्हीं अनुत्तरवाग्मी कीर्तिधर की अद्यावधि अनुपलब्ध कृति के आधार पर रखा गया था, तथा महाकवि स्वयंभू की अप' रामायण ( लगभग ८०० ई०) है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने त्रिषष्ठ-शलाका-पुरुष चरित (ल० ११५० ई०) में भी प्रायः इसी धारा को अपनाया । उत्तरवर्ती जैन रामकथाकारों में भी यही द्वारा अधिक लोकप्रिय रही। दूसरी धारा का प्रतिनिधित्व आचार्य गुणभद्र की उत्तरपुराण (ल० ८५० ई०) करती है। दसवीं शती ई० पुष्पदन्त की अप० महापुराण एवं चामुण्डराय की कन्नड़ महापुराण में और मल्मिषेश आदि की परवर्ती महापुराणों में प्रायः इसी धारा की कथा का अनुसरण किया गया है। [ डा० इन्दुरा भावो की विस्तार दशा मे ही रस का आस्वादन करता है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था को रसदशा कहते हैं उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था को रसदशा कहा जा सकता है। ऐसी मान्यता है कि 'रस' का साहित्य के सन्दर्भ मे सर्वप्रथम प्रयोग भरत मुनि के 'नाट्यशास्त्र' में हुआ । उनके अनुसार "विभानुभाव व्यभिचारीसंयोगाद्रसनिष्पत्ति" (यह सूत्र भी लौकिक धरातल पर प्रतिष्ठित है ) । इसी सूत्र के आधार पर 'साहित्य दर्पणकार, विश्वनाथ ने व्याख्या की कि सहृदय हृदय में ( वासना रूप में विराजमान ) इत्यादि स्थायी भाव जब ( कवि वर्णित ) विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के द्वारा व्यक्त हो उठते हैं तब आस्वाद या आनन्द रूप हो जाते हैं। और 'रस' कहे जाया करते हैं। परन्तु अनुभाव विभाव आदि के सम्मिलन से किस प्रकार रस को निष्पत्ति है इस विषय पर शंकुक, भटलोल्लट, अभिनव गुप्त, कुन्तक विश्वनाथ एवं चिन्तामणि आदि आचार्यों ने अपने-अपने पृथक सिद्धान्त प्रतिपादित किए है। उनका वर्णन यहाँ प्रासंगिक नहीं है। काव्य मे रमों की संख्ग का प्रश्न भी अब विवादास्पद हो गया है। भरत मुनि ने इस प्रकरण में आठ स्थायी भावों के अनुकूल आठ रसो ( श्रृगार, हास्य, वीर करुण, रौद्र, भयानक, वीभत्स एव अद्भुत) का उल्लेख किया है परन्तु काव्यशास्त्रियों ने विचार किया कि आलम्बन भेद से एक ही स्थायी भाव एकाधिक रसो की मिष्यति में समर्थ हो सकता है अतएव कालांतर में 'रति' स्थायी भाव से उत्पन्न वात्सल्य एवं भक्ति रस को प्रतिष्ठा मिली। शान्त को भी स्वतंत्र रस माना गया। सम्पूर्ण जैन वाङ्मय शान्तरस की भिती पर ही प्रतिष्ठित है। वस्तुतः वर्तमान मनीषा रसों को संवाद करने के ही पक्ष में नहीं है।' सारतः रसभावना ही काव्य का साध्य है और अभिव्यजना उसका साधना जिसमे समुचित शब्दार्थ योजना का औचित्य या इतिकर्तव्यता स्वभावतः सिद्ध है । इस साध्य ( रस निष्पति) का महत्व महाकाव्यों में और भी व्यापक, वस्तुतः अनिवार्य सा हो जाता है । महाकाव्यों में उत्पाद्य, अधिकारिक और प्रासंगिक कथाओं तथा विभिन्न Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन महाकाव्यों में शृंगार रस ५ काम की विभिन्न अवस्थाएं, नायक नायिका भेद, वृती या सखी भेद आदि समाविष्ट हो जाते हैं श्रृंगार ही एकमात्र ऐसा रस है जो उभयनिष्ठ है अर्थात् जिसमें आश्रय और आलम्बन एक दूसरे को उद्दीप्त करते है तथा मिश्र भाव से घनिष्ठ भी हैं । रुचि एवं स्वभाव वाले पात्रों की अवस्थिति के कारण रसों के समावेश की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है। सदपि रस का सफल निर्वहण अत्यंत कठिन कार्य है क्योंकि प्रबन्धकार को सम्बन्ध निर्वाह, वस्तुगति, घटनाक्रम, चरित्र योजना, औचित्य, उद्देश्य आदि कितने ही बिन्दुओं पर दृष्टि रखनी पड़ती है। समीक्य हिन्दी जैन महाकाव्यों (पं० अनूप शर्मा कृत 'वर्द्धमान'; धीरेन्द्रप्रसाद जैन रचित 'तीर्थंकर भगवान महावीर' एवं पार्श्व प्रभाकर': धन्यकुमार जैन 'सुधेश रचितं' 'परम ज्योति महावीर डा० बिहारी गुप्त रचित 'तीर्थंकर महावीर', रघुवीर शरण 'मित्र' रचित ' 'वो नयन' तथा श्रभयकुमार यौधेय रचित 'श्रमण भगवान महावीर चरित्र' ) में रस आयोजन का कार्य अत्यंत कठिन हो गया है क्योंकि सभी काव्यो के नायक तीर्थकर हैं जो स्वभाव से अरागी होते हैं तथा उनके समग्र जीवन में भी रागात्मक घटनाओं का पात-प्रतिघात नगण्य होता है। अतएव तीर्थंकर के जीवन वृत्त पर आधारित प्रबन्ध मे शान्त, भक्ति करण तथा वीर रसों का समायोजन तो सम्भावित है किन्तु सर्वाधिक दुरूह है, दुह है श्रृंगार स की निष्पत्ति । तदपि आलोच्य कृतियों मे शृंगार रस के परिपाक का प्रयास कवियों ने अपनी-अपनी दृष्टि-भावना अनुरूप किया है । मानव जीवन में सबसे अधिक व्यापक, उत्तेजक, प्रभाव एवं सक्रिय वृत्ति 'रति' है रति श्रृंगार रस का स्थायी भाव है | महाकवि वनारसी दास ने श्रृंगार रस का स्थायी भाव 'शोभा' माना है जो बहुत उपयुक्त नही प्रतीत होता क्योंकि शोभा गुण या विशेषण है स्थायी भाव नहीं श्रृंगार रस के दो भेद माने गए हैं— सयोग तथा वियोग ( या विप्रलम्भ ) नायक नायिका के परस्पर अनुकूल दर्शन, स्पर्श, आलिंगन चुम्वन, समागम आदि व्यवहार को सयोग कहते हैं इसके विपरीत पंचेद्रियों के सम्बन्धभाव को वियोग श्रृंगार कहते हैं। वियोग केवल समागम अभाव की दशा नहीं मिलन के अभाव की भी दशा है। विप्रलम्भ शृंगार के पूर्वराग, मान, प्रवास, करुण चार भेद तथा प्रत्येक के उपप्रभेद भो है। श्रृंगार रस का महत्व इस दृष्टि या तक्ष्य से स्पष्ट है कि इसके अन्तर्गत प्रायः सभी संचारी भाव स्थायी भाव अनेकों अनुभाव सात्विक भाव, समीक्ष्य महाकाव्यों में संयोग श्रृंगार रस की व्यंजना मुख्यत: तीन (आय) माध्यमो से हुयी है। प्रथम तीर्थंकर के माता-पिता के अनुराग या पारस्परिक प्रणय व्यापार वर्णन में दूसरी, वर्धमान एव यशोदा के सम्मिलन वर्णन में तथा तीसरी अप्सराओं द्वारा नायक की साधना में उपसर्ग उत्पन्न करने के उद्देश्य से प्रदर्शित काम चेष्टाओं के चित्रण मे वियोग श्रृंगार रस के स्थल आलोच्य महाकाव्यों में अत्यल्प है । विभिन्न प्रबन्धो मे शृंगार रसआयोजन का स्वरूप निम्नलिखित है। 'वर्द्धमान' - '५० अनूप शर्मा रचित इस महाकाव्य के नायक वर्द्धमान महावीर है। वीतरागी तीर्थंकर के जीवन में अनुराग का स्थान कहाँ ? वर्द्धमान के हृदय का समस्त राग ( रति ) मुक्ति के करण की व्यय है किसी लौकिक रमणी की प्राप्ति को उद्विग्न नहीं अतः जहाँ तक नायक के माध्यन से श्रृंगार रस व्यजना का प्रश्न है कवि ने वर्द्धमान के स्वप्न मे 'दिव्य विगह की अवतारणा कर दी है।' इस सन्दर्भ में डा० प्रेमनारायण टण्डन का मत है "मेह त्याग के बाद वर्द्धमान का जीवन इन नीरस है कि वह काव्यका अंग नहीं बन पाता, महाकवि ने विस्तृत दर्शनमरुस्थल मुक्ति विवाह के रूप में एक रम्य निकुंज की रचना कर दो है । तदपि यह प्रसग रसोडेक में सक्षम है । महाकाव्यकार ने नायक के जीवन मे रागात्मक न्यूनता को राजदम्पति ( वर्द्धमान के माता-पिता) के प्रेमालाप तथा प्रणयकेलि चित्रण द्वारा दूर किया है । कुल ५ सर्गों वाले इस महाकाव्य के प्रारम्भिक सात सग में कवि ने केवल सिद्धार्थ त्रिशला के पारस्परिक अनुराग, स्नेहाकर्षण व प्रेम भाव का विशद व्यापक वर्णन किया है । नवयौवना पत्नी (शिला) की वल्लरी के समान कोमल देहयष्टि मृणाल जैसे मुद्दोन हस्त, पोफल जैसे पुष्ट उरोज, पिक कूजन सम मधुर वाणी मरासी जैसी पाल, मृगी समान सुन्दर नेत्र, बंकिम चितवन आदि सिद्धार्थ के चित को चचलोद्दीप्त करते रहते हैं तथा उस अनिय रूप माधुरी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ वर्ष ४०, कि.. अनेकान्त का आकण्ठ पान करने की इच्छा से ही वे सहस्रचक्षु चित्रण नही किया है केवल इतना "इसके आगे की केलिएवं सहस्रबाह होने की कामना करते है। इन रसमय कथा का वर्णन कवि को इष्ट नही ।" लिखकर संतुष्ट हो चित्रणो से आगे बढ़कर कवि राजदम्पति के समागम वर्णन गए हैं । तदपि सुरति के अन्त मे त्रिशला के आह्लादित में तन्मय हो गया है, जिसमे 'रस' परिपोष अवस्था तक अगो का चित्रण करके अभीष्ट व्यजित कर दिया है - पहुंच गया है अर्थात् 'रति भाव अपने अनुभाबो सचारी क्रम से अवयव निश्चेष्ट हुए भावों, विभावों आदि सभी अवयवो से सम्पुष्ट होकर रस तन्द्रा में मग्न हुयी रानी निष्पत्ति मे पूर्णतः सफल है। आश्रय व आलम्बन ने एक पर नप के लोचन सजग रहे दूसरे को समान रूप से उद्दीप्त करके रस राचार को और बन उस मोहक छवि के ध्यानी।। भी प्रभावी बना दिया है ...। इस भाति मर्यादित वर्णन द्वारा कवि ने रसमयता का महीप के काम प्रसक्त व क्य से सचार कर दिया है । महाकाव्यकार ने त्रिशला के 'ब्रीडा' स-वेग तारल्य-युता हुयी प्रिया एवं 'लज्जा' भाव की भी सुन्दर अभिव्यक्ति की है। यद्यपि वसत का स्पर्शहुआ कि आम्र का ये प्रसग रस निष्पत्ति मे सफल नही है परन्तु भाव व्यजना शरीर सर्वाग प्रफुल्ल हो गया। प्रभावकारी । इसी प्रकार लोकोत्तर सौन्दर्य के स्वामी हुयी तभी सो भुज पजर-स्थिता राजकुमार महावीर से विवाह करने को समुत्सुक राज समाकुला वाल - कृरग - शावकी, नितात शुक्लाम्बरा थी अभी अभी कन्याओ की, अभिलाषा' और 'पूर्वराग' व्यंजना" मे रस का निरवरा भूपति-भामिनी हुयी। सुमधुर आभास मिलता है। प्रणय प्रसग मे ही अनूप जी ने आगे त्रिशला को _ 'पार्श्व प्रभाकर'-कवि वीरेन्द्रप्रसाद जैन के इस 'नवाजिका' व 'प्रशान्त साध्वी' समान चित्रित करके भाव प्रबन्ध काव्य मे शृगार रम का कही भी परिपाक नही हो के उदात्तीकरण का प्रयास किया है। कवि के शब्दों में- सका है। आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत के पालक पार्श्वनाथ के उरोज निले। बने मगाक्षी के जीवन में स्नेहरागात्मक सम्बन्धो का निदर्शन सम्भव न था सु-केश भी बन्धन हीन हो गए अतः कवि ने कुमार पापर्व के हृदय मे क्षणमात्र को उद्भूत मनोज्ञ कांची अति निर्गणा हुई 'नवाजिका' सी त्रिशला प्रतीत थी। होने वाली काम भावनाओ की मार्मिक अभिव्यक्ति कर दी नितात नीरजन नेत्र थे तथा है जिनमे शृगार का रसाभास अवश्य होता है। वस्तुत विराग से ओष्ठ हुए पवित्र थे ये भाव शान्तरसावसित है । पार्श्वनाथ के जनक जननी के महान निर्वेद हा रतान्त मे सयोगवर्णन में रस निष्पत्ति की सम्भावना थी किन्तु कवि प्रशा-त साध्वी सम थी नृपागना । ने उस प्रेमानुराग को वे वल दो पदो मे इस प्रकार वणित उपर्यक्त वर्णनो के औचित्य (आश्रयगत) पर आक्षेप किया है जिसमे न भावोत्कर्ष हो सका है और न कलात्मक किए गए है। वैसे भी विद्वानो ने शृगार रस की उच्चता सौन्वयं का समावेश । स्वीकार करते हुए उसे शारीरिक वासना से पृथक रखने तीर्थकर भगवान महावीर'---वीरेन्द्रप्रसाद जैन का उपदेश किया है। वियोग श्रृंगार के उदाहरण प्रस्तुत इस महाकाव्य मे भी शृगार रस के सफल आयोजन मे महाकाव्य मे दुर्लभ हैं। अक्षम रहे है। वस्तुत उनका अभीष्ट ही शान्त, करुण एवं परम ज्योति महावीर'-महाकाव्य में भी वियोग वीर रस की निष्पत्ति रहा है। शृगार रसाभासी स्थल श्रृंगार नगण्य है। सयोग-शृंगार रस की व्यंजना 'सुधेश' काव्य नायक (कुमार महावीर) की युवावस्था में पनपी जी ने नायक (महावीर) के माता-पिता के सम्मिलन वर्णन काम भावनाओ तक सीमित हैं। योवन के आगमन पर द्वारा की है। रसमय पावस ऋतु मे प्रकृति मे सर्वत्र व्याप्त हृदय मे वागना भाव की जागृति महज वाभाविक है। प्रेम व्यापार सिद्धार्थ त्रिशला को भी कामोद्दीप्त करता है कुमार वर्द्धमान का मन-खग भी कल्पना के नभ में मधुरपरन्तु कवि ने शील का निर्वाह करते हुए सम्भोग का मदिर स्वप्न र जाता है, हृदय सुरीले राग सुनने की इच्छा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन महाकाव्यों में शुङ्गार रस करता है" परन्तु ये भाव क्षणस्थायी है क्यों क नायक ज्ञानी है। मित्र जी ने पति-पत्नी समागम के व्यापक वर्णन का है, विवेकी है अतः रति भाव के प्रसरण से पूर्व ही उसे साहस किया है जिसमे विभाव-अनुभावादि के सपोषण से दमित-विजित कर लेता है। अतएव यहाँ शृगार रस का शृगार रस की सफल निष्पत्ति हुयी हैपरिपोष नही हो पाया है। कवि ने राजकुमार महावीर राजा पीते थे रूपसोम, मद मे कम्पित था रोम रोम के सौन्दर्य पर विमुग्ध तरुणियो के 'पूर्वराग' एव "दिवा- उपवन के पत्ते हिलते थे, कलियों से भौरे मिलते थे स्वप्न' देखने की सहज प्रवृत्ति की मार्मिक भाव- यजना की बुझ बुझ कर आग सुलगती थी. उलझन मे प्रिया उलझती थी है।" नवयौवना राजकुमारी यशोदा के मनोभाव चित्रण मे नारी ने सीखी नयी कला, मन उमड़ा तन उमड़ा मचला।" ही 'श्रृंगार' की अभिव्यक्ति पार्मिक एवं प्रभावकारी बन उपर्युक्त के अतिरिक्त कामदेव दारा प्रेरित अपसराओं पड़ी है। रूप गविता यशोदा, महावीर को पति रूप मे द्वारा साधरारत महावीर को तपस्याच्युत करने के प्रसग कामना करती है, मिलन से पूर्व हृदय पट पर प्रिय के मे भी शृगार रस व्यजना प्रभावशाली है। साधक विविध चित्र सवारती है और प्रिय के सौन्दर्य के दर्शनार्थ महावीर का सुदर्शन व्यक्तित्व अप्सराओ को अत्यधिक द्वार पर आ खड़ी होती है परन्तु वीतरागी वर्द्धमान नतद्ग प्रेमोद्दीप्त करता है और वे काम चेष्टाए प्रदर्शित करती आगे बढ जाते हैं। अत: प्रिय को (आलम्वन) उदासीनता हुयी सयोग को व्याकुल हो उठती है --परन्तु यहां भी से रस की सपूर्ण निष्पत्ति नहीं हो पायी है। तदपि यह आलम्बन (महावीर) की तटस्थना एवं आश्रय की पराजय शृगार रसभासी मधुर प्रसग है। से रस की सम्पूर्ण निष्पत्ति नही हुयी है। तीयंकर महावीर--महाकाव्यकार डा० छैलबिहारी वीरायन' मे वियोग शृगार सम्बन्धी एक मार्मिक गुप्त ने प्रस्तुत कृति मे शृगार रस की नितात उपेक्षा की स्थल है। कलिंग नरेश जितशत्रु को अतीव सुन्दरी षोडशी है। मिद्धार्थ त्रिसला की परस्पर प्रेम व्यजक पक्तियो मे कन्या यशोदा के हृदय में कुमार महावीर से विवाह की इसका आभास तक नहीं होता । कवि ने नायक (वर्तमान उमग जागृत हो चुकी है। उसे मीठे मधुर स्वप्न देखने, महावीर) के यौवन काल का उल्लेख तक अवश्यक नही अपनी कोमल कल्पना का ताना बाना बुनने और अभिसमझा है। बाल-काल क्रीडा वर्णन के तुरत पश्चात् लाषाओं को साकार होते देखने का अवसर मिल पाता कि वर्द्धमान को तीस वर्षीय तपस्वी रूप में प्रस्तुत कर दिया है उमसे पूर्व ही महावीर (प्रिय) के विरागी होकर साधना अत. शृगार रस निष्पत्ति का कही अवकाश ही नही है। हेतु निष्क्रमण की सूचना मिल जाती है। कोमल हृदया ____वीरायन-- महाकवि रघुवीर शरण 'मित्र' ने शृगार यशोदा विरह व्यथा मे डूब जाती है। वह साधारण नारी रस आयोजन के अवम र सिद्धार्थ-त्रिशला के प्रणय विलास की भाति मूछित नही होती पर प्रिय को उपालम्भ अवश्य मे ढढ़ लिए है। कवि ने त्रिशला के पूर्वराग की बड़ी मधुर देती हैव्यजना की है। राजा सिद्धार्थ से विवाह निश्चित होने का पहले चाह व्याह की भर दी, समाचार त्रिशला मे स्त्री सुलभ 'लज्जा' का सचार करता अब विरक्ति के गीत गा रहे । है तथा वे भविष्य के मीठे सपने सजोने लगतो है। इन तन मे मन में आग लगाकर, स्वामी ! तुमको योग भा रहे ॥ पूर्वार्नुभूतियों की शृगारिक अभिव्यक्ति द्रष्टव्य है-- लेकिन किचित् विचार मथन के बाद प्रिय के महत्कार्य आग उठने लगी जो सुहाने लगी, का ज्ञान हो जाने पर यशोदा जिस रूप मे भी सम्भव हो एक लज्जा हृदय को लुभाने लगी। चाँदनी रात के सपने आने लगे, प्रिय की अनुगामिनी-सहयोगिनी बनना चाहती है। कवि आयु फल बात रस की बताने लगे। ने विरहिणी यशोदा के भावोत्कर्ष की हृदयसी अभिजब आशाओं उमगो से भरपूर, नवयौवना त्रिशला व्यजना की हैका सिद्धार्थ से सयोग होता है तो प्रेमाधिक्य में दोनो सुध- तुम तप करने को जाते हो, मैं बदली बनकर साथ चली। बुध बिसरा देते है। आश्रय-आलम्बन का भेद मिट जाता तुमको न घूम लगने पाये, इसलिए धूप में स्वय जली ।। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ८, वर्ष ४०, कि० १ प्रभु तुम जिस पथ से जाओगे, मेरी काया छाया होगी। 'काम' को निर्वेदोन्मुख कर दिया है। साधक महावीर को मेरे प्रभु बाल ब्रह्मचारी, पूजा नेरी माया होगी॥ तपस्या से डिगाने हेतु अप्सराओं द्वारा प्रदर्शित कामुक ___ श्रमण भगवान महावीर चरित्र-महाकाव्यकार चेष्टाओं के चित्रण भी शृंगार रसाभासी स्थल हैं । " कवि अरुणकुमार यौधेय ने बथ्य वर्णन में श्वेताम्बर परम्परा ने राजा सिद्धार्थ एव रानी त्रिशला के प्रेमपूर्ण मिलन का का अनुसरण किया है जो वर्द्धमान महावीर एवं यशोदा के जो वर्णन किया है वह अत्यंत मर्यादित है और वहाँ श्रृंगार विवाह का अनुमोदन करती है अतः प्रस्तुत प्रबन्ध मे रस की निष्पत्ति भी नही हो सकी है। शृंगार रस निष्पत्ति सम्बन्धी विशिष्टता यह है कि कवि रघुवीरशरण मित्र की मोति पौधेय जी ने यशोदा की ने महावीर को काम क्रीडा मे मग्न व्यंजित करने का विरह अभिव्यक्ति माध्यम से वियोग शृगार का समायोजन साहस किया है। कुमार महावीर का यशोदा के सौन्दर्य किया है। यशोदा का वियोग करुण मिश्रित प्रवास जन्य पर मुग्ध होकर वासना प्रेरित हो जाना पात्रगत मौचित्य विरह है जिसमे प्रिय से पुनर्मिलन की क्षीण-सी आशा भी की दृष्टि से विवाद का विषय हो सकता है परन्तु यह नही। कवि ने विरह व्यथिता यशोदा की 'स्मृति' 'व्यथा' मानवीय प्रवृत्ति के सहज अनकूल है। प्रतिक्रियात्मक शैली एव 'चिता' आदि की हृदयहारी अभिव्यजना की है ।२ में चित्रित महावीर-यशोदा सभागम की व्यजना रसोद्रेक तदुपरात इस विकल वेदना को प्रिय (महावीर) के प्रति में सक्षम है अनन्य भक्ति भाव मे परिणत कर भावोत्कर्ष का उदाहरण एक घड़ी ऐसी आयी थी जीवन में, प्रस्तुत किया है। सागर, नदिया से मिलने को था भागा ।। इस प्रकार स्पष्ट है कि अधिकांश महाकाव्यकारो ने टूट गयी डोर वासना जीत गयी, पात्रो को चारित्रिक गरिमा से अभिभूत होते हुए तथा मधुर मिलन मे घडिया कितनी बीत गयी। धार्मिक विश्वासो की सीमाओ को स्वीकारते हुए श्रृंगार पंख लगाकर प्यार गगन में विचर गया, चित्रण के अल्प प्रयत्न किए हैं। पं० अनुप शर्मा 'मित्र' जी थी अनग की सत्ता जैसे जीत गयी। एव 'यौधेय' जी ने कल्पना का सहारा लेते हुए साहसिक काया में काया के घुनने की बेला, प्रयास किए है और शृगारिक स्थलो की उद्भावना की आलिगित हो जैसे धरती और गगन ।" है। देखना यह है कि भविष्य के साहित्य निर्माता सीमाओ बाद मे यौधेय जी ने महावीर के अन्तर्मन मे वासना के बन्धन में ही रहते है या कुछ नवीन सम्भावनाए, इस और विवेक का सघर्ष तथा विवेक की विजय प्रदशित करके दिशा में, सम्मुख लाते है । लखनऊ ___ सन्दर्भ-सूची १. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन-पृष्ठ २२४-२२५ १०. वही पृ० ६५ २.विस्तृत विवेचन हेतु देखें पुस्तक- 'आधुनिक युग मे ११.परम ज्योति महावीर-धन्यकुमार जैन 'सुधेश', नवीन रसों की परिकल्पना' लेखक-डा० सुन्दरलाल पृ० १५१ कथूरिया। १२. वही, पृ० २७०-२७१ ३. वर्द्धमान--१० अनूप शर्मा, पृष्ठ ३५६ १३. पार्श्व प्रभाकर-वीरेन्द्र प्रसाद जैन, पृ० १२५-१२६ ४. अनुप शर्मा : कृतिया और कला-सम्पादक डा० १४.तीर्थंकर भगवान महावीर -वीरेन्द्रप्रसाद जैन, प्रेमनारायण टण्डन, पृ० ५० पृ० 'दो शब्द' के अन्तर्गत ५. वर्तमान-प. अनूप शर्मा पृ० ८५-८६ १५. वही, पृ० १५ १६. वही, पृ० १०७ ६. वही, पृ० ८६ ७. बही, पृ० ६१ १७. वही, पृ० ११०-१११ । ८. अनूप शर्मा : कृतियां और कला-सम्पा० डा. प्रेमनारायण टण्डन १५. वीरायन-रघुवीरशरण मित्र पृ० ८३ ६. परम ज्योति महावीर-धन्यकुमार जैन 'सुधेश', १६. वही, पृ० ८४ २०. वही, पृ० २८३-२८५ २१. वही, पृ०२४० २२. वही, पृ० २५५ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार व उसकी आचार वृत्ति श्रीपं० बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री वट्टकेराचार्य विरचित 'मूलाचार' यह एक श्रमणाचार करके भी उन्होने उसकी सूचना नहीं की। अपवाद के रूप का प्ररूपक महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थ है जो बारह अधिकारो में एक आध बार उन्होंने 'तथा चोक्तं प्रायश्चित्तग्रंयेन में विभक्त है । चारित्रसार, आचारसार और अनगार. एकस्थानमुत्तरगुरणः, एक मक्तं तु मूलगुणः इति' । इस धर्मामृत आदि उसके पीछे इसी के आधार पर रचे गए प्रकार का सामान्य निर्देश करके भी वह प्रायश्चित्तग्रंथ हैं। प्रस्तुत ग्रंय पर आचार्य वसुनन्दी द्वारा 'आचारवृत्ति' कोनसा व किसके द्वारा रचा गया है, इसका भी कुछ नामकी एक उपयोगी विस्तृत टीका लिखी गई है जैसा कि स्पष्टीकरण नही किया । यही कारण है जो उन्हें 'भारतीय ज्ञानपीठ' से प्रकाशित इस मूलाचार के संस्करण इस वृत्ति मे अपने विवक्षित अभिप्राय को प्रायः कहीं भी सम्बन्धित 'माय उपोद्घात' से स्पष्ट है, उस पर एक प्राचीन आगम वाक्यों को उद्धृत कर उनके द्वारा पुष्ट 'मुनिजन चिन्तामगिा' नाम की टीका मेषचन्द्राचार्य द्वारा नहीं करना पड़ा जैसा कि बहुधा पूज्यपाद, भट्टाकलंकदेव कानडी भाषा में भी लिखी गई है। (पृ०१८) । आ. वसु- वीरसेन आदि अन्य कितने ही आचार्यों ने किया है। नन्दी सिद्धान्त के मर्मश विद्वान् रहे है । वे सस्कृत और प्रस्तुत प्रथ का एक संस्करण उक्त 'आचारवृति' के प्राकृत दोनों भाषाओ के अधिकारी उल्लेखनीय ज्ञाता रहे साथ विक्रम संवत् १९७७ और १९८० में मा०दि० जैन हैं उन्होंने अपनी इस वृत्ति में प्रसगानुसार आचार्य देवनन्दी ग्रंथमाला बम्बई से दो भागो में प्रकाशित किया गया था। (पूज्यपाद) के 'जैनेन्द्र व्याकरण' का आश्रय लिया है। हस्तलिखित प्रतियो पर से उसे प्रकाशित करने का यह इस वृत्ति की रचना मे उन्होने अपने से पूर्वकालीन अनेक प्रथम प्रयास था। उसके प्रकाशित करने में भी प्राचीन आगम प्रथो का आश्रय ही नहीं लिया, बल्कि उन ग्रन्थो हस्तलिखित प्रतियां नही उपलब्ध हुई। इसके अतिरिक्त के प्रसंगानुरूप अनेक सन्दों को भी इस मे आत्मसात कर उस समय साधन सामग्री की कमी के साथ संशोउसे पुष्ट व विस्तृत किया है जिनमें षट्खण्डागम, धक विद्वान् भी उपलब्ध नहीं हुए । इससे उसमें अशुद्धियाँ चारित्रप्राभृत, सर्वार्थसिद्धि, जैनेन्द्रव्याकरण, तत्त्वार्थ- बहुत रही हैं, जिन्हें अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। वार्तिक, प. खं० की टीका धवल., पसग्रह' और इससे उसके प्रामाणिक शुख सस्करण की अपेक्षा बनी गोम्मटसार प्रमुख है। इस सबका स्पष्टीकरण आगे उदा- रही है। हरणपूर्वक किया जायगा। विशेषता एक आ० वसुनन्दी जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, उसका दूसरा की यह रही है कि उपर्युक्त अथो से प्रसगानुरूप सन्दर्भो एक संस्करण 'आ० शा० जिनवाणी जीणोद्वार सस्था को इस टीका मे गभित करते हुए भी उन्होने कही किसी फलटण' से भी प्रकाशित हुआ है। उसकी प्रति उपलब्ध अन्य विशेष का या अथकार का उल्लेख नही किया है। न होने से मुझे उसके विषय मे अधिक कुछ जानकारी यही नहीं, कही 'उक्त च' आदि जैसा सामान्य निर्देश नही है। १. यह टीका और 'आचार्य शा० जिनवाणी जीर्णोद्धार किया है-'सग्रहः पंचसंग्रहावयः' । ज्ञा० पी० सं० सस्था-फलटण' से प्रकाशित वह प्रति मुझे उप- गा० २७६, पृ० २३६ (सम्भव है उससे भा० जानलब्ध नहीं हो सकी। पीठ से प्रकाशित 'पचस ग्रह का ही अभिप्राय उनका २, दृत्तिहार ने 'पचसग्रह' का उल्लेख इस प्रकार रहा हो)। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त १० वर्ष ४० कि० १ अभी हाल में उसका एक अन्य सस्करण उक्त आचार वृत्ति और आर्यिका ज्ञानमती माता जी के द्वारा किये गए अनुवादादि से सम्पन्न भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा क्रम से ई० सन् १९८४ व १६८६ मे दो भागो मे प्रकाशित किया गया है। उसके अनुवाद आदि कार्य के करने में माता जी ने पर्याप्त परिश्रम किया है किन्तु पूर्व संस्करण में जो प्रचुर अशुद्धियां रही है वे प्रायः सभी इस सस्करण में भी दृष्टिगोचर होती रही है। इसके लिये कानडी लिपि मे लिखित प्राचीन दो चार ताड़पत्रीय प्रतियो से उसके सावधानतापूर्वक पाठ मिलान की आवश्यकता रही है। यदि उनसे पाठ मिलान कर उसे तैयार किया गया होता तो उसका एक प्रामाणिक शुद्ध संस्करण इस प्रकार का बन जाता जिस प्रकार का एक तिलोयपत्ती का शुद्ध प्रामाणिक संस्करण धायिका विशुद्धमती माता जी द्वारा प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों से पाठ मिलान के साथ अनुवाद आदि कार्य करके तैयार किया गया है। मूलाचार के अध्ययन की आवश्यकता वर्तमान में साधु-साध्वियों की सख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही है। उनमे सामान्य श्रमणाचार से कितने परिचित रहते है, यह कहना कठिन है नवीन दीक्षा देने के पूर्व यदि अपने सघ की सख्या वृद्धि की अपेक्षा न रखकर दीक्षोन्मुख आत्महितैषी को दीक्षा ग्रहण के लिए कुछ समय देकर इस बीच उसकी धर्मानुरूप प्रवृतियों पर ध्यान देते हुए उमे २८ मूलगुण, आहार ग्रहण और अन्यत्र विहार आदि करने की विधि से परिचित करा दिया जाय तथा सामान्य तत्वों का भी बोध करा दिया जाय और तत्पश्चात् दीक्षा दी जाय तो ऐसा करने से नवदीक्षित साधु और दीक्षादाता आचार्य दोनों का ही हित १. प्रस्तुत मूलाचार के ही 'समाचार' अधिकार के अनुसार दीक्षोन्मुख की तो बात क्या, किन्तु एक संघ का साधु यदि विशेष श्रुत के अध्ययनार्थं दूसरे संघ में आचार्य की अनुज्ञा से जाता है तो एक या तीन दिन उसे विश्राम कराते हुए इस बीच उसके आचरण आदि की परीक्षा की जाती है । यदि वह आचरण मे विशुद्ध प्रमाणित होता है तो उसे अपने सघ मे स्वीकार कर यथेच्छ श्रुत का अध्ययन कराया है'। यह कण्टकाकीर्ण मार्ग वस्तुतः आत्मकल्याण का है, पर का कल्याण भी इसमे गोण है; इसे कभी भूलना न चाहिए । उक्त विधान के पश्चात् यह भी आवश्यक है कि संघस्थ साधु-साध्वियों को मूलाचार जैसे धमणाचार के प्ररूपक ग्रन्थ का पूर्णतया अध्ययन कराकर उन्हें श्रपणाचार में निष्णात करा दिया जाय। यदि यह स्थिति बनती है तो उससे साथ संघ की प्रतिष्ठा के साथ सघस्य मुनिजनों का आत्मकल्याण भी सुनिश्चित है, जिसके लिए उन्होने घर-द्वार और परिवार आदि को छोड़ा है। साथ ही दिनप्रति दिन जो समाचार पत्रो मे व परस्पर की चर्चा वार्ता मे साधु-साध्वियों से सम्बन्धित अनेक प्रकार की आलोचनायें देखने-सुनने एवं पढ़ने को मिलती है वे भी सम्भव न रहेंगी। मूलाचारके शुद्ध प्रामाणिक संस्करणको आवश्यकता इसके लिये बहुत समय से मेरी यह अपेक्षा रही है कि इस महत्वपूर्ण प्राचीन ग्रंथ का एक प्रामाणिक शुद्ध संस्करण तैयार कराया जाय । यह श्रेयस्कर कार्य तभी सम्पन्न हो सकता है जब उसकी प्राचीनतम हस्तलिखित दो-चार प्रतियो को प्राप्त कर उनके आश्रय से पाठो का मिलान करा लिया जाय यह महत्वपूर्ण धर्म प्रभावक कार्य पूज्य श्राचार्य विद्यासागर जी जैसे श्रमण के द्वारा सहज मे सम्पन्न हो सकता है । पू० आ० विद्यासागर जी जैसे सिद्धांत के मर्मज्ञ है वैसे ही सस्कृत-प्राकृत के विद्वान होने के साथ कानडी भाषा और लिपि के भी विशिष्टज्ञाता है । उनके सघ मे कुछ अन्य मुनि भी कानडी से परिचित है। इससे धर्मानुरागी कुछ आगमनिष्ठ सद्गृहस्थों के द्वारा दक्षिण ( मूढविद्री व श्रवणबेलगोला आदि) से ग्रन्थ की कुछ प्राचीनतम प्रतियो को प्राप्त करके जाता है। इसके विपरीत यदि वह व्रताचरण से अशुद्ध प्रतीत होता है तो सघ मे नही लिया जाता है । यदि कोई आचार्य व्रताचरण में अयोग्य या शिथिल होने पर भी उसे ग्रहण करता है तो उस आचार्य को भी प्रायश्वित्त के योग्य कहा गया है देखिये गा० १६३-६८ ) । यही पर पीछे बाकी बिहार करने का भी कठोर प्रतिषेधया गया है। ( गा० १४७-५०) । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार व उसकी प्राचारवृत्ति उन्हे समर्पित कराई जा सकती है। इस संघ को यह भी दोनों संस्करणगत अशुद्धियां एक विशेषता है कि तत्त्वाचर्चा और स्वाध्याय आदि के ऊपर जो मैंने इन दोनों सस्करणो के अन्तर्गत उपअतिरिक्त वहा अन्य कोई चर्चा नही देखी सुनी जाती। लब्ध कुछ अशुद्धियो का निर्देश किया है उनमे प्रामाणिवर्तमान मे उसकी प्रतियों के प्राप्त करने में पूर्व के समान कता की दृष्टि से यहां मैं कुछ थोडी-सी विशिष्ट अशुद्धियो कठिनाई नहीं रहेगी। इस प्रकार से इस सघ मे ग्रंथ के वाचनपूर्वक पाठो का मिलान सहज में कराया जा सकता का उल्लेख कर देना चाहता हूं। जिससे त्यागीवृन्द व है, जिससे उसके शुद्ध प्रामाणिक सस्करण के तैयार होने विद्वज्जन प्रस्तुत प्रथ के शुद्ध प्रामाणिक सस्करण की आव. मे कुछ कठिनाई नही रहेगी। श्यकता का अनुभव कर सके । यथामा० ग्रं० मा० सस्करण ज्ञा० पी० सस्करण पृष्ठ अशुद्ध पाठ उसके स्थान मे सम्भव शुद्ध पाठ गाथा १.४ वृत्ति प्राणव्यपरोपण प्रमादः प्राणव्यपरोपण हिसा, प्रमादः स्तुतेः नुतेः १-२४ १-३४ : : : ४-२ ܒܘܐ ४-१२ ११६ ११८ मिथस्तस्य महापुरुषाचरणार्थ अन्यथार्थत्वात् विपरीत गतस्य श्रद्दधान उपक्रमः प्रवर्तन 'कायाः' तस् सहस्य सः, समान पडिछण्णाए उदभ्रम एवोभ्रमको पुच्छयमण्ण भट्टारकपादप्रसन्नः गृहीतार्थश्च सायरसरसो उन्वट्ठण श्रावकादिभिः परियट्ठ सहत्थति चरित स्थितस्य महाव्रताचरणार्थ अन्यार्थत्वात विपरीततां गतस्य श्रद्धानं उपक्रमः अपवर्तन 'कायास्तस्' 'सहस्य स' समान पडिच्छणाए उभ्रम एवोद्भ्रामको पुत्थयमण्णं' भट्टारकपादपादप्रसन्नः गृहीतार्थस्य सायरसरिसो (वृत्ति मे शुद्ध है) उन्वट्टण श्राविकादिभिः परियट्ट सहच्छति' चरति (वृत्ति में शुद्ध है) 7-१४ ४-१७ (मूल) ४-२५ ४.२७ ४-२८ (मूल) ४-५६ (मूल) , (वृत्ति) ४-६८ (मूल) ४-७० (मूल) ४-७५ (मूल) ११६ १२६ १३४ १४७ १४६ १५४ १५६ १५६ १. कानडी लिपि मे बहुधा 'त्थ' और 'च्छ' के लिखने मे वर्णव्यत्यय हुआ है-'त्थ' के स्थान मे 'च्छ' और 'छ' के स्थान मे 'स्थ' लिखा गया है। देखिये आगे गा० ४.७० व ज्ञा० पी० स० में गा० १६१ (पृ० १५६) मे 'सहत्यति' का टिप्पण 'अच्छति' तथा आगे गा० ५-१७६ (जा० पी० स० ३६३, पृ० २६६ मे 'पत्थिदस्स' के स्थान मे 'पछि[च्छिदस्स' लिखा गया है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ वर्ष ४० कि० १ बम्बई सं० गावांक ५-४ ५-६ ५- २८ (मूल) ५-३० ५-३५ ५- ६१ (मूल) "" " ५-७० ५-७५ ५-११३ ५- ११४ ५- ११५ ५- १२१ ( वृत्ति) ५-१२७ ५-१६५ ५-१७१ ५- १७६ (मूल) 27 ५-१०१ " ( वृत्ति) ५-१८२ ५-१८४ ५-२१० ५- २१६ (मूल) ज्ञान पी० सं० १६६ १६६ 17 १८८ १६० १९६ २१६ २१७ २२२ २२८ २५८ " 11 २५६ २६६ 01 २६७ २७२ २६३ २६६ २६६ 37 ३०२ 〃 91 पृ० ३०३ ३२१ ३२४ अनेकान्त अशुद्ध पाठ सर्वचानुपवर्तन ज्ञानरूपमुपचारो यत्प्रधानं संवग्गीण ( भव्व) भव्वा निर्वाण पुरस्कृता: (अभव्या-) अभव्यास्तद्विपरीता पुनररूपिणोजीयः वागणुवादार तुच्छा णित्तिण गे० यजुर्वेदार्थर्वणादयः अमुख्यं प्रत्यक्षेन्द्रिय सर्वासु सध्यादावन्ते नापि (?) (दो तथैव (व) ह्रस्व पत्ये (ज्ञा०पी० 'पहत्थे') मध्यान्हादरा (ज्ञान पी० टिप्पण मे शुद्ध है) संहृत्यावसयो दूरतो स (श) तन स्थानं वानुज्ञाप्य सभावनं श्रुतं पठनयत्नं पछिस्स साधण (जा० पी० 'साहूणं') करकुंडलेना ० अहीलं अपरिभवचन कृष्णादिक्रिया (दि) रहितं सम्यग्विराधना उपकारे वेदास्त्रयः । रागाहास्यादयः जहायाणं १. बलोवीरियं थामो इदि एयट्ठो । धवला पु०८, पृ० ८६ उसके स्थान में सम्भव शुद्ध पाठ सर्वयानुप्रवर्तन ज्ञानरूपत्वमुपचारो यत् चदानं सव्वंगीणं (गो० जी० ११५ ) भव्या भव्वा भव्या निर्वाणपुरस्कृताः अभव्यातद्विपरीता पुनररूपिणो जीवा वागणुवागादि (वृत्ति में शुद्ध है) तुच्छाणितापि ण गे० यजुर्वेदपर्ववेदादयः अमुख्यं प्रत्यक्षमिन्द्रिय सर्वासु संध्यास्वादावन्ते नापितेर्देवदत्तो राव ह्रस्व पहलट्टे (गो० जी० २२३) मध्याह्लादारात् सत्यावसयाद्रो शातन स्थानं नानुज्ञाप्य स-भावनं श्रुतपठने यत्नः परिषदस्सपावर्ण करकुड्मलेना० अहीलणं अपरिभवदप कृष्यादिक्रियारहितं सम्यक्त्वविराधना उपचारे वेदास्त्रयः रागाः । हास्यादयः जहाथामं (पु०६, सूत्र ४१, १०८६) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम्बई सं० गावांक ६-५ "7 ६-२२ ६-३३ ६-५५ ६-५८ ६-६० ६-६१ ६-६२ ६-७ ६-६८ (मूल) गाथा या वृत्ति १-६ ( वृत्ति) १-३५ = ३-५ ज्ञान पी० [सं० पृ० ३३३ ३३३-१४ ३३४ ३४५ ३५४ ३६७ ३६८ ३६६ ३७० ३७१ ३७५ विचारणीय मूलाधार व उसकी प्राचारवृति अशुद्ध पाठ ४५ 'कुछ ज्ञा० पी० स० पृष्ठ १२-१३ ४६ श्रवणो पाखण्डिवध्यासकर्मणो तेन गृहस्था: । साधवः जंतुना सकृत्रिमभेदभिन्न जुगुप्सा ततश्चेति गुढघामुक्त, आहारमध्यवहरति , मुक्ते प्राणादण नातिमात्र धर्म । तितिक्षणाया यद्येवम भक्षादिके ** उसके स्थान सम्भव शुद्ध पाठ श्रमणो पाखण्डिष्वस्याधः कर्मणो ते न गृहस्थाः, साधवः जतुना सकृत्रिमा कृत्रिमभेदभिन्नं जुगुप्सातदचेति गुढया युक्तः प्राहरति आहारमभ्यवहरति भुंक्ते, न प्राणादश नात्र धर्म (ज्ञा० पी० सस्करण काजस्ाचित् शुद्ध हो सकता है ) । तिरक्खणे तितिक्षरणायां यद्येतदर्थं भक्ष्यादिके (शा०पी० - टिप्पण गयेसमणो ऐसे पाठ जो प्रतिमिलान को अपेक्षा रखते हैं मे शुद्ध है) गवेसमाणो २. शा० पी० संस्करण में 'गृ-द्धघाद्यायुमुक्तः आहरत्यम्यवहरति' ? ऐसा पाठ है । प्रतिमिलान के लिये अपेक्षित पाठ विशेष सदाचाराचार्यान्यथार्थकथने दोषाभावो वा सत्यमिति सम्बन्ध: I X XX सदाचारस्याचार्यस्य स्खलने दोषाभावो वा । भुंजे भुंक्ष्य वचसा वपसा न भगामीति चतुविधाहारस्याभिसन्धिपूर्वक कायेनादान ( वचन सम्बन्धी कारित व अनुमति से सम्बद्ध पाठ स्खलित दिखता है, अनुवाद मे उसे मूल के बिना ले लिया गया है।) 'सदुभयोज्झनमुभयम्' ('उभय' प्रायश्चित्त से सम्बद्ध यह पाठ निश्चित ही अशुद्ध है, देखिये आगे ०३६२ की वृत्ति में 'उभय' प्रायश्वित का लक्षण उभय-द्यालोचन प्रतिक्रमणे) उपक्रमः प्रवर्तन अस्तित्व (यह पाठ अशुद्ध है, उसके स्थान में 'उपक्रमः अपवर्तन' पाठ होना चाहिये, आगे गा० १२-८३ (० पी० सं० २, पृ० २७१ ) की वृत्ति मे उसका लक्षण - उपक्रम्यते इति उपक्रमः विध-वेदन प्रायुषोघातः, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है। देखिये त० भाष्य २-५२ मे 'उपक्रमोऽपवर्तननिमित्तम्') Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ बर्ष ४०, कि०१ अनेकान्त गाथा या वृत्ति ४-४ ४-२४ ४-२७ (मूल) ४-३० ४-३१ (मूल) , (वृत्ति) ४-५८ (मूल) ४-६३ ४-७० ५.३८ ५-३६ (मूल) ५.४७ ज्ञान पी० सं०१० प्रतिमिलान के लिए अपेक्षित पाठ विशेष नाय पृच्छाशब्दोऽपशब्दः । उत्सर्गापवादसमावेशात् (?) । अनुवाद अस्पष्ट है। १२३ तुम्हे महद्गुरुकुले (ज्ञा० पी० सं० 'त्वद् महद्गुरुकुले') १२६ बिदिओऽगिहीदत्थससिदो [बिदियोगिहिदत्थसंसिदो। १२८ (गा० १५.) नमोस्तूनां शासने (जा० पी० सं० टिप्पण मे 'सर्वज्ञाना शासने') १२६ (गा० १५२) साणागेणादि (ज्ञा० पी० स० 'साणगोणादि') [साणगोणसादि] श्वगवादय. १४७ (गा० १७९) कहा व सल्लावणं (वृत्तिगत पाठ भी विचारणीय है) १५१ अल्पगुह्यदीर्घस्तब्ध: प्रश्रवादिरहितः (?) प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'असण्णिवाए' का अभिप्राय अस्पष्ट है, वृत्तिकार को उसे तीन विकल्पो में स्पष्ट करना पड़ा, फिर भी वह सन्तोषजनक नही है। प्रसग कुछ दुरूह है या अशुद्ध भी हो सकता है। १६६ (ज्ञा०पी० स०) पूर्वगाथार्थेनास्य गाथार्थस्य नैकार्थ(?) बन्धास्रवोपकारेण प्रतिपाद नात् (यहाँ एक विशेषता यह रही है कि शुद्ध उपयोग को पुण्यास्रव रूप निदिष्ट किया गया है)। २०० णेहोउप्पिदगत्तस्स (?) २०४ जीवस्वरूपान्ययाकरणस्सोऽन भागबन्धः जीवस्वरूपाग्यथाकरणं सोऽनुभाग बन्धः] योगाज्जीवाः (?) प्रकृतिबन्ध [प्रदेशबन्ध] च करोति । उहा-उष्ण पूर्वोक्तप्रकारेण सन्निधानाच्छीताभिलाषकारणा दित्य-ज्वरादि सन्ताप: (?) २१५ (गा. २५६) ससत्तीए [स्वशक्त्या] वृत्तिकार के अर्थ को देखते हुए 'सव्वसत्तीए' पाठ सम्भव है। २१६ (गा० २६२) हिदमिदमवगहिय (?) २२२ अमुख्य प्रत्यक्षोन्द्रिय- [प्रत्यक्षां इन्द्रिय-] विषयसन्निपाता....... ईषत्प्रत्यक्षभूत । परोक्षं [ईषत् प्रत्यक्षभूतं परोक्ष] श्रुतानु...... भेदेनानेकप्रकार, [प्रकार] श्रुत....."मतिपूर्वक इन्द्रिय ... .. विज्ञान । यथाग्निशम्दात् खपरविज्ञानं (?) । २२३ शूना (?) पीनांगोदेवदत्तो सर्वासु सन्ध्यादावन्ते [सर्वासु सन्ध्यास्वादावन्ते] पचण्हंपि यन्हयाणमावज्जणं (?) पचानामप्यह्रवाना व्रतानामावर्जन भंगः । २५८ तथैव (व) ह्रस्व [तथव] ह्रस्व २५६ यदुत नाम तथा न सम्पादयेदभिनीता [सम्पादयेदित्यभिनीता] ५.५७ ५.५७ ५-५६ (मूल) ५-६५ (मूल) ५-७० २२८ २४७ ५-७५ ५-६६ (मूल) ,, (वृत्ति ) ५-११४ ५-११५ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार व उसकी प्राचारवृत्ति गाथा या वृत्ति ज्ञान पी० मं• पृ. प्रतिमिलान के लिए अपेक्षित पाठ विशेष ५-१२१ २६५ मुनिरित्याशकायामाह चकार (र) सूचितार्थ (?) ५-१२७ २७२ यदि प्रथमस्थानं शुदं द्वितीयं तृतीयस्थानं वानुशाप्य [वाननुज्ञाप्य ५-१३६ २७७ अत्रोकारस्य ह्रस्वत्व प्राकृतबलात् द्रष्टव्य (प्रसंग ?) ५-१४२ (मल) २७८-७६ ....""समणुण्णमणाअणण्णभावो वि चत्तपडिसेवी (?) वृत्तिका पाठ व अनुवाद भी विचारणीय है। ५-१४५ (मूल) २८१ (गा० ३४२) स मणागवि कि (पाठान्तर--'स मुहदो च कि') ५-१५८ २८६ "तेषा यन्नानाविधान नानाकरण तस्य ग्रहण (?) ५-१८१ ३०२ (मूल) (गा० ३७८) गिहत्थ वयणमकिरियमहीलणं (?) (वृत्ति) वृत्तिगता पाठ विचारणीय है । ५- १० (मूल) ३०७ (गा० ३८७) आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तमोधिनिज्जजा (?) ५-१६३ ३०९ दु शीले वा दुबंने व्याध्याक्रान्ते वा (?) कुले शुक्रकुने स्त्रीपुरुषसन्ताने ५-१६४ वाचनाव्याख्यानविकिचनमूत्र (2) इस प्रकार से यहा कुछ थोडी-सी अशुद्धियों और छायानुवाद के रूप में उन दोनों गाथानों की वत्ति में विचारणीय स्थलो का दिग्दर्शन कराया गया है, वैसे आत्मसात् कर लिया है । यथाअशुद्धियां बहुत दिखती है । पिण्डशुद्धि मे जो श्रमणाचार (क) पचह गाणावरणीयाण नवण्ह दसगावरणीयाणं से अधिक सम्बद्ध है, ऐसे अनेक स्थल है जिनका अभिप्राय असादावेदणीय पचण्ह मत राइयाग मुक्कस्सयो दिदिबंधो तीस समझना कठिन हो रहा है । अन्तिम बारहवे अधिकार मे, सागरोवम कोडाकोडीपोषटख० सूत्र १, ६-६ ८, (पु०६, पृ० १४६) विशेषकर गा० १५४-२०६ (अन्त तक) मे, अधिक अशु (क) पचाना ज्ञानावरगीयाना नवानां दर्शनावरद्धियां उपलब्ध हैं। इससे प्रस्तुत ग्रन्थ का प्राचीन हसन णीयाना सातवेदनीयस्यासातवेदनीयस्य पंचांतरायाणां लिखित प्रतियो से मिलान करने की अत्यधिक आवश्यकता है। चोत्कृष्ट स्थितिबन्धो स्फुट विंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः । ग्रन्थान्तरों के सन्दर्भ : मला वति १२-२०० (जा. पी० स० २, पृ० ३७६) जैसा कि ऊपर मकेत किया जा चुका है. वत्तिकार ग्रा. यहां 'सातादेवनीय' का उल्लेख प्रमादवश हआ है वसुनन्दी ने अपने पूर्वकालीन अनेक ग्रन्थों से प्रसंगानुरूप जो निश्चित ही अशुद्ध है। सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति यही पर आगे गा० २०१ की वृत्ति (ज्ञा० पी० स. २ सन्दर्भ लेकर अपनी उस वृत्ति को पुष्ट किया है। उनमें पृ० ३७७) में पृथक् से पन्द्रह कोड़ाकोड़ी प्रमाण निर्दिष्ट कुछ इस प्रकार है की गई है। १. षट्खण्डागम-मूलाचार गाथा १२-२०० व ख) सादावेदणीय-इत्थिवेद-मणुसगदि-मणुगदिपायो२०१ में निर्दिष्ट ज्ञानावरगादि पाठ मूल प्रकृतियों की ___गाणुपुविणामाण मुक्कस्सओटिदिबधो पण्णारस सागरो । उत्कृष्ट स्थिति स्पष्ट करते हुए वृत्तिकार ने उन मूल वमकोडाकोडीयो ष० ख० सूत्र १, ६-६, ७ । प्रकृतियों के साथ उनकी उत्तर प्रकृतियो की भी उत्कृष्ट सातवेदनीय - स्त्रीवेद • मनुष्यगति मनुष्यगतिप्रायोग्यास्थिति का वर्णन किया है, जो षट्खण्डागम से प्रभावित नुपूर्यनाम्नामुत्कृष्टा स्थिति: पञ्चदशसागरोपमकोटीही नही, यथा प्रसग उसके सूत्रों को उसी क्रम से संस्कृत कोट्यः । मूला० वृत्ति १२-२०१. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६, वर्ष ४० कि० १ (ग) मिसरस उक्कस्सओ उिदिबंधोस तरिसागरो नमकोडाकोडीयो ० ० सूत्र १, ५, १०। [मिथ्यात्वस्योत्कृष्ट : स्थितिबन्धः सप्ततिसाग रोपमकोटी कोट्यः ] यहां कोष्ठकगत [...] यह सन्दर्भ यहाँ निश्चित ही दोनो संस्करणों में छूट गया है । (घ) सोलसहं कसायाणं उक्कस्सगो ठिदिबधो बसलीस सागरोवम कोडाफोडीम्रो । ष० ख० सूत्र १, ६-६, १३ षोडशकषायामुत्कृष्ट: स्थितिबन्धश्चत्वारिंशत् कोटीको सागराणा [ सागरोपमानाम् ] वही वृति० । मांगे इस वृत्तिगत उत्कृष्ट स्थिति से सम्बद्ध प्रसंग का यथा -क्रम से षट्खण्डागम के इन सूत्रो से शब्दश मिलान किया जा सकता है- १६, १६, २२२६, ३०, ३३, ३६, ३६, ४२ (मा० प्र० स०२, पृ० ३१५ व ज्ञा० पी० २, पृ० ३७७-७८ ) (क) यहाँ वृत्ति में नपुंसकवेद को लेकर नोवगोत्र पर्यन्त उत्कृष्ट स्थिति को प्रगट करते हुए 'अयश कीर्ति' के आगे 'निर्माण' का उल्लेख रहना चाहिये था, जो नही हुआ है। प्रकान्त (ख) इसी प्रकार आहारकशरीरागोपांग और तीर्थंकर प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण करते हुए प्रारम्भ में 'आहारक शरीर' का भी उल्लेख किया जाना चाहिये था, जो नही किया गया है। प्रस्तुत वृत्ति में इस उत्कृष्ट कर्मस्थिति प्रसग के आगे यह कहा गया है सर्वत्र यावन्त्य. सागरोपमकोटी कोट्यस्तावन्ति वर्षशतान्याबाधा । कर्मस्थितिः कर्मनिषेक.। येषा तु अन्त - कोटी कोट्य. स्थितिस्तेषामन्तर्मुहूर्त आबाधा । आयुषः पूर्वकोटिनिभाग उत्कृष्टाबाधा, आवाधानां (ज्ञा० स० १. यह पाठ अशुद्ध दिखता है उसके स्थान मे कदाचित् ऐसा पाठ रह सकता है वाधा, कर्मस्थितिः कर्मनिषेकः ।' - इसका अभिप्राय यह होगा कि आयु कर्म के निषेक आधाधाकाल के भीतर उत्कर्षण-पण आदि की बाघा से रहित होते है, अर्थात् अबाधाकाल के भीतर उसकी निषेक स्थिति में उत्कर्षण आदि के द्वारा बाधा पृ० ३७८ 'आवाधोना') कर्मस्थितिः कर्मनिषेक इति । इस प्रसंग का मिलान यथाक्रम से षट्खण्डागम के इन सूत्रो से कर लीजिये तिणि वाससहसाणि आबाधा सूत्र १, ६-६, ५ ( पूर्व सूत्र ४ से सम्बद्ध) प्राबाघूर्णिया कम्मद्विवी कम्मणिसेश्रो । सूत्र १, ६ ६, ६ व ६, १२, १५, १८, २१, ३२३५, ३८ और ४१ । आहारसरीर श्राहारसरीरगोवंग - तित्ययररणामामुक्कगोद्विविधो अंतोकोडाफोडीए तोमुत्तमावाधा। सूत्र १, ६-६, ३३-३४ । रिया- देवाउबस्स उनकस्सओ दिउदिबंधोते तीसं प्रावाधा, सागरोमाणि पुव्यकोडितिभागी धावाधा कम्मद्विवी कम्मरिगसे। सूत्र १, ६-६, २२-२५ । यहां उपर्युक्त वृति मे धावु से सम्बद्ध 'आबाधोना ( मा० प्र० स० 'आबाघाना' ) कर्मस्थितिः 'कर्म स्थितिकर्मनिषेक" का अनुवाद नहीं किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि आयु कर्म के आबाधाकाल के भीतर अपकर्षण उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण के द्वारा उसकी निषेक स्थिति में कुछ बाधा नहीं होती, जिस प्रकार कि ज्ञानावरणादि अन्य कर्मों के आबाधा काल के भीतर अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण के द्वारा निषेक स्थिति में बाधा होती है। देखिये षट्खण्डागम सूत्र १, ६-६, २४ और २८ (०६, पृ० १६६ और १७१) । इसके आगे इसी वृत्ति में यह प्रसंग प्राप्त है जो शब्दश धवला से समान है एकेन्द्रियस्य पुनमिध्यात्वस्योत्कृष्टः स्थितिबन्ध एक सागरोपमम् । कषायाणा सप्त चत्वारो भागाः । ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तराय सातावेदनीयामुत्कृष्ट स्थितिबन्धः सागरोपमस्यत्रयः सप्तभागाः । नाम गोत्र- नोकषायाणां सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ ।' (क्रमशः ) नही होती, जिस प्रकार की बाधा ज्ञानवरणादि अन्य कर्मों की निषेक स्थिति मे सम्भव है। २. देखिये घवला पु०, पृ० १६४-६५, भागे जो वृत्ति में एकेन्द्रिय द्वीन्द्रियादि की उत्कृष्ट स्थिति से सम्बन्धित अंकदृष्टि दी गई है वह भी यहां धवला में तदवस्थ है । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरसा से प्राप्त जैन मतियाँ 0 विद्यासागर शुक्ल रिसर्च स्कोलर हरियाणा के पश्चिमी भाग में स्थित सिरसा पुरातत्व 'यक्षी' तथा गोमुख 'या' तीर्थंकर ऋषभदेव प्रथवा की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसका प्राचीन आदिनाथ के पार्श्व देवता हैं। इस प्रकार यह मूर्तिनाम शोरीषक था जिसका उल्लेख अष्टाध्यायी, महाभारत आधार आदिनाथ की मूर्ति के लिए अभिप्रेत था। तीर्थंकर एवं दिव्यावदान में आया है। यह एक महत्वपूर्ण नगर रहा आदिनाथ मूर्ति के इस आधार पर अंकित तथा अलकृत था जिसके अवशेष सिरसा नगर के समीप विस्तृत क्षेत्र में बस्त्रासन बड़ी कुशलता से प्रदर्शित किये गये हैं । इस मूर्ति फैले हुए हैं। यहां से मिट्टी, शिल्प तथा धातु से बनी अनेक आधार को शैली आधार पर नवीं-दसवीं शती में रखा जा प्रकार की मूर्तियां उपलब्ध हुई है जिनमे से कुछ मूर्तियां सकता है। सिरसा से तीर्थकर मूर्ति का एक अन्य आधार जैन धर्म से सम्बन्धित है। सिरसा प्राचीन काल मे जैन काले पत्थर का मिला है जो इस समय पुरातत्व संग्रहालय, धर्म का केन्द्र रहा था जिसकी पुष्टि हमे वहां से प्राप्त कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय मे है। इस पर तीर्थकर की मूर्ति कलावशेषों से होती है। ये कनावशेष कानक्रम की दृष्टि बैठी हुई रही थी। यह आधार त्रिरथ आकृति सदृश है से ८वी शती से १२वी शती के हैं। इनमे दिगम्बर तथा जिसके सम्मुख भाग पर धर्मचक्र, हिरण और सिंह अंकित श्वेताम्बर दोनों जैन सम्प्रदायों की स्थिति पर भी प्रकाश हैं। बीच में शंख का चित्रण है तथा उसके नीचे एक पड़ता है। आकृति मध्य में बनी रही थी जो पर्याप्त घिस गई है। सिरसा के समीप ही सिकन्दरपुर गाव मे एक लघु इसकी पहिचान कर सकना कठिन है। इसके साथ ही एक सीध में कुछ बैठी हुई अति लघुकाय आकृतियां भी बनी काय तीर्थकर मूर्ति का सिर प्राप्त हुआ है जो इस समय है । इस मूर्ति मे तीर्थंकर का लांबद (शख) दिखलाये जाने कुरुक्षेत्र संग्रहालय, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र के संग्रह से इस मति की पहिचान बाइसवें तीर्थकर नेमिनाथ से मे है। इसमे सिर सकुचित अलकावली से आवत है। यह करना उचित होगा।' उक्त मूति वास्तव में विशाल आकार आठवी शती की मूर्ति का भाग है। हरियाणा पुरातत्व की रही थी। ऐसा प्रतीत होता है कि इसे मन्दिर के गर्ने विभाग, चण्डोगढ़ के संग्रहालय में एक जैन मूर्ति का गृह मे स्थापित किया गया था। शैली के अनुसार यह आधार संग्रहीत है ।' मूर्ति का यह आधार और उस पर नवी-दसवी शती ईसवी में रखा जा सकता है। खड़ी (अथवा बठो) मूर्ति दोनो अलग-अलग निर्मित हुए थे। इस आधार के मध्य में सामने अलकृत आसन लटकता दिखलाया गया है। उसके नीचे बीच मे (धर्मचक्र) तथा दो सिरसा की अन्य तीर्थकर मतियां छोटे आकार की हिरण तथा सिंह अकित है। पार्श्व में बायी ओर चतुर्भज है। शैली को दृष्टि से ये १०वी-११वी शती को हैं । इनमे चक्रेश्वरी बैठी हुई दिखलाई गयी है। उनके अतिरिक्त तीर्थकर को ध्यान-मुद्रा में कमलासन पर बैठे दिखलाया दाहिने हाथ मे चक्र तया उनका सामान्य हाथ अभय-मुद्रा गया है। दूसरी मुर्ति जो संगमरमर की है, में ध्यान-मुद्रा में है।' इस आधार के दाहिनी ओर बृषभ-सिर युक्त एक मे बैठे तीर्थकर के साथ दो आकृतियां खड्गासन मे खड़ी हाथ में पप लिए ललितासन-मुद्रा में एक पुरुष आकृति अधोवस्त्र पहने दिखलाई गई है। इनको वस्त्र पहने आसीन है। यह गोमुख यक्ष का अकन है। चक्रेश्वरी दिखलाये जाने से स्पष्ट है कि ये मन्य देवो से ही Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६, कि०४० अनेकान्त संबंधित रही थी। सिरसा के अतिरिक्त संगमरमर की जन राजस्थान में बनी थी जहां से लेकर सिरसा तया अन्य मूर्तियां पिंजौर से भी प्राप्त हुई हैं। ये मूतियां मूलतः प्राचीन स्थलों पर निर्मित जैन मंदिरो में रखा गया था। सन्दर्भ-सूची १. शुक्ल, एस. पी, स्क्लप्चर्स एण्ड टेराकोटाज इन दि ५. भट्टाचार्य, बी० सी०, उपरोक्त पृ० ३५ आयिलाजिल म्यूजिम, कुरुक्षेत्र, १९८३, पृ०५३, ६. संख्या ७२, १२३, ७२-१४० दृष्टव्य शुक्ल, एस० प्लेट ४७.३ पी०, उपरोक्त, पृ० ५५, प्ले० ५० । २. यह मूर्ति अभीमप्रकाशित है। ७. नेमिनाअ के लाछन (शल) और शासन देवता गोमेद ३. चक्रेश्वरी को भादिनाथ की यक्षिणी के रूप मे यक्ष तथा यक्षिणी अम्बिका का उल्लेख जैन अथो मे गरुड़ासीन दिखलाया जाता है। जैन ग्रंथो के अनुसार मिलता है। जैन परम्परा के अनुसार वह कृष्ण तथा उनकी मूर्तियां चतुर्भुजी, (अष्टभुज) तथा द्वादशमुखी बलराम के चचेरे भाई माने जाते है। महाचार्य, बननी चाहिए। चतुर्भुजी मूर्ति के दो हाथों मे चक्र बी० सी०, उपरोक्त, पृ० ५७-५८ ।। होना चाहिए। भट्टाचार्य, बी. सी. दि दि जैन ८. शुक्ल, एस० पी० उपरोक्त पृ० ५४, प्लेट ४६ । आइकोनोग्राफी, १९७४ (पुनर्मुद्रण), पृ० ८६.८७ ६.सिंह, यू० वी०, पिजोर स्क्लप्चर्स कुरुक्षोत्र, '६७२, ४. जैन ग्रंथो के अनुसार (गोमुख) (यक्ष ब अभयमुद्रा अक्षमाला और पाश के साथ वृषभ सहित दिखलाया प्राचीन भारतीय इतिहास सस्कृति बहुपाठक जाता है। (भट्टाचार्य, बी० सी०, उपरोक्त, पृ० ६७. कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय ६८१ वृषभ-सिर दिखलाया जाना प्रतीकात्मक है। हरियाणा-१३२११६ वृषभ को धर्म का प्रतीक माना जाता है। 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त श्री बाबूलाल जैन, २, अन्सारी रोड, दरियागज नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता--भारतीय प्रकाशन अवधि-त्रैमासिक सम्पादक-श्री पप्रचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय मुद्रक-गीता प्रिटिंग एजेसी म्यू सीलमपुर, दिल्ली-५३ स्वामित्व-धीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ में बाबूलाल जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है। बाबूलाल जैन प्रकाशक Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्तन के लिए: सिद्धा ण जीवा-धवला ले० पपचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली विमर्श : विधामतो भवति तत्तस्येति वदन्ति तद्विव इति न्यायात् । ज्ञात होता है कि धवलाकार की दृष्टि मे 'जीव' और तत्तो जीवभावो औदइओत्ति सिदं। तच्चत्ये जं जीवभावस्स 'चेतन' दोनों मे भेद है। वे जीवत्व भाव को औदयिक होने परिणामियत्तं परविदं तं पाणधारणतं पडुच्च ण परुविवं, से संसारावस्था तक सीमित मानते है और औदयिक होने किंतु चेदणगुणमबलविय तत्थ परूवणा कवा । तेण तं पिण से ही कर्म-रहित अवस्था मोक्ष मे उसका प्रवेश नही मानते विरुइ।'-धव. पु. १४/५/६/१६/१३ इसीलिए उन्होंने जीवत्व का परिहार कर 'सिद्धा ण जीवा' कहा है और तत्वार्थ सूत्र की प्ररूपणा को चेतन के गुण 'आयु आदि प्राणों का धारण करना जीवन है। वह के अवलम्बन से स्वीकार किया गया माना है-'चेवरण- अयोगी के अन्तिम समय से आगे नही पाया जाता, क्योंकि गुरगमवलम्बियपरुविवं।' इससे यह भी सष्ट होता है कि सिखों के प्राणो के कारणभूत आठों कर्मों का अभाव है। जीव व सिद्ध दोनो चेतन की दो पर्याय है--- अशुद्ध-पर्याय इसलिए सिद्ध जीव नहीं है, अधिक से अधिक वे जीवित. 'जीव' है और शुद्ध पर्याय 'सिद्ध है। हमने इसी बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। पाठको के अवलोकनार्थ पूर्व कह जा सकते है। 'धवला' का अंश भी दे रहे है। शका-सिद्धों के भी जीवत्व क्यों नहीं स्वीकार किया हमने अपने लेख में 'धवला के कथन की पुष्टि का जाता है? दृष्टिकोण रखा है और अन्य मान्यताओ का विरोध न करने का भी ध्यान रखा है। हम विषय समझने और अन्य और समाधान-नहीं, उपचार में सत्यता का अभाव मान्यताओं से सामंजस्य बिठाने के लिए अन्य मान्यताओं के होने से। विषय में भी लिखने का विचार रखते हैं। ताकि विषय सिद्धों मे प्राणों का अभाव अन्यथा बन नहीं सकता, स्पष्ट हो। हम आशा करें कि हमारे लेख को किसी इससे मालूम होता है कि जीवत्व पारिणामिक नहीं है। मान्यता-विरोध में न लिया जाएगा। किन्तु वह कर्म के विपाक से उत्पन्न होता है, क्योंकि, 'जो उद्धरण: जिसके सद्भाव और असद्भाव का अविनाभावी होता है वह 'आउ आदिपाणाण धाणं जीवण । तं च अजोगि- उसका है, ऐसा कार्य-कारण भाव के ज्ञाता कहते हैं ऐसा चरिमसमयादो उवरि त्थि, सिद्धेसु पाणणिबधणटुकम्मा- न्याय है। इसलिए जीवत्वभाव औदयिक है, यह सिद्ध होता भावादो। तम्हा सिद्धा ण जीवा जीविदपुव्वा इदि। है। तत्त्वार्थ सूत्र में जीवत्व को जो पारिणामिक कहा है सिद्धाणं पि जीवत्तं किण्ण इच्छिज्जते ? ण उवयारस्स वह प्राणों को धारण करने की अपेक्षा से नहीं कहा है, समचत्ताभावादो। सिद्धेसु पाणाभावण्णहाणुववत्तीदो जीवत्त किन्तु चेतन के गुण की अपेक्षा से वहां वैसा कथन किया श पारिणामियं, किंतु कम्मविवागज, यद्यस्य भावाभावानु. है, इसलिए वह कथन भी विरोध को प्राप्त नहीं Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, बर्ष ४०, कि.. अनेकान्त होता। हैं, जो अग्नि और जल की भिन्नता की पहिचान कराते गतांकों में हमने धवला जी के उक्त कथन 'सिद्धा ण- हैं। इसी मांति जब हमें जीवत्व और सिद्धत्व दोनों के जीवा: की पुष्टि में जो कुछ लिखा है, वह मान्य प्रतिष्ठित, लक्षण अलग-अलग मालुम पड़ जाएंगे तब हम सहज में प्रामाणिक आचार्य के कथन की अपेक्षा को हृदय में श्रद्धा जान जाएंगे कि सिद्ध क्यो और किस अपेक्षा से जीव नही करके ही लिखा है और आज भी उसी विषय को उठा रहे हैं? फलत:-पहिले हम जीव के लक्षण को लेते हैं और है-'सिया ण जीवा।' इस लक्षण में किन्ही आचार्यों को मत-भेद भी नही है सभी ने तत्वार्थसूत्र के 'उपयोगो लक्षणम्' को स्वीकार उक्त कथन का तात्पर्य यह नहीं कि सिद्ध भगवान किया है। इसका अर्थ है कि-जीव का लक्षण उपयोग है। अजीब, जड़ या अचेतन हैं। सिद्ध तो सिख हैं, विकसित जिसमें उपयोग हो वह जीव है और अन्य सब जीव से वेतन संबंधी अनंतगुणों के कालिक धनी हैं, शुद्ध चेतन वाह्य हैं। अब हमें यह देखना है कि वह उपयोग क्या है ? स्वभावी हैं, अविनाशी-अविकार परमरसधाम हैं। अतः जो जीव में होता है या होना चाहिए? इस विषय को भी प्राचार्य-मत में हमने उन्हें (कल्पित, पराश्रित और हम आचार्य के वाक्यो से ही निर्णय में लाएं कि उ होंने बिनाशीक प्राणाधार पर आश्रित, लौकिक और व्यवहारिक) उपयोग का क्या लक्षण किया है ? वैमाविक 'जीव' सझा से अछता समझा है। हमारा प्रयोजन चेतन के नास्तिस्व करने से नहीं है। यतः हम यह भी उपयोग (जीव का लक्षण): जानते हैं कि यदि हम जीव का मूलतः नाश मानेंगे तो हम १. 'स्व-पर प्रहरण परिणामः उपयोग' हो कैसे जीवित रहेंगे? यदि रहना भी चाहें तो हमें यहां -धवला २/१/१, जी० कां० ६७२ के लोग रहने क्यों देंगे? जबकि 'सिद्धा ण जीवा' जैसी -स्व और पर को ग्रहण करने वाला परिणाम बाचार्य की एक बात मात्र कहते ही उन्होंने, वस्तुस्थिति उपयोग है। को समझे बिना ही हमें बंटना शुरू कर दिया हो ! अस्तु; २. 'मार्गरणोपाय ज्ञान-दर्शन सामान्योपयोगः' संस्कार जो हैं। -गो० जी० जी० प्र०२/११/११ सभी जानते हैं कि लक्षण एक ऐसा निर्णायक माप है -मार्गण (खोज) का उपाय ज्ञान-दर्शन सामान्य जो दूध और पानी के भेद को दिखाने में समर्थ है। आचार्यों उपयोग है। ने लक्षण का लक्षण करते हुा लिखा है-'परस्पर व्यति- ३ उमयनिमित्त वशात्पद्यमानश्चतन्यानुविधायिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्' अर्थात् जिस हेतु परिणामः उपयोग'-सर्वार्थ २/८ के द्वारा बहुत से मिले हुए पदार्थों में से किसी भिन्न --अंतरग वहिरग निमित्तों के वश से उत्पन्न होने जातीय पदार्थ को पृथक रूप में पहिचाना जाता है, वह हेतु वाना चैतन्यानुकूल परिणाम उपणेग है। उस पदार्थ का लक्षण होता है। जैसे अग्नि का लक्षण वरपरिणमित्तो जादो भावो जीवस्स होवि उपयोगों' उगत्व और जल का लक्षण शीतस्व। दोनों के लक्षण ऐसे -गो० जी० ६७२ पं० सं० प्रा० १/१७५ *नोट-उक्त सबंध मे 'षटखडागम' के भाषाकार विद्वान-त्रय (डा. हीरालाल जी, प नचंद जी शास्त्री तथा प० थालचंद जी शास्त्री) द्वारा संपादित प्रनि में लिखा है-'यद्यपि अन्यत्र जीवत्व; भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक मानकर इन्हें अविपाकज जीवभाववन्ध कहा है पर ये तीन भाव भी कर्म के निमित्त से होते हैं इसलिए यहाँ इन्हें अविपाकज जीवभाववन्ध में नहीं गिना है" षटख. पुस्तक १५, विषयपरिचय । यदि वे इसका खुलासा कर देते तो समस्या हल हो जाती कि ऐसा भेद क्यो? पर, यह समस्या हल होविद्वानों का इधर ध्यान जाय इसलिए प्रयास प्रारम्भ किया है। -लेखक Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धा मनीषा-धवला २१ -वस्तु निमित्त उत्पन्न जीव का भाव उपयोग पाए जाते हैं, उनमें से सिबों में एक भी घटित नहीं होता। होता है। फलत -जीव और सिर को एक श्रेणी का मानना युक्ति५. 'लब्धि निमित्तं प्रतीत्य उत्पद्यमान प्रात्मनः परिणामः संगत नहीं ठहरता । उपयोग इत्युपविश्यते'-त. रा. वा० २/१८/१-२ आगमो में उपयोग के लक्षण इस भाति और भी (आवरण कर्म के क्षयोपशम रूप) लब्धि के अवलम्बन मिलते हैंसे उत्पन्न होने वाले आत्मा के परिणाम को उपयोग १. यत्सनिधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिवृत्ति प्रति व्याप्रियते कहते हैं। तम्निमित आत्मनः परिणामः (प्र. मी. परिणाम. उक्त सर्व कथन उपयोग सबंधी हैं और उक्त सभी विशेषः) उपयोगः (सर्वा० सि. २/१८, लक्षण जिसमें हों वह जीव है ऐसा मानना चाहिए । अब प्रमाणमी०१/१/२४) प्रश्न यह है कि क्या उक्त लक्षण सिद्धो भी पाए जाते २. बाह्याभ्यन्तरहेतुद्वयसनिधाने यथासभवमुपलब्धुपये. हैं? जिनके आधार पर उन्हें जीव कहा जा सके ? जब हम तन्यानुविधायी परिणाम उपयोग:(त० वा० २/८/२१) विचारते हैं तो सिद्धो मे (न०१)-स्व और पर का ३. उपयोगो ज्ञानादि व्यापार. स्पर्शादिविषयः (त. भा० विकल्प ही नही दिखता और जब विकला नही तब उनके हरिः ३० २.१०) स्व-पर के ग्रहण का प्रश्न ही नही उठता, जो उनके उपयोग ४. उपयोजनमुपयोगो विवक्षिते कर्मणिमनसोऽभिनिवेश माना जा सके। (नन्दो० हरि० पृ० ६२) (नं० २)-जब सिद्धो में मार्गणा से प्रयोजन नही- ५. अर्थग्रहणव्यापार उपयोग: (प्रमाण 10 व० ६१, उनमें मार्गणाएं भी नही तब उनमे मार्गण (खोज) के उपाय लवीय० अभयव० १/५) की बात कहां? ६. तन्निमित्तः आत्मन. परिणाम उपयोगः, कारणधर्मस्य (न० ३)-स्वभाव और स्वाभाविक दशा मे निमित्त कार्ये दर्शनात् (मूला. वृ० १/१६) का प्रश्न ही नही, तब उपयोग कैसे सभव होगा ? फिर ७. उपयोगस्तु रूमादिविषयग्रहण व्यापारः ( प्रक० निमित्त तो सदा वैभाविक में पाया जाता है। मा० २/५ (नं०४)-सिद्ध कृत-कृत्य हैं उनमें वस्तु के ग्रहण का ८. जन्तो वो हि वस्त्वर्थ उपयोग: (भा० स० वाम ४०) ६. उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति जीवोऽनेन इत्युपयोग भाव ही संभव नही, तब उपयोग कहाँ ? षडशीति-मलय० वृ० १..) (मं० ५)-सिद्धो में कर्म ही नही तब क्षयोपशम जन्य उपयोग के जक्त लक्षणो में एक भी ऐसा नहीं दिखत लब्धि को निमित्त बनाकर परिणाम होने की बात ही पैदा जो चेतन की अशुद्ध अवस्था (जीव) के सिवाय, चेतन की मही होती। ऐसे में उपयोग होने का प्रश्न हो नहीं । शुद्ध अवस्था 'सिद्ध' पर्याय मे पाया जाता हो। क्योंकि ये अपितु इससे तो यही सिद्ध होता है कि क्षोपशम को सभी लक्षण चेतन के पराश्रितपने को इंगित करने वाले हैं। निमित्त बनाकर उत्पन्न परिणाम (उपयोग) संसारी ऐसे लक्षणो के सिवाय यदि कहीं किन्ही आचार्यों ने उपयोग मात्माओं (जीवों) में ही होता है । कहा भी है के लक्षण का ज्ञान-दर्शन के रूप में उल्लेख कर भी दिया ___ क्षयोपशम निमित्तस्योपयोगस्येन्द्रियत्वात्। न । हो तो उसे कारण में कार्य का उपचार ही मानना चाहिए । क्षीणाशेषकर्मसु सिद्धेषु भयोपशमोऽस्ति' और व्याख्याओं से उसे समझ लेना चाहिए। जैसे -धवला १/२/३३ पृ० २४८ 'उवयोगो रणागवंस मरिणवो' --क्षयोपशमजनित उपयोग इन्द्रियों पूर्वक होनेसे । वह -प्रव० मा० २।६३-६४ उपयोग क्षीण सम्पूर्ण कर्मों वाले सिद्धो में नहीं है। 'मात्मनो हि पर-द्रव्य-संयोगकारणमुपयोग विशेषः इस प्रकार जो लक्षण जीव के बताए और जीव में उपयोगो जीवस्य पर-द्रव्यसंयोगकारणमशुद्धिः । सा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, ब ४०, कि.१ अनेकान्त तु विशुद्धिसंक्लेशरूपोपरागवशात् शुभाशुभत्वेनोपात्त लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होति ॥' विष्यः'-टीका (श्री अमृतचन्द) ६३-६४ -निय० सा० ७२ वास्तव में ज्ञान-दर्शन ये लक्षण चेतना के हैं, उपयोग के ४. 'णवि इदियकरणजुदा अवगहादीहिं गाहिया भत्थे । नहीं हैं। उपयोग तो विकारीभाव है और विकारी (संसारी) व य इंदियसोक्खा अणिदियाणंदणाणसुहा ॥ चेतना में ज्ञान-दर्शन के अवलम्बन से उत्पन्न होने से (कारण ५. 'शुद्धात्मोपलम्भलक्षणः सिवपर्याय:।' में कार्य का उपचार करके) उपयोग को दो प्रकार का कह प्र० सा०/ता० १० १०/१२/६ दिया है (देखें-उपयोग क्या) १. सिद्धआत्मा आठ प्रकार के कर्मों से रहित, शान्त' उपयोग के उक्त लक्षणो के सिवाय ये लक्षण भी देखिए पए कर्मकालिमा रहित, नित्य, अष्टगुणयुक्त, कृतकृत्य श्रय कीजिए कि क्या सिद्धो में उपयोग है जो उन्ह और लोकापवासी हैं। 'जीव' श्रेणी मे बिठाया जा सके ? २. जो अष्ट कर्मक्षय होने से शुद्ध है, अगरीर हैं, अनंत१. 'स्व स्थलब्ध्यनुसारेण विषयेषु यः प्रात्मनः । सुख और ज्ञान में स्थित है, परम प्रभुत्व को प्राप्त है वे व्यापार उपयोगाल्यं भवेदमावेन्द्रिय च तत् ॥' सिद्ध है और निश्चय से वे ही सिद्ध हैं। -लोकप्रकाशे० ३ ३. जिन्होंने अष्टकर्मबंधों को नष्ट कर दिया है, जो २. 'उपजोगो रणाम कोहादिकसाहि सह जीवस्स परम आठ गुणो से समन्वित हैं, नित्य है और लोकाग्र मे संपयोगो।' जयधवला, (देखे करायपाहड, कलकत्ता स्थित हैं, वे मिद्ध ऐसे होते हैं। पृष्ठ ५७६) ४. वे सिद्ध इन्द्रियो के व्यापार से युक्त नहीं है अपनी (क्षयोपश) लब्धि के अनुसार विषयो मे आत्मा और अवग्रहादिक क्षयोपशम ज्ञान के द्वारा पदार्थो को का व्यापार उपयोग है और वह भावेन्द्रिय है। ग्रहण नही करते हैं। उनके इन्द्रिय सुख भी नहीं है, क्योकि क्रोधादि कषायों के साथ जीव के सम्प्रयोग होने को उनका अनन्त ज्ञान और अनतसुख अनीन्द्रिय है। उपयोग कहते है। मोह की सत्ता में ही उपयोग होता है ५. सिद्ध-पर्याय शुद्धआत्मोपलब्धि लक्षणवाली है। और वह सिद्धों मे नही है। ऊपर दिए गए सभी लक्षण, जो सिद्धों के हैं, उनमें इसी भांति अब हम सिद्धों के लक्षण देखें और उनसे देखा जाय कि कौनमे ऐसे लक्षण हैं जो संसारी (जीव नामजीव की तुलना करें कि कहीं ऐसा तो नही कि जो लक्षण धारी) अशुद्ध आत्माओं में प्रक्ट है जिनसे उनकी सिद्धो से सिद्धो के है, वे जीवो में खरे उतरते हो, जिससे जीवों और एकरूपता सिद्ध हो सके ? हमारी दृष्टि से तो उक्त लक्षणों सिद्धो को एक श्रेणी का मान लिया जाय ? फलत:- यहाँ के प्रकाश मे एकरूपता के स्थान पर जीवों और सिद्धों सिदों के स्वरूप पर विचार करते है। दोनों में सर्वथा-सर्वथा वैषम्य ही है। जीवों में आठो कर्म सिद्ध स्वरूप : विद्यमान हैं, उनमे आठों गुणो की प्रकटता नही है, वे शान्त आचार्यों ने सिद्धो के सबंध में कहा है नहीं हैं, कर्मकालिमा रहित नहीं हैं, उनकी जीवत्व पर्याय १. 'अविह कम्म वियता सीदीभूदा णिरजणा णिच्चा।। नित्य नही है, कृतकृत्य नहीं हैं और लोकान में अशरीर अट्टगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धाः ।।' रूप में विराजमान भी नही हैं। इसके विपरीत-जीव मे -जी० कां० ६८/५० सं० १/३ १४ गुणस्थान, चार गति, पांच इन्द्रिय, काय, योग, वेद, २. गट्ठट्ठकम्मसुद्धा असरीराणंतसोक्खणागट्ठा। कषाय, लेश्या, भव्यत्व, संजित्व, और आहार है-वे सिद्धो परमपहुत्तंपत्ता जे ते सिद्धा हु खलु मुक्का ।।' में नहीं है। छह पर्याप्तियों में से सिद्धों में एक भी पर्याप्ति -नयच० वृ० १०७ नही है, प्राण नही है, चार संज्ञाएं नहीं हैं। ऐसे में जब सिद्धों 1. 'णठ्ठठ्ठकम्मबंधा अट्टमहागुणसमपिणया परमा। के लक्षण जीव में नही और जीवों के लक्षण हो में ही Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धा रण जीवा - धवला तब ऐसा ही मानना चाहिए कि मान्य धवलाकार का मत सर्वथा ठीक और ग्राह्य है- 'सिद्धा ण जीवाः ।' औपशमिकादि भाव: ( जीव के भाव ) : जीवों के औपशमिकादि पांच भाव कहे है। उनमें से धवलाकार के मन्तब्यानुसार 'जीवत्व' आयुर्माचित होने से औधिक भाव है, यह सिद्धों मे नही और ओपशमिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक भाव भी उनमे नही है । शेष बचे नव- केवल-लब्धि रूप क्षायिकभाव । सो नव लब्धियो में से क्षायिकदान (दिव्यध्वनि रूप में) क्षायिक लाभ (आहार लिए बिना ही दिव्य अनत पुद्गलों के आदान रूप मे) क्षायिक भोग (पुष्पादिवृष्टि रूप में) और क्षायिक उपभोग (अष्ट प्रातिहार्य रूप में अरहंतो मे है और केवल ज्ञान, केवलदर्शन व सम्यक्त्व तथा वीर्य भी कर्मों की क्षय अपेक्षा में सशरीरी अरहन्तो के वलियो तक ही सीमित है । सिद्धो के तो सम्ययस्य अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व अव्यावाघत्व और अनतवीर्यादि सभी गुण सर्वया ही पर-निरपेक्ष, स्वाभाविक और अनंत है, उनमें किसी भी पर-भाव की अपेक्षा नही है । आचार्य श्री उमास्वामी और अन्य टीकाकारों ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि अन्यत्र केवल सम्यक्त्व ज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः' सूत्र ' में 'केवल' शब्द अन्य भावो के परिहार के लिए है (किसी गुण के विशेषण बनने के लिए नही) 1 सूत्र का अर्थ है कि अपवर्ग मे सम्यवश्व, ज्ञान, दर्शन और सिद्धत्व क सिवाय ( इनके सहचारी भावो को छोड़कर) अन्य भाव नहीं होते। तथाहि - 'अन्यत्रशब्दो वर्जनार्थः ' तन्निमित्तः सिद्धत्वेभ्य इतिविभक्ति निर्देशः -- २१० वा० १०/४/९ । फलत :-- - जीव बौर सिद्धो मे एकत्व स्थापित करना सभव नही । अत: - ' सिद्धा ण जीवा' कथन ठीक है । चेतन आत्मा का गुण (चेतनत्व) : आगमो मे उपयोग लक्षण के सिवाय एक लक्षण और 4 २३ 1 मिलता है और धवलाकार ने उसका भी सकेत किया है और वह है चेतन का गुण --चेतना । ( मालुम होता है आजाद ने चेतना को चेतन का गुण माना है और जीव का गुण गुण जीवत्व ही माना है जिसे वे औदयिक मान रहे है) यहाँ चेतना से ज्ञानदर्शन अपेक्षित है प्रतीत होता है कि उक्त लक्षण आत्मा के आत्मभूत लक्षण को दृष्टि मे रखकर किया गया है और धवला के 'चेदणगुणमवलम्ध्रविदमिदि' की पुष्टि करना है । तथा पूर्वोक्त 'उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्च तम्यानुविधायी परिणामः उपयोग लक्षण आत्मा के अनात्मभूत लक्षण को दृष्टि मे रखकर किया गया है। इनमे अनात्मभूतलक्षण का लक्ष्य कर्मजन्य जीवत्वपर्याय है, जो कर्मजन्य होने से छूट भी जाती है जबकि चेतना र विकासी आरमभूत लक्षण आत्मा की शुद्ध अशुद्ध दोनो पर्यायो में रहता है । मालूम होता है उपयोग के अनात्मभूत लक्षण को लक्ष्य कर ही आचार्य ने कहा है - 'संसारिणः प्राधान्येनोपयोगिनो मुक्तेषु तदभावात् ' ससारी प्रधानता से उपयोग वाले है, मुक्तों में उसका अभाव होने से । 1 उपयोग-दार्थोऽपि संसारिषु मुनयः परिणामातरसक्रमात् । मुक्तेषु तवभावात् गौररा कल्प्यते ।'राजवा० २/१०/४-५- उपयोग पदार्थ भी संसारियो मे मुख्य है, परिणामो से अन्य परिणामो मे संक्रमण करने से मुक्त हुओ मे अन्य परिणाम सक्रमण का अभाव होने से उपयोग गौण कल्पित किया जाता है। स्मरण रहे कि अनात्मभूतलक्षण में परिणामान्तरत्व है और वह ससारियो ( जीवो) तक सीमित है जब कि सिद्धो मे अनन्तदर्शन- ज्ञान युगपत् होने से परिणामापने का अभाव है। वहाँ अनारमभूत उपयोग का कोई प्रश्न ही नहीं। अन्यथा यदि उपयोग के उक्त अनात्मभूत लक्षण और आत्म फ 'अनंत प्राणिगणानुग्रहकर सकलदानान्तरायसक्षयादभयदानम् ।' कृत्स्नस्य भोगान्तरायस्य तिरोभादाविर्भूतो पंचवर्णसुरभि कुसुमवृष्टि-विविधदिव्यगन्ध-चरण निक्षेपस्थानसप्तपद्मपक्ति-सुगन्धित धूप सुखशीतमारुतादयः ......” निरवशेषयोपभोगत रायकर्मणः प्रयात्.. सिंहासनवालव्यजनाशोक पादपश्य प्रभामंडल गम्भीरस्निग्धस्वरपरिणाम देवदुंदुभिप्रभृतयः । श्रादि- राजवा० | २/४/२५, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४, वर्ष ४० कि० १ भूत रूप चैतन्य लक्षण में अभेद होता दोनो को एक माना गया होता (जैसा कि प्रचलित है- ज्ञानदर्शन ही उपयोग है तो आचार्य भावेन्द्रिय के लक्षण में लब्धि (ज्ञान) और उपयोग इन दो शब्दों को पृथक्-पृथक् नहीं देते और ना ही उपयोग के लक्षण मे लब्धि को उपयोग (परिणाम) का निमित्त कारण ही बताते । स्मरण रहे कि निमित्त सदा स्व से भिन्न होता है । दूसरी बात चेतना का अनात्मभूत लक्षण -- उपयोग क्षयोपशमादिजन्य होने से मात्र संसारियो (जीवों) में ही होता है। नित्य और शुद्ध चेतन आत्मा में नहीं होता । बनेकाल ऐसा भी प्रतिभासित होता है कि आत्मा के उक्त अशुद्ध और शुद्ध जैसे दो प्रकारोके परिचय कराने हेतु श्लोक वातिककार ने भी विधान किया है। वे लिखते है - निश्चय ही चैतन्यमात्र उपयोग नही होता, जिसे जीव का लक्षण माना जाय अपितु उसके साथ कर्म के अयो: शमादिजन्य चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोग होते है। यानी जीव मे चैतन्य (आत्मा का व्यापकगुण) और व्याप्य जैसे चैतन्यानुविधायी परिणाम दोनो होते है तथा प्रधान ( शुद्ध आत्मा जिसे हम सिद्ध नाम से कह रहे है) में केवल चैतन्य होता है; चैतन्यानुविधायी परिणाम नहीं होते। इस प्रकार जीव और सिद्ध दोनो में त्रमश:- हेतुद्वय होने और न होने जैसे भिन्न-भिन्न दो विकल्प है। उक्त सदमे मे मालूम होता है कि मोक्षमार्ग प्रसग में 'जीव' नाम का जो सकेत है, वह मात्र चेतन ( आत्मा ) की अशुद्ध दशा को लक्ष्यकर जीवअर्थात् ससारी को क्रमबद्ध तत्वों के परिज्ञानार्थ है और क्रमवद्ध मोक्षमार्ग दिग्दर्शन मात्र में है, क्योंकि अशुद्ध को ही शुद्धि की ओर जाना होता है-शुद्ध तो स्वय वर्तमान में शुद्ध है ही, उसे सबोधन की क्या आवश्यकता ? -- 'अत्र हिन चैतन्यमात्रमुपयोगो यतस्तदेव जीवस्य लक्षण स्वात् कि हि ? चैतन्यानुविधायी परिणामः स चोपलब्धुरात्मनो न पुनः प्रधानादेः चैतन्यानुविधावित्या ऽभावप्रसंगात् । - न चासावहेतुको वाह्याभ्यन्तरस्य च नोयोपासनुपात्तविकल्पस्य सन्निधाने सति भावात् ।' - श्लोक वा० २ / ८ उपयोग के बारह भेद : शास्त्रों में उपयोग के जो बारह भेद कहे गए हैं वे कर्मों की अपेक्षा में, वतन के अनात्मभूत लक्षण को दृष्टि में रखकर किए गए हैं। क्योंकि उपयोग क्षयोपशम जन्य अवस्था में ही संभव है और सिद्धों में उसकी संभावना नहीं सिद्धों में जो केवलदर्शन और केवलज्ञान का व्यपदेश है, वह असहाय दर्शन ज्ञान के भाव में है- उपयोग के भाव में नहीं । अन्त भगवन्तों में भी जीवत्व के कारण, उपयोगरूप में व्यपदेश उपचार मात्र है । वास्तव में तो शुद्ध चैतन्य अभेद है, उसमें जो मतिज्ञान आदि जैसे भेद दर्शाए गए है वे कमपेक्षित दशा के सन्दर्भ में ही है और उनके निमित्तान्तरोत्पन्न विभिन्न नामकरण भी परस्पर में एक दूसरे में भेद दर्शाने की दृष्टि से ही किए गए हैं पृथव बताने को किए गए हैं---वे सब भेद परापेक्षित ही है। सिद्धों के स्वाश्रित होने से वे असहाय अन शुद्ध ज्ञान दर्शन के धनी है उनमें ज्ञान दर्शन तो है पर, क्षयोपशम जन्य जंसा उपयोग नही है । और उपयोग न होने से वे जीव श्रेणी मे भी नही है । फलत:'सिद्धा ण जीवा' कथन उचित है। - इतना ही नहीं। राजपातिककार ने तो जीव के लक्षण उपयोग को इन्द्रिय का फल तक कह दिया है इन्द्रियल मुपयोगः । - २ / १८/३ और कारण धर्म में कार्य की अनुवृत्ति मान ली है। ऐसे मे जब उपयोग इन्द्रियजन्य फल है तब वह फल अतीन्द्रिय अशरीरी सिद्धों में कहाँ से कैसे पहुच गया? जो उन्हें उपयोग लक्षणवाले जीवों में बिठाया जाने लगा । यदि 'इन्द्र' शब्द के आत्मवाची रूप से यथाकथचित् इन्द्रिय शब्द भी माना जाय, तो जहां चेतन का स्वरूप स्वाभाविक और कल्पनातीत है वहां फल मानने की कल्पना कोरी कल्पना खर-विषाणवत् ही होगी । धवलाकार तो पहिले ही कह चुके हैं कि क्षयोपशमजन्य उपयोग इन्द्रियजन्य है, वह सिद्धों में नहीं है।' देखें पहला० १०१.३३, फलतः सिद्धा ण जीवा' यह आचार्य का वाक्य सर्वथा युक्ति-सगत है और ठीक है। --- Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धा ण जीवा-धवला एक समाधान : आदि कर्मों से सबधित है -मात्रपुद्गल से सबधित नही । यद्यपि आयु के सबध से जीवत्व' मानने का पुद्गल और कर्मपुद्गलो में क्या भेद है इसे सभी जानते हैं। राजवातिककार ने आपत्ति उठाकर खण्डन । कया है और अत: सष्ट है कि धवलाकार अपनी दृष्टि में ठीक है'जीव-ज' को परिणामिक मानने की पुष्टि की है जीवत्व को दयजन्य* है और इसीलिए 'सिद्धा ण जीवा' 'प्रायुर्व व्यापेक्षां जीवत्व न पारिणामिकमितिचेत्, न जमा कथन युक्ति-सगत है। पुदगलद्रव्य बंधे सत्यन्यदव्यसामर्थ्याभावात ।' ॥३॥---- स्यादेतत् - प्रायु व्योदयाज्जीवतीति जीवो नानादि पारि. __ संसारी और मुक्त : । न उठता है कि यदि धवलाकार आचार्य क न मे गामिकत्वादिति; तान, कि कारण? पुद्गलद्रव्यसंबधेसत्य 'सिद्ध भगवान् जीव-सज्ञक नही तो आचार्य ने जीवो के न्यद्रव्यसामर्थ्याभावात् । प्रायहि पौदगलिक द्रव्यम् । यदि संमारिणोमुक्ताश्च' जैसे दो भेदो से समन्वय कसे बिठाया? तत्सबधाज्जीवस्य जीवत्व स्यात्; नवेवम यद्रव्यस्यापिधर्मादेरायुः संबधाज्जीवत्व स्यात् ।" - T० बा० २.७१३ इस विषय मे हम ऐसा समझ पा है कि --जहां तक जीव सज्ञा या जीवत्व का प्रश्न है, आचार्य इमे औदयिकभाव उनका कहना है कि आयु पोद्गलिक द्रव्य है जन्य मानते है और वह औदयिक होने मे ही सिद्धो मे सभव यदि पोद्गलिकद्र के सबध मे जीवत्व माना जायगा नही। हां, जहाँ आचार्य ने उक्त प्रसग से जीव और जीवत्व तो अन्य धर्म-अधर्म आदि द्रव्यो मे भी जीवत्व मानना क.ा निषेध किया व यह भी कह दिया है कि चेतन के गुण पड़ेगा (क्योकि उन व्यों से पृद्गलो का सदाकाल सबंध को अवलम्बन कर प्ररूपणा की गई है। इससे विदित होता रहता है) है कि आचार्य की दृष्टि शुद्धत्वाश्रित रही है और इस यद्यपि उक्त तक ग्रोर गमाधान प्रामाणिक प्राचार्य का प्ररूपण मे उन्होने चेतन के गण को मूल स्थाई मानकर उसे है और ठीक होना चाहिए, जो हमारी समझ में बाहर जीवत्वपर्याय और मिद्धत्वपर्याय जैसे दो भागो मे बांटा है-इसे विद्वान विचारे । तथापि हम तो ऐमा समझ पाए है है। चतन की गर्व कर्मरहित अवस्था सिद्धपर्याय है और कि उक्त तक जीवत्व' के औयिक भाव, होने को निरस्त कर्म सहिन चेतन की अवस्था (कर्मजन्य होने से) जीवकरने मे कमे भी ममर्थ नही होगा ? यत ---उक्त प्रमग के पर्याय है और जीव-संज्ञा समारावस्था तक ही सीमित अनसार धर्म आदि द्रव्यों में जीवत्व आ जाने जैसी आपत्ति है...-अन्य आचार्यों की मान्यता जोग? इसलिए नहीं बननी कि जिस पुद्गलद्रव्य मात्र के सबध से अकल कस्वामो धर्म आदि द्रव्यों में जीवत्व लाने जैमो यदि कथचित् हम जीवो म भी संसारी और मुक्त आपत्ति उठा रहे हैं, वह पद्गलद्रव्यमात्र के सबध की __ पोजने लगे और वह इसलि · कि ये जीवो के ही भेद कह बात घचला . IF के मत में मेल नहीं पाती। अपितु गए है। तो हम इस पर विचार कर सकते है कि छास्थधवलाकार वे मत मे वह मात्र पृद्गल द्रव्य ही नही बल्कि जीव ममारी और केवलज्ञानी जीव मुक्त कहे जा सकते है । पुद्गलकार्माण वर्गणाप्रो मे - पायपूर्वक (फलदान की शक्ति क्योकि अगहन्त जीव है और वे चेतनगुणघाती चार घातिय। को लिए हुए) स्थिति रूप में आत्मा से बन्ध को प्राप्त आय कर्मों से मुक्त हो चुके है - उन्हे आत्मगुणो को पूर्ण प्राप्ति नाम का एक कर्मविशेष है, जो कि चेतन में ही सभव है, हो चुकी है, उन्हें मकल-परमात्मा और जीवनमुक्त धर्म आदि अचेतन द्रव्यो मे उसकी (इन द्रव्यो क अचेतन कहा ही गया है। यहाँ जीव-मुक्त का अर्थ जी। होने से) सभावना ही नही। फलतः उनमे जीवत्व आ जाने होते भी मुक्त है -सा लेना चाहिए। शेष चार की शका करना अशक्य है। फिर, उदय क्षय, क्षयोपशम, अघातिया कर्म तो जली रस्सी की भाँति अकिचित्कर - 'आऊदाणजीव। एव भात सवण्हू ।' कुनकुन्द, गमयसार- २५-२५२ 'जीवित हि तावज्जीवाना स्वायुकोदयनैव' - अमृतचन्द्रश्चायंवही Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ बर्ष ४०, कि०१ बनेकान्त हैं उन कर्मों की स्थिति शरीराश्रित होने मात्र है, और है। इन दोनों पर्यायो में लक्षणभेद (जैसा ऊपर दिखाया) वे अग्नि में तप कर शुद्ध हए स्वर्ण के ऊपर उभरी से भेद है : यतः हर जीव मे दम प्राणो मे न्यूनाधिक प्राण हुई उस विटकालिमा की भांति है जिसका स्वाभाविक रूप है। यहाँ तक कि विग्रह गति में भी यह जीव काय प्राण से से झडना शेष हो--जो स्वय झटके में झड जाती हो-- अछूता नहीं-वहाँ भी तंजस और कार्माणरूप काय-प्राण सुवर्ण में पुन: विकार न कर सकती हो। मोक्ष मे जिन्हे विद्यमान है। आचार्य के मन्तव्य के प्रकाश में यह सिद्ध 'मुक्तजीव' नाम से कहा जा रहा है, वे मुक्त चेतन है। होता है कि-कर्मोदयाश्रयी-औपपाधिक जीव-जीवत्वसज्ञक जीव-पर्याय की तो उस अवस्था तक पहुंच ही नही है। जैसे दोनों नाम और भाव स्थायी नहीं-कर्म-सत्ता पर्यन्त उक्त सभी कथन से ऐसा न समझना चाहिए कि मूल- है और सर्व-कर्मों के विच्छेद को प्राप्त चतन्य-प्रात्मा सिद्धतत्व मे भेद हो जायगा या कमी-वेशी हो जायगी। यह तो सिद्धत्व संशक है। आचार्यों की कथनशैली और व्यापक-चिन्तन का परिणाम नयों की सीमा : है, नाम बदलाव है। 'जीव या जीवत्व' न कहा 'चेतन या स्मरण रहे-नय वस्तु के एक देश को ग्रहण करता चेतनत्व' कह दिया शुद्ध पर्याप को 'मुक्तजीव' न कहा है। जिस समय एक नय उभरता है तब दूसरा नय मोन 'सिद्ध' कह दिया। मूल तो रहा ही। सब अपेक्षा दृष्टि है। स्थिति मे बना रहता है-उभर कर समक्ष आए और गोण द्रव्य का लोप नहीं: किए गए किसी तत्त्वाशका अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। हम यह पुन: स्पष्ट कर दे कि हम अपना कुछ नही भाव ऐसा है कि नय द्वारा किए विवेचन मे द्रव्य के गुणो लिख रहे, आचार्य की दृष्टि समझने का यत्न ही कर रहे और पर्यायो को पूग ग्रहण न किया जाने से उस विवेचन है। मालुम होता है कि आचार्य की दृष्टि मे 'सदद्रव्य- को पूर्ण नही माना जा सकता-जैसा कि लोक-व्यवहार लक्षणम्', गुण-पर्ययवद्रव्यम्' और 'नित्यावस्थितान्य- बन गया है-'अमुक नय से ठीक है और अमुकनय से ठीक रूपाणि' तीनों सूप रहे है और उन्होंने तीनों की रक्षा की नहीं है।' यदि एक नय से ही सर्वथा अर्थ का ग्रहण या है। वे चेतन के चैतन्य गुण की पिकाली सत्ता को स्वीकार ज्ञान हो जा सकता होता तो प्रमाण की आवश्यकता ही न कर उसे सत् और नित्य बनाए रहे है और कर्म-जन्य रह जाती? फलत. जहाँ भी वस्तु का विवेचन नयाधीन हो, जीवत्व पर्याय को 'सिद्धत्व' रूप में स्वीकार कर परिवर्तन वहां दोनों नयो के दृष्टिभूत पूर्ण तत्त्व को एक साथ लेकर भी मानते रहे हैं। और पहिले लेख में हमने भी बार-बार चलना चाहिए । उदाहरणत:संज्ञा के बदल व की ही बात लिखी है-किसी मूल के ध्वस 'तिक्काले चदुपाणा इंदियवलमाउ प्राणपाणोय। की नहीं। यत.-हमारा लक्ष्य आचार्य को समझना है, व्यवहारासो जीवो णिच्चयरायदोदुचेदणा जस्स ॥' जनता मे वितण्डा करना नही । यदि किसी पिता ने किसी अर्थात जिसमे प्राण हो उसे व्यवहारनय से और जिसमे कारणवश अपने बेटे का नाम विजय से बदलकर संजय कर चेतना हो उसे निश्चयनय से जीव कहा है। इसमे न केवल लिया, तो क्या उस बदलाव से मूल बेटे का लोप हो गया? पवहार से कहा गया पूर्ण जीव है और न केवल निश्चय जो ना समझी मे उसकी माँ रोने चंठ जाय और स्थिति को से कहा गया पूर्ण जीव है अपितु दोनो को मिलाकर कहा न समझ, नाम बदलने वाले को कोसने लगे ? गया जीव है। यानी जीव मे एक काल मे प्राण भी है और रमरण रहे आचार्य जीवत्व को शुद्धतत्त्व मानकर नही चेतना भी है। यदि अकेले प्राण ही जीव का लक्षण हो या चले अपितु उन्होने चेतन की अशुद्ध पर्याय-जीवत्व को अकेली चेतना ही जीव का लक्षण हो तो नयाधीन होने से औदयिक पर्याय और शुद्ध चतन्य को 'सिद्धत्व' रूप में देखा यह पदार्थ को एकपक्षीय (अधूरी) ही पकड होगी*-जब 'प्रमाणपरिगृहीतायैकदेशे वस्त्वध्यवसायो न ज्ञानम्, तत्र वस्त्वध्यवसायस्यापितवस्त्वशे प्रशितानपित वस्त्वशस्य प्रमाणत्वविरोधात् । किं च न नयः प्रमारणम्, प्रमाणव्यपाश्रयस्य वस्त्व५वतायस्य तद्विरोधात् । भिन्नकार्यदृष्टेर्वा न नयः प्रमारणम् ।'- १६६ -जयधवलासहिदेकषायपाडे पेज्जदोसविहत्ती १ गाथा १३-१४ पृ० २०० Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ सिता नजीबा-बवला कि दोनों ही नय स्वतंत्र रूप से एक देश को ही ग्रहण करते आत्मा शब्द का प्रयोग : हैं और पदार्थ अपने मे पूर्ण होता है और पूर्ण पकड़ नय के मोक्ष और मुक्त मे क्या अन्तर है यह तो हम बाद में वश की बात नहीं। फलतः पूर्णवस्तु-ज्ञान के परिप्रक्ष्य में कभी लिखेंगे । हो हमने मोक्ष प्रसंग में आचार्यों के कई ऐसे दोनों नयो-प्राह्य लक्षणो को समकाल मे मानना ही यूक्ति मन्तव्य देखे है, जिनमें चैतन्य आत्मा की शुद्ध अवस्था होने संगत है और आचार्य ने भी एक साथ ही दोनों नयो द्वारा का उल्लेख है, (कही जी। की अबस्था का निर्देश हो तो जीव का लक्षण किया है-जो प्रमाणभूत है और इस भांति हमें मालुम नही) तथाहिजीब में प्राण और चेतना दोनो ही एक साथ में मानना निरव शेषनिराकृतकर्ममलकल कस्याशरीरस्यात्मनोऽचि. युक्ति सगतहै-जीव में दोनो लक्षण एक साथ होने ही त्यस्वाभावविक ज्ञानादिगुणमव्यावाधसुखमात्यन्तिकमचाहिए और है तथा उक्त भाव लेने से गाथा में गृहीत । वस्थान्तरं मोक्ष इति ।'--सर्वा० : प्रारम्भिक 'तिक्काले' की मगति भी बैठ जायगी। अन्यथा 'तिक्काले चदुपाणा' मे 'तिक्काले' का क्या भाव है ? यह भी सोचना 'जीवह मो परमुक्खु मुणि, जो परमप्पय लाहु। पड़ेगा। सिद्वो मे तो केवल एक चेतना मात्र है। इस भांति कम्मकलक विमुक्काह, पाणिय बोल्लहिं साहु ॥ धवला का 'सिद्धा ण जीवा' युक्ति सगत और ठीक है। परमात्मलामो मोक्षोभवतीति . . . . . . . . . . . . ...। -परमात्म०१३६ उपयोग क्या? 'कृत्स्नकर्मवियोगेसति स्वाधीनात्यन्तिक ज्ञानदर्शनाचलते-चलते इस प्रसग मे हम एक बात और स्पष्ट नुपमसुख प्रात्मा भवति ।-त. रा० वा. १ २० कर दें कि उपयोग के उक्त लक्षणो के प्रकाश से उपयोग 'मव्वम्म कामणो जो खयहेद् अप्पणो हु परिणामो।' का अर्थ मात्र शुद्ध ज्ञान या शुद्ध दर्शन मात्र जैसा नही -द्रव्य० ३७ ठहरता अपितु उपयोग 'आवरणकर्म के क्षयोपशम 'आत्मबन्धयोद्विधाकरणं मोक्षः ।। निमित्त को पाकर होने वाले चैनन्यानुविधायि परिणाम' -समय आत्मख्याति २८८ का नाम होता है। इस उपयोग मे अशुद्ध चेतना (ज्ञान- 'निर्मला निष्कल. शान्तो निष्पन्नो उत्यन्तनिवृत्तः । दर्शन) कारण है और उन कारणों से होने वाला परिणाम कृतार्थ. साधु वोधात्मा पत्रात्मा तत्पदं शिवम् ॥' उपयोग है और वह उपयोग दो प्रकार के अवलवनो से -ज्ञाना० श होने के कारण दो प्रकार का कहा गया है-ज्ञानोपयोग इसके मिवाय द्रव्य-संग्रह के मोक्षाधिकार में 'आत्मा' और दर्शनोपयोग । जो उपयोग ज्ञानपूर्वक होता है वह शब्द की भरमार है, जीव शब्द की नही । शायद जीव का ज्ञानोपयोग और जो दर्शनपूर्वक होता है वह दर्शनोपयोग परिहार करने या आत्मा और जीव मे भेद दर्शाने के लिए कहलाता है और इस प्रकार मतिज्ञानादि के निमित्त से होने ही ऐसा किया गया हो अन्यथा प्रारम्भसे जीव को प्रमुख वाले उपयोग उस उम ज्ञान के नाम से मतिज्ञानोपयोग करके व्याख्यान करने के बाद, मोक्षाधिकार मे उसकी आदि कहलाते है और चक्ष आदि पूर्वक होने वाले उपयोग उपेक्षा क्यो? देखे - अत्मा के निर्देश-द्रव्य-सग्रह गाथा, चक्षुदर्शनोपयोग आदि नाम मे कहे जाते है। इमी प्रकार ३६, ४०, ४१ ४२, ५०, ५१, ५२, ५३ और ५६ आदि। के उपयोग जीव के लक्षण है और इस प्रकार के उपयोग जीव में ही होते है, सिद्धो में नही। इसीलिए जीव के मूलतत्त्व क्या? लक्षण मे दहा गया है-'उपयोगो लक्षणम् ।' भाव ऐसा विचारना यह भी होगा कि जिस जीव तत्त्व को मोक्ष है कि जहाँ चेतना उपयोग रूप हो वहाँ जीव संज्ञा है और क्रम मे मूल मानकर चला जा रहा है वह 'जीव' मूल तत्व है या मोक्षमार्ग दर्शन के प्रसग मे चेतन की अश जहाँ चेतना शद्ध-ज्ञान-दर्शन रूप हो वहाँ 'सिद्ध' संज्ञा है और इसी धवनाकार ने कहा है-सिद्धा ण जीवाः।' ससारी अवस्था ? या उनके मूल मे कुछ और बैठा है? Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८, वर्ष ४०, कि० १ अनेकान्त यदि उसके मूल में कुछ और बैठा है तो मूल तत्त्व 'जीव' चेन-चेतनत्व शब्द व्यापक हैं और जीव-जीवत्व शब्द कैसे होगा? वहाँ तो जो बैठा है वह ही मूलतत्त्व होगा--- व्याप्य (संसार तक मीमित) है। आचार्य की दृष्टि मेंमूल तत्त्व वह होगा जिसके कारण जीव 'जीव-संज्ञक है । इस औदयिक होने मे 'जीवत्व' नश्वर है और चेतन कालिक प्रसंग में इस प्रश्न का समाधान अपने में कीजिए कि वह सत्तावान है। इसीलिए आचार्य ने चेतन के गुण को जीवत्व के कारण जीव है या जीव होने के कारण से उसमें प्रमुखता देकर जीवत्व का परिहार किया है और इसी जीवत्व है ? हमारी दृष्टि से तो जीवत्व होने के कारण परिप्रेक्ष्य में कहा है---'सिद्धा ण जोवा ।से उसकी जीव संज्ञा है न कि जीव संज्ञा पहिले और जीवत्व बाद में है। यदि जीवत्व के कारण से जीव तो क्या अशुद्ध को श्रद्धा सम्यग्दर्शन है ? जीवत्व के औदयिक होने से जीव-सज्ञा भी नश्वर ठहरती है। यदि हमाग कथन ठीक हो तो मूलतत्त्व चेतन, अचेतन । उक्त प्रसग को लेकर किसी ने हमारा ध्यान इस ओर (जैगा कि प्राचार्य की अभीष्ट है) ही ठहरेगे और जीव. भी खीचा कि यदि 'जीवको चेतन की अशुद्ध पर्याय जैसा नाम कर्म-जन्य और व्यवहार मे आया हुआ रूप ही मानेंगे तो सा ग्दर्शन के लक्षण में सात तत्त्वो के श्रद्धान में ठहरेगा। फलत:- जीव के सबध मे, आगम के परिप्रेक्ष्य जीव (अशुद्ध पर्याय) का श्रद्धान क्यो कहा? क्या अशुद्ध मे जिसे 'गुणपर्ययवद्रव्यम्' लक्षण से कहा गया है, वह का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है ? प्रश्न तो नित है; म मल-द्रव्य चेतन- -आत्मा है और 'जीव' व 'सिद्ध'दो उसकी इस विषय मे ऐमा ममझे है किपर्यायें है और 'जीवत्व व सिद्धत्व' उनके गण हैं। इसीलिए मोक्षमार्ग के प्रसग मे भेद-विज्ञान को प्रमुखता दी गई 'चेदणगुणमवलम्बिय परुविद' ऐसा कहा है और इसी चेतन है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान भी बिना भेद-विज्ञान के का शुद्धरूप 'सिद्ध' है, फलत:-'सिद्धा ण जीवा ।' कथन नही होते । स्व मे स्व-म । और पर में पर-रूप से श्रद्धा व ठीक है। ज्ञान करने से सम्यग्दर्शन दि होते है। जहाँ ने वल एक (शुद्ध या अशुद्ध) ही है। वहाँ भेद-विज्ञान कैसा? किसका फिर यह भी सोचिए कि जब जीव से जीवत्व और और किसमे ? मोक्षमार्ग की खोज भी क्या होगी? अE: चेतन से चेतनत्व शब्दो की मगति उपयुक्त हो, तब जीव मे जीवादि के श्रद्धान व ज्ञान नो हो मोक्षमार्ग कहा है। जीव कर्मोदयजन्य जीवत्व जैसी उचित सगति को त्याग कर, मे चेतन 'स्व' है और विकारी भाव 'पर' है. --इनसे ही जीव में विषम-शब्द चेतनत्व की सगति बिठाना और भेद-विज्ञान मध मकेगा और मोक्षमार्ग बन सकेगा। इसके कहना कि-- जीव का गुण चतनत्व है, कहाँ तक उनित अतिरिक्त जो मोक्ष हा चुके है जिन्हे मार्ग की खाज नहीं, है-जब कि जीव का लक्षण उपयोग है और उपयोग उनम सम्यक्त्व 'अात्मानमति' के लक्षणरूप मे विद्यमान ही क्षयोपशमजन्य होता है। फिर-तब, जब कि जीव-जीवत्व, है-भेद-विज्ञान की अपेक्षा नही । ऐसी आत्माओं को चेतन-चेतनत्व जैसे दो पृथक्-पृथक नाम ओर गुण की लक्ष्यकर ही कहा गया है.---'मिद्धा ण जोवा ।'--- पृथक-पृथक रूप में प्रसिद्ध हो। हमारा कहना तो ऐसा है कि जीव का गुण जीवत्व है और चेतन का गुण चेतनत्व कर नागमदिर दि.२ है-दोनों पृथक-पृथक् नाम और पृथक्-पृथक गण है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा सोचिए १. अपरिग्रह को जीवित मूर्तियों की रक्षा : हमने पहिले इशारा किया था वह जीवित धर्म-मूर्तियों की अक्षुण्णता के मार्ग में था। हमने लिखा था-'मुनि श्री हमने कब कहा कि-जो विचार हम दें उन्हें लोग। के बहाने हम ऐसी किसी भी सस्था के खड़े करने के पक्ष माने ? तथ्य को न मानने का तो लोगो का स्वभाव जैसा मे नही, जिममे अर्थ संग्रह करने या उसके हिसाब के रखबन बैठा है। भला; जब लोगों ने तीथंकरो के बताए रखाव का प्रसंग हो। हम तो मुनि श्री को प्रचार के अपरिग्रह मार्ग की अवहेलन कर उस मार्ग पर अनुगमन । साधनों-टेगरकार्डर, माइक, बीडियो और मच आदि से न किया, परिग्रह जुगने मात्र में लगे रहे, नब हम सि भी दूर देना चाहते हैं। हम चाहते है कि -मुनि श्री का खेत की मूली है, जो उन्हें अपनी बात मनवा सके ? खैर, घेराव न किया जाए। यदि उनमे कुछ धर्मोपदेश सुनना हो लोग मानें न माने. फिर भी हमे तो अपनी बात कहना हो तो उनके ठहरने के स्थान पर जाकर ही सुना जाय । है, अस्तु । हम अपरिग्रह के विषय को ही आगे बढ़ा रहे है मुनि श्री का जयकारा करना कराना उन्हें समूह की ओर और पुनः लिख रहे हैं कि यदि लोग परिग्रह-परिमाण न खींचना उन्हे मार्ग से च्यून करने जमे मार्ग है। इनसे माधु कर सकें तो न करे; पर, अपरिग्रह को जीवित मूर्तियो को का अह बढ़ता है, यलिप्सा होती है, राग-रजना होती है, तो तीर्थकर मार्ग पर चलने दे, उनको मार्ग से व्युत करने और वह जिसके लिए दीक्षित हआ है उस स्व-साधना से के साधन तो न जुटाएँ । स्मरण करे कि-वह कौन-मी वचित रह जाता है, पर-सुधार के चक्कर में पड़ जाता है : शुभ घडी रही होगी जब उन्होने परिग्रह से मुंह मोड, इस आदि। दिशा मे पग बढाया होगा -नग्न होकर परीषह सहने और अभी-अभी हमे एक पत्र मिला है जो एक प्रतिष्ठित ममत्व-त्याग के भाव में कच-लोंच किया होगा। यदि हम सभ्रात जाता का है और जो मुनिभक्त भी हैं। पाठक उन्हें आदर्श-मनि, यागी बने रहनेमे साधन बन सकें, उन्हें आज ती गोधनी बन गई है? शिथिल न करने जैसे साधन जुटाते रहे, तो जिन-धर्म का लिखनेअपरिग्रही--वीतरागी मुनि-मार्ग सदा-सदा अक्षुण्ण रह "अब तो त्यागीवन्द (क्षुल्लक ब्रह्मचारी आदि) नईसकेगा तथा उसके सहारे लोग भी जैनी बन या बने रह नई मस्थाएं बनाते जा रई तथा किसी मुनि के साथ सकेगे। रहकर उनके नाम और प्रभाव से खब च दा बटोरते हैं : मानव बडा स्वार्थी बन गया है। अपने स्वार्थपूर्ति के लोग तो कहते है कि घर को भी भेजते है. संघ में जो भार्ग मे कुछ लोग अन्यो की गरिमा या उनके पदो तक का मचालिका नाम के जीव है, वे चौके लगाती हैं, पाहार ख्याल नही करते। जैसे भी हो वे उनमे मासारिक भोगो दान वसूल करती है और उनके चौके में जो आहार देना की कामना रखते हैं दि० त्यागियो को भी घेरे रहते है और चाहे वे २१/= या ३१/--- अपित कर सकते हैं।" उन्होंने वहाँ भी अपनी यश-प्रतिष्ठा कायम रखना चाहते है, यह भी लिखा है कि उन्होंने "जो बातें लिखी और कही हैं आखिर क्यो न हो? वे भी तो उन्ही स्वार्थी मानवो में से वे सुनी हई नही, आखो देखी हैं अत: सूर्य की धूप की तरह हैं, जिन्हें मानव संवोधन देते भी लज्जा आती है। भला, सत्य है" वे लिखते हैं हमारे कुछ मान्य विद्वान् इन सब कहाँ का न्याय है कि लोग अमानवीय कृत्य करते रहे, बातों को अनदेखी करने के पक्ष में हैं, वे उपगहन पर तो मान्यों और पूज्यों को गिराने के साधन जुटाते रहे और जोर देते है किन्तु न जाने क्यो, स्थितिकरण के लिए मानव कहलाएं ? प्रयत्नशील नहीं होते।' Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०, वर्ष ४०, कि.. अनेकान्त हम उक्त पत्र का नम्बा-चौड़ा का उत्तर निते? आगे की पीढ़ियाँ अवश्य ही अपना मुंह छिपा अपने को हमने तो उनसे साधारण निवेदन कर दिया कि-आश्चर्य जैन लिखना तक बन्द कर देंगी, ऐसी सम्भावना है । पडितों है कि आप अब अभी भी ऐसे लोगों को मान्य-विद्वानों जैसे और त्यागियों को ही यह श्रेय प्राप्त है, जिसके कारण आज संबोधित कर रहे हैं, जब कि वे ऐसे कृत्य करके न मान्य धर्मक्षेत्र मे साधारण से साधारण व्यक्ति भी सरेआम सिर रहे और ना ही विद्वान् । यदि वे मान्य-विद्वान् होते तो उठाकर 'जैन धर्म की जय' बोलता नजर आता है। स्थितिकरण के लिए प्रयत्नशील होते। पर, होते कैसे? वरनाशायद स्थितिकरण मे उनकी दक्षिणा और चन्दा-चिदा के हमें वह ममय भी याद है और देखा है-जब जनियों मार्ग की प्रति हो जाती होगी,-अवश्य ही वे अर्थी होंगे। को सरे-आम नास्तिक कहा जाता था और बात-बात मे मुनि के मूनि पद मे स्थितिकरण होने पर मनि उनको ललकारा जाता था कि वे ग्राने धर्म के सिद्धान्तों की दक्षिणा और उनके चन्दा-चिट्ठा मे कैसे सहायी हो सकते। प्रमाणिकता सिद्ध करें। और जैनी थे, कि अपने को पग-पग अस्तु ! उक्त बातें धर्म-रक्षा में कहाँ तक समर्थ हो सकती है? पर सहमा-सहमा जैसा महसूस करते थे -निराश होते थे। जरा सोचिए ! ऐस में पंडितो के एक संगठन की ही सूझ-बूम और हिम्मत थी, जिसने अपने स्वार्थों को ताक में रख जगह-जगह २. विद्वानों को रक्षा और वृद्धि : शास्त्रार्थ करके धर्म का उद्योत किया और जैनियो को चैन पंडित और मसालची, ये समान जगमांहिं । की साँस लेने के योग्य बनाया । यदि सबूत लेना है तो औरत को दें चाँदना, आप अंधेरे माँहि ।।' पूछिए-परलोक पे जाकर स्व० प० मंगलसेन जी वेदउक्त दोहा हमे किसी ने लिखा है। हमे सतोष है कि विद्या-विशारद से, प० राजेन्द्रकुमार जैन से, प० किसी ने तो वास्तविकता को समझा। वरना, इधर तो अनितकुमार शास्त्री से, प० तुलसीराम जी काव्यतीर्थ से निम्न दोहे का अनुसरण करने वाले ही अधिक संख्या में प. चैनसुखदास न्यायतीर्थ से और वीधूपुरा-इटावा के दिखते हैं ब्र कुंवर दिग्विजय सिंह जी आदि से और मध्यलोक में 'करि फुनेल को आचमन, मोठो कहत सराहि ।' जाकर पूछिए -दि. जैन सघ मथुरा की फायलों से (यदि और तब हम सोचते है-- हो तो) कि कैसे समय पर पडितो ने धर्म-रक्षा और प्रभावना 'रे गन्धी मति-अध तू अतर दिखावत काहि ।' के लिए क्या किया? स्व. गुरुवर्य प० गोपाल दाम वरया हां, यह बिल्कुल ठीक ही तो है कि मसालची और व स्व०प० मक्खनलाल जी मुरैना से भी जाकर पूछिए । सच्चा पति दोनो को उदारता की समता नही - दोनो ही जब विश्वनाथ नगरी काशी मे जैन-ग्रन्थो का सरे आम स्व-लाम न लेकर दूसरों को लाभान्वित करने में अपना अपमान होता था, तब पडित-त्यागियो ने क्या किया, और आथितो का पूरा जीवन तक बेवसी और भटकन मे उन्होने कमे जैन आगम की रक्षा और महत्ता-प्रकाश का गुजार देते हैं और फिर भी उन्हे भत्स्ना के सिवाय कुछ मार्ग खोला ? यह पूछना हो तो स्वर्ग मे जाकर पूछिए नही मिलता। सच भी है, जब वे मति-अध गंधी की भांति पू० क्ष० प. गणेशप्रसाद जी वर्णी, बाबा भागीरथ जो अपनो ज्ञान-रूपी गन्ध अनाडियो में बांटते फिरें, तब नतीजा वर्णी से और पूछिए वहाँ के बाद के कार्यकर्ता ब्र०सीतल प्रसाद तो यही होना था। जी से। कि कैसे इन सबने वहाँ विद्या के अध्ययन के लिए हमने किसी से कहा था कि जिस दिन समाज के बीच 'स्याद्वाद महाविद्यालय खोला? स पंडित और त्यागी उठ जाएंग (पडित तो प्रायः उठ रहे हम फिर लिख रहे हैं कि-अपने श्रावक पद की हैं और त्यागियो को कुछ श्रावक उठाने के जवरदस्त गरिमा रखिए, त्यागियो को परिग्रह के चक्कर मे न फँसाइए प्रयत्न मे हैं) उस दिन समाज को कोई नही पूछेगा । आज और उनके नाम पर नाजायज लाभ भी न उठाइ।। फिर, जो लोग गवं से अपने को जैन घोषित कर रहे हैं, उनकी वह लाभ यश सबधी हो या अर्थ-सबधी ही क्यों न हो? Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा सोचिए दोनों ही लाभों के लोभ का त्याग करिए। विद्वानो की लिखने की आवश्यकता नही और इसे लोग जानते भी वृद्धि और रक्षा करिए, त्यागियो का स्थितिकरण करिए हों, शायद उनमें चि.ता भी व्याप्त हो कि कैसे और किस और जो शुद्ध है उन्हें शुद्ध रहने दीजिए और निम्न दोहे के प्रकार तोर्थक्षेत्र आज धर्म क्षेत्र के रूप में सुरक्षित रह विषय मे गहराई से सोचिए, जरा ठण्डे दिल से सकेगे? कुछ तीर्थों पर तो पिकनिक नैसे वे सब साधन तक 'पंडित और मसालची ये समान जग-माहि । मिलने लगे है जो धर्म से सर्वथा वर और राग-रंग की ओर औरन को दें चाँदना आप अंधेरे माँहि ।।' आकर्षित करने वाले है। जैसे राग-रंग के बीडियो कैसिट, फिल्म, टी. वी० आदि । जहाँ उस काल में मुनियों ने ३. तीर्थ-क्षेत्र रक्षा : तपस्या करके-परीपह सहकर और श्रावकों ने घर से अल्पतीर्थ धर्म को कहते है ओर धर्म है वीतरागता व काल की विरति लेकर व्रत उपवास, पूजा-पाठ, धर्म ध्यान अपरिग्रहरूप । और क्षेत्र स्थान को कहते है जो है परिग्रह कर तीर्थ और क्षेत्र की रक्षा की वहां आज लोग क्षेत्र पर का एक भेद। कैसा बेजोड जोड़ द तीर्थ और क्षेत्र का? जाकर कूलर, हीटर, फ्रि। एयर कण्डीशन्ड कमरे और ऐसे बेजोड जोड़ का जोड़ बिठाना बड़ी हिम्मत का काम गृहस्थी के न जाने कौन-कौन से सासारिक सुख सजोने मे है और तीर्थकरो ने इसे बिठाया--क्षेत्र को भी तीर्थ रूप लगे है ? ऐसे मे कैसे होगी तीर्थ-रक्षा या कैसे होगी तीर्थकर दिया भूमि भी धर्मरूप में पूजा को प्राप्त हुई । क्षत्र क्षेत्र रक्षा ? यह टेढा प्रश्न है। हाँ, ऐसे में यह तो हो देव भी लोगो को तीर्थरूप मे अनुभूत हुए-वहाँ जाकर उनके सकता है कि हम परिग्रही लोग -परिग्रही नाम सार्थक भाव भी बदलने लगे। ठीक ही है-वह चन्दन ही क्या करने के लिए येन-केन प्रकारेण क्षेत्र (भूमि) की स्वजो अपनी बास से अन्यो को सुवासित न करे ? वरना, स्वामित्व हेतु-रक्षा कर सके, पर धर्म रक्षा तो उक्त तत्त्व-दृष्टि से तो यह कार्य अशक्य और असभव ही था- सभी परिग्रह मे ममत्व छोड़े बिना, परिग्रह परिमाण किए धर्म और परिग्रह (क्षेत्र) को एक साथ बिठाना, जो बिना सर्वथा असभव ही है। जबकि लोग परिग्रह तीर्थकरो ने किया। छोड़ना तो दूर-परिग्रह-परिमाण (वह भी थोड़े दिन का जब अर्से से लोगो ने तीर्थक्षेत्रो को रक्षा की बांग दी भी) करने को भी तैयार नही। ऐसे में हमारी दृष्टि मे तो है और आज यह कार्य जोरो पर है, तब उक्त स्थिति में ममत्व छोड़े बिना धर्मरक्षित नही और धर्म की अरक्षा हमे आचार्य समन्तभद्र का 'न धर्मो धार्मिकविना' याद आ । मे धर्मक्षेत्र की सच्ची रक्षा नही-क्षेत्र रूपी,(परिग्रह) की है। भला धर्मात्माओ के बिना धर्म कहाँ सुरक्षित रहा रक्षा भने ही हो जाय--अर्थ सचय भले ही हो जाय। है? धर्मरूप तीर्थकर, क्षेत्रो को धर्मरूप बना सके, सभी जानते हैं कि क्षेत्रो को तीर्थरूप प्रदान करने का परपरित मुनि-श्रावक तीर्थ और क्षेत्रों की रक्षा में समर्थ मूल श्रेय वीतरागता की मूर्ति पूज्य तीर्थंकरों व मुनियों को हए, पर, आज तो इन दोनो श्रेणियो मे हा आचार-विचार रहा है--उन्होंने त्याग-तप से भूमि को पवित्र किया; उसे दोनो भाँति हास है, तब धर्म और क्षेत्रो की रक्षा कैसे तीर्थ क्षेत्र बनाया। आज जब वीतराग देव का अभाव है होगी? यह गम्भीर प्रश्न बन गया है। हमारा ख्याल तो तब हमारी आँखे मुनिगण की ओर ही निहार रही हैं कि ऐसा है कि हम ससारियो के स्वभावत परिग्रही होन से जिस कार्य को आज केवल लक्ष्मी के बल पर संपन्न कराने हमारी दृष्टि भी मात्र परिग्रह (भूमि) पर ही केद्रित रह गई की चेष्टाएं की जा रही हैं, उस कार्य की संपन्नता मुनिगरण है और उसी के लिए हम प्रभूत धन-सग्रह में लगे हैं। द्वारा उहज-साध्य है । इन क्षेत्रो पर मुनिगण को (जैसा कि फलतः- हम धर्म से मुखमोड़ मात्र क्षेत्र (भूमि-भवन) की उन्हें चाहना भी चाहिए) शहरी दूषित कोलाहल से दूररक्षा हेतु उद्यमशील है और येन-केन प्रकारेण उसे ही स्व- आपाधापी से दूर --निर्जन एकान्त मे स्वयं की आत्मकब्जे में रखना चाहते है और उस तीर्थ--धर्म को भल साधना मिलेगी और क्षेत्र भी तीर्थ बने रह सकेंगे। यतःरहे हैं जिसके कारण क्षेत्र, तीर्थ क्षेत्र कहलाए । हमारी दृष्टि में तीर्थ रक्षा में प्रभून द्रव्य की अपेक्षा वहाँ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२, बर्ष ४०, कि०१ ऐसे नि:स्पृही आत्म-साधको की सदाकाल उपस्थिति अपेक्षित मिल सकेगा। हमने देखा-लोगों में आज आविष्कारों से है, जिनके परम-पूत चारित्र से चारो ओर धर्म तीर्थ सुरक्षित लाभ लेने का मोह इतना बढ़ गया है कि वे स्व-लाभ के हो सकें और यात्रीगण भी उनकी वैराग्यमयी मूर्ति व दिव्य लिए साधु को भी आविष्कारों की ओर खींचने में लगे वाणी से लामान्वित हो सकें। इस उपाय में तीर्थ और क्षेत्र हैं-कहीं माइक कही कैसिट और कही वीडियो, टेप को चारित्ररूपी ठोस स्रोत होगे जबकि लक्ष्मी की प्रामा- आदि : सोचे, इनसे साधु को स्व-लाभ है या परायों का णिकता की गारण्टी नहीं। कौन जाने, कब, कहां, और चक्कर ? । किसके द्वारा, किस प्रकार से उपाजित लक्ष्मी का उपयोग उस दिन की घटना है, जब स्थानीय मदिर मे एक तीर्थ को उतना न उबार सके ? हमारे सभी धार्मिक भावना दोपहर में एक वृद्ध आचार्यश्री प्रवचन कर रहे थे। एक वाले छोटे-बड़े सभी लक्ष्मीपति भी इस तथ्य को स्वीकार सज्जन बोले - पडित जी, महाराज जैसे वृद्ध है वैसे ही करते होगे और यदा-कदा शास्त्रो मे पढते-सुनते भी होगे ज्ञानप्रबुद्ध है-- पूरा आध्यात्मिक बोलते है, हृदय गद्गद् हो कि वीतराग मार्ग में लक्ष्मी भली नहीं। जाता है। पर, इनके दात न होने से वाणी स्पष्ट नही हमारी भावना है कि हमारे जीवित तीर्थ --मुनि- निकलती (जैसा महाराज भी बार-बार कह रहे थे) जिससे त्यागीगण घने-जनसकुल नगरो, कोठियो के दिख-दिखावे से लोगो के पल्ले अधिक कुछ नही पड़ता। यदि श्रोताओ के मुख मोड़, इन क्षेत्रों की ओर बढ़े। श्रावक उनकी तपस्या कल्याण के लिए इनके दांत बनवा दिए जायें तो बाणी के साधन जुटाएं ओर त्यागियो को अपनी ओर न खीच, स्पष्ट निकलेगी और लोगो को दन्त-आविष्कार-उपयोग उन क्षेत्रो पर जाकर उनकी वादना-पूजा-अर्चा करें। इस के फल-स्वरूप अधिक लाभ भी हो सकेगा। उन्होने यह भी प्रकार तीर्थ और क्षेत्र दोनो सहज सुरक्षित रह सकेगे और कहा--- महाराज, प्रवचन के समय माइक की भांति, दातो यह भी चरितार्थ होगा कि जैन धर्म में भगवान नही आते का उपयोग करे और बाद में निकाल दे। इनमें ममत्व न अपितु भक्त ही उनके चरणो मे नत होने-दूर-दूर तक करने से महाराज मे परिग्रह-दोष की तो बात ही नहीं जाते है। उठती, ऐसा तो वे उपकार के लिए ही करेगे? ___ अब जरा आइए, केवल क्षेत्र-रक्षा की बात पर। हमने सिर धुना कि लोगो को क्या हो रहा है ? वे भला, जब क्षेत्र (स्थान) ही न रहेगा तो धर्म कहा रहेगा? अपने स्वार्थ में साधु मे भी कैसी-कैसी अपेक्षाएँ रखने में आखिर, स्थान तो चाहिए हो। सो हमे क्षेत्र-रक्षा करने लगे है। कदाचित आविष्कारो से अधिक और त्वरित लाभ मे इन्कार नही-किसने कहा इसे न करे ? हम तो क्षेत्र लेने के लिए से लोग साधू को T.V. और चित्रपटो के की रक्षा का लोप नही कर रहे हैं। लोग जो रक्षा कर रहे स्टेशनों तक भी खीच ले जाएँ तब भी आश्चर्य नही । हैं सूझ-बूझ से कर रहे है, अच्छा कर रहे हैं, धर्म के लिए क्योंकि आज के आविष्कारो में ये दोनो सर्वाधिक आकर्षक स्थान सुरक्षित कर रहे है। और त्वरित प्रचार के साधन है। हमने सोचा-स्वार्थ की पर, यह सुरक्षा तभी सफल है जब वे स्थान तीर्थ रह पति मे स्वार्थी क्या कुछ नही कर सकता? जो न करे सकें। उक्त विषय में आप क्या सोचते है ? जरा सोचिए ! वही थोड़ा है। ठीक ही है कि४. प्राविष्कारों का उपयोग कहाँ ? 'स्वार्थी दोष न पश्यति । हम सधु को साधु पानकर चल रहे है, कुछ लोगों की हमारा अब तक का अनुभव तो यह है कि आविष्कारो भौति उन्हें प्रचारक या सांसारिक प्रलोभनो में अडिग रहने के प्रयोगो के कारण से ही अधिकांश साधु अपरिग्रहरूप वाले तीर्थकर मान कर नही चल रहे। हमारा लक्ष्य साधु- साधुत्व की लीक से कटकर प्रचारक मात्र बनकर रह गए मर्यादा की रक्षा है- अपनी स्वार्थ-साधना मे उन्हें आधुनिक है-कुछ जनता के लिए और कुछ ख्याति-लाभ और यशआविष्कार की ओर खीचना नही। यदि साधु मे साधुत्व प्रतिष्ठा के लिए। और यह सब दोष है उन श्रावकों का, जो सुरक्षित होगा तो उनसे 'अवाग्वपुषा' भी धर्म का पाठ साधु-चर्या की उपेक्षा कर अपने लाभमात्र में साधुओं को Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक साधन जुटाते रहे हैं । अन्यथा साधु अपने कल्याण पर्याय-सिद्ध अवस्था में बिठा दिया गया है, इसे हम लिख के लिए बना जाता है, या मात्र दूसरों के उद्धार में अपना चुके है। हमारी दृष्टि मे मूलत:-शुद्ध ज्ञान-दर्शन उपयोग सर्वस्व खोने के लिए ? जरा सोचिए ! नहीं हैं, अपितु ये दोनों क्षयोपशमावस्था में, निमित्तान्तरों की उपलब्धि में, चैतन्यानविधायी परिणामरूप उपयोग की ५. सिद्धों में उपयोग : एक भ्रान्ति ? उत्पत्ति मे कारण है---'उभयनिमित्तवशात्पद्यमानश्चंतन्याजब जीव का लक्षण उपयोग है, तब उपयोग क्या है ? नविधायिपरिणाम उपयोगः' (देखिए : इमी अंक में इसे सोचिए और उससे निर्णय कीजिए कि लोक परम्परा में प्रसिद्धि को प्राप्त 'जीवतत्त्व' कहने का व्यवहार ससार तक ही सीमित है या औदयिक भावजन्य उस 'जीवत्व' की हमें उपयोग का एक लक्षण और भी मिला हैपहुंच मोक्ष मे भो है ? हमारी दष्टि से तो उपयोग के 'उवजोगोणाम कोहादि-कसाएहि सह जीवस्स संपजोगो, लक्षण के मोक्ष में उपलब्ध न होने से भी आचार्य ने सिद्धो क्रोधादि कषायो के साथ जीव के सम्प्रयोग होने को को जीव-संज्ञा से बाहर रखा हो और 'सिद्धा ण जीवा' उपयोग कहते है।-जयधवला० (देखें : कसायपाहुड सुत्त, कहा हो तब भी आश्चर्य नही। कलकत्ता, पेज ५७६) इस उक्त लक्षण के प्रकाश में सिद्धो लोक मे शुद्ध-ज्ञान-दर्शन-मात्र को उपयोग मानने की को उपयोगस्वभावी जीव सज्ञा मे रखने के लिए उनमें शायद एक भ्रान्ति रही है-साधारणत. किसी से पूछो, कषायो का प्रादुर्भाव माने या मान्य आचार्य वीरसेन उपयोग क्या है ? वह तुरन्त जवाब देगा-ज्ञान-दर्शन स्वामी के तथ्यपूर्ण कथन 'सिद्धा ण जीवा' को तथ्य माने ? उपयोग है। इसी भ्रान्ति के कारण ससार-प्रसिद्ध जीव- जरा सोचिए ! तत्त्व (चेतन की वैभाविक पर्याय) को चेतन की शुद्ध -सम्पादक उत्थरइ जाण जरो रोयग्गी जा रण डहई देह उडि । इंदिय बलं न वियलइ ताव तुम कुण हि अप्पहियं ॥ -जब तक तेरा बुढ़ापा नहीं आता है और जब तक रोग रूपी अग्नि देहरूपी झोपड़ो को नहीं जलाती है तथा इन्द्रियों का बल नहीं घटता है तब तक तुम आत्मा का हित-साधन करो। जो पावमोहिदमदो लिग घेत्तूरण जिरणवरिंदाणं । उवहसइ लिगिमावं लिगिषु च नारदः लिंगी । -जो पापमोहित बुद्धि वाला तीर्थकरो का दिगम्बर रूप धारण करके भो लिंगिपने की हसी करता है अर्थात् खोटो क्रियाएँ करता है वह लिगियों में नारद के समान लिग धारण करने वाला है। सम्मूहदि रक्वेदि य अट्ट झाएदि बहुपयत्तेण । सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोरणी रग सो समणो । --जो श्रमण वेष धारण करके बहुत प्रयत्न से परिग्रह का संचय करता है, उसकी रक्षा करता है, उसके लिए आर्तध्यान करता है, वह मूछित-(मोह) बुद्धि तियं च योनि है अर्थात् पशु के समान अज्ञानी है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन समीचीन धर्मशास्त्र स्वामी समन्तभद्र का गृहस्याचार विषयक मत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुस्तार श्री जुगलकिशोर : जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य धोर गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द प्रशस्ति संग्रह, भाग १ संस्कृत और प्राकृत के १७१ प्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित पूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो धोर पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास विषयक साहित्यपरिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । गम्य-प्रशस्ति संग्रह भाग २ अपभ्रंश के १२२ प्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह पचपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं. परमानन्द शास्त्री । सजिल्द । I समातिन्त्र और इष्टोपदेश मध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ श्री राजकृष्ण जन : ... १५-०० ५-५० 2-00 पाय- बीपिका : मा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु० । १०.०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्य 9.00 कसायपाहुडसुल : मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री | उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द जंन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित ) संपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री भावक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोबिया Per set Jaina Bibliography Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942 ) 'सिद्धा ग जोवा' : (चितन के आयाम) श्री पद्मचन्द्र शास्त्री वार्षिक सं० प० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्र प्रत्येक भाग ४०० : नलक्षणावली (तीन भागों में) जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग श्री पद्मवन्द्र शास्त्री, बहुचचित सात विषयो पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तर्कपूर्ण विवेचन । प्राक्कथन सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित मूल जैन संस्कृति अपरिग्रह श्री पद्मचन्द्र शास्त्री ... ६-०० आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० ३० मूल्य : ६) रु०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे विद्वान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो । पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते । २५०० ७.०० १२-०० ५००० २-०० २-०० 600-00 मनन मात्र सम्पादक परामर्श मण्डल डा० ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जंन, सम्पादक श्री पद्मचन्द्र शास्त्र प्रकाशक - बाबूलाल जैन वक्ता, वीर सेवा मन्दिर के लिए, गीता प्रिंटिंग एजेन्सी, डी० १०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली- ५३ से मुसि Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ४० : कि० २ वीर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक अनेकान्त ( पत्र-प्रवर्तक : श्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') इस अंक में क्रम विषय १. चिर- लग्न - डा० कु० सविता जैन २. जैन बिबिलियोरोफी : --डा० ज्योति प्रसाद जैन ३. उद्दिष्ट आहार- श्री बाबूलाल जैन ४. दो शास्त्रीय प्रसंग : - पू० मुनि श्री श्रुतसागर महाराज ५. शुभोपयोग का स्वरूप - श्री नरेन्द्रकुमार जैन ६. रेल की जैन प्रतिमा - डा० प्रदीप शालिग्राम ७. मूलाचार और उसकी आचार-वृति श्री पं० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ➖ ८. आचार्य हमारे कुन्दकुन्द - श्री सुरेश सरल २. अद्यावधि अप्रकाशित दुर्लभ ग्रन्थ - सम्मइजिणचरिउ प्रो० डा० राजाराम जैन १०. समन्तभद्र स्वामी का श्रायुर्वेदग्रंथ कर्तृत्व - श्री राजकुमार जैन वैध आयुर्वेदाचार्य ११. जरा सोचिए : १२. भावनांजलि पृ० १ २ ४ ५ ७ ८ ८ १८ १४ २५ ३१ सम्पादकीय आवरण पृ० २ अप्रैल-जून १९८७ प्रकाशक : वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । नम्र-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मगलाचरण सहित प्रपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और प.परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... नाम्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रश के १२२ प्रप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन प्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १५.०० समाषितन्त्र पोर इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति, पं. परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टोका सहित बवणबेलगोल और दक्षिण के घग्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... न्याय-बीपिका : पा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स. अनु०। १.... जैन साहित्य पोर इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ सख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहस्सुस : मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिदान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो मोर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पूष्ट कागज मौर कपड़े को पक्की जिल्द । २५.. जंग निबम्ब-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री भावक धर्म संहिता : श्री वरयावसिंह सोषिया मैन लक्षणावली (तीन भागों में): स०५० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग ४०... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पनचन्द्र शास्त्री, बहुचचित सात विषयो पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तर्कपूर्ण विवेचन । प्राक्कथन : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित मूल जैन संस्कृति अपरिग्रह : श्री पचन्द्र शास्त्री २.. Jaina Bibliography . Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942) Per set 600-00 'सिखा ए जीवा' : (चितन के आयाम) श्री पपचन्द्र शास्त्री ... मनन मात्र आजीवन सरस्यता शुल्क : १०१.०० १० वार्षिक मूल्य : ६) २०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह आवश्यक नहीं कि सम्पावक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते । सम्पादक परामर्श मण्डल ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक थी पपचन्द्र शास्त्र प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीर सेवा मन्दिर के लिए, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०.१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३ से मुद्रित ) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक अनेकान्त (पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') अप्रैल-जून १९८७ वर्ष ४० कि०२ क्रम इस अंक में विषय १. चिर-लग्न-डा० कु. सविता जैन २. जैन बिबिलियोग्रेफी: __--डा. ज्योति प्रसाद जैन ३. उद्दिष्ट आहार-श्री बाबूलाल जैन ४. दो शास्त्रीय प्रसंग : -पू. मुनि श्री श्रुतसागर महाराज ५. शुभोपयोग का स्वरूप -श्री नरेन्द्रकुमार जैन ६. रेल की जैन प्रतिमा-डा० प्रदीप शालिग्राम ७. मूलाचार और उसकी आचार-वृत्ति -श्री पं० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ८. आचार्य हमारे कुन्दकुन्द-श्री सुरेश सरल १. अद्यावधि अप्रकाशित दुर्लभ ग्रन्थ-सम्मइ. जिणचरिउ-प्रो० डा. राजाराम जैन १०. समन्तभद्र स्वामी का आयुर्वेदग्रंथ कर्तृत्व --श्री राजकुमार जैन वैद्य आयुर्वेदाचार्य ११. जरा सोचिए : -सम्पादकीय १२. भावनांजलि आवरण पृ० २५ प्रकाशक : वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनांजलि सम्यक् श्रद्धापूर्वक दी गई अंजलि श्रद्धांजलि होती है और वह होती है गुणों में मान्यों - पूज्यों को, कुछ विशिष्ट आत्माओं को। हम नहीं जानते कि आज के श्रद्धांजलि-समर्पण समारोह किस माप में होते हैं और किनको और कैसे होते हैं ? क्या आज श्रद्धांजलि समर्पण एक सरल, सर्वसाधारण तरीका नहीं बन चुका है ? जो हर क्षेत्र में हर साधारण व्यक्ति द्वारा हर साधारण से साधारण के लिए भी अपनाया जा रहा है-खानापूर्ति के सिवाय इसका अन्य महत्त्व नहीं । हम सोचते हैं - परम दिगम्बर श्रमण गुरुजन साधारण हस्तियों से बहुत ऊँचे और उत्कृष्ट हैंमोक्षमार्ग के पथिक हैं। उनकी गति - जिनके लिए उन्होंने दीक्षा ली होती है, रत्नत्रय की पूर्णता के बिना नहीं, उन्हें मोक्ष प्राप्त करना ही चाहिए और मोक्ष का सीधा सा उपाय है रत्नत्रय की पूर्णता यानी 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।' सम्यक् श्रद्धा मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी है और हमारी समझ से श्रमण उस पर श्रमणत्व धारण काल से ही आरूढ़ हो बैठे होते हैं । यतः - बिना श्रद्धा के ली गई दीक्षा को दीक्षा ही कैसे कहा जाता है ? ऐसे में श्रमण को कोरी श्रद्धांजलि भेंट कर उनके प्रति श्रद्धा मात्र की भावना प्रकट कर, हम श्रमण को प्रथम सीढ़ी पर ही रहने की भावना भाएँ या श्रमण के ज्ञान चारित्र की पूर्णता की भावना भी भाएँ ? हमारी समझ से तो श्रमण के प्रति रत्नत्रय भावनांजलि समर्पण की भावना ही अधिक उपयुक्त और कार्यकारी है, वही मोक्षमार्ग में प्रशस्त है । 1 गत दिनों दो पूज्य श्रमणाचार्यों की समाधि हुई । एक थे- आचार्य श्री शान्तिसागर पट्ट के परम्परित पट्टाचार्य पूज्य श्रीधर्मसागरजी महाराज - सरल, शान्त, निर्भीक सिंहवृत्ति आचार्य । और दूसरे - आज के नेतृत्व प्रमुख, विश्वधर्म प्रचारक, एलाचार्य ( अब आचार्य रत्न) श्री विद्यानन्द महाराज के परम गुरु और अनेक ग्रन्थों के व्याख्याता, धर्मप्रभावक आचार्य श्री देशभूषण महाराज कोथली । दोनों ही वर्तमान युगीन प्रचलित श्रमण परम्परा के बेजोड़ रत्न थे- दोनों ने स्व शक्त्यनुसार दि० परम्पराओं को जीवित रखा । फलतः '' समस्त सम्पादक मंडल 'अनेकान्त' और वीर सेवा मंदिर के अधिकारी, सदस्यगण आचार्य-द्वय को रत्नत्रय भावनांजलि समर्पण करते हुए दिवंगत आत्माओं में नतमस्तक हैं। आचार्यद्वय रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त करें ऐसी हमारी भावना है । आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० ६० वार्षिक मूल्य : ६) रु०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे - सम्पादक विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो । पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ४० किरण २ ग्रोम् म् अनेका परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर - निर्वाण सवत् २५१३, वि० सं० २०४४ { "चिर- लग्न" आज क्यों मम प्राण बाजे, सुधियों में सम्यक्त्व साजे । वीतरागी बन के साजूं, आज मैं शृंगार अपना ॥ निर्वेद की मेंहदी रचाऊँ, संवेग की बिंदिया सजाऊँ । नमन में परमात्म से चिर लग्न का लेकर के सपना || ज्ञान का काजल लगाऊँ, निर्मोह का टीका सजाऊँ । समदर्शिता की चूनरी से घूंघटा निकालूं आज अपना ॥ नव तत्त्व के सिन्दूर से मैं, आज अपनी माँग भर लूं । स्वयं को करने का कर लूँ आज में साकार सपना ॥ संवर का मंडप तान कर लूँ निर्जरा के साथ फेरे । ब्रह्मचर्य के साथ खेलें सखि आज के दिन मै कंगना ॥ उत्तम क्षमा तप आदि के आभूषणों को धार के । आकिंचन्य की डोली में चढ़कर कर चलूं प्रस्थान अपना ॥ भक्ति रस में डूब कर पर से विदा के गीत गाऊँ । निज भाव के साहचर्य का देखूं सखि दिन रात सपना ॥ अष्ट सखियों से विदा लूं, चार बहनों को भुला दूँ । शुभ कर्म का संसार तज कर शुद्धत्व को जानू मैं अपना ॥ राग के उपहार तज दूं, मिध्यात्व को मुडकर न देखूं । सिद्धत्व को पाने का ही दिन रात देखूं एक सपना ॥ विरति का आसन बिछा कर ध्यान की मैं लो जलाऊँ । रत्नत्रय के दीपकों से जगमगा लं मन मैं अपना ॥ अप्रैल-जून १६८७ -डा० कु० सविता जैन, 7/35 दरियागंज, दिल्ली Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बिबलियोग्रफी डा. ज्योति प्रसाद जैन आधुनिक युग में विशेषज्ञता पर बल दिया जाने लगा है प्रकाशनों में जैन-धर्म-संस्कृति-साहित्य-कला-पुरातत्त्वएवं शोध खोज को विश्वविद्यालयी स्तर पर पी०एच०डी०, इतिहास तथा जिन धर्म के अनुयायियो के विषय में डी. लिट० आदि उपाधियों के लिए सुव्यवस्थित रूप से एव अनगिनत उल्लेख प्राप्त है। वर्तमान शती के आरम्भ से सुयोग्य निर्देशन में तैयार किए जाने वाले शोध प्रबन्धों ने तो ऐसे प्रकाशनों एवं सदों में द्रुतवेग से प्रगति हुई है। प्रभूत विस्तार एवं व्यापकता प्रदान कर दी है । इस कार्य के परिणामस्वरूप प्राच्यविद्या के अन्तर्गत भारतीय विद्या के लिए पुरातन प्रकाशित व अप्रकाशित साहित्य, आलेखों, एक अति महत्त्वपूर्ण अंग एवं विभाग के रूप में जनविद्या शिलालेखों आदि का निरीक्षण, परीक्षण, अध्ययन तो (जनालाजी) का स्वतन्त्र अस्तित्व सुनिश्चित हुआ, और आवश्यक है ही, किन्तु ऐसी अपेक्षित सामग्री सर्वत्र अथवा जैन संदर्भ ग्रन्थों या कोषों की आवश्यकता भी अधिकाधिक सहज सुलभ नही होती। शोधार्थी को उसकी जानकारी साधाथा का उसकी जानकारी अनुभव की जाने लगी, जिसकी पूर्ति के लिए अनेक विद्वान भी बहधा नहीं हो पाती। ऐसी स्थिति में विभिन्न प्रकार एवं सस्थाए सलग्न हुई। के संदर्भ ग्रन्थ बड़े सहायक होते है। शास्त्र भडारो की जहां तक पाश्चात्य भाषाओ के जैन सदर्भ कोश का ग्रन्थ-सूचियाँ, प्रकाशित साहित्य की सदर्भ सूचियाँ प्रश्न है, सर्वप्रथम फ्रान्सीसी प्राच्यविद डा० ए० गिरनाट (विबलियो प्रेफी), विश्वकोश, व्यक्तिकोश, भौगोलिक या ने १९०६-६ ई० मे अपने तीन निबन्ध जैन बिबलियो ग्रेफी स्थलकोश, शिलालेख संग्रह, विषय विशेष सम्बन्धी कोश, एवं एपीग्रेफी पर प्रकाशित कराए। तदनन्तर दिल्ली पारिभाषिक शब्दाथ कोश, विशेषार्थक कोश, विविध । निवासी रायबहादुर पारसदास ने 'जैन बिबलियोग्रफी न० अनुक्रमणिकाएं आदि ऐसे सदर्भ ग्रन्थों का गत लगभग एक १ प्रकाशित की, और १९४५ ई० मे स्व० बा० छोटेलाल सौ वर्षों में पर्याप्त संख्या में निर्माणहआ है, और हो रहा हो भी निलियोग्रफी' का प्रथम सस्करण प्रकाशित किया, जिसमें गिरनाट आदि द्वारा प्रदत्त पूर्ववर्ती गत लगभग २०० वर्षों में देशी-विदेशी प्राच्यविदो संदर्भ-मुचनों का समावेश करते हए, १९२५ ई० पर्यन्त के एव भारतीय विद्या विशारदों का ध्यान जैन साहित्य एवं प्रकाशनों में प्राप्त सदों को सम्मिलित किया गया था। संस्कृति की ओर उत्तरोत्तर अधिकाधिक आकृष्ट होता तद्त्तरकालीन सन्दर्भो के सकलन भी वह करते-कराते रहे, आया है। जैन शास्त्र भडारों मे संरक्षित हस्तलिखित और १९६६ ई० मे उन्होने १९६० ई० पर्यन्त के प्रायः ग्रन्थो का बहुभाग भी मुद्रित प्रकाशित हो गया है। अनेक सास्त सन्दों का सकलन कार्य पूरा कर लिया था। महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के तो समीक्षात्मक विस्तृत प्रस्तावनाओ दर्भाग्य से उसी वर्ष उनका स्वर्गवास हो जाने से ग्रन्थ का सहित सुसंपादित स्तरीय संस्करण भी प्रकाशित हो चुके प्रकाशन स्थगित मा हो गया। अन्ततः उनके परमस्नेही हैं। भारतीय भाषाओं में उन पर अलग से समीक्षात्मक स्व० साह शान्ति प्रसाद जी के आर्थिक सहयोग एव प्रेरणा एष तुलनात्मक अध्ययन, गवेषणाए, विवेचनाए भी हुई है। से वीर सेवा मंदिर दिल्ली ने १९८२ ई० मे इसे दो जिल्दों इनके अतिरिक्त अग्रेजी, जर्मन, फ्रांसीसी, इतावली, रूसी में विभाजित, लगभग दो हजार पृष्ठो के विशाल जैन आदि विभिन्न पाश्चात्य भाषाओं में भी प्रकाशित शोध सदर्भ कोश का समुचित प्रकाशन कर दिया। बड़ा आकार, निबन्धो, लेखों, सर्वेक्षणों, रिपोटो, पुस्तकों आदि विविध उत्तम कागज, स्वच्छ मुद्रण एवं पुष्ट जिल्द वाली बा० Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंगली छोटेलाल जी जैन की बिबलियो ग्रेफी का यह संशोधित परिवद्धित सस्करण जैनाध्ययन के अस्मुत्साही प्रेरक एवं प्रोत्साहक स्व० बाबूजी का सजीव स्मरण है। भारतीय विद्या के किसी भी अग पर विशेषाध्ययन या शोध खोज करने वालों के लिए जैन सदर्भों का उपयोग आज अनिवार्य सा बन गया है। जैन विद्या के अनुसधित्सुओं के लिए तो इसकी आवश्यकता महत्त्व एवं उपयोगिता असदिग्ध है। ग्रन्थ का मूल्य तीन सौ रुपये है, जो उसकी लागत एव उपादेयता को देखते हुए कुछ अधिक नहीं है । यो प्रस्तुत प्रकाशन में मुद्रण की भी कतिपय अशुद्धियाँ रह गई है। विभिन्न प्रकार की अन्य कई त्रुटियाँ, दोष एव कमियाँ भी रह गई प्रतीत हो सनती है किन्तु सबसे बड़ी आवश्यकता है उपयुक्त इडेक्स या अनुक्रमणिका की जिसके कारण ग्रन्थगत अधिकांश सदर्भों व्यक्ति, प्रकाशन आदि के विषय मे अपेक्षित सदर्भ या सदर्भों को पा लेना सहज सुगम हो सके। अभी इस मिलियोको के पूरे दो हजार पृष्ठों को पलटने पर ही अभीष्ट सूचन पाय या एकत्र किए जा सकते है । इस सन्दर्भ कोश का अशार्थ बनाने के लिए कम से कम तीन अनुक्रमणिकाओं का प्रकाशन आवश्यक है (१) प्रन्यानुक्रमणिका, जिसमे ग्रन्थगत समस्त पुस्तको, पत्रिकाओ, मालेको आदि का इंडेक्स हो (२) लेखानुक्रमणिका, जिसमे प्रथमत सन्दर्भों ; के लेखको, सपादकों आदि का इडेक्स हो; और (३) सामान्य नामानुक्रमणिका, जिसमे ग्रन्थगत विभिन्न सदर्भों मे प्राप्त समस्त व्यक्तिनामो, स्थलादि नामो अन्य व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का इडेक्स हो । वैसे ग्रन्थ की तीसरी जिल्द के रूप मे ऐसा एक इडेक्स प्रकाशित करने की योजना प्रारंभ से ही थी, किन्तु कतिपय अपरिहार्य कारणो से वह अभी संभव नही हो सका । एक जैन विद्यारसिक जैन मनीषी की साधिक तीन दशकों की स्वान्तः सुखाय साधना एवं प्रयास द्वारा निर्मित और और उन्ही से संरक्षित सम्पोषित वीर सेवा मंदिर दिल्ली जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक जैन संस्था द्वारा प्रकाशित इस संदर्भ ग्रन्थ का यह अधूरापन खटकने वाला है। हमे आशा है कि उक्त संस्था के पदाधिकारी गण इस अभाव की पूर्ति करने में यथासंभव शीघ्र तत्पर होंगे। इसके अतिरिक्त, इस बिबलियो ग्रेफी में १६६० ई० पर्यन्त के ही सदर्भ समाविष्ट है—कुछ एक १९६० से • ९६५ तक के भी सम्मिलित कर लिए गए है, और कई एक १६६० से पूर्व के भी छूट गए लगते है । अतएव, ग्रन्थ की तीसरी जिल्द मे उपरोक्त अनुक्रमणिकाओं के अतिरिक्त एक शुद्धिपत्र भी दिया जा सकता है, और संभव हो तो १९६० से पूर्व के जो संदर्भ छूट गए है उन्हें भी एक परिशिष्ट के रूप में सम्मिलित किया जा सकता है। १९६० चा भी अग्रेजी आदि पाश्वात्य भाषाओं मे जैन सम्बन्धी विपुल साहित्य प्रकाशित हो चुका है। क्या ही अच्छा हो कि प्रस्तुत बिबलियो की के दसवर्षीय ( १९६१-७०, १९७१-८०, १९८९-९०) पूरकों के रूप मे इंडेक्स युक्त प्रकाशनों की योजना भी यथा संभव शीघ्र कार्यान्वित की जा सके । । जैन विद्या के विभिन्न अंगों से सम्बन्धित साहित्य पाश्चात्य भाषाओ मे जितना अद्यावधि प्रकाशित हो चुका है, उसका कई गुना भारतीय भाषाओं में, विशेषकर हिन्दी प्रकाशित हो चुका है उसमे भी शोध-खोज परक विपुल स्तरीय सामग्री प्राप्त होती है अतएव तत्सबधी सदर्भकोशों के निर्माण एवं प्रकाशनको भी महती आवश्यकता है। वीर सेवा मंदिर जैसी किसी भी प्रतिष्ठित एवं साधन सम्पन्न साहित्यिक सस्था इस अतीव उपयोगी कार्य को सुयोग्य निर्देशन में सम्पन्न करा सकती है । । ऐसी योजनाओं में व्यावसायिक हानि-लाभ की अपेक्षा नहीं की जाती, यद्यपि यदि देश-विदेश के विश्व विद्यालयों, महाविद्यालयो शोध संस्थानों, पुस्तकालयों आदि के संचालक ऐसे उपयोगी सदर्भ कोशों को कम करके संग्रह करे तो उनके निर्माणकर्ताओ एवं प्रकाशको को तो प्रोत्साहन मिलेगा ही, जिजागु मध्येताओं को भी अतीव लाभ होगा, तथा जैनविद्या विषयक शोध-खोज एव साहित्य निर्माण में भी द्रुतवेग से अभूतपूर्व गति होगी । 00 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दिष्ट आहार समयसार तात्पर्यवृतिः गाथा ३०४- ३०५ की टीका करते हुए आचार्य जयसेन स्वामि लिखते हैं कि :अयमभिप्राय पश्चात्पूर्व संप्रतिकाले वा योग्याहारविषये मनोवचन कायकृत कारितानुमत रूपैर्नवभिर्विकल्पशुद्धास्तेषां परकृताहारादि विषय बधो नास्ति यदि पुन परकीय परिणामेन बंधो भवति तहि क्वापि काले निर्वाण नास्ति । तथा चोक्त — णव कोडि कम्मसुद्धो पच्छापुरदो य संपडियकाले पर सुह दुणिमितं वज्झदि जदि णत्थि निव्वाण यहां यह अभिप्राय है कि भोजन के पीछे पहले या भोजन करते समय मुनि के योग्य आहार के विषय मे मन वचन काय से कृत कारित अनुमोदन रूप नौ विकल्प से रहित शुद्ध आहार होता है। अर्थात मुनि किसी आहार के विषय में मन वचन काय कृत कारित अनुमोदन रूप कोई भी विकल्प नही करते, इसी से उन गुनियो के दूसरे गृहस्थी के द्वारा किये हुए आहार आदि के सम्बन्ध मे कर्मों का बन्ध नहीं होता क्योंकि वध परिणामों के प्राधीन है। गृहस्थ उसके बनाने आदि के विकल्प करता है इससे वधता है। मुनि महाराज ऐसे विकल्प नही करते इससे नही बघते) यदि ऐसे माने कि दूसरे के द्वारा किए गए परिणाम से दूसरे के बध हो जाय तो कही भी किसी को भी निर्वाण का लाभ न होवे । ऐसा ही अन्य ग्रन्थ मे कहा है । तीन काल में नव कोटि शुद्ध भोजन को जो मुनि लेता है सो पीछे पहले व वर्तमान मे नव कोटि शुद्ध है और यदि वह दूसरों के सुख दुख का निमित्त हो और बध को प्राप्त करें तो उसको निर्वाण का लाभ नही हो सकता । ओसिक चाहार को लेकर अपने समाज मे बहुत प्रकार की ऊहापोह है । श्रावक तो गर्म पानी पीता नहीं, बिना नमक का बिना चीनी का, बिना घी का भोजन करता नहीं। वह तो जो कुछ भी तैयारी करता है पात्र श्री 'बाबूलाल जैन के आहार दान के लिये ही करता है चाहे एक चौका लगे चाहे १० चौका लगे । श्रावक रोगी मुनि को औषध देता है वह अपने लिए नहीं बनाता। व्रती धावक भी पात्र दान के लिये ही आहार बनाता है। आज कल तो व्रती श्रावक नही के बराबर है अव्रती श्रावक शुद्ध भोजन करता नही वह जो आहार बनाता है वह पात्र दान के लिये हो बनाता है। अगर उद्देशिक आहार की यही परिभाषा की जावे कि पात्र के उद्देश्य से बनाया है वह उद्देशिक आहार है सब तो सभी मुनि आज भी और प्राचीन काल मे भी उद्देशिक आहार के दोष के भागी रहते और कर्म बध नहीं रुक सकता। मुनि को यह मालूम भी कैसे हो सकता है कि यह मेरे उद्देश्य से बनाया या बिना उद्देश्य के बनाया आहार है । यह तो श्रावक के परिणामो पर निर्भर करता है और धावक के परिणामों का फल मुनि को लगने लगे तो उसके कर्म बध रुक नहीं सकता और मोक्ष की प्राप्ति हो नहीं सकती। यह तो तथ्य है कि जीव अपने ही परिणामों का फल पाता है दूसरे के परिणामों का फल दूसरा नहीं पाता पर जितने भी चरणानुयोग के ग्रन्थ है उनमें ये ही परिभाषा मिलती है कि मुनि के उद्देश्य से बनाया आहार उद्देशिक है । परन्तु कार मे जो प्रमाण दिया गया है उससे यह परिभाषा निकली है कि मुनि नव कोटि शुद्ध है तो मुनि के आहार कृत आरंभ का दोष नहीं लगेगा | यही परिभाषा ज्यादा युक्तियुक्त लगती है। श्रावक ने अपने लिये आहार बनाया अगर मुनि ने मन, वचन, काय से कृत, कारित या अनुमोदन करो तो वह उद्देश आहार हो गया और मुनि को कर्म बध हो गया। यदि श्रावक ने पात्र दान के लिये ही आहार बनाया और मुनि नव कोटि शुद्ध है तो कर्म वध नहीं हुआ कर्मबंध में मुख्पता मुनि के अपने परिणामों की है। यदि यह परिभाषा मानी जावे तभी उद्देशीक आहार का त्याग बन सकता है (शेष पृ० ६ पर) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शास्त्रीय प्रसंग o आचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागर जी महाराज १. "दंसण भट्टा भट्टा..." ऊपर की श्रेणी वालों के लिए विषम्भ है यानी जो दंसण भट्टा भट्टा सणभट्टस्स णत्यि णिव्वाण । प्रतिक्रमण रूप चारित्र से भ्रष्ट हैं, "वे बुद्धिपूर्वक बाहरी सिज्झति चरियभट्टा दसणभट्टा ण सिज्झति ॥3॥ पंच महाव्रत के पालन से भ्रष्ट हैं, वे तो ध्यानमग्न हैं, -दर्शनपाड : कुन्दकुन्दाचार्य आत्मलीन हैं। नीचे की अवस्था में यानी जो बुद्धिपूर्वक गाथार्थ-सम्यग्दर्शन से जो भ्रष्ट हैं यानी आज तक पच महाव्रतादि का पालन करते हैं उनके लिए प्रतिक्रमण जिन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति नही हई, उसको निर्वाण की अमृतकुम्भ है- इस सन्दर्भ में समाधितत्र की गाथायें प्राप्ति नही हो सकती। (कारण जिसे एक बार भी सम्यक्त्व (८३-८४) ध्यान देने योग्य हैहो गया तो वह भ्रष्ट होकर भी अधिक से अधिक अर्द्ध अपुण्यमव्रतः पुण्यं व्रतर्मोक्षस्तयोर्व्ययः । पुदगल परावर्तन के बाद निर्वाण को अवश्य प्राप्त होगा।) अखतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥३॥ जो चारित्र से भ्रष्ट है, वह निर्वाण को प्राप्त होता है अव्रतानि परित्यज्य व्रतेष परिनिष्ठितः । (सिज्झति) परन्तु दर्शन से भ्रष्ट जीव निर्वाण को प्राप्त त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः ॥२४॥ नही होता। अर्थ-हिंसादि पाँच अवतो के अनुष्ठान से पाप का उपर्युक्त गाथा का टीकाकारो ने ऐसा अर्थ किया है बन्ध होता है और अहिंसादिक पांच व्रतो के पालन से कि जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है यानी जिनका सम्यग्दर्शन पुण्य का बन्ध होता है । पुण्य और पाप दोनों कर्मों का जो (होकर) नष्ट हो गया है उन्हे कभी मोक्ष की प्राप्ति नही विनाश है, वही मोक्ष है अतः मोक्ष के इच्छुक भव्य पुरुष हो सकती तथा जो चारित्र से भ्रष्ट है और जिनका को अब्रतो की तरह व्रतो को भी छोड़ना चाहिए ॥३॥ सम्यग्दर्शन बना हुआ है, वे तो चारित्र धारण कर मोक्ष हिंसादिक पांच अव्रतों को छोड़ करके अहिंसादिक की प्राप्ति कर सकते है। वों मे निष्ठावान रहे अर्थात् उनका दृढ़ता से पालन करे, यहाँ विचारणीय बात यह है कि जैसे चारित्र से भ्रष्ट फिर आत्मा के रागद्वेषादि रहित परम वीतराग पदको हा प्राणी फिर चारित्र धारण कर निर्वाण प्राप्त कर प्राप्त करके उन व्रतों को भी छोड देवे। सकता है वैसे ही एक द्रव्यलिंगी मुनि भी सम्यक्त्व को सपक श्रेणी आरूढ साधु अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। पर गाथा व्रतों का पालन बुद्धिपूर्वक न करते हुए भी (उनके अभाव का अभिप्राय ऐसा नहीं लगता । गाथा तो 'चारित्रधारण' में भी) निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। यानी भेद का सकेत ही नहीं करती अपितु घोषित करती है कि रत्नत्रय रूप चारित्र का पालन न करते हुए चारित्रघ्रष्ट 'सिज्झति चरियभट्टा'। यही बात गम्भीरतपूर्वक विचार साधु "सिजमंति'। करने योग्य है। (क्योंकि यदि चारित्रभ्रष्ट चारित्र धारण पंचास्तिकाय गाथा ३७ में मोक्ष जीवों का अस्तित्व करे तो दर्शन प्रष्ट भी तो सम्यक्त्व धारण कर सकता है सिद्ध करने के लिए अमनचन्द स्वामी की टीका में पाठ और मोक्ष जा सकता है।) तो फिर इस "सिझति भाव दिए गये हैं-शाश्वत-नाश्वासत ; भाव्य-अभाव्य, परियभट्टा' पद के प्रयोग में क्या रहस्य है ? शून्य-प्रशून्य, मान-अज्ञान । अर्थात् मुक्त जीव भब्य भी है श्री समयसार जी में कथन आता है कि प्रतिक्रणम और अभव्य भी, मादि । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ वर्ष ४००२ इसी प्रकार बुद्धिपूर्वक चारिपालन के अभाव की भ्रष्ट संज्ञा है न कि भेद रत्नत्रय रूप पारिपालन के अभाव की । क्योकि निर्वाण तो तभी होगा जब सम्यग्दर्शन सहित सम्यक्चारित्र भी होगा पर गाथा कहती है कि 'परियट्टा सिमांति' अर्थात् परिभ्रष्ट मोक्ष प्राप्त करते हैं तो वहाँ चरियभट्टा का अर्थ उपर्युक्त ही लगाना होगा । अनेकान्त पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और समस्त कषायों के ( प्रवृत्ति के अभाव का नाम अप्रमाद है, इसी की चरिनभट्टा संज्ञा है । -धवल पु० १४ पृष्ठ ८६ उपर्युक्त अभिप्राय पर विश पुरुषों से विचार करने का अनुरोध है। २. योगे पर्याड पबेसा, ठिदि अनुभागाकसायदो होदि उपर्युक्त पक्ति का अर्थ हम सब ऐसा करते आए हैं कि योगों से प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं और कषायो से स्थिति और अनुभाग बन्ध । सो ठीक भी है क्योकि गाया का स्थूल अर्थ तो यही निकलता है परन्तु विचार करें कि जब आचार्यों ने बन्ध के प्रत्यय मिथ्यात्व अविरति (असंयम), कथा और यग बताये है तो इनमे से योग और कषाय को ही बन्ध का कारण मानेंगे तो मिध्यात्व अविरति के हिस्से मे कौन-सी बन्ध का कार्य आएगा, जबकि बन्ध में मिध्यात्व प्रधान है और योग सभी अवस्थाओं में सबके साथ बन्ध कराने मे आगे रहता है। यदि कषाय की अन्तरदीपक मान कर विचार करे तो योग जब मिध्यात्व के नेतृत्व मे रहता है तो वहाँ अविरति और ( पृ० ४ का अन्यथा तो निर्दोषी आहार बन ही नहीं सकता । श्रावक तो अपने लिये आहार बनाता ही नहीं यह तो पात्र दान के लिये ही आहार बनाता है इसलिये पाप बंध न करके पुण्य बंध करता है। यदि वही आहार वह अपने लिए बनाता तो पाप बंध होता पात्र को आहार दान देकर । वह जो भी बचा सो आप भी खा लेता है। दुबारा आरभ नहीं करता। और मुनि नब कोटि शुद्ध है इसलिए कर्म कषाय भी है परन्तु बन्ध कराने में प्रधानता मिध्यात्व की रही और जब योग अविरति के साथ उदय में जाता है, वह कषाय है पर बन्ध कराने का श्रेय अविरति को है ; इस तरह जब योग मिध्यात्व अविरति के उदयाभाव में सिर्फ कषाय के साथ उदय को प्राप्त होता है, वहीं बंध कराने की प्रधानता कषाय की है और जब योग एकाकी उदय में आता है यानी उसके साथ किसी और का बल नही होता तब सिर्फ प्रकृति प्रदेश बन्ध होता है। इस विषय में पवला पु० १३ पृ० ४७ सूत्र २३ मे कहा है कि ईर्ष्या का अर्थ योग है। वह जिस कार्मण शरीर का पथ, मार्ग हेतु है, वह ईर्यापथ कर्म कहलाता है। मात्र योग के कारण जो कर्म बँधता है, वह ईर्यापथ कर्म है ।" कषायसहित जीवो के ईर्यापथ कर्म नहीं होता । (g० १३ पृ० १२) जो कार्मण वर्गणा स्कन्ध कर्म रूप मे स्थित है, मे मिथ्यात्व आदि कारणों का निमित्त पाकर अन्य परिणामों को प्राप्त न होकर अनन्तर समय मे आठ कर्म रूप, सात कर्म रूप और छह कर्मरूप परिणत होकर गृहीत होते हैं। इस तरह सभी आचार्यों ने मिध्यात्व असंयम, कषाय और योगो को बन्ध के प्रथम (कारण) स्थिर किये हैं फिर मिध्यात्व और असयम को बन्ध के कारणो से निकाल देना क्या आचायों के वचनों की अवहेलना करना नहीं है ? अतः आचार्यो के वचनो की गरिमा और सिद्धान्त की रक्षा कषाय को अन्त दीपक मानकर अर्थ करने में है । विद्वानों से इस अभिप्राय पर विचार करने का अनुरोध है। शेषांश) बंध नहीं होता । भोजन तो बनावे पात्र दान के लिये और यह कहये कि आपके लिये नहीं बनाया तब तो मायाचारी आवेगी पाप का बंध होगा। यह लेख विद्वानों और स्थागियों के विचार करने के लिये लिखा है: २/१० अंसारी रोड नई दिल्ली ११.०२ सम्मति विहार Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभोपयोग का स्वरूप * श्री नरेन्द्रकुमार जैन, बिजनौर जो आत्मा देव, शास्त्र, गुरु की पूजा में, दान में, गुण- कारण है। अत: शुभोपयोग के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले व्रत, महाव्रत रूप उत्तम शीलो में और उपवास आदि शुभ विषय सुख हेय है-छोड़ने योग्य है। जो सुख पांच कार्यों में लीन रहता है, वह शुभोपयोगी कहलाया है । जो इन्द्रियो से प्राप्त होता है, वह पराधीन है, बाधा सहित आत्मा शुभोपयोग से सहित है वह तियंच, मनुष्य अथवा देव है। बीच मे नष्ट हो जाने वाला है, बन्७ का कारण है होकर उतने काल तक इन्द्रिय जन्य विविध सुखों को पाता और विषम है,-हानि वृद्धि रूप है, इसलिए दुःख ही है। अन्य की बात जाने दो, देवों के भी स्वभाव जन्य सुख है। शुभोपयोग से पुण्य होता है और पुण्य से इन्द्रियजन्य नहीं हैं, ऐसा विजेन्द्र भगवान के उपदेश मे युक्तियों से सुख मिलता है परन्तु यथार्थ में विचार करने पर वह सिद्ध है, वास्तव मे शरीर की वेदना से उत्पीड़ित हाकर इन्द्रियजन्य सुख-दुःख रूप ही मालूम होता है । पुण्य और रमणीय विषयों मे रमण करते हैं। जबकि मनुष्य, नारकी, पप मे (बन्धन की अपेक्षा) विशेषता नहीं है, ऐसा जो तिथंच और देव चारो ही गतियों के जीव शरीर से उत्पन्न नही मानता है, वह मोह से आच्छादित होता हुआ भयाहोने वाला दुःख भोगते है । तब जीवो का वह उपयोग नक और अन्तरहित ससार मे भटकता है। शुभ अथवा अशुभ कैसे हो सकता है ? इन्द्रिय जन्य दुःखों प्रवचनसार मे अन्यत्र कहा गया है कि जो जीव का कारण होने से शुभोपयोग और अशुभोग्योग समान जिनेन्द्रो को जानता है, सिद्धो तथा अनगारों (आचार्य, ही हैं, निश्चय से इनम कुछ अन्तर नहीं है । इन्द्र तथा उपाध्याय, और सर्व साधुओ) की श्रद्धा करता है, जीवों चक्रवर्ती सुखियों के समान लीन हए शुभोपयोगात्मक के प्रति अनुकम्पायुक्त है उसके वह शुभ उपयोग है। यदि भोगो से शरीर आदि की ही वृद्धि करते है। शुभोपयोग मुनि अवस्था मे अरहन्त आदि में भक्ति तथा परमागम का उत्तम फल दोनो मे इन्द्र को और मनुष्यों मे चक्रवर्ती से युक्त महामुनियों में वत्स नता-गोवत्स की तरह स्नेहको ही प्राप्त होता है परन्तु उस फल से वे अपने शरीर वृत्ति है तो वह शुभोपयोग से युक्त चर्या है। सराग-चरित्र को ही पृष्ट करते है न कि आत्मा को भी। वे वास्तव मे की दशा में अपने से पूज्य मुनिराजों की वन्दना करना, दुखी रहते है, परन्तु बाह्य मे सुखियों के समान मालूम नमस्कार करना, आते हुए देख उठकर खड़ा होना, जाते होते हैं । यह ठीक है कि शुभोपयोग रूप परिणामो से समय पीछे-पीछे चलना इत्यादि प्रवृत्ति तथा उनके श्रम, उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के पुण्य विद्यमान रहते है, थकावट को दूर करना निन्दित नहीं है, प्रशस्त है। परन्तु वे देवो तक समस्त जीवो को विषयतृष्णा ही शुभोपयोगी मुनि की प्रवृत्तियां--दर्शन और ज्ञान उत्पन्न करते है । शुभोपयोग के फलस्वरूप अनेक भोगोप- का उपदेश देना, शिष्यों का संग्रह करना, उनका पोषण भोगों की सामग्री उपलब्ध होती है, उससे समस्त जीवों की करना तथा जिनेन्द्र देव की पूजा का उपदेश देना यह सब विषयतृष्णा ही बढती है, इसलिए शुभोपयोग का अच्छा सरागी मुनियो की प्रवृत्ति है । जो ऋषि, मुनि यति, मनकैसे कहा जा सकता है ? फिर जिन्हें तृष्णा उत्पन्न हुई गार के भेद से चतुर्विध मुनि समूह का षटकायिक जीवों है, ऐसे समस्त ससारी जीव तृष्णाओ से दुखी और दुखों की विराधना से रहित उपकार करता है-वैयावृत्य के से संतप्त होते हुए विषयजन्य सुखों की इच्छा करते हैं द्वारा उन्हें सुख पहुंचाता है वह भी सराग प्रधान अर्थात और मरण पर्यंत उन्हीं का अनुभव करते रहते हैं । विषय शुभोपयोगी है । यद्यपि अल्प कर्मबन्धन होता है, तथापि जन्य सुखों से तृष्णा बढ़ती है, और तृष्णा ही दुखों का (शेष पृ० ८ पर) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेल की जैन प्रतिमा D डा० प्रदीप शालिग्राम मेश्राम महाराष्ट्र राज्य के अकोला जिले में अकोला से लगभग सात सर्पफणों का छत्र भी सम्मिलित है। पादपीठ का २० मि. मी. दूर चौहाटा के पास "रेन" नामक एक छोटा-सा कस्बा है। यहाँ उगलियो पर गिनने लायक पार्श्वनाथ के सिर पर भगवान बट के जणीष की दिगंबर जैन परिवार बसे है। अधिकांश परिबारो मे भांति तीन धुंघराले केशों की लटें मात्र है। शेष भाग केश पीतल की बनी अधुनिक मूर्तियां पूजा मे है। लेकिन रहिन या मुण्डित है जिस पर सर्पकण अवशिष्ट है। कान श्री शंकरराव फलंबरकार के घर एक सफेद संगमरमर की कधं पर लटक रहे हैं आंखें अधखली हैं तथा भौहें लंबी पनी पार्श्वनाथ की मति बरबस ही ध्यान खीव लेती हैं। हैं ओठ किंचित मोटे हैं तथा नासाग्र सीधा है ग्रीवा तथा यह मति उनके मदिर प्रकोष्ट मे है तथा रोज पूजी जाती पेट का हिस्सा समतल है किन्तु सीना थोड़ा बाहर निकला है। शोधकर्ता किसी व्यक्तिगत कार्य से रेल गया था तब प्रतीत होता है जिसके मध्य मे श्रीवत्स चिह्न अकित है। यह मति देखने का अवसर मिला। लेखक फुलबरकारजी स्तनों के धुंडियों की जगह बारीक छिद्र मात्र दृष्टिगोचर का जिन्होने कुछ मिनट मूर्ति का अध्ययन करने होते है । नाभी को अर्धचंद्रकार रूप मे प्रदर्शित किया गया का अवसर दिया। है। इसके नीचे तीन चौकोर पद्मकों का अंकन है। सभवत: सफेद संगमरमर की बनी २३वे तीर्थकर अधोवस्त्र को बांधने के लिए मेखला के रूप मे इसे उपयुक्त पार्श्वनाथ की पपासन मुद्रा में बैठी यह अत्यत आकर्षक किया गया हो। लेकिन प्रतिमा में वस्त्र के कही भी लक्षण प्रतिमा है। यह" लबे तथा एक इच मोटे पादपीठ पर नही है। इसके सामने ही बायें हाथ पर दाहिना हाथ रखा बनी है। पादपीठ सहित मूर्ति की ऊचाई बारह इच याने है जिनकी चारों उंगलियां स्पष्ट दिखाई देती है जो अगुष्ठ एक फीट है। इसमे पाश्वनाथ के सिर पर दो इच ऊँचे में जुड़ी हुई है। (पृ० ७ का शाष) मूर्ति को धोते समय जल सग्रहन की सुविधा हो शुभोपयोग श्रमण गृहस्थ अथवा मुनिधर्म की चर्या से युक्त इसलिए कमर के चारों ओर खांच नुमा परिघा बनाई गई श्रावक और मुनियो का निरपेक्ष हो दयाभाव से उपकार है। जिससे पानी मूर्ति के पीछे न बहे इतना ही नही करे । शुभोपयोगी मुनि किसी अन्य मुनि को रोग से, भूख नाभी के नीचे जो स्थान बना है उसमें पानी बाहर निकलने से, प्यास से अथवा श्रम-थकावट आदि से पाकात, देख के लिए एक छिद्र बनाया गया है जो सहजता से दृष्टिगोचर अपनी शक्ति के अनुसार स्वीकृत करें अर्थात् वयावृत्य नही होता। द्वारा उसका खेद दूर करे । ग्लान (बीमार) गुरु बाल पाश्वनाथ के सिर पर सात सपंफण का छत्र प्रदशित अथवा वृद्ध साधुओ की वैयावृत्य के निमित्त शुभ भावों किया गया है जिसमें वह ध्यानमुद्रा में विराजमान है। सहित लौकिक जनों के साथ वार्तालाप भी निन्दित प्रत्येक फन पर दोनों ओर दो-दो वर्तुलाकार आँखें उत्कीर्ण नही है। की गई है। सिर पर धरे सातो सर्प फन पीछे में भी सिर मुनियों और धावकों का शुमोपयोग-शुभराग रूप पर सात खांचाओं से अकित है जो गर्दन तक पहुंच कर प्रवृत्ति मुनियो के अल्प रूप मे और गृहस्थो क उत्कट रूप एक मे विलीन हो जाते हैं। इतना ही नही रीढ़ की हड़ी मे होती है। गृहस्थ इसी शुम प्रवृत्ति से उत्कृष्ट सुख के साथ इसे एकाकार कर कमर के नीचे तक पहुंचाया प्राप्त करते हैं। (शेष पृ० १६ पर) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतांक से आगे : मूलाचार व उसकी आचार वृत्ति आगे लाचार गाय २०२ मे निर्दिष्ट ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियों की जयम्य स्थिति को विशद करते हुए वृत्ति में जो उनके साथ उत्तर प्रकृतियों को भी जघन्य स्थिति का निरूपण किया गया है वह पखण्डागम के इन सूत्रों का छायानुवाद है पचण्ड णाणावरणीयाण चदुण्ह दसणावरणीयाण लोभसजलणस्म पत्रमतराइयाण जहण्णओ द्विदिबंधो अतोमुहुत्त । ष० ख० सूत्र १, ६-७, ३ (५० ६, पृ० १५२ ) यथा पचज्ञानावरणचतुर्दर्शनावरण- लोभयज्वलन यचातरामाणा जघन्या स्थितिरन्तर्मुहूर्ता (मूला वृत्ति गा० १२-२०२ ) । श्रागे के इस प्रसग का मिलान क्रम के बिना इन ६० ख० के सूत्रों से कर लीजिए -६, ४१, १०, २१,६, १२, १५, २४, २७, ३१, ३५, ३८ व पुनः २४ । विशेषता : दोनो ग्रन्थगत इस प्रसग मे अभिप्रायभेव के बिना शब्दभेद कुछ हुआ है जो इस प्रकार है (१) सूत्र १५ मे जहाँ प० ख० पे 'बारह कषाय' ऐसा सामान्य से कहा गया है वहा इस वृत्ति मे विशेष रूप मे उन वार काय का नाम अनन्तानुबन्धी आदि के रूप में किया गया है । (ज्ञा० पी० सं० २, पृ० २८० ) । (२) सूत्र २४ मे ष० ख० में जहाँ स्त्रीवेद आदि के रूप मे पृथक पृथक आठ नोकवायो का नामनिर्देश किया गया है वहां इस वृत्ति मे 'आठ नोकषाय' के रूप मे सामान्य से कर दिया गया है । (३) सूत्र ३५ के समान इस वृत्ति मे वैकियिक अंगो [ पं० बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री पांग के साथ 'वैऋियिक शरीर' का भी उल्लेख किया जाना चाहिए था जो नहीं हुआ है। यह अशुद्धि लिपिकार या प्रूफ संशोधन के प्रभाववश हुई है। बम्बई संस्करण में यहां नरकगति के आगे 'देवगति छूटा है, उसे शा० पी० संस्करण मे ले लिया गया है । (४) आहार शरीर, आहार शरीरांगोगंग और तीर्थकर प्रकृतियों को जघन्य स्थिति का निर्देश करते हुए वृत्ति में 'कोटी कोट्योऽन्तःकोटीकोटी' के स्थान मे मात्र 'अन्तः कोटीकोटी' ही होना चाहिए था 'कोटीको‌यों का ग्रहण अशुद्ध हे पहा बम्बई] संस्करण में 'आहारशरीर छूटा था, उसे ज्ञा० पी० संस्करण में 'आहार' इतने मात्र से ग्रहण कर लिया गया है । (५) ० ० सूत्र में जहां स्त्रीवेद आदि माठ लोकवायों के पृथक पृथक नामनिर्देशपूर्वक उनके साथ तिर्यंचगति व मनुष्यगति आदि अन्य कुछ प्रकृतियों को भी ग्रहण किया गया है वहा इस वृत्ति में वृत्तिकार द्वारा आगे 'शेषारणां सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ' इत्यादि कहकर उन अन्य प्रकृतियों की सूचना ही की गई है, स्पष्ट उल्लेख उनका नहीं किया गया है । (६) एक उल्लेखनीय अशुद्धि यहां वृत्ति में यह हुई है कि 'मिथ्यात्वस्य सागरोपमस्य सप्तदश भागाः कहा गया है जो निश्चित ही अशुद्ध है । 'सप्तदशभागा' के स्थान मे सप्त सप्तभागाः' ही होना चाहिए या (ज्ञा० पी० स०२, पृ० ३७९-८० ) जिसका अभिप्राय एक । सागरोपम ७/७) होता है । वह ष० खं० के 'मिच्छतस्स जहण्णगोट्ठिदिबंधो सागरोवमस्स सत्त सत्तभागा पनिदोवमस्स असवेज्जदिभागेण ऊनिया इस सूत्र (१०, १२, ५०६, पृ० १०९) से सुस्पष्ट है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܕ ܘ ܪ वर्ष ४०, कि० २ अनेकान्त २ सर्वार्थसिद्धि - (१) मूलाचार गा० १ १६ की वृत्ति मे जो विभिन्न इन्द्रियो के स्वरूप आदि को स्पष्ट किया गया है उसमें अधिकांश सन्दर्भ थोड़े से परिवर्तन के साथ प्रायः सर्वार्थसिद्धि (सूत्र २, १७-२० ) से जसा का तैसा ले लिया गया है । यथा कर्मणा निर्वर्त्यते इति निवृत्तिः । सा च द्विविधा बाह्याभ्यन्तरा चेति । उत्सेधाङ्गुल्य संख्येयभागप्र मितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुः श्रोत्र- प्राण- रसन- स्पर्श नेन्द्रिय संस्यानेनावस्थितानां वृत्तिराभ्यन्तरा निवृत्तिः । तेष्वात्मप्रदेशेषु इन्द्रियव्यपदेशभाग् यः प्रतिनियत संस्थान नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गल - प्रचयः बाह्य निर्वृत्ति | ...एवं श्रोत्रेन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय- रसनेन्द्रियस्पर्शनेन्द्रियाणां वक्तव्यं बाह्याभ्यन्तरमेवेन द्वैविध्यम् । मूला० वृत्ति १-१६. सा निर्वर्त्यते निष्पद्यते इति निर्वृत्तिः । केन निर्वत्यंते ? कर्मणा । सा द्विविधा बाह्याभ्यन्तरभेदात् । उत्सेधांगुलासख्येयभाग प्रमितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रिय संस्थानेनावस्थितानां वृत्तिराभ्यन्तरा निर्वृतिः । तेष्वात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक्षु यः प्रतिनियत संस्थानो नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः सा बाह्या निवृत्तिः । एवं शेषेष्विन्द्रियेषु ज्ञेयम् । स० सि० २-१७. मूलाचार वृत्ति में यहा जो बुद्धिपुरःसरपरिवर्तन किया गया है व जिससे कुछ अभिप्राय का भेद नही हुआ है उसे दोनो मे रेखांकित कर दिया गया है। इसी प्रकार लब्धि और उपयोग भावेन्द्रियों के स्वरूप आदि को सर्वार्थसिद्ध २ १८ और स्पर्शनादि इन्द्रियों के स्वरूप को स० सि० २ १६ से मिलाया जा सकता है । (२) मूलाचार गा० ८-१४ की वृत्ति मे जो पाच परिवर्तनों का निरूपण किया गया है वह सब सन्दर्भ शब्दशः सर्वार्थसिद्धि २- १० से लिया गया है। यहां एक यह विशेषता रही है कि सर्वार्थसिद्धि मे पाच परिवर्तनों का नामनिर्देश किया गया है, पर यहां (मूल गाथा में ) चा परिवर्तनों का नामनिर्देश किया गया है तथा वृत्ति मे 'भवपरिवर्तन' के विषय में यह कह दिया है-भवपरि वर्तनं चात्रेव दृष्टव्यमन्यत्र पंचविधस्योपदेशात् । 'अन्यत्र ' के कहने से कदाचित् द्वादशानुप्रेक्षा ( कुन्दकुन्द) और सर्वासिद्धि का अभिप्राय सकता है, किन्तु उनके नाम का उल्लेख स्पष्टतया नहीं किया जा सका है। दूसरी एक विशेषता यह मी रही है कि स० सि० में जो उपर्युक्त प्रसंग में 'उक्तं च' कह कर क्रम से "सब्वे वि पुग्गला खलु" आदि पाच गाथाओ को उद्धृत किया है उन्हें यहां उद्धृत नही किया गया है । वे गाथायें यथा क्रम से आ० कुन्दकुन्द विरचित द्वादशानुप्रेक्षा मे २५ - २६ गाथांकों मे उपलब्ध होती है । अन्यत्र कही से उद्धरण देना यह वृत्तिकार वसुनन्दी को अभिप्रेत नहीं रहा । (३) मूलाचार में जो "सुहुमे जोगविसेसेण" इत्यादि गाथा (१२-२०४) उपलब्ध होती है उसकी वृत्ति मे गाथागत पदों की सार्थकता स्पष्ट की गई है। उधर तत्त्वार्थसूत्र में जो "नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्" इत्यादि सूत्र ( ८-२४) उपलब्ध होता है वह सम्भवत: मूलाचार की इसी गाथा पर आधारित है। इस सूत्र की व्याख्या करते हुए सर्वार्थसिद्धि मे सभी सूत्रगत पदों की सफलता को स्पष्ट किया गया । इन दोनो मे उपयुक्त सन्दर्भ शब्द व अर्थ से बहुत कुछ अभिन्न है । यथा सूक्ष्मादिग्रहणं कर्मयोग्यपुद्गलस्वभावानुवर्तनार्थ ग्रहणयोग्याः पुद्गलाः सूक्ष्मा न स्थूला इति । एक क्षेत्रावगाहवचनं क्षेत्रान्तरनिवृत्त्यर्थम् । स्थिता इति वचन क्रियान्तरनिवृत्त्यर्थं स्थिता न गच्छन्त इति । सर्वात्मदेशेविति वचनमाधारनिर्देशार्थं नैकप्रदेशादिषु कर्मप्रदेशा वर्तन्ते । क्व तर्हि ? ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् सर्वेष्वात्मप्रदेशेषु व्याप्य स्थिता इति । इत्यादि । स० सि० ८-२४. सूक्ष्मग्रहण ग्रहणयोग्य पुद्गलस्वभावानुवर्णनार्थं [वर्तनाथं] वर्ण (?) ग्रहणयोग्या पुद्गला सूक्ष्मा न स्थूला: । एकक्षेत्रागा हवचनं क्षेत्रान्तर निवृत्यर्थम् । X X x किशन्तरनिवृत्त्यर्थं स्थिता न गच्छन्तः । ( एकैक प्रदेशे इत्यत्र वीप्सानिर्देशेन सर्वात्मप्रदेश संग्रह. कृतस्तेन एकप्रदेशादिषु न ) कर्मप्रदेशाः प्रवर्तन्ते । क्व तर्हि ? ऊध्वंमधः स्थितास्तिर्यक् च सर्वेस्वात्मप्रदेशेषु व्याप्य स्थिता इति । इत्यादि । मूला० वृत्ति १२-२०४. प्रस्तुत किये जा सकते हैं-जैसे मूलाचार वृत्ति Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाचार व उसकी प्राचार वृत्ति १२-१८३ व सर्वार्थसिद्धि ८२ मे कर्मयोग्यानिति लघुनि शात् सिद्धेः कर्मणो योग्यानिति पृथगविभक्त्युच्चारणवाक्या तरज्ञापनार्थम् । इत्यादि (मूला वृत्तिगत प्रसंय कुछ अशुद्ध भी हुआ है किन्तु लेख को अधिक विस्तृत करना समय के अनुरूप नहीं है, अतः उनको अभी स्थगित करना ही उचित होगा । ३ जनेन्द्र व्याकरण-वृत्तिकर्ता लक्षणशास्त्र के भी अधिकारी विद्वान रहे है । उनकी विशेष रुचि जैनेन्द्र व्याकरण की ओर रही है, यह उनकी इस वृति के परिशीलन से स्पष्ट है । मूल ग्रन्थकार ने 'सामाचार अधिकार को प्रारम्भ करते जो मगल किया है उसमे 'सामाचारं हुए समासवो वोच्छ इस प्रकार से मंगलपूर्वक सामाचार अधिकार के कहने की प्रतिज्ञा की है । इसमे जो :समासदां (समासतः ) ' पद प्रयुक्त हुआ है उसके विषय मे वृत्ति कार ने यह स्पष्ट किया है कि यहां 'समासतः' मे जो पचमी विभक्ति का बोधक 'तस्' प्रत्यय हुआ है वह जैनेन्द्र व्याकरण के इस सूत्र के अनुसार हुआ है कायास्तस् (जैनेन्द्र सूत्र ४।१।११३) । यहा यह स्मरणीय है कि जैन व्याकरण मे 'का' वह पंचमी विभक्ति की सहा है। यही पर आगे गाथा ४-२ में प्रयुक्त 'सम्मान समान ) ' के स्पष्टीकरण में उन्होंने यह कहा है कि 'सह मानेन वर्तते इति समान' इस विग्रह के अनुसार यहा 'सह' के स्थान में इस सूत्र से 'स' आदेश हो गया है सहस्य स . खो (जैनेन्द्र सूत्र ४ । ३ । २१६.) । ४ धवला - प्रस्तुत मूलाचार वृत्ति में षट्खण्डागम की टीका धवला के अन्तर्गत अनेक सन्दर्भों को कही शब्दश उसी रूप मे और कहीं पर संस्कृत छायानुवाद के रूप मे यथा प्रसग अन्तर्हित कर लिया गया है। यथा पट्खण्डागम में सर्वप्रथम सूत्र १,१-२२ (१०१, पृ० १६१-७० ) मे मिध्यात्वादि चौदह गुणस्थानो के नामों का निर्देश मात्र किया गया है। उधर मूलाचार मे गाया १२१५४-५५ द्वारा भी उक्त गुणस्थानों का नामनिर्देश मात्र ११ किया गया है। उनका विशेष विवरण इन दोनो ग्रन्थों की टोका मे उपलब्ध होता है। विशेषता यह रही है कि घवला में जहां उनका स्पष्टीकरण मूल ग्रन्थ के अनुसार पूर्वोउन सूत्रों मे पृथक् पृथक् किया गया है वहा प्रस्तुत मूलाचार वृत्ति में उनका स्पष्टीकरण उक्त दोनों गाथाओ ( १२, १५४-५५ ) की वृत्ति में एक साथ कर दिया गया है। जैसे प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का स्वरूप धवला में इस प्रकार कहा गया है- मिथ्या वितथा व्यालीका प्रसत्या दृष्टिदर्शनं विपरीतैकान्त-विनय सायाज्ञानरूपमिध्यात्व कर्मोदयजनिता येषा ते मिथ्यादृष्टयः । XX X अथवा मिथ्या वितथम्, तत्र दृष्टि रुचिः श्रद्धाप्रत्ययो येषां ते मिध्यादृष्टयः घरा पु० १, १६२. इसे मूलाचार वृत्ति में शब्दश: इस प्रकार आत्मसात् कर लिया गया है मिथ्या वितथा[व्यलीका ] ऽसत्या दृष्टिदर्शन विपरीतकान्त-विनय संशयाज्ञानरूपमिध्यात्वकर्मोदयजनिता येषा ते मिथ्यादृष्टयोऽथवा मिथ्या वितथा तत्र दृष्टी रुचि बढा प्रत्ययो येषां ते मिध्यादृष्टयो] [उनेकान्ततत्त्वपराङ्मुखाः] । मूलाचार वृत्ति बम्बई संस्करण २, पृ० २७३ व शा० पी० संस्करण २, पृ० ३१३. इसी प्रकार सासादन आदि अन्य गुणस्थानो से सम्ब न्धित सन्दर्भ को भी दोनो ग्रन्थो मे समान रूप से देखा जा सकता है ( धवला पु० १ - सासादन पृ० १६३, सम्यग्मि० पृ० १६६, अ० पृ० १७१, सता० पृ० १०३. ७४, प्रमत्त १७६-७७, अप्रमत्त० १७८ ७६, अपूर्व० १५०८२. अनिवृत्ति १०३८६ सूक्ष्म० १०७.६८ उपशा १८६००२ क्षीणक० १८९-९० स०] १९१ अयोग के ० १६२ और गुणस्थानातीत सिद्ध २००. इस प्रसंग में धवला मे प्रसग के अनुरूप शका-समा धान पूर्वक बीच बीच मे कुछ अन्य चर्चा भी की गई है, इससे क्रमश सन्दर्भों का मिलान करना शक्य नहीं है, इसलिए यहा धवला से लेकर कुछ सम्बद्ध वाक्यो को १. यहां धवला में प्रसंग से सम्बद्ध दो प्राचीन गाथाओं को उद्धृत कर उनके आश्रय से अपने अभिप्राय की पुष्टि की गई है, जिन्हें आ० बसुनन्दी ने उद्धृत करना भावश्यक नही समझा । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, वर्ष ४०, कि०२ अनेकान्त उद्धृत कर देते है, जिन्हें प्रस्तुत मूलाचार वृत्ति मे मिलाया में सा च...." जायते, आत्मनोऽक्रमेण तथाविधपरिणामाजा सकता है । जैसे भावात् । शरीरोपादानात प्रथम'......। २ सासादन-आसादन सम्यक वावराधनम्, सह उपशमनविधि-धवला पृ० १, पृ० २१०-१४ और आसादनेनवर्तते इति सासादनो विनाशितसम्म ग्दर्शनोऽप्राप्त मूला वृ० गा० १५-२०५ (मा० सस्करण २ पृ. ३२०-२२ मिथ्यात्वकर्मोदयजनितपरिणामो मिथ्यात्वाभिमुख: सासादन व ज्ञा० पी० संस्करण, पु० ३८५.८७) । दोनो मे शब्दश: इति भण्यते । पृ० १६३. मिलान कीजिये३ सम्यमिथ्यादष्टि-दृष्टि: श्रद्धा रुचि: इति यावत्, धवला पु० १, पृ० २११---अ व्वकरणे ण एक्क पि समीचीना च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासी राम्यग्मिध्यादृष्टिः। कम्ममुवसमदि किंतु अपुवकर । "पृ० २११-१४ xxx सम्यक्त्व-मिथ्यात्वयोस्दयप्राप्तस्पर्धकानां क्षयात् तक। सतामुदयाभावलक्षणोपशमान्मिथ्यात्वकर्मण. सर्वघातिस्प मूला० वृत्ति १२-२०५-अपूर्वक रणे नकमपि कर्मो. घंकोदयाच्च..."। पृ० १६६ व आगे पृ० १७०. पशाम्यति । कित्वपूर्वक रण...... पृ० ३२०.२२ (मा० ग्र० ४ असंयतसम्यग्दृष्टि -समीचीना दृष्टि: श्रद्धा यस्या तथा ज्ञा० पी० २, पृ० ३८५-८७) तक ! सो सम्यग्दृष्टिः, असयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च असयत यहाँ कुछ वाक्य आगे-पीछे भी व्यवहृत हुए है। सम्यग्दृष्टिः । सो वि सम्माइट्ठी तिविहो खइयसम्मा इट्ठी यथावेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी चेदि । "पृ० १७१. ५ संयतासंयत-सयताश्च ते असयताश्च संयता अणताणबधिकोध - माण-माया-लोभ-सम्मत्त - सम्मा मिच्छत्त-मिच्छत्तमिदि एदाओ सत्त पथडीओ असजदससंयताः । xxx न चात्र विरोध: सपमासयमयोरेक म्म! इट्रिप्पडि जाव अप्पनत्तसजदोत्ति ताव एदेसु जो वा द्रव्यवतिनोस्त्रसस्थावरनिबन्धनत्वात्। Xxx अप्रत्याख्यानावरणीयस्य सर्वघातिस्पर्द्धकाना मुदयक्षपात् सता चोप सो वा उसामेदि।xxx दमणतियस्म उदयाभावो उपसमो, तेसि मुवसताण पि ओकड्डुका ड्डण-परपयडिसशमात् प्रत्याख्यानावरणीयोदयादप्रत्याख्यानोत्सत्ते. । पृ० कमाणमत्थित्तादो। धवला पृ० २१०.११ १७३-७५. इसी पद्धति से आगे के प्रमत्तसयतादि गुणस्यानो से अनन्तानुबधि - क्रोध-मान-माया-लोभ-सम्यक्त्वमिथ्यासम्बद्ध सन्दर्भो को भी इन दोनो ग्रन्थों मे मिलाया जा रव सम्य मिथ्यात्वानीत्येता: सप्तप्रकृती: असयतसम्यगमकता है। दृष्टि - स यतासयत-प्रमत्ताप्रमत्तादीना (?) मध्ये कोऽप्येक धवला और मूलाचार वृत्ति मे कुछ अन्य प्रसग भी उपशमयति । Xxx दर्शनमोहत्रिकस्योदयाभाव उपशब्दशः मिलान के योग्य है शमस्तेषामुपशान्तानामप्युत्कर्षापकर्ष - परप्रकृतिसक्रमणापर्याप्ति के छह भेद-धवला पु० १, पृ० २५४-५६ नामस्तित्व यतः इति । मूला० वृत्ति पृ० ३२०-२१, मा० व मूला० वृत्ति १२-१६५, मा० ग्र० संस्करण २, पृ० ग्र० मा० स० २ पृ. ३८५ व ३८६ । ३०९-१० व भा० ज्ञा० पी० सस्करण २, पृ० ३६७-६८. क्षपणविधि-इस प्रसग का भी दोनों ग्रन्थो मे (यहा इन दोनों मस्करणो मे आहारपर्याप्ति से सम्बद्ध शब्दशः मिलन किया जा सकता है--धवला० पु. १, प्रसंग कुछ त्रुटित भी हुआ है । जैसे पृ० २१५-२३ 'सजोगिजिगो होदि' तक और मूला० वृत्ति .... . . 'स्खल रसपर्यायः परिणमनशक्तिराहारपर्याप्ति.।' २ पृ० ३१२-१३ ज्ञ'० पी० स० २, पृ० ३८८.६. 'सयोइसके स्थान मे ऐसा पाठ सम्भव है- .."खल-रसपर्या- गिजिनो भवति' तक । यः परिणमनशक्तेनिमित्तानामाप्तिराहार पर्याप्ति: ।' आगे इन दोनो प्रसंगों की प्ररूपणा करते हुए मूलाचार'सा च ...."जायते शरीरोपादानात प्रथम' इसके स्थान वृत्ति मे अनेक अशुद्धियां हुई हैं। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार व उसकी प्राचार वृत्ति उपशमविधि के अन्त में 'उदयोदोरणात्कर्षणोपकर्षण" समुहेण परमहेण य मोहाउविवज्जिया सेसा ॥४-४४६ स्थानमपि समन्नाम्नेष मोहनीयोपशमन विधिः इति' यह पच्चइ णो मणुयाऊ णिरयाउमुहेण समयणि ट्ठि । अधिक जुड़ गया है जो अशुद्ध या विचारणीय है (अनुवाद तह चरियमोहणीय दंसणमोहेण सजुत्त ॥४-४५० भी विचारणीय है)। यहा यह स्मरणीय है कि 'पचसग्रह' यह एक गाथावत यहां धवला मे क्षपणविधि के प्रसग मे मतभेद से सम्बद्ध ग्रन्थ है, पर प्रस्तुत वृत्ति गद्य रूप सस्कृत में रची गई है, एक लंबा शका-समाधान हुआ है (पृ० २१७-२२)। यह इसलिये वृत्ति मे उपर्युक्त गाथाओ को उसी रूप में आत्मशका-समाधान मूलाचार वृत्ति (पृ० ३२३) मे भी उपलब्ध सात् करना सम्भव नहीं था। हा, 'उक्त च आदि के रूप होता है, जिसे धवलागत निष्कर्ष को लेकर प्रायः उन्ही में वृत्तिकार उनके द्वारा अपने उक्त अभिप्राय की पुष्टि कर शब्दों के द्वारा २-३ पक्तियों में समाप्त कर दिया गया है। सकत थे, पर वैसी उनकी पद्धति नही रही। इस प्रसंग में मलागार मे 'षोडश कर्माणि द्वादश या (?) (7) इसौ वृत्ति मे आगे उन्होने कर्मप्रकृतियो मे सर्वऐसा जो कहा गया है विचारणीय है। घातिरूप:। और देशघातिरूपता को भी स्पष्ट किया है। उपर्युक्त प्रसंगों के अतिरिक्त धवलागत अनेक प्रसगों इस प्रसग में सर्वप्रथम यह वाक्य उपलब्ध होता हैको इस वृत्ति के अन्तर्गत किया गया है, जिन्हें प्रस्तुत केवल ज्ञानावरण- केवलदर्शनावरण'-निद्रनिद्रा-प्रचला. करना इस लेख मे सम्भव नही है। वह एक स्वतत्र निबन्ध प्रचला-स्त्यान-गद्धि-प्रचला-निद्राः चतुः सज्वलनवा का विषय है। यदि स्वास्थ्य ने साथ दिया तो उसे फिर द्वादशकषायाः । मिथ्यात्वादीनां (2) विंशति प्रकृतीनामनुकभी प्रस्तुत किया जायगा। भाग सर्वघाती। ५पंचसंग्रह-(१) मूलाचार गाथा १२-२०३ मे यहा मिथ्यात्व' के आगे जो षष्ठी बहुवचन के साथ अनुभागबन्ध के स्वरूप का निर्देश किया गया है। इसकी 'आदि शब्द प्रयुक्त हुआ है, उससे वृत्तिकार का क्या अभिव्याख्या करते हुए वृत्तिकार ने उस अनुभाग को स्वमुख प्राय रहा है, यह ज्ञात नहीं होता। पाठ भी कदाचित् अशुद्ध और प्रमुख के भेद से दो प्रकार का कहा है। उस प्रमग हो सकता है। सरूया उनकी बीस(२०) निर्दिष्ट की गई है। मे उन्होने यह स्पष्ट किया है कि सब मुल प्रकृतियों के हो सकता है वे 'आदि' से कदाचित् 'सम्पग्मिध्यात्व' की रसविशेष का अनुभव (विपाक) बमुख से ही होता है --- सूचना कर रहे है, पर वैसा होने पर बीस के स्थान मे उनमैं परस्पर सक्रमण नहीं होता। किन्तु उनको उत्तर इक्कीम सख्या हो जाती है। प्रकृतियो का विपाक स्वमुख से भी होता है व परमुख मे पचसग्रह में इस प्रसग में यह एक गाथा उपलब्ध से भी होता है। विशेष इतना है कि वार आयु प्रकृतियो होती हैमें परस्पर सक्रमण नहीं होता, अर्थात् एक कोई आयु दूसरी केवलणाणावरणं दमणछक्कं च मोहबारसयं । आयु के रूप में परिणत होकर विपाक को प्राप्त नही ता सब्बघा इसण्णा मिस्स मिच्छत्तमेयवीसदियं ॥४.४८३ होती। इसी प्रकार दर्शन मोह और चारियमोह में भी यहा स्पष्ट तया 'मिस्स' के साथ 'एयवीसदिय' का परस्पर सक्रमण नही होता । निर्देश किया गया है। यह संख्याविषयक भेद बन्ध व इस स्पष्टोकरण का आधार कदाचित् पचसग्रह (दि०) उदीरणा की अपेक्षा हो सकता है। कारण यह कि 'सम्यकी ये गाथायें हो सकती है ग्मिध्यात्व' अबन्धनीय प्रकृति है, अत: उसका बन्ध तो नहीं पच्चंति मूलपयडी णूण समुहेण सव्य जीवाणं । होता, किन्तु उदय-उदीरणा उसकी सम्भव है।' १. यहां मा० ग्र० सस्करण में 'केवल ज्ञानावरण केवल २. मिथ्यात्वं विंशति-धे सम्यग्मिध्यात्वसंयुता। दर्शनावरण'-नही रहे है, पर ज्ञा० पी० संस्करण उदये ता पुनर्दक्षरेकविशतिरीरिता । (पृ० ३८१) में उन्हें ग्रहण कर लिया गया है। पचमंग्रह की संस्कृत टीका में उद्धृत । पृ० २७५ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, वर्ष ४०, कि० २ मेनेकान्त (३) आगे वत्ति में सर्वघाती और देशघाती का प्रसंग हाल में मूलाचार का जो संस्करण भा० ज्ञानपीठ से इस प्रकार प्राप्त होता है प्रकाशित हुआ है उसमे वे सभी अशुद्धिया और विचारणीय मतिज्ञान-श्रुतज्ञानावधिज्ञान-मन.पर्ययज्ञानावरण-पंचा- स्थल प्रायः उसी रूप मे तद्वस्थ हैं, जिस प्रकार कि मा० न्तराय-संज्वल नक्रोध-मानामाया - लोभ- नवनोकषाणामुत्क- ग्रन्थमाला से प्रकाशित पूर्व सस्करण मे रहे हैं। इसका ष्टानुभागबन्ध: सर्वघाती व जघन्यो देशघाती । हिन्दी अनुवाद सुयोग्य विदुषी प्रायिका ज्ञानमती जी ने उसका जो इम प्रकार से अनुवाद किया गया है वह अपने कृत निर्णय (आद्य उपोद्घात पृ० 26) के अनुसार मूल का अनुसरण नही करता शब्दश: टीकानुवाद के साथ किया है। इस महत्त्वपूर्ण मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, अनुवादादि कार्य में आर्यिका माता जी की योग्यता एव मनःपर्ययज्ञानावरण, पाच अन्तराय, सज्वलन क्रोध-मान- परिधम सराहनीय है। इसका आधार कदाचित् 'आ. माया-लोभ और नो नोकषाय, चक्षदर्शनावरण, प्रचक्ष- शा० जिनवाणी जीणोद्धार सस्था, फलटण' से प्रकाशित वर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और सम्यक्त्व प्रकृति ; इन उसका पूर्व सस्करण हो सकता है। इस सब परिस्थिति क छन्वीस का उत्कृष्ट अनुभाग सर्वघाती है और जघन्य रहते हुए भी इस अनुवाद में पाठो की अशुद्धियो और अनुभाग देशघाती है। प्राचीन प्रतियो से मिलान के योग्य अनेक दुरूह स्थलो के मूल में चक्षुदर्शनाबरण आदि चार प्रकृतियों का और कारण कुछ विसगति भी हुई है। इसके लिये मै यहा लखछन्वीस सख्या का उल्लेख नही किया गया है। विस्तार के भय से यु.छ थोड़ी ही विसगतियो को उदाहरणो उपयुक्त अनुवाद सम्भवतः कर्मकाण्ड गाथा ४० के द्वारा स्पष्ट कर देना चाहता है । यथाअनुसार किया गया है। पर वहा उक्त छव्वीस प्रकृतियो १ गाथा ३४ मे 'स्थितिभोजन मूलगुण के प्रसग मे को देशघाती ही कहा गया है, उनके उत्कृष्ट अनुभाग को 'मिथस्तस्य...' इत्यादि पाठ वृत्ति (पृ० ४४) में मुद्रित है। सर्वघाती और जघन्य अनुभाग को देशघाती नही कहा गया वह निश्चित ही अशुद्ध है। उसके स्थान में स्थितस्य...' पाठ शुद्ध होना चाहिये । अनुवाद में 'मुनि खड़े होकर पंचसंग्रह की भी यह गाथा दृष्टव्य है पाहार ग्रहण करते है' यह उसका अभिप्राय सगत ही रहा णाणावरण चउक्क दसतिगमतराइगे पच। है, पर मूल मे 'मिथस्तस्य' यही अशुद्ध पाठ तद्वस्थ रहा ता होंति देसघाई सम्म सजलण णोकसाया य॥४.४८४ है, जिसकी सगति अनुवाद के साथ नही रही। प्रकृत में बत्तिकारने सम्भवतः उपर्युक्त प्रसग के स्पष्टीकरण मे मिथः तस्य' उस पाठ की किसी भी प्रकार से सगति नही धवलाका अनुमरण किया है। बैठ सकती। (४) इससे आगे जो यहां वृत्ति मे साता-असाता आदि २ आगे गाथा ३५ की वृत्ति मे (पृ० ४५) 'अन्यअघाति प्रकृतियों, पुण्य-पाप सज्ञाओ और चतु स्थानिक थार्थत्वात् भिषक्रियावदिति' ऐसा पाठ मुद्रित है। यहां आदि अनुभागविशेष का विचार किया गया है वह पच 'अन्यथार्थत्वात्' के स्थान मे 'अन्यार्थत्वात्' ऐसा शुद्ध पाठ सग्रह की ४,४८५-८७ गाथाओं से बहुत कुछ समान है : सम्भव है। तदनुसार अनुवाद में " वैद्य की शल्य क्रिया अनुवाद के समान ये दुःख से विपरीत अन्यथा अर्थवालेही है। इसके जैसा कि उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो चुका है, अभी स्थान मे 'उपर्युक्त महाव्रतादि के अनुष्ठान विषयक उपदेश १. यह धवलाका अनुसरण है-वहां पु० १५ पृ० १७०. ७१ में अनुभाग उदीरणा के प्रसग मे इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट अनुभाग से सम्बन्धित सर्वघातित्व और देशघातित्व का पृथक-पृथक् विचार किया गया है। वहां अचक्ष दर्शनावरण के उत्कृष्ट व अनुभाग को देशघाती तथा चक्ष दर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण के उत्कृष्ट को सर्वघाती और अनुत्कृष्ट को सर्वघाती व देशघाती कहा गया है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार व उसकी प्राचार वृत्ति का भिन्न ही प्रयोजन या अभिप्राय रहा है' ऐमा स्पष्टी- नही है। उसका अर्थ 'व्याख्यान करना चाहिए' यह होता करण होना चाहिये। आगे अनुवाद में जैसे वैद्य रोगी के चाहिए। उस प्रसंग में जो अपवाद के रूप मे विशेष फोड़े को चीरता है...' इत्यादि स्पष्टीकरण प्रसंग के वक्तव्य रहा है उसे मूल ग्रन्यकार ने उसके आगे स्वय अनुरूप ही रहा है। १८८.६५ गाथाओं में अभिव्यक्त कर दिया है। ३ यहीं पर आगे वृत्ति में (पृ० ४६) 'तदुभयोभनमु इमी भूल से यहां भावार्थ में जो उसका स्पष्टीकरण भयम् पाठ मुद्रित है, जो निश्चित ही अशुद्ध है। पर किया गया है वह आगम परम्परा के विरुद्ध सिद्ध होने उसका 'मालोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना तवुभय वाला है। उसमे यह अभिप्राय प्रगट किया गया हैतप है' यह अनुवाद सगर ही है । 'तप' के स्थान में 'प्राय- "इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि आयिकाओं घिचत' शब्द का प्रयोग अधिक निकटवर्ती था। मुद्रित उस के लिए वे ही अट्ठाईस मूलगुण और वे ही प्रत्याख्यान, अशुद्ध पाठ के अनुसार 'उन दोनों को छोड़ देना' यह संस्तरग्रहण आदि तथा वे ही औधिक पदविभागिक समा. उसका अर्थ होता है, जो प्रसग के सर्वथा विरुद्ध है। चार माने गये है जो कि यहा तक चार अध्यायों में मुनियों ४ इसके आगे यही पर वृत्ति में (पृ० ४७) 'विपरीतं का गतस्य मनस: निवर्तन श्रद्धानम्' यह 'श्रद्धान' प्रायश्चित्त के इस प्रसग मे यह प्रश्न उपस्थित होता है कि मलप्रसंग में कहा गया है। गुणों में तो प्राचेलक्य और स्थितिभोजन भी हैं (यही पर पीछे गा० २-३ व प्रवचनसार गा० ३, ८-६), ऐसी परियहां 'विपरीतं' के स्थान मे सम्मवतः "विपरीतता' स्थिति में क्या ये दोनो मूल गुण भी आयिकाओं के द्वारा पाठ रहा है। विपरीत' पाठ को देखकर ही सम्भवतः अनष्ठेय हैं। यह यहां विशेष स्मरणीय है कि धवलाकार उसके अनुवाद मे 'विपरीत मिथ्यात्व' अर्थ किया गया है आ० बीरसेन ने स्त्रियों की अचेलकता (निर्वस्त्रता) का जो संगत नही दिखता। 'विपरीतता' पाठ के के अनुसार प्रबलता से विरोध किया है (पु० १, पृ० ३३२-३३)। उसका अर्थ विपरीतता-मिथ्याभाव (अयथार्थ श्रद्धान) को आ० कुन्दकुन्द ने भी स्त्रियो के लिए प्रवज्या का प्राप्त मन को उससे लौटाना, यह अर्थ होगा जिसे असगत प्रतिषेध करते हुए उन्हें एक वस्त्र की धारक कहा है। नहीं कहा जा सकता कारण यह है कि 'श्रद्धान' के प्रसग यथा - में मन को केवल विपरीत मिथ्यात्व की ओर से ही नही लिंग इत्थीण हवदि भुंजइ गिडं सुएयकालम्मि । हटाना है, प्रत्युत सब ही प्रकार के मिथ्यात्व से हटाना अज्जिय वि एकवत्था वत्थावरणे ण भुजेइ । बोधप्राभत अभिप्रेत है। २२ (आगे की गाथा २३-२६ भी द्रष्टव्य है। ५ गाथा ११२की वृत्ति (पृ० ६६) मे गाथा मे उप- यह भी स्मरणीय है आ० ज्ञानमती माता जी प्रस्तुत युक्त 'उपक्रम' का अर्थ उपलब्ध पाठ के अनुसार 'प्रवर्तन' मूलाचार का रचयिता आ० कुन्दकुन्द को ही मानती हैं। होता है जो प्रसग के अनुरूप नही है । 'उपक्रम प्रवर्तन' निक: के स्थान मे 'उपक्रमः अपवर्तन' पाठ सम्भव है । तदनुसार जहां तक मैं समझ सका हूं प्रस्तुत गाथा मे उपयुक्त अनुवाद में 'यदि मेरा इस देश या काल में जीवन रहेगा' 'एसो प्रज्जाण पि सामाचारों' में मलग्रन्थकर्म का अभिके स्थान में 'यदि इस देश या काल में मेरे जीवन का प्राय 'एसो' से केवल प्रकृत चौथे सामाचार अधिकार का उपक्रम-अपघात होता है' ऐसा अभिप्राय रहना ही रहा है, न कि पूर्व चार अधिकारों का। यदि ऐसा न चाहिए। समझा जाय तो एक यह आपत्ति भी उपस्थित होती है ६ गाथा १८७ (पृ० १५३) में विभासिदब्बो-वि- कि आगे के अन्य पंचाचार, पिण्डशुद्धि और आवश्यक भाषयितव्यः' पद प्रयुक्त हुआ है। अनुवाद में उसका अर्थ आदि अधिकारों में प्ररूपित अनुष्ठान आयिकाओं के लिए 'करना चाहिए' ऐसा किया गया है, जो प्रसग के अनुरूप निषिद्ध ठहर सकते हैं। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६, वर्ष ४०, कि० २ भनेकान्त ७ आगे गाथा २०३ को वत्ति पृ० १६६) में प्रसंग- प्रकार होना चाहिए-धर्म आदि द्रव्यों के भी स्कन्ध व प्राप्त एक शका-समाधान में 'यावतंषामधिगताना यत् स्कन्धदेश आदि भेद होते हैं, इसके निरूपणार्थ भी यहां प्रधानं तत् सम्यक्त्वमित्युक्तम्' ऐमा पाठ मुद्रित है । इसमें 'स्कन्ध' आदि को पुनः ग्रहण किया गया है। इसके लिए निश्चित ही प्राचीन हस्तलिखित प्रतियो मे 'प्रधान' के षट् खण्डागम-बन्धन अनुयोगद्वार के अन्तर्गत ये सूत्र देखे स्थान मे 'श्रद्धानं' पाठ उपलब्ध होना चाहिए। तदनुसार जा सकते हैउसका यह अभिप्राय होना चाहिए कि समीचीननया जाने जो सो अणादियविस्ससाबंधो सो तिविहो-धम्मगये इन गाथोक्त जीवाजीवादि पदार्थों का जो श्रद्धान है त्थिया अधम्मत्थिया आगासत्थिया चेदि ॥३०॥ धम्मत्थि. वह सम्यक्त्व है, ऐसा कहा गया है। इसकी मगति आग या धम्मत्थियदेसा धम्मत्थियपदेसा अधम्मत्यिया अधम्म. उस शका के ममाधान में जो 'नेप दोष , श्रद्धान रूपेय- त्थियदेसा अधम्मत्थियपदेसा आगासत्थिया आगासत्थियमधिगतिरन्यथा परमार्थाधिगतेरभावात्' यह जो कहा गया देसा आगासन्थियपदेसा एदासिं तिण्ण पि अस्थि आणमण्णो. है. उससे भी बैठ जाती है। इस परिस्थिति में अनुवाद में गणपदेनबधो होदि ॥३१।। (पु०१४ पृ० २६)। जो " . . . . 'सत्यार्थरूप से जाने गये इनमे मे जो प्रधान १० गाथा २४४ की वृत्ति में (पृ. २०४) यह पाठ है वह सम्पक्त्व है ऐसा सम्यक्त्व है ऐमा कहना तो युक्त उपलब्ध होता है-अथवाऽयमभिसम्बन्धः कर्तव्यो मिथ्याहो भी सकता है ?" यह स्पष्ट किया गया है वह किसी दृष्ट्याद्युपशान्तानामेतद् व्याख्यान वेदितव्यम् । भी प्रकार (से संगत नही हो मकना पृ० १७०)। इसका अनुवाद इस प्रकार है-अथवा ऐसा सम्बन्ध ८ गाथा २:२ को वत्ति पृ० १६६) में जो 'ते करना कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय नामक पुनररूपिणोऽजीवाः' ऐमा पाठ मुद्रत है वह सगत नही देशवें गुणस्थान पर्यन्त यह (बन्ध का) व्याख्यान समझना हैं, उसे अवग्रह चिह्न (5) से रहित 'ते पुनररूपिणो जीवा.' चाहिए । इस प्रकार मूल मे जहां 'मिथ्यादृष्ट्याधुपशान्ताऐसा होना चाहिए । तदनुमार उसका यह अभिप्राय होण नामेतत् ऐसा कहा गया है वहा अनुवाद मे 'मिथ्यादृष्टि कि पूर्व में जिन जीवों की प्ररूपणा की जा चुकी है (गा. से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय नामक दशवें गुणस्थान पर्यन्त' २०४-२६) उन अरूपी जीवो के साथ प्रस्तुत गाथा ऐसा अर्थ किया गया है। इस प्रकार मूल में और अनु(३३२) में निर्दिष्ट धर्म, अधर्म और आकाश तथा काल बाद मे एकरूपता नहीं रही है। भी ये अरूपी द्रव्य है। ११ इसी प्रकार यही पर आगे वृत्ति मे 'अपरिणत' इस प्रकार से गाथा का अर्थ और उतने अश का वृत्ति का अर्थ 'अयोगी और सिद्ध अथवा सयोगी और अयोगी' का भी अर्थ (बे पुन. अरूपी अजीव द्रव्य हैं) असगत ऐमा तथा 'उच्छिन्न' का अर्थ 'क्षीणकषाय' ऐसा किया गया है । किन्तु अनवाद में उसके स्पष्टीकरण में 'अपरियह यहां विशेष ध्यातव्य है कि वृत्ति कार 'तच्छन्द, णत' अर्थात उपशान्तमोह और 'उच्छिन्न' अर्थात क्षीणपूर्व प्रकान्त-(प्रकरणगत-)परामर्शी' है, यह कह कर गाथा मोह प्रादि' इतना मात्र कहा गया है। यह स्पष्टीकरण मे प्रयक्त 'ते' पद के ही अभिप्राय को स्पष्ट कर रहे है। भी मल से सम्बद्ध नहीं रहा। है यही पर आगे इसी वृत्ति मे जो 'धर्मादीना च वैसे तो यह मुद्रित वृत्तिगत पाठ ही कुछ अस्त-व्यस्त स्कन्धादिभेदप्रतिपादनाथं च पुनर्ग्रहणम्' यह कहा गया है हुआ सा दिखता है। उसका अनुवाद जो 'धर्म आदि का प्रतिपादन करके पुदगल के स्कन्ध आदि के भेद बतलाने के लिए यहा उनका अनुवाद का अभाव : पुन: ग्रहण कर लिया गया है' यह स्पष्टीकरण किया गया सम्भवतः व्याकरण आदि की ओर विशेष लक्ष्य न है वह संगत नहीं है । इसके स्थान में उसका अनुवाद इस रहने से कहीं-कही अनुवाद को छोड़ भी दिया गया है या Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधार व ऊसकी प्राचार वृत्ति अस्पष्ट बह रहा है। जैसे व्याकरण के निमित्त से दीर्घ हो गया है। इसमें विशेष (१) गाथा १२२ की वृत्ति में (पृ० १०६) "समा स्पष्टीकरण की अपेक्षा रही है। सदो-संक्षेपेण 'काया' तर 'कायास्नस्']।" इतना एए छच्च समाणा दोणिय संझना अट्ठ। मात्र संकेत किया गया है। उनका अनुवाद नही है। अण्णोण्णस्स परोपरमुवेति सव्वे समादेसं ।। 'कायास्तस्' यह जैनेन्द्र व्याकरण का सूत्र (४।१। धवला पु० १२, २८६ (उद्धृत) ११३) है। जैन व्याकरण के अनुसार 'का' यह पंचमी यह एक सामान्य मूत्र है। इसका अभिप्राय यह है विभक्ति की संज्ञा है। सदनसार उसका अभिप्राय यह है कि अ, आ, इ, ई, उ, ऊ ये छह समान स्वर तथा ए और कि पंचमी-विभक्त्यन्त 'किम्' आदि शब्द को 'तस' प्रत्यय प्रो के ये दो सन्ध्यक्षर ये आठों स्वर परस्पर में आदेश हो जाता है। जैसे 'कस्मात् कुत' । प्रकृत मे 'समासात्' को प्राप्त होते है-विना विरोध के एक दूसरे के स्थान यहां पंचमी विभक्ति से 'तस्' प्रत्यय हो कर 'समासत: मे हो जाते हैं। तदनुसार यहाँ 'समाचार' में सकारवर्ती (समासदो)' निष्पन्न हुआ है। अकार के स्थान मे आकार होकर 'सामाचार' निष्पन्न (२) यही पर आगे गा० १२३ की वृत्ति में (पृ० । हुआ है। १०८) "सम्माणं-सह मानेन परिणामेन वर्तते इति समान (४) गा० १६६ की वृत्ति मे (पृ० १६३) में यह सहस्य सः"....."यह कहा गया है। उसका अनुवाद इस सूचना की गई है-मात्र विमक्त्यन्तरं प्राकृत लक्षणेनाप्रकार हुआ है---यहां सह को स आदेश व्याकरण के कारस्यकारः कृतोयतः । इसका अनुवाद नहीं किया गया नियम से सह मान ममान बना है। यह अस्पष्ट है, कुछ है। उद्धरणक आदि चिह्न विणेष भी नहीं है, जिससे उसका मूल गाथा में 'दंसण-णार-चरित्ते' यह जो कहा गया कुछ अभिप्राय समझा जा सके। है उसमे 'चरितं' पद को स्पष्ट करते हुए वृत्तिकार कहते 'सहस्य सः खो' यह भी उक्त जैनेन्द्र व्याकरण का ही है कि गाथा में जो 'चरित्ते' है, इसे विभक्त्यन्तर नही सूत्र (४।३।२४६) है। उसका अभिप्राय है कि सज्ञा-शब्द समझना चाहिए, क्योंकि प्राकृत व्याकरण के अनसार के होने पर 'सह' के स्थान में 'स' आदेश हो जाता है। यहां तकारवती एकार के स्थान में अकार हो गया है। जैसे-सह अश्वत्थेन साश्वत्थं । प्रकृत मे 'सह मानेन' यहां यहाँ उपयुक्त (एए छच्च समाणा) सूत्र ही लागू होता है। 'सह' के स्थान में 'स' होकर 'समान' बन गया है। इस प्रकार यहा प्रस्तुत ग्रन्थगत कुछ ही अधिकारों (३) गा० १२४ की वृत्ति मे (पृ० १०६) 'सम्यक् मे जो स्थल दृष्टि से अशुद्धिया दिखी हैं उन्हीं के विषय आचार एव सामाचार: प्राकृत बलाद्वा दीर्घत्वमादेः' ऐसा में विचार किया गया है। कहा गया है। इसका अनुवाद इस प्रकार है-यहां प्राकृत सम्पादकीय :--'प्रागम की प्रामाणिकता' विषय पर हमारा कुछ लिखने का विचार है । अभी तो परमागम षटखंडागम आनि के अनुवादक व जैन लक्षणावली आदि के सर्जक, उच्चकोटि के विद्वान पंडित जी का उक्त लेख मूलाच र' के प्रामाणिक संस्करण के प्रकाश में लाने के सदर्भ मे है । पाठक उनकी अन्तर्वेदना को समझ, अन्य सभी नागमो को प्रामाणिक रखने की दिशा मे प्रयत्नशील हो-यह हमारा भाव है। त अंको से हम जिनवाणी के अक्षुण्ण निर्मल रखने और उक्त लेख के लेखक-विचारक, ज्ञानसमद्ध जैसे विद्वानों के उत्पादन और संरक्षण करने की और समाज का ध्यान आकर्षित करते रहे हैं। उक्त लेख के परमोपयोगी होने पर भी विवश-हम उसे एक अक मे पूरा न द सके इसके लिए क्षमाप्रार्थी है। -सम्पादक Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो हजारवीं जयंती हेतु विशेष प्रेरणा आचार्य हमारे कुन्दकुन्द सुरेश सरल, जबलपुर जैनों के वह आचार्य जो नीति, न्याय और बुद्धि के संवत ४४ अथवा वीर नि० स० ५१३ में जन्मने वाले धरातल पर आध्यात्मिक के ग्रन्थ, ग्रन्थ नही ग्रन्थावली, कुन्दकुन्द विचार क्रान्ति और चरित्र-उपासना के उदाहरण. अब से सैकड़ों साल पूर्व रचकर हमे विश्व के विद्वानो के महाकवि बनकर जग की अगुवाई करने तत्कालीन समाज समक्ष बराबरी से खड़े हो जाने लायक स्थान दे गए, के सामने आए थे और तब से अब तक वे आगे हैं अपने जिनके कारण विश्व के किसी भी महान् ग्रन्थ और उसके दर परावर्ती से। रचयिता की चर्चा सुनकर हमें हीनता का आभाम नहीं विश्व-विद्वत्ता के भडारो अथवा प्रतीको-श्रेष्ठ होता। जब जिस किसी भी विशिष्ट धर्मधारा, नीति शकराचार्यों और महामहोपाध्यायों-की हर पीढ़ी पर धारा, की खुली चर्चा की जाती है वह पूर्व से ही उन अपने दर्शन का हिमालयी-प्रभाव बनाये रखने वाले यदि ग्रन्थों में, ग्रन्थकार के दर्शन में, भरी पड़ी है। माने कि कोई जैन आचार्य हुए हैं तो वे कुन्दकुन्द ही हैं। प्राचीनअकेले ग्रन्थराज 'समयसार' में वह सब है जिसके कारण वेदो से लेकर गीता, रामायण, बाइबिल, कुरान और संसार में कोई ग्रन्थ 'प्रादर्श' कहलाता है। किसकी देन है 'शबद' तक के दर्शन के समक्ष कुन्दकुन्द जी अपनी यह ? महापडित महामुनि, महाचार्य प्रातः स्मरणीय मौलिकता और मनोवैज्ञानिकता अलग ही चमकाते मिलते कुन्दकुन्द जी की। उनने एक ग्रन्थ नही चौरासी पाहड़ें दी हैं। उनके सात ग्रन्थों मे समूचे विश्व का मर्म- जैन हैं। उनके धर्म-सूत्र अखिल-विश्व एवं समग्र प्राणी जन के धर्म आध्यात्म, संस्कृति नीति और न्याय के आदर्श मूत्र है लिए हैं। पुद्गल से ऊ र आत्मा का सौन्दर्य-शास्त्र है जिनके बल पर हम विश्व का पांडित्य करने लायक हो उनका-सुलेखन । ऐसे महान् परोपकारी, धर्म-सुधारक, धर्म प्रवर्तक संत की जयन्ती प्रतिवर्ष, उनके जन्म दिन पर गए है। समयसार के बाद प्रवचनसार, पनास्ति हाय अष्टपाहुड, नियमसार, द्वादशानुप्रेक्षा और रयगामार जैसे आषाढ शुक्ल पूर्णिमा को राष्ट्र स्तर पर मनाए तो हम ग्रन्थ जहां उनकी बौद्धिक तपस्या के प्रतीक है वही वे अपने पूर्वजो के प्रति एक ईमानदार परम्परा को प्रारभ कर उनके वैचारिक क्षितिज की उच्चतर के मानक स्तम्भ भी . ___ स्वयं ही उपकृत हो सकेंगे और हो सकेगे कृतज्ञ । जयती क्यों मनाए? कैसे मनाए ? दो प्रश्न सामने कुन्दकुन्दाचार्य का जन्म, जो किसी 'अवतार' से कम उछाले जा सकते हैं। पहले प्रश्न का समीचीन उत्तर उक्त नही है, सत ईसा से तेरह वर्ष पूर्व हा था। कहे हमारे पक्तियो मे आप पा चुके है। समाधान चाहिए अब द्वितीय देश के महाराजा, श्री विक्रम के ४४ वर्ष बाद वे जन्मे। का कैसे मनाए? उनके कार्यकाज के विषय पर मनीषियों भगवान महावीर के ५१३ वर्ष बाद कुन्दकुन्द ने जन्म से लिखाकर । उनके लिखे हए पर शोध कार्य कर उनके लेकर महावीर दर्शन एक मायने मे पुनर्स्थापित किया था। उपलब्ध ग्रन्थो को सरल हिन्दी व अन्य भाषाओं मे महावीर की वाणी और वैचारिकता के जीवन चित्र है प्रकाशित-सम्पादिन करा कर। समयसार के 'सरलउनके ग्रन्थ । ब्राह्मण राज गौतम गणधर को जो करना था संस्करण' को लाखो की संख्या मे तैयार कर आम-जन के उनसे कही ज्यादा कुन्दकुन्द ने किया महावीर का कार्य हाथों में पहुंचाकर उनके ग्रन्थों पर शिक्षण-प्रशिक्षण की लेखनी चला कर । अब से करीब दो हजार वर्ष पूर्व विक्रम सुविधाएं नव-विद्वानों को प्रदान कर। पाक्षिक मासिक Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य हमारे कुन्दकुन्द १६ शिविरो का सयोजन-सचालन कर उनके विचारो पर टीका सकता है पर कुन्दकुन्द का कुन्दन आपके आत्मतत्व को, पढ़ाकर । अधिकारी-विद्वानो और विज्ञ मुनि आचार्यगणो फिर समूचे परिवार और समाज को सुशोभित कर देगा। को विचार गोष्ठि । आयोजित कर। विद्वान और मुनि आपका ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी कुन्दन की नाई रश्मियो सभा में सामान्य-जैन को बतल एगे कि आचार्य श्रेष्ठ बिखेरता रहेगा। अपने कुन्दकुन्द के कुन्दन की भव्याभा कुन्दकुन्द के विचारो का सामाजिक योगदान क्या रहा है, से आखे, मन-प्राण, कर्ण पवित्र करें और आत्मा को अपने क्या हो सकता है। स्वभाव में रमने का अवसर दें। परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी ने समयसार ग्रन्थ पहले आप पा ले तो फिर आपके बेटे-बेटी कुन्दकुन्द को 'कुन्दकुन्द का कुन्दन' कहा है। वह कुन्दन अब घर-घर के इस प्रसाद को जतन से प्राप्त करते रहेगे और अपने पहुच सकेगा। सुनरहाई या सराफा से लिया जाने वाला मगलमय-विशाल-प्रासादो के कक्ष सदा कुन्दकुन्द से स्वर्ण आपके देह तत्व को कुछ समय तक ही सजा-सवार परिपूर्ण रखेगे। - - पृ० ८ का शेषाश) गया है मूर्ती का पिछला हिस्सा नाग शरीर के सिबा लगी आग की वजह से ऐसा है। इसके सिवाय कोई समतल है । इस प्रतिमा मे शासन देवी तथा यक्ष आदि की क्षति नही पहुची शेष प्रतिमा का पालिश अब भी जैसे का अनुपस्थिति महत्वपूर्ण है। वैसा है। पादपीठ की विशेषता यह है कि इस पर दोपक्तियो प्रस्तुत मूर्ति सभवतः गुजरात या राजस्थानी कला का मे लेख विद्यमान है जो अधिकाश घिस गया है। लेखक प्रतिनिधित्व करती है क्योकि इसी क्षेत्र में सात सर्पफणों को अधिक समय तक मूर्ति का अध्ययन करने का अवमर कछ के छत्र के साथ ही लेखों मे पाश्र्वनाथ नामोल्लेख की नही दिया जिससे उसे आसानी से पढ़ा जा सकता। फिर परम्परा लोकप्रिय थी। संभव है यह शब्द भी उक्त मूर्ति भी लिपी नारी मिश्रित अक्षरो की है और १५वीं शब्दी लेख में आया हो। वैसे ही यहां के जन परिवारों की की तो निश्चित ही है और यही इस प्रतिमा का समय भी पिछला पा पिछली पीढी कही बाहर से आकर बसी है। आसपास के है। प्रथम पक्ति में कुछ शब्दो के बाद “मलमघे" शब्द इलाके में विरले ही जैन लोग मिलते है। स्पष्ट रूप से पढ़ा जा सकता है। निचली पक्ति में एक वर्तमान युग मे २४ तीर्थकरो मे से अंतिम दो तीर्थंकरों त्रिकोण आकार का चिह्न बना हे जिम के बाद लेखनी पार्श्वनाथ एव महावीर की ही ऐतिहासिकता सर्वमान्य है। द्वितीय पक्ति आर होती है। पार्श्वनाथ की यह मति विदर्भ के जैन धर्म के लिए एक प्रस्तुत मूति का पिछला हिस्सा कुछ लाल-पीला पड महत्वपूर्ण स्रोत है इममे सदेह नही। गया है। पत चला कि लगभग ५० वर्षों पहले घर मे बेझनबाग, नागपुर-४४०००४ स्वच्छन्दो यो गणं त्यक्त्वा चरत्येकाक्यसंवृतः । मृगचारीत्यसौ जैनधर्माऽकीर्तिकरः नरः॥ आचा० ६/५२ ---जो स्त्रच्छन्द होकर मृग के समान एकाकी भ्रमण करता है और इन्द्रिय दास होता है वह जैनधर्म को निन्दा कराने वाला होता है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्यावधि अप्रकाशित दुर्लभ ग्रन्थ-सम्मइजिणचरिउ 0 प्रो० (डा०) राजाराम जैन अपभ्रश के महावीर-चरितों की परम्परा रइधकृत सम्मइजिणचरिउ : ग्रन्थ-विस्तार एवं कार्य विषय-संक्षेप "सम्मइजिणचरिउ"' अपभ्रंश का एक पौराणिक काव्य है, जिसमें सन्मति अथवा वर्धमान अथवा तीर्थकर प्रस्तुतसम्म इजिणचरिउ मे १० सन्धियां और कुल महावीर का जीवन चरित वरिणत है। प्राच्य-शास्त्र मिलाकर २४५ कडवक । भण्डारों से अभी तक अपभ्रश के स्वतन्त्र रूप से लिखित पहली सन्धि के १६ कडवको मे मगलाचरण के बाद एतद्विषयक चार रचनाओ की जानकारी मिल सकी है कवि द्वारा अपने प्रेरक गुरु यश कीति भट्टारक तथा उनकी विबुध श्रीधर (१३वी सदी) कृत वड्ढमाणचरिउ', कवि पूर्व-परम्परा के गुरुओं का स्मरण, अपने आश्रयदाता का नरसेन (१४वी मदी) कृत वड्ढमाणकहा।' कवि जयमित्र परिचय, अपभ्रश के चउमुह, दोणु आदि पूर्ववर्ती कवियो हल्ल (अपरनाम हरिचद, १५वी सदी) कृत वड्ढमाण का स्मरण तथा सज्जन-दुर्जन वर्णन के बाद मूलकथा का कव्व एव महाकवि रइधू कृत सम्मइजिणचरिउ। इनमें प्रारम्भ मगध देश एव राजगही नगर-वर्णन तथा उसके से प्रथम दो ग्रन्थो का प्रकाशन हो चुका है। चतुर्थ रचना सम्राट श्रेणिक के परिचय और विपुलाचल पर महावीर की अभी तक ६ प्रतियो का जानकारी मिल चुकी है, किन्तु के समवशरण के आगमन से प्रारम्भ होता है। दुर्भाग्य से उन सभी में प्रथम पांच सन्धियाँ अनपलब्ध है। दूसरी मन्धि के १६ कडको मे तीनों लोको का इन पांचो सन्धियो मे मगध सम्राट श्रेणिक का चरित सक्षिप्त वर्णन किया गया है । वर्णित है और छठवी सन्धि से महावीर-चरित का वर्णन तीसी सन्धि के ३८ कडवको तथा सन्धि के १३वे प्रारम्भ होता है। यदि श्रेणिक चरित को जयमित्र की एक कडवक तक महावीर के पूर्वभवो का वर्णन और चौथी पृथक् स्वतन्त्र-रचना भी मान ले, जो कि कभी भ्रमवश सन्धि के ही १४वे कडवक से अनि.म २१वे कडवक तक महावीर चरित के साथ किसी प्रतिलिपिक की भल से एक महावीर के जन्म स्थल कुण्डलपुर आदि का वर्णन किया ही लेखक की रचना होने के कारण सयुक्त कर दी गई गया है। इसमें, तथा पांचवी ३८ कडवक), सातवी होगी, तो भी, वह (श्रेणिक चरित) भी वर्तमान में (१४ क्डव तथा आठवी सन्धि (२७ कडवक) में अनुपलब्ध ही है । तृतीय उक्त रचना-सम्म इ-जिण चरिउ महावीर के प्रथम ४ कल्याणकों का साहित्यिक शैली मे सम्पादित होकर प्रेस में जा चुकी है। बहुत सम्भव है वर्णन किया गया है। इन सन्धियो में कवि ने कुछ विशिष्ट कि इस वर्ष के अन्त तक वह प्रकाशित होकर पाठको के प्रसग उपस्थित कर उन में सम्यक्त्व, जीवादि सप्तत्व. हाथ में पहुंच जाय। षड्द्रव्य द्वादशानुप्रेक्षा, द्वादशता, द्वादशवत, ध्यान एव योग आदि के भी सक्षिप्त वर्णन किए हैं, जिनका आधार उक्त सभी रचनाओं में मूल कथानक दिगम्बर- उमास्वतिकृत तत्त्वार्थसूत्र है। परम्परानुमोदित ही है, किन्तु भाषा एव वर्णन-शैली नवमी सन्धि के २१ कडवको मे से प्रथम १५ कडवकों कवियो की अपनी-पनी है। घटनाओ मे भी कवियों ने मे तीर्थकर महावीर के प्रधान शिष्य-गणधर-इन्द्रभूति होनाधिक मात्रा मे अपनी-अपनी रुचि के अनुसार सकोच गौतम का जीवन चरित्र तथा उसके बाद महावीर-निर्वाण अथवा विस्तार किया है। तथा उसके स्मृति चिह्न के रूप मे दीपावली-पर्व के प्रारम्भ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथावषि अप्रकाशित दुर्लभ प्रन्य- सम्महमिणचरित किए जाने की सूचना देकर, कवि ने अन्तिम एक कड़वक चिन्ताएँ छोड़, हे भव्य तू निरन्तर काव्य-रचना किया में महावीर के बाद के होने वाले श्रतधाराचार्यों की काल- कर। दुर्जनों से मत डर, क्योंकि, भय समस्त बुद्धि का गणना का विवरण दिया है। अपहरण कर लेता है।" अन्तिम दसवी सन्धि के ६४ कडवकों में से प्रथम रइघू ने अपना समस्त जीवन-वृत एक स्थान पर नही २४ कड़वको में कवि ने अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य लिखा, यह दुर्भाग्य का विषय है। हाँ, उसने अपनी अनेक भद्रबाहु का जीवन-चरित्र प्रस्तुत किया है और इसी प्रसग ग्रन्थ-प्रशस्तियो मे अपने विषय मे कुछ न कुछ सूचनाएं में कवि ने आचार्य गोवर्धन, पाटलिपुत्र नरेश राजानन्द, अवश्य दी हैं और उनका सग्रह करने से कवि के जीवनमहामन्त्री शकटाल प्रत्यन्तवासी राजा पुरु, ब्राह्मण-चाणक्य, वत की एक रूपरेखा तैयार हो जाती है, फिर भी उसकी चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) विन्दुसार, अशोक, मकुल (कुणाल), जन्मतिथि एव जन्म स्थान की जानकारी के संकेत नही सम्प्रति चन्द्रगुप्त के सक्षिप्त परिचयों के साथ पाटलिपुत्र मिल सके हैं । इस विषय पर हमने अन्यत्र चर्चा की है।' के द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल का वर्णन किया है। इस अन्तर्बाह्य साक्ष्यों के आधार पर रइघू का समय वि० सं० प्रसग मे कवि ने राजा चन्द्रगुप्त द्वारा जैन दीक्षा-ग्रहण १४४० से १५३० के मध्य स्थिर होता है। तथा आचार्य भद्रबाहु के साथ उनके १२००० साधुओ के साथ दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान तथा वहाँ चन्द्रगुप्त रइघू-साहित्य में सम्मइजिणचरिउ का क्रम-निर्धारण मूनि की कान्तार-चर्या आदि का बड़ा ही मार्मिक वर्णन कवि रइप की अद्यावधि २६ र वनाएं ज्ञात हो सकी किया है। इसी क्रम में आचार्य विशाखनन्दी को चोल देश है, जो सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश एवं प्राचीन हिन्दी मे यात्रा, तथा वहाँ से पाटलिपुत्र में उनकी वापिसी, पाटलिपुत्र लिखित हैन मेरचन, लिखित है। इनमे से २२ रचनाएँ उपलब्ध हो चुकी हैं,बाकी से स्थलिभद्र धम्मिल्ल तथा स्थूलाचार्य से भेट आदि का की ७ रचनाएं अनुपलब्ध है,' कवि की यह विशेषता है कि वर्णन और विशाखनन्दी क शिष्यों द्वारा श्रुताङ्ग-लेखन एवं उसने अपनी अधिकाश कृतियों में स्वरचित अपनी पूर्ववर्ती श्रुतपञ्चमी पर्व के आरम्भ किए जाने का वर्णन है। इसके रचनाओ के उल्लेख कर दिए है। "सम्मइजिणचरिउ" में बाद पाटलिपुत्र के कल्कि राजापो की दुष्टता का वर्णन भी उसने लिखा है कि इस रचना के पूर्व वह पासणाहचरिउ, मेहेमर सेणावइचरिउ, तिसट्टिमहापुराणपुरिस गुणालकारु, इस वर्णन के बाद के कड़वको मे गोपाचल एव हिसार सिरिवालचरिउ, पउमचरिउ सुदसगचरिउ एवं धण्णकुमार नगर वर्णन तोमरवशी राजा डूंगरसिंह का वर्णन भट्टारक चरिउ का प्रणयन कर चुका है। इस दृष्टि से कवि की परम्पग एवं आश्रयदाता का विस्तृत परिचय दिया रचनाओं में प्रस्तुत रचना का क्रम आठवां सिद्ध होता हैं। गया है। प्रन्थकार-परिचय गुरु स्मरण एवं भट्टारकाय परम्परा जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, "सम्मइजिणचरिउ" प्रस्तुत रचना में कवि ने काष्ठासघ, माथुरगच्छ महाकवि रघु द्वारा प्रणीत है। कवि ने ग्रन्थ-प्रशस्ति मे पुष्करगण शाखा के भट्टारक यश कीनि को अपने प्रेरक अपना परिचय देते हुए अपने पितामह का नाम सघपति गुरु के रूप मे स्मरण किया है।" यश:कानिन उसे किसी देवराय तथा पिता का नाम हरिसिंह बतलाया है।' अग्र- काव्य की रचना के लिए प्रेरित किया था। सयोग से पुरुष की संघपति उपाधि से विदित होता है कि कवि के यश.कोति का परमभक्त ब्रह्म खेल्हा अपनी माता पूर्वज लब्धप्रतिष्ठ सार्थवाह एवं लक्ष्मीपति रहे होगे, किन्तु (आजाही) कीस्मृति को स्थायी बनाना चाहता था अतः रहघ ने कवि बनकर अपनी कुल परम्परा बदल दी । कवि यश.कीति से एक कोई नवीन प्रन्थ लिखने की प्रार्थना ने स्वयं लिखा है कि उसे श्रुतदेवी ने स्वप्न देकर कहा - करता है। इस कार्य के लिए यशःकोति उसे कवि रइधू "मैं तुम पर भत्यन्त प्रसन्न हूँ। अपने मन की समस्त का नाम सुझाते हैं । खेल्हा के बारम्बार निवेदन करने पर Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, वर्ष ४०, कि० २ अनेकान्त राध खेल्डा के हिसार निवासी तोसड साहू का आश्रय उदारता एव सहिष्णुता का अच्छा वर्णन किया है।" पाकर सम्मइ जिणचरिउ की रचना प्रारम्भ कर देते है।" इसमें सन्देह नही कि रंगरसिंह का समय राजनैतिक दृष्टि कवि ने इस परिवार की ५ पीढ़ियों के कार्यकलापो का से बड़ा ही सघर्षपूर्ण था। गोपाचल के उत्तर में सैयदवश, विवरण दिया है, जिसमे तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक दक्षिण में मांडो के सुल्तान तथा पूर्व में जौनपुर के शकियों एवं सांस्कतिक स्थिति की झांकी मिलती है। ने डुगर सिंह को घोर यातनाएँ दी विन्तु डूंगरसिंह ने अपनी __अपने गुरु-स्मरण के प्रसग में कवि ने यश.कीति के चतुराई तथा पुरुषाय-पराक्रम से सबके छक्के छुड़ा दिए पर्ववर्ती एवं समकालीन निम्न भट्टारको के उल्लेख किऐ और सभी दृष्टियों से गोपाचाल को सुखी-समृद्ध बनाया।" हैं"-देवसेन गणि, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकोति गुणकीति यशः कीति (गुरु) एव मलयकीति । कठोर अभ्रिश के पूर्ववर्ती कवियों के उल्लेख संयम एवं तपश्चरण के साधक होने के साथ-साथ ये कवि ने पूर्ववतीं कवियो के स्मरण-प्रसग मे अपभ्रश भट्रारक पारंगत विद्वान् एव लेखक तो थे ही, उत्साही के ५ कवियो का श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है जिनके नाम यवकों को कवि एव लेखक बनने की प्रेरणा एवं प्रशिक्षण हैं-चउमूह दोण सयभ, पुप्फयंतु एव वीक। इनमें से भी प्रदान करते थे। मध्यकालीन विविध विषयक साहित्य- सयम, पुप्फयतु" एवं वीरु कवियो की रचनाएं प्रकाशित लेखन एव कला-कृतियो के निर्माण में इनके अभूतपूर्व हो चुकी है बाकी के च उमुह एव दोण की रचनाएँ अज्ञात ऐतिहासिक कार्यों को विस्मत नही किया जा सकता। एव अनुपलब्ध है। बहुत सम्भव है कि रघु को उनकी समाज को साहित्य-सरक्षण, साहित्य रसिक तथा साहित्य- रचना देखने का रचनाएँ देखने का अवसर मिला हो। इरधू ने इन कवियो 7 मि. स्वाध्याय की प्रेरणा प्रदान करते थे। इनका समय विभिन्न की प्रशसा में लिखा है कि वे कवि सूर्य के प्रकाश के प्रमाणों के आधार पर वि० स० १४०० से १४६८ के मध्य समान ही ज्ञान के प्रकाशक है। मैं तो उनके आगे टिमस्थिर होता है। इस विषय पर मैंने अन्यत्र चर्चामा टिमाते हुए दीपक के समान हीनगुण वाला हूँ।" ५४ रचना स्थल आश्रयदाता परिचय कवि ने लिखा है कि उसने तोमरवशी राजा डूगरसिह जैसा कि पूर्व में वहा जा चका है सम्म इजिणचरिउ राज्य में प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की है। उसने यह की रचना हिसार-निवासी साह तोसड के आश्रय मे की भी लिखा है कि उसने गोपाचल दुर्ग में अपने भट्टारक गुरु गई थी।" साह तीसड की धर्मपत्नी आजाही ने गोपाचलयशकीति के मान्निध्य में जनविद्या का अध्ययन किया दुर्ग में एक विशाल चन्द्रप्रभ की मूर्ति भी स्थापित कराई है इन उल्लेखो से विदित होता है कि अधिकाश मूतियो थी।" कवि ने इस वश की भूरि-भूरि प्रशमा की है। की प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य रइघू ने सम्पन्न किया था। उसने लिखा है कि तोसड के बडे भाई सहदेव ने अनेक सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा. हेमचन्द्र राय चौधुरी महोदय मतियो की प्रतिष्ठा कराई थी।" इस वश के वील्हा साह के अनुसार राजा डूगरसिंह एव उनके पुत्र राजा कीतिसिंह का सम्राट फिरोज शाह द्वारा सम्मान किया गया था। के राज्यकाल में लगभग ३३ वर्षों तक इन जैन मूतियो धर्मा नाम पुत्र सघपति था क्योकि उसने गिरनार-पर्वत की का निर्माण एवं प्रतिष्ठा कार्य होता रहा ।" इन उल्लेखों यात्रा के लिए एक विशाल संघ निकाला था।" इसी वश से उक्त राजाओ का जैन धर्म के प्रति प्रेम स्पष्ट विदित का छीतम अपने समय के सभी व्यापारियों के सघ का होता है। अध्यक्ष था, जिसकी देखरेख मे ६६ प्रकार के व्यापार समकालीन राजा चलते थे।" जालपु भी व्यापारिक नीतियो के जानकार गोपाचल के राजा अंगर सिंह का उल्लेख ऊपर किया के रूप में प्रसिद्ध था । सत्यता पवित्रता एवं विश्वसनीयता जा चुका है। कवि ने उसके व्यक्तित्व, पराक्रम एव ही इस परिवार के व्यापार की नीति थी। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्यावधि अप्रकाशित दुर्लभ प्रन्य-सम्मइजिणचरिउ प्रन्थ की विशेषताएँ ठीक, स्वस्थ, देखण (१०१५९) देखना, सत्तू (१०१५।१४) सम्मइजिणचरिउ का कथानक परम्परानुमोदित है, सत्तू, फाडिउ (१०।१७।२०) फाउना, किवाड इसमें सन्देह नही, किन्तु कवि ने उस में कुछ ऐतिहासिक (१०।१६।१) किवाड, गया (१०-२००५) = गया, एक्क तथ्य जोडकर उसे महत्वपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया है। बार । १०।२१।९) = एक बार, ८।३।३ (१०।३३।१६) = गौतमचरित एवं भद्रबाहुचरित तथा चाणक्य-चन्द्रगुप्त, चोथा, घर (१०२८) = घर, हट्ट (१.५.१) हटना, डर नन्द-शकटाल आदि के वर्णन इमी कोटि मे आते हैं। (१।४।३) डरना आदि। महावीर-निर्माण के बाद ६८३ वर्षों की आचार्य-काल- उक्त शब्द-प्रयोगो का मूल कारण यह है कि रइघुगणना जैन इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्व रखनी है। काल अपभ्र श एवं हिन्दी का सन्धिकाल था। अवधी, कवि के अनुसार वीर निर्वाण (ई० पू० ५२७) के बाद वज, राजस्थानी, मालवी एव हरियाणिवी मे साहित्य ६२ वर्षों में गौतम सुधर्मा एव जम्बू स्वामी ये तीन के वन- लिखा जाने लगा था। चन्दवरदाई के पृथिवीराज रासो ज्ञानी हए । उनके बाद अगले १०० वर्षों मे ५ श्रुति केवली का पठन-पाठन भी प्रचुर मात्रा में होने लगा था। अपभ्रंश हए, जो १४ पूर्वो के ज्ञाता थे। उसके बाद अगले १८३ के रूपों में पर्याप्त विकास होने लगा था। अत: रइघु के वर्षों में १० पूर्वो के धारी हुए। तत्पश्चात् अगले २२० साहित्य भी उमका प्रभाव स्वाभाविक था। डा०हीरालाल वर्षों में ११ श्रुनांगों के धारी हुए और उनके बाद ११६ जैन, डा० ए० एन० उपाध्ये एव प० हजारीप्रसाद द्विवेदी वर्षों में ४ मुनि १ अग के धारी हुए। इस प्रकार ने रइधू-साहित्य मे सन्धिकालीन उक्त प्रवृत्तियों को देखकर (६२+१००+१३+२२०+११८) ६५३ वर्षों तक ही उसे Neo-Indo-Aryan Lauguages के भाषाश्रतज्ञान की परम्परा चलती रही और उसके बाद वह वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि में विशेष महत्वपर्ण बताकर उसके तत्काल प्रकाशन पर जोर दिया था।" लुप्त होती गई।" पौराणिक तथ्य ___सम्म इजिणचरिउ की प्रशस्ति का अध्ययन करने से जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, सम्मइजिणचरिउ विदित होता है कि उसका लेखक साहित्यकार तो है ही एक पौराणिक काव्य है उसमे विविध स्थलों पर अनेक किन्तु समकालीन भूगोल एव इतिहाम का भी जानकार है। वह लिखता है कि हिसार नगर योगिनीपुर (अर्थात् पौराणिक तथ्य उपलब्ध है। ऐसे राथ्यो मे महावीर के दर्तमान दिल्ली की पश्चिम दिशा में स्थित है।" वह नगर समवशरण में उनके प्रभाव से सर्वदा वसन्त ऋतु का हिसार-पिरोजा के नाम से भी प्रसिद्ध है।५ क्योंकि उसे रहना, शीतल मन्द सुगन्ध समीर का बहना चतुनिकाय पेरोसाहि अर्थात् फीरोजशाह ने बमाया था। वर्तमान देवो द्वारा अतिशयो को प्रकट करना आदि बातों का इतिहास से भी इस तथ्य का समर्थन होता है। कवि ने सम्बन्ध पुराण के साथ है। कवि रइधू ने उन्हें इस प्रकार प्रस्तुत किया है :इस नगर को चित्रांग नदी के किनारे पर स्थित बताया सो विउलइ रितु सपत्तउ-समवसरण भूइहि सजुत्तउ। है।" बहुत सम्भव है कि चिनाव नदी का यह तत्कालीन तह आयमि अयालि वणराई-जायस अकुर फल-दल राई। नाम हो और उस समय वह हिसार के समीप ही बहती सुक्क-तलाय-कूब जलपुण्णा-कइल कलरव लवाइ पसण्णा । पिउ-पिउ बम्वीहा उल्नाव इ-ण जिणजत भव्य बोल्लवाइ। भाषा की दृष्टि से भी “सम्मइजिण वरि" विशेष बहइ सुयधु पवणु सुक्खापरु-मदु मदु दाहिण मलयायरु । महत्वपूर्ण रचना है। रइघ ने यद्यपि व्याकरण-सम्मत हय उ अवालि वसतु णरेमर-अणु विहुउ अच्छरिउ सुसकर । अपभ्रश के प्रयोग किए हैं किन्तु समकालीन स्थानीय हरिह सयासि गइदु वइट्ठ-अहिसिहिड कलितउ दिउ । अथवा लोकप्रचलित जनभाषा के अनेक प्रयोग सहज रूप मज्जारहु तलु साणु लिहत उ-हरिणहु वग्गु जिणेहु चहतउ । मे ही उपलब्ध हो जाते हैं। यथा-डाल (१।२।६)= एवमाइ आजम्म विरुद्धा-सयलजीव जाया जेहता। वृक्षशाखा, चडाव (१।८।१५):-चढ़ाना, चंग (३।२८।८) सम्मइ० १।१६।१-६ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४, वर्ष ४०, कि० २ अनेकान्त कवि को बहुज्ञता अखंडसीलमंडिया-पहावणग पंडिया । महाकवि रइधू काव्य, दर्शन, सिद्धान्त आचार, तयासमाणु राणउ-गुणाणभूरि राणउ ।। अध्यात्म इतिहास आदिवामियों के साथ-साथ स मुद्रिक करेइ राजु सुंदरे-अकपुणाइ मंदिरे । शास्त्र से भी सुपरिचितप्रतीत होते हैं। उन्होंने सन्म इजिण- सुहेण काल गच्छइ-जरेसु जाम अच्छइ । चरिउ मे राजा कुमार नन्द के ३२ लक्षणों का विवेचन सहा हरम्मि संठिउ-पिया जुत्तु उक्कठिउ । करते हुए बताया है कि कुमार के नख, हस्तकल, चरणाग्र, सम्मइ०१।१५।१-१० नेत्र के प्रान्तभाग, तालु, जिह्वा एवं अधरोष्ठ ये रक्तवर्ण महावीर शैशवावस्था में है। माता-पिता ने अत्यन्त के थे नाभि स्वर एव सत्व ये तीनों गम्भीर एव प्रशस्त थे। स्नेहवश उन्हें विविध आभूषण पहिना दिए, जिससे उनका वक्षस्थल, नितम्ब एव मुख चौडे थे। उनकी देह उत्तम, सौन्दर्य और अधिक निखर उठा। कवि ने उसका वर्णन स्निग्ध एव काञ्चनवर्ण की थी, लिंग, गर्दन, पीठ और निम्न प्रकार किया है :जंघा हस्व थे। अगुष्ठो के पर्व, दाँत, केश नख और त्वक् सिरि सेहरु णिरुवमु जडिउ-कुडलजुउ सवणि मुरेण घडिउ । सूक्ष्म थे। कक्ष, कुक्षि, वक्ष, नासिका, स्कन्ध और ल नाट भालयलि तिल उगलि कुसुममाला-ककणहि हत्थु अगिणखाल उन्नत थे। इस प्रकार कवि ने सामुद्रि-शास्त्र मे निरूपित किकिणिहि मोहिय कुरंग-कडिमेहलडिकडिदेसहि अभंग । नियमो के अनुसार कुमार के लक्षणो का वर्णन किया है। तह कट्टारुवि मणि छुरियवतु-उरुहार अद्धहारिहिं सहंतु । सम्मइ० ३।३।६-१५ णेवर सज्जिय पाहिं पहट्ठ-अगुलिय समुद्दा दय गुणट्ठ । वर्णन चमत्कार सम्मइ०।५।२३।५-६ वर्णनो के चमत्कार कई स्थलों पर सुन्दर छन्द मे उक्त तथ्यों के आलोक मे कोई भी निष्पक्ष आलोचक भावित हुए है : महारानी चेलना का शारीरिक, मानसिक महाकवि र इघ का सहज मे ही मूल्याकन कर सकता है। और आध्यात्मिक सौन्दर्य एक ही साथ कवि ने दिखलाया कवि ने चरित, आख्यान, काव्य, सिद्धान्त, दर्शन, आचार है। यथा : अध्यात्म एवं इतिहास आदि विषयों पर अपभ्र श-साहित्य सुरिंदुपील गामिणी-रडिम लोयणी। के क्षेत्र में २६ बहुमूल्य चिनाएँ प्रदान की है अत: भाषा पहुल्लकजवत्तिया-समामिणेहरत्तिया । और साहित्य दोनो ही दृष्टियो से रइध एक महाकवि सिद्ध जिणेसु सुत्तणिच्छया-सदूरिमुक्कमिककया । होते है। युनिवर्सिटी प्रोफेसर (प्राकृत) सुदंसणेण सोहिया-सुदुग्ग णि रोहिया । एवं अध्यक्ष-सस्कृत-प्राकृत विभाग, सुवारिसे ण मायरी-पणाहसिक्ख दायरी। ह० दा० जैन कालेज, आरा, बिहार-८०२३०१ सन्दर्भ-सूची १. आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर के प्रति के आधार पर। ८. रइधू गन्थावली, प्रथम भाग (भूमिका) २. डा० राजाराम जैन द्वारा सम्पादित एवं भारतीय ६. मेहेसरचरिउ, हरिवंशपुराण पासणाहचरिउ, सम्इजिण ज्ञानपीठ दिल्ली द्वारा १६७४ ई० में प्रकाशित । चरिउ, तिसट्ठि, पउम०, सिखाल, वित्तसारु, ३. डा. देवेन्द्रकुमार जैन द्वारा सम्पादित एव भारतीय सिद्धतत्थसारु, जीवधरचरिउ, दहलक्खणजयमाल, ज्ञानपीठ द्वारा १६७४ मे प्रकाशित ! अप्पसंवोहकव्व पुण्णासवकहा, सम्मत्तगुणणिहाणकव्व, ४. आकर शास्त्र भण्डार जयपुर में सुरक्षित । बारह भावना, संबोह पचासिका, धण्णकुमारचरिउ, ५. डा० राजाराम जैन द्वारा रइधु ग्रन्थावली भाग २ के सुकोसलचरिउ, जसहरचरिउ, अगथमिउकहा, अन्तर्गत सम्पादित एवं जीवराजग्रन्थमाला शोलापुर सतिणाहचरिउ, तथा पज्जुण, रत्नत्रयी, छपकम्मोवस्स, द्वारा प्रकाश्य मान। मविस्सदत्त० करकड, उवएस रयणमाल, एव ६. सम्मइ०१०१२८१३-१५। सुदसणचरिउ। ७. सम्मइ० ११४१२-४ । १०. सम्मइ० १९१६ । (ष पृ० २६ पर) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र स्वामी का आयुर्वेद ग्रंथ कर्तृत्व - श्री राजकुमार जैन आयुर्वेदाचार्य जैन वाङमय के रचयिताओ तथा जन सस्कृति के प्रतिपादित मूलाचार के अन्तर्गत श्रमणचर्या के परिपालन प्रभावक आचार्यों में श्री ममन्तभद्र स्वामी का नाम अत्यन्त में ही निरन्तर तत्पर रहते थे। मुनिचर्या का निर्दोष पालन श्रद्धा एव आदर के साथ लिया जाता है। आप एक ऐसे करना उनके जीवन की प्रमुख विशेषता थी । वे असाधारण सर्वनामुखी प्रतिभाशाली आचार्य रहे हैं जिन्होंने वीरशासन प्रतिभा के धनी, अध्यात्म विद्या के पारगत और जिन धर्म के रहस्य को हृदयगम कर दिग-दिगन्त में उसे व्याप्त घारक निग्रंथवादी महान व्यक्तित्व के धनी थे। उनके किया । आपके वैदुष्य का एक वैशिष्ट्य यह था कि आपने जीवन क्रम, जीवन की असाधारण अन्यान्य घटनाओं तथा समस्त दर्शन शास्त्रो का गहन अध्ययन किया था और उनके द्वारा रचित ग्रयों को देखने से ज्ञात होता है कि उनके गूढतम रहस्यो का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था। उनके द्वारा जैनधर्म का प्रभत प्रचार एवं अपूर्व प्रभावना अपने धर्मशास्त्र के मर्म को हृदयगम कर उसके आचरण हुई । इसका एक मुख्य कारण यह है कि आप श्रद्धा, भक्ति व्यबहार मे विशेष रूप से तत्परता प्रकट की आपकी और गुणज्ञता के साथ एक बहुत बड़े अद्भक्त और अहंद पूजनीयता एव महनीयता के कारण ही परवर्ती अनेक गुण प्रतिपादक थे जिमको पुष्टि आपके द्वारा रचित स्वयम्भू आचार्यों एवं मनीषियो ने अत्यन्त श्रद्धा एव बहुमान पूर्वक स्तोत्र, देवागम, युक्त्यनुशासन और स्टूतिविद्या (जिनशतक) आपको स्मरण किया है। आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने नामक स्तति ग्रंयो से होती है। इन ग्रन्थों से आपकी युक्तानुशासन टीका के अन्त मे प्रापको 'परीक्षेक्षण'- अद्वितीय अर्हद्भक्ति प्रकट होतो है। परीक्षा नेत्र से सबको देखने वाले लिखा है। इसी प्रकार स्वामी समन्तभद्र एक क्षत्रियवशोद्भव राजपुत्र थे । अष्ट महस्री मे आपके वचन महात्म्य का गौरव ख्यापित उनके पिता फणिमण्डलान्तर्गत 'उरगपुर' के राजा थे। करते हए आपको बहुमान दिया गया है। श्री अकलक देव जैसा कि उनकी 'आप्तमीमासा' नामक कृति की एक ने अपने ग्रथ 'अष्टशती' मे आपको' भव्यकलोकनयन' कहते प्राचीन प्रति उल्लिखित पुष्पिका-वाक्य से ज्ञात होता है हुए आपकी महनीयता प्रकट की है। आचार्य जिनसेन ने जो श्रवणबेलगोल के श्री दौर्बलिजिनदास शास्त्री के शास्त्र आदिपुराण मे कवियो, गमको, वादियों और वाग्मियों में भण्डार में सुरक्षित हैममन्तभद्र का यश चुडामणि की भांति सर्वोपरि निरूपित "इति फणिमण्डलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः किया है। इसी भांति जिन मेन सूरि ने हरिवंश पुराण में, स्वामिसमन्तभद्रमुनेः कृतो आप्तमीमांसायाम् ।" वादिगज सूरि ने न्याय विनिश्चय-विवरण तथा पार्श्वनाथ एक अोर आप जहाँ क्षत्रियोचित तेज से देदीप्यमान चरित मे, वीरनन्द ने चन्द्रप्रभ चरित्र में, हस्तिमल्ल ने अपूर्व व्यक्तित्वशाली पुरुष थे वहां आत्महित चिन्तन में विक्रान्त कौरव नाटक मे तथा अन्य अनेक ग्रंथकारो ने भी तत्पर रहते हुए लोकहित की उत्कृष्ट भावना से परिपूरित अपने-अपने ग्रंथ के प्रारम्भ मे इनका बहत ही आदरपूर्वक थे। यही कारण है कि राज्य-वैभव के आधारभूत भौतिक स्मरण किया है। इसमे समन्तभद्र स्वामी का वैदष्य. ज्ञान सुख और गृहस्थ जीवन के भोग विलास के मोह में न गरिमा, पूजनीयता और परवर्ती आचार्यों पर प्रभाव भली फसकर आपने त्यागमय जीवन को अंगीकार किया और भांति ज्ञात होता है। साधुवेश धारण कर देशाटन करते हुए सम्पूर्ण देश में जैनाचार्गे की परम्परा में स्वामी समन्तभद्र की ख्याति जैनधर्म की दुन्दुभिबजाई। लगता है कि आपने अत्यन्त एक ताकिक विद्वान के रूप में थी और वे आचारोग में अल्प समय में ही जैन धर्म-दर्शन-न्याय और समस्त Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वर्ष४०, कि०२ बनेकान्त सदान्तिक विषयों में अगाष पाण्डित्य अजित कर लिया तथा विद्या की उत्कृष्ट स्थली करहाटक में आया है। बाद था। क्योंकि देशाटन करते हुए वे प्रायः वहीं पहुंच जाते का अभिलाषी मैं सिंह विचरण की भांति विचरण करता थे जहां उन्हें किसी महावादी या किसी वादशाला के होने हूँ। का पता चलता था। वहां पहुंचकर वे अपने वाद का आयुर्वेदज्ञताडंका बजाकर स्वतः ही वाद के लिए विद्वानों का प्राह्वान उपयुक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि श्री समन्तभद्र करते थे। यह तथ्य निम्न पद्य से उद्घटित होता है जो स्वामी जैन सिद्धान्त, धर्म, दर्शन और न्याय शास्त्र के उन्होंने किसी राजा के सम्मुख आत्म परिचय देते हुए अगाध पाण्डित्य से परिपूर्ण महान् तार्किक एव उद्भट प्रस्तुत किया था विद्वान् थे। उनके ज्ञान रवि ने चारों ओर ऐसा प्रकाश कांच्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्बाम्बुशे पाण्डुपिण्डः पुंज फैला रखा था जिसमें जैनधर्म का माहात्म्य निरन्तर पुण्डोडु शाक्यभिक्षुः दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिवाट । उद्भासित था। इस सन्दर्भ में यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है वाराणस्यामभूबं शशधरधवलः पाण्डुरांगस्तपस्वी कि इसके साथ ही वे आयुर्वेद शास्त्र में निष्णात् कुशल राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जननिर्ग्रन्थवःदी॥ वैद्य भी थे। क्योंकि एक पद्य में जहां उन्होंने अपने यह आत्मपरिचयात्मक पद्य उनके द्वारा किसी राज- आचार्य, कविवर वादिराट, पण्डित (गमक), देवज्ञ सभा में अपना परिचय प्रस्तुत करते हुए कहा गया है (ज्योतिर्विद), मान्त्रिक (मंत्र विशेषज्ञ) तांत्रिक (तन्त्र जिसमें स्वयं को कांची का 'नग्नाटक' बतलाते हुए 'जैन विशेषज्ञ), आज्ञासिद्ध, सिद्ध सारस्वत आदि विशेषण निग्रंथबादी' निरूपित किया है। संभव है कुछ बतलाए हैं वहां आयुर्वेद शास्त्र में पारंगत कुशल वैद्य होने परिस्थितियों किसी स्थान पर उन्हें कोई अवेष के कारण उन्होंने स्वयं के लिए "भिषग' विशेषण भी धारण करना पड़ा हो, किन्तु वह सब अस्थायी था। उल्लिखित किया है जो उनकी आयुर्वेदज्ञता की दृष्टि से प्रस्तुत पद्य में वाद के लिए विद्वानों को ललकारा गया है महत्वपूर्ण है । यथाऔर कहा गया है कि हे राजन् ! मैं तो वस्तुतः जैन आचार्योऽह कविरहमह वादिराट् पण्डितोऽहं निर्ग्रन्थबादी हैं, जिस किसी में वाद करने की शक्ति हो देवज्ञोऽहं भिषगहमह मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् । वह मेरे सामने आकर मुझसे वाद करे । राजन्नस्यां जलधिबलयामेखलायामिलाया____ एक बार प्राप विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम् ॥ 'करहाटक' नगर में पहुंचे थे जो उस समय विद्या का इस श्लोक मे आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने अपने जो उत्कट स्थान था और अनेक भटों से युक्त था। वहां के विशेषण बतलाए हैं उनसे उनके असाधारण व्यक्तित्व, राजा के सम्मुख आपने अपना जो परिचय प्रस्तुत किया बहुशास्त्रज्ञता एव प्रकाण्ड पाण्डित्य का आभास सहज ही था वह श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं. ५४ में निम्न मिल जाता है। इसमें अन्त के दो विशेषण विशेष महत्वपूर्ण प्रकार से उत्कीर्ण है है जो उनकी विलक्षणता के द्योतक हैं। वे राजा को पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता सम्बोधित करते हुए कहते हैं - हे राजन् समुद्र वलय वाली पश्चन्मालव-सिंधु-ठक्क-विषये कांचीपुरे वैदिशे । इस पृथ्वी पर मैं 'आशासिद्ध' अर्थात् जो आज्ञा देता हूं प्राप्तोऽहं करहाटकं बहभटं विद्योत्कटं संकटं वह अवश्य पूरा होता है। और अधिक क्या कहूं? मैं बादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ।। 'सिद्ध सारस्वत' हूं अर्थात् सरस्वती मुझे सिद्ध है। इन्हीं अर्थात् हे राजन् ! पहले मेरे द्वारा पाटलिपुत्र नगर इन्हीं विशेषणों के साथ उन्होने स्वयं को राजा के सम्मुख के मध्य और तत्पश्चात् मालव (मालवा), सिंधु देश, ठक्क भिषग्' भी निरूपित किया है। सामान्यत: भिषग् वही (पंजाब) देश, कांचीपुर (कांजीवरम्) और वैदिश (विदिशा) होता है जिसने आयुर्वेद शास्त्र का अध्ययन कर उसमें देश में भेरी बजाई गई थी। अब मैं अनेक भटो से युक्त निपुणता प्राप्त की हो। असाधारण व्यक्तित्व के धनी Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभा स्वामी का प्रापुर पंथ कतृत्व और विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न आचार्य समन्तभद्र के लिए व्यदिध्यपस्त्वं विष-दाहमोहितं यथा मायुर्वेद शास्त्र में निष्णात होना कोई कठिन बात नही थी। भिषग्मन्त्रगुणः स्वविग्रहम् ॥ अतः उन्होंने लोकहित की भावना से प्रेरित होकर अपने -स्वयम्भू स्तोत्र, श्लोक ४७ आयुर्वेदीय ज्ञान के आधार पर जैन सिद्धान्तानुसारी अर्थात् जिस प्रकार वंद्य विष-दाह से मूच्छित लोकोपयोगी किसी आयुर्वेद ग्रंथ का प्रणयन किया हो- स्वशरीर को विषापहार मंत्र के गुणों से (उसकी अमोष यह असम्भव प्रतीत नही होता। शक्ति के प्रभाव से) निविष एवं मूळ रहित कर देता है इस पद्य का अध्यपन करने से स्पष्ट ही प्रतीत होता उसी प्रकार (हे शीतल जिन !) अपने सांसारिक सुखों की है कि इस पद्य में श्री समन्तभद्र स्वामी ने अपने जिन अभिलाषा रूप अग्नि के दाह से (चतुर्गति सम्बन्धी दुःख विशेषणों का उल्लेख किया है वह आत्म पलाधावश नही सन्ताप से) मूच्छित हुए (हेयोपादेय विवेक से शून्य हुए) किया, अपितु किसी राज दरबार में राजा के सम्मुख अपने मन (आत्मा) को ज्ञानरूपी अमृतजल के सिंचन से मात्म परिचय प्रस्तुत करते हए किया है। उस काल में मुछारहित शान्त किया है। किसी राजा के सम्मुख आत्म परिचय मे अपने मुख से इस ये दोनो ही उद्धरण इस बात का सकेत करते हैं कि प्रकार के विशेषण प्रयुक्त करना साधारण बात नही थी। श्री समन्तभद्र स्वामी वैद्योचित गुणों और वैद्य द्वारा क्योंकि उन्हें उसकी सार्थकता भी सिद्ध करनी होती थी। विहित की जाने वाली क्रिया-चिकित्सा विधि के पूर्ण श्री स्वामी समतभद्राचार्य के असाधारण व्यक्तित्व ज्ञाता थे। इसीलिए उन्होने श्री शम्भव जिन और श्री शीतल सदर्भ में यह पद्य निश्चय ही महत्वपूर्ण है। क्योकि इससे जिन को वैद्य-भिषग की उपमा देकर वैद्य का महत्व बढ़ाया उनकी अन्यान्य विशेषताओं के साथ-साथ उनका भिषगत्व है। वैद्यक विद्या का ज्ञान होने के कारण ही सम्भवतः (आयुर्वेदज्ञता) भी प्रमाणित होता है। इसके अतिरिक्त उन्हें वैद्य और जिनेन्द्र देव के कतिपय कार्यों में समानता कुछ ऐसे प्रमाण और मिलते है जिनसे प्रतीत होता है कि की प्रतीति हुई है। इस कथन का मेरा आशय मात्र इतना वे वैद्यक विद्या के पूर्ण ज्ञाता थे। उन्होने अपने स्तोत्र ग्रथों ही है कि श्री समन्तभद्र स्वामी अन्य विषयों की भांति ही में भगवान का जो स्तुतिगान किया है उसमे उन्होने आयुर्वेद के ज्ञान से भी अन्वित थे। साथ ही यह तो भगवान को वंद्य की भांति सांसारिक तृष्णा-रोगो का सुविदित है कि जब वे भस्मक महाव्याधि से पीड़ित हुए नाशक बतलाया है। श्री सभव जिन का स्तवन करते हुए तो स्वय ही उसके उपचार मे तत्पर हुए और कुछ काल वे कहते हैं पश्चात् उस पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली। अत: उनका त्वं शम्मवः सम्भवत्तर्ष रोग. सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके । भिषग होना सार्थक है जो उनकी आयुर्वेदशता की पुष्टि आसीरिहाकस्मिक एव वेद्यो वंद्यो यथा नाथ रुजां प्रशान्त्यै ॥ करता है। -स्वयंभू स्तोत्र, श्लोक ११ आयर्वेद प्रथ कर्तत्वअर्थात् हे शम्भव जिन ! सांसारिक तृष्णा रोगो से स्वामी समन्तभद्र की वर्तमान में कोई भी आयुर्वेद पीड़ित जन के लिए आप इस लोक में उसी भांति कृति उपलब्ध नहीं है। अत: कुछ विद्वान उनका आयुर्वेद आकस्मिक वैद्यदए हैं जिस प्रकार अनाथ (धन आदि से कर्तृत्व संदिग्ध मानते हैं। वर्तमान में स्वामी समन्तभद्र विहीन असहाय जन) के रोगोपशमन के लिए कोई चतुर की पांच कृतियां उपलब्ध है-देवागम (आप्त मीमांसा), वैद्य होता है। स्वयम्भू स्तोत्र, युक्त्यनुशासन, जिन शतक (स्तुति विचा) इसी प्रकार भगवान शीतलनाथ की स्तुति करते और रत्नकरण्ड श्रावकाचार। इनके अतिरिक्त 'जीवसिद्धि' हुए उन्हें भिषगोपम निरूपित किया है। यथा नामक उनकी एक कृति का उल्लेख तो मिलता है किन्तु सुखाभिलाषा नलवाहमूच्छितं मनो वह अभी तक कही से उपलब्ध नहीं हुई है। ऊपर उनकी निजं ज्ञानमयाऽमृताम्बुभिः। जिनकृतियों का उल्लेख किया गया है उनमे से किसी भी कृति Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४० कि०२ अनेकान्तं का सम्बन्ध आयुर्वेद से नहीं है सभी कृतियां जैन दर्शन, जैनाचार, स्तुतिविद्या आदि से सम्बन्धित है । अतः वर्तमान मे उपलब्ध उनके प्रथो के आधार पर यह कह सकना कठिन है कि उन्होने आयुर्वेद के किसी ग्रंथ की रचना की होगी । इस संदर्भ मे एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि नवम ५ ताब्दी के विद्वान श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रथ कल्याणकारक में स्पष्टता पूर्वक इस तथ्य को उद्घाटित किया है कि आर्य समन्तभद्र ने आयुर्वेद विषय को अधिकृत कर किसी ग्रथ की रचना की थी जिसमे विस्तारपूर्वक अष्टाग का प्रतिपादन किया गया है। उन्होने आगे यह भी स्पष्ट किया कि समन्तभद्र के उस 'अष्टांग संग्रह' ग्रथ का अनुसरण करते हुए मैने सक्षेप मे इस कल्याणकारक' ग्रथ की रचना की है ।' श्री उग्रादित्याचार्य के इस उल्लेख से से यह असदिग्ध रूप से प्रमाणित होता है कि उन काल मे श्री समन्तभद्र स्वामी का अष्टाग वैद्यक विषयक कोई महत्वपूर्ण ग्रथ अवश्य ही विद्यमान एव उपलब्ध रहा होगा । सिद्धान्त रसायन कल्प इसी सदर्भ में एक यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि 'कल्याणकारक ग्रंथ की प्रस्तावना मे श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने आचार्य समन्तभद्र स्वामी की अद्वितीय विद्वत्ता का निरूपण करते हुए उनके द्वारा 'सिद्धान्तरसायन कल्प' नामक वैद्यक प्रथ की रचना किए जाने का उल्लेख किया है । वे लिखते है कि पूज्यपाद के पहले महर्षि समन्तभद्र हर एक विषय में अद्वितीय विद्वता को धारण करने वाले हुए। आपने न्याय सिद्धान्त के विषय मे जिस प्रकार प्रोढ़ प्रभुत्व प्राप्त किया था उसी प्रकार आयुर्वेद के विषय मे भी अद्वितीय विद्वत्ता प्राप्त की थी। आपके द्वारा सिद्धान्त रसायन कल्प नामक एक वैद्यक प्रथ की रचना की गई थी जो अठारह हजार श्लोक परिमित थी परन्तु आज वह उपलब्ध नही है और हमारी उदासीनता के कारण सम्भवतः अब वह कीटों का भक्ष्य बन गई है और कही१. अष्टामध्यखिलमंत्र सम प्रोक्त, सविस्तरमथो विभवं विशेषात् । कहीं उसके कुछ श्लोक मिलते है जिनको यदि संग्रह किया जाय तो २-३ हजार श्लोक सहज हो सकते हैं। इस ग्रंथ की मुख्य विशेषता यह है कि असा धर्म प्रेमी आचार्य ने अपने ग्रंथ मे औषध योगो में पूर्ण अहिंस धर्म का ही समर्थन किया है। इसके अलावा इस ग्रंथ में जैन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग मी दनुकूल दिए गए है। इसलिए अर्थ करते समय जैमन की कपासे को ध्यान मे रखकर अर्थ करना ही अभीष्ट । उदाहरणार्थ 'रत्नत्रयोषध" का उल्लेख ग्रंथ पे आया है, सर्व सामान्य दृष्टि से इसका अर्थ होगा- 'वज्रादि रत्नत्रयों के द्वारा निर्मित औषधि - परन्तु वा नही है। जैन सिद्धान्त में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारिव को रत्नत्रय के नाम से जाना जाता है । यह रत्नत्रय जिस प्रकार मिथ्यादर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिष्या चरित्र रूपी दोश्रय के निराकरण में समर्थ है उसी प्रकार आयुर्वेदीय रसशास्त्रोक्त पारद, गन्धक और धातुपधातु आदि तीन इस्यों के सम्मिश्रण से निर्मित तथा अमृतीकरण पूर्वक तैयार किया गया रसायन वात-पित्त कफ दोषत्रय का नाश करता है । अतएव इस रसायन का नाम 'रत्नत्रयोषष' रखा गया है ।" आचार्य समन्तभद्र ने अपने 'सिद्धान्त रमायन कल्प' नामक उक्त ग्रंथ मे विभिन्न औषध योगो के निर्माण में घटक द्रव्यों का जो प्रमाण (मात्रा) निर्दिष्ट किया है उसमे भी जैन धर्म सम्मत सख्या प्रक्रिया का अनुसरण किया है जो अन्यत्र नही मिलता है। इस ग्रथ में कथित संख्यासकेत को केवल वह समझ सकता है जिसे जैनमत की जानकारी है। जैसे - 'रससिन्दूर नामक रम औषधि की निर्माण प्रक्रिया में कथित निम्न या संकेत दृष्टव्य है" सूत केसरि गंधकं मृगनवासारदुमान" । यहाँ पर द्रव्य के प्रमाण के लिए जिस सख्या का संकेत किय गया है वह सहज और सर्व ज्ञात नहीं है जैसे 'सूत केसरि यहा सूत शब्द से पारद और केसरि शब्द से सिंह अभिप्रेत है जिससे पारद सिंह प्रमाण में लिया जाय - यह अर्थ ध्वनि संक्षेपतो निदित तदिहात्मशक्त्या कल्याणकारकमशेषपदार्थयुक्तम् ॥ कल्याणकारक २०/८६ २. कल्याणकारक की प्रस्तावना, पृष्ठ ३६ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ समन्तभद्र स्वामी का आयुर्वेद ग्रन्थ कर्तृत्व होता है । 'केसरि' शब्द यहां संख्या विशेष की ओर इंगित किया था। क्योंकि जैन धर्म मे व्यवहार में अत्यन्त सूक्ष्मता करता है। जैन धर्म मे २४ तीर्थकर होते है। प्रत्येक पर्वक अहिंसा को प्रधानला दी गई है। घमाचरणरत तीर्थकर का एक चिह्न होता है जिसे लाछन कहते है । जैसे व्रतधारी मुनियो ने आयुर्वेद के सन्दर्भ मे इस बात पर ऋषभ देव का लांछन बैल है 'अजितनाथ का लांछन ...है विशेष ध्यान दिया कि औषध निर्माण के कार्य में भी किसी इत्यादि । चौबीसबे तीर्थंकर का चिह्न सिंह (कसरि) प्राणि को कष्ट या उसका घात नहीं होना चाहिये। इस है। अत: यहा फलितार्थ यह हुआ कि सूत (पारद) केसरि पर इतनी सूक्ष्मता से ध्यान दिया गया कि एकेन्द्रिय जीवो अर्थात् २४ भाग प्रमाण लिया जाय। इसी प्रकार 'गधक का भी सहार नही होना चाहिये। इस अहिंसा दृष्टिकोण म.' अर्थात् गन्धक 'मग' प्रमाण में लिया जाय। मग चिह्न को ध्या। मे रखते हुए पुष्पायर्वेद का निर्माण किया गया सोलहवें तीर्थक र शान्तिनाथ भगवान का है। प्रत. गन्धक था। उस पुष्पायुर्वेद में प्रथकार ने अठारह हजार जाति के का प्रमाण १६ भाग लेने का निर्देश है। समन्तभद्र स्वामी कुसुम (पराग) रहित पुष्पो से ही रसायन औषधियो की के सम्पूर्ण अथ मे सर्वत्र इसी प्रकार के साकेतिक व निमणि विधि और प्रयोग को उल्लिखित किया है। इस पारिभाषिक शब्दो का प्रयोग हुआ है जो प्रथ की मौलिक पुष्पार्वेद प्रय मे ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी की कर्नाटक विशेषता है।' लिपि उपलब्ध होती है जो अत्यन्त कठिनता पूर्वक पढ़ी ___ स्वामी समन्तभद्र के उक्त ग्रंथ का अध्ययन करने से । जाती है। यह एक चिन्तनीय विषय है कि जिस प्रथ मे ज्ञात होता है कि उसे पहले भी जैनेन्द्र मत सम्मत वैद्यक औषध निर्माण एवं प्रयोग के लिए अठारह हजार जाति आषध निमाण एवं प्रयाग ग्रन्थो का निर्माण उनके पूर्ववर्ती मुनियो ने किया था। के केवल पुषो का उपयोग उल्लिखित हो, वह भी ई०-सन् क्योकि उन्होंने परिपक्व शैली मे रचित अपने प्रथम द्वितीय-तथीय शताब्दी मे ; ता उस प्रथ का कितना महत्व पूर्वाचार्यों की परम्परागतता को 'रसेन्द्र जैनागमसत्रबद्ध नहीं होगा ? अत: ऐसे महत्वपूर्ण, उपयोगी और ऐतिहासिक इत्यादि शब्दो द्वारा उल्लिखित किया है। इसके अतिरिक्त ग्रंथ की छानबीन, पारिसस्कार एव प्रकाशन के लिए 'सिद्धान्त रसायनकल्प' म श्री समन्तभद्राचार्य ने स्वय समाज के विद्वज्जनो, शोध संस्थानो तथा श्रेष्ठ वर्ग को उल्लेख किया है-श्रीमद्भवल्लातकाद्रौ बसति जिनमुनि, समुचिन ध्यान देना चाहिये। सूतवादे रसाब्ज" इत्यादि । यह कथन इस तथ्य की पुष्टि यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि न केवल आयुर्वेद जगत् मे अपितु वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में भी पुष्पो की इतनी करता है कि आचार्य समन्तभद्र से पर्व भी वैद्यक ग्रथो की जातियों पर प्रकाश डालने वाला कोई भी ग्रय किसी अन्य रचना करने वाल जनमुनि हुए है जो सभवतः ईसा पूर्व ग्रंथकार द्वारा अभी तक नही रचा गया है। अतः पुष्पायुर्वेद द्वितीय-तृतीय शताब्दी म रहे होगे और वे कारवाल जिला जैसे विषय पर ग्रय रचना का श्रेय मात्र जैनाचार्यों को ही होन्ना पर तालुका के गेरसण के पास हाडल्लि मे रहते थे। हाडिल्ल में इन्द्रागार और चन्द्रगिरि नाम के दो पर्वत है। यद्यपि वैदिक दृष्टि से रचत आयुर्वेद के ग्रथो मे है। वहा पर वे तपश्चर्या करते थे। श्री वर्धमान पार्श्वनाथ चरक-मुथुन आदि महनीय पथकारो ने औषध योगो मे वानम्पनिक द्रव्यो को प्रधानता दी है, जिसका अनुसरण शास्त्री के अनुसार अभी भी इन दोनो पर्वतोपर पुरातत्वीय परवर्ती आचार्यों ने भी किया है। किन्तु साथ मे मासादि अवशेष विद्यमान है। भक्ष्य द्रव्यों का औषधि के रूप मे उल्लख किया जाने से पुष्पायुर्वेद उसमे अहिंसा तत्व की प्रतिष्ठा नही हो सकी। इसके श्री वर्धमान पाश्र्वनाथ शास्त्री के अनुसार श्री समन्तभद्र विपरीत नाचायो ने अहिंसा धर्म के पालन का लक्ष्य स्वामी ने किसी पुष्पायुर्वेद नामक ग्रथ का भी निर्माण रखते हुए पुष्पायुर्वेद जैसे ग्रयो की रचना कर जो १. उपर्युक्त महाड शब्द का अर्थ सगीत है और हल्लि शब्द का २. भट्टारकीय प्रशस्ति मे इस हडल्लि का उल्लेख अर्थ ग्राम है। अत: यह निश्चित है कि हाडल्लि का सगीतपुर के नाम से मिलता है। क्योकि कन्नड़ भाषा ही संस्कृत नाम संगीत पुर है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० वर्ष ४० कि० २ लोकपयोगी प्रेयस्करी कार्य किया है वह अद्वितीय और बेमिसाल है। अनेकान्त उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार श्री समन्तभद्राचार्य का पोठ गेरसप्पा (कर्नाटक) मे विद्यमान था। श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री के अनुसार जिस अरण्य प्रदेश में स्वामी समन्तभद्र निवास करते थे वहाँ अभी तक विशाल शिलामय चतुर्मुख मन्दिर, ज्वालामालिनी मन्दिर और पार्श्वनाथ जिन चैत्यालय विद्यमान है जो दर्शनीय तो हैं ही पुरातत्वीय और ऐतिहासिक दृष्टि से आज उनका विशेष महत्व है। जगल मे यत्र तत्र अनेक मूर्तियां बिखरी पड़ी है जिससे उस स्थान का धार्मिक महत्व परिशात होता है । इस क्षेत्र में व्याप्त परंपरागत किवदन्ती से ज्ञात होता है कि इस जंगल में एक सिद्धरसकूप है। कलियुग में जब धर्म संकट उत्पन्न होगा उस समय इसरसकूप का उपयोग करने का निर्देश दिया गया है। इस रसकूप को सर्वाजन नामक अंजन नेत्र मे लगाकर देखा जा सकता है। सर्वोजन के निर्माण एवं प्रयोग विधि का उल्लेख 'पुष्पायुर्वेद' में वर्णित है। साथ में यह भी उल्लिखित है कि 'सजन' के निर्माण में प्रयोग किए जाने वाले पुष्प उसी प्रदेश मे मिलते है इसलिए उस प्रदेश की भूमि को 'रत्नगर्भा वसुन्धरा' १. कल्याणकारक, सम्पादकीय, पृष्ठ २६ ११. सम्म ६० १1३-८ । १२ . वही । १४. ( शेषांश पृ० २४ ) १३. वही १०।२९ ३० । साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन (डा० राजाराम जैन) १७७४ । १५. सम्म० प्रशस्ति १६. सम्म० १।३।११-१२ । १७. दे० रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ० १३०-१४२ । १८. Romance of the Fort of Gwalior (1931). Pages 19-20. के नाम से उल्लिखित किया गया है।' उपर्युक्त विवरण से यह तथ्य भी उद्घाटित होता है कि स्वामी समन्तमद्र का निवास जिस क्षेत्र या अरण्य प्रदेश में था उस क्षेत्र में कतिपय विशिष्ट प्रकार की पुष्प जातियां उपलब्ध रही होंगी जो सम्भवतः अब न हों । श्री सन्तभद्र स्वामी को उस क्षेत्र की समस्त प्रकार की वनस्पतियों एवं पुष्पों का सर्वांगीण परिज्ञान था और वे उनके औषधीय गुण धर्मो त उपयोग से हस्तामलकवत् परिचित थे । उनका अगाध ज्ञान ही उनकी वृत्तियों एवं ग्रंथों में अवतरित हुआ है जो लोकोपयोगी होने के साथसाथ धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व का भी है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र स्वामी द्वारा आयुर्वेद के ग्रंथों की भी रचना की गई थी जिनमें आयुर्वेदीय ज्ञान और चिकित्सा विधि के अतिरिक्त अन्य अनेक मौलिक विशेषताएं विद्यमान थी। इस दिशा मे पर्याप्त प्रयास एवं अनुसंधान अपेक्षित है । आशा है समाज के मनीषी विद्वज्जन एवं शोध संस्थाएं इस दिशा में अपेक्षित ध्यान देंगी। भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद् १६ / ६, स्वामी रामतीर्थ नगर नई दिल्ली-१५ १६. सम्मइ० १०।२६ । २०. दे० र साहित्य का आलोचनात्यक परिशीलन १० १५-१०४। २१. सम्मइ० १।१०।२३-२४ । २२-२४. भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से इनके प्रत्यों क प्रकाशन हो चुका है । २५. विशेष के लिए दे० रहधू साहित्य का आलोचनात्मकपरिशीलन- ० ११-१५ । २६. सम्म६० ११६ धत्ता । २७. सम्म० की सन्धिके अन्त में लिखित पुष्पिकाएँ देखें। २८. सम्मइ० ११४ । १५ । ३०. वही - १० ३३०६-१० । ३२. बही - १०१३३।४-५ । ३४. वही - १०१३३।११ । ३६. वही - १२१ । २६. वही- १००३२०१-५ । ३९. वही-१०१३३।१-१० । ३२. बही - १२७११६-२० । ३५. वही - ११६१६ । ३७. सम्मइ० - १।६।४ । ३८. सम्मइ० - १।६।५ । ३६. सम्मइ० - ११६।६ | ४०. रघू साहित्यका आलोचनात्मक परिशीलन पृ०८१९ । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा सोचिए ! १. कितनी दूर कितनी पास ? ये पद ग्रहण नहीं किए। फिर ये पद स्व-हेतु मंगलोत्तम शरणभूत भी नही है । कहा भी हैचौबीसों तीर्थंकरों के चरित्र पढ़ने वाले स्वाध्यायी इन प्रश्नो के सहज उत्तर खोजें कि कौन-कौन से तीर्थकर "चत्तारि मंगल । अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगल, साह ऐसे हैं जिन्होंने साधु-पद अंगीकार कर केवलज्ञानी हाने की मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मगल । चत्तारिलोगुत्तमा, अवस्था के पूर्वक्षणपर्यन्त साधु-पद मात्र का निर्वाह किया अरहंता लोगुत्तमा सिद्धालोगुत्तमा, साहू-लोगुत्तमा, और आचार्य-उपाध्याय पद नही लिया? और कौन से ऐसे के वलिपण्णत्तो धम्मोलोगुनमा। चत्तारि सरणं पवज्जामि । अरहते सरण पवज्जामि, सिद्धे सरण पवज्जामि, साहसरणं हैं जिन्होंने बीच के काल में आचार्य और उपाध्याय पद स्वीकार किए ? यह भी देखे कि किन तीर्थंकरों ने किन्हें- पर्व पवज्जामि, केवलिपण्णत्त धम्म सरणं पवज्जामि।"किन्हें स्वयं दीक्षित कर उन्हें स्व-शिष्य घोषित किया? उक्त प्रसग में आचार्य और उपाध्याय पदों को हमारी दृष्टि से तो सभी तीर्थकर न तो आचार्य उपाध्याय छोड़ दिया गया है। क्योकि परमार्थ दृष्टि से आचार्य और जैसे पदों से जुडे और ना ही उन्होने स्वयं के लिए चेला- उपाध्याय दोनों ही पद-स्व के लिए न तो मंगलरूप हैं, घेली बनाए । जिसने भी दीक्षा ली उनके चरणों की सामी- ना ही उत्तम हैं और ना ही ये परमार्थ में शरणभूत हैं। पूर्वक स्वयं ही ली। ऐसा क्यों? आचार्य पद तो मजबूरी में गुरुआज्ञापालनार्थ और संघ हम समझते हैं-पंच परमेष्ठियों मे सिद्ध परमेष्ठी सचालनार्थ लेना पड़ता है, कोई खुशी का त्यौहार नहीं है, जो लोग इममे लाखो-लाखों का द्रव्य व्यय कर लोक सर्वोत्कृष्ट, अात्मा के शुद्ध रूप हैं और अहंन्त दूसरे नम्बर पर है। तथा आचार्य-उपाध्याय और साधु इन तीनो पदों दिखावा करें और जय-जयकार करें। ये पद तो साधु की स्वसाधना में शिथिलता लाने और पर की देखभाल करने में-मोक्षमार्ग की दृष्टि से-साधु सर्वोच्च और उत्तम जैसी उलझनों में फंसाने वाला है। इस पद पर बैठने हैं। प्रश्न होता है यदि उपर्युक्त क्रम सही है तो णमोकार वाला कांटों का ताज जैसा पहिनता है-उत्तरदायित्व मंत्र में जो क्रम है वह क्यों ? वहाँ अर्हन्तों को प्रथम और निर्वाह के प्रति उसकी जिम्मेदारी बढ जाती है। वास्तव साधुओं को अन्त में क्यों रखा गया ? में तो 'शेषाः-वहिवाभावाः, सर्वे संयोगलक्षणाः' और तत्त्व-दृष्टि से देखा जाय तो हम व्यवहारी हैं और 'अहमेव मयोपास्यः' ही तथ्य है। उक्त स्थिति में कौन सा व्यवहार में हमारा उपकार अहंन्तों से होता है तथा पद मोक्षमार्ग से दर और कौन-सा पद मोक्षमार्ग के निकट आचार्य व उपाध्याय साधु-पद मे दृढ़ता के लिए मार्ग दर्शक है तथा कौन-सा पद छोड़ना और किसकी ओर दौड़ना होते हैं, इस दृष्टि से ऐसा क्रम रख दिया गया है। इष्ट है और आज क्या हो रहा है ? जरा सोचिए ! अन्यथा यदि आचार्य पद-मोक्षमार्ग में, श्रेष्ठ होता तो किसी आचार्य को सल्लेखना करने के लिए भी अपने मलेखना करने के लिए भी अपने २. कौन-सी परम्परा सही? प्राचार्य पद का त्याग करना न पड़ता । यह निश्चय है कि आज परम्परा शब्द भी परम्परित (गलत या सही) 'पर' के उत्तरदायित्व के निर्वाह का त्याग किए बिना स्व रूप धारण करता जा रहा है और इस शब का संबंध की माधना नहीं हो सकती। फलत: स्व. साधना मे आचार्य वास्तविकता से न रहकर कोरी परम्परा (Direct या पद त्यागना अनिवार्य है-निश्चय ही आचार्य पद मुक्ति- Indirect) से रहने लगा है। जैसे तीर्थकर महावीर की बाधक है। यही कारण है कि तीर्थंकरों ने मुक्ति से दूरस्थ परम्परा का वास्तविक रूप हमारी दृष्टि से मोझल हो Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२,४०० २ गया है और बाज दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, व तेरापंथी सभी अपने को भगवान महावीर की परम्परा का घोषित कर बैठे हैं । वंसे ही आचार्यों की परम्परा भी विविध रूपों को धारण किए जा रही है। आचार्य शान्तिसागर जी ने अपना आचार्यत्व अपने द्वारा अनुरूपतपस्वी, निर्भय, निर्दोष आचारपालक मुनि श्री वीरसागर जी को सौपा और उसका समर्थन सघ के समस्त साधुगण ने किया श्री वीरसागर के बाद उनके आचार्यपट्ट पर क्रमशः श्री शिवसागर जी और श्री घागर जी विराजमान हुए लोग कहते है धर्ममागर हुए — लोग कहते है कि श्री आचार्य शान्तिसागर जी न अपना पट्टाचार्यत्व श्री पायसागर जी को नहीं दिया अपितु उन्होंने कुम्यगिरि मे अपनी सल्लेखना के अवसर पर अपना आचार्य पद वहाँ उपस्थित विशाल जन समुदाय के बीच श्री बीर सागर महाराज को प्रदान करने की घोषणा की और आचार्य श्री द्वारा प्रदत्त पीछी कमण्डलु श्री वीरसागर को जयपुर में एक विशाल आयोजन मे विशाल चातुविध संघ के समक्ष विधिपूर्वक अर्पित किए गए। यह एक पक्ष है । दूसरा पक्ष है शान्तिसागर से मुनिरूप मे दीक्षित मुनि श्री पायसागर जी थे और उनसे दीक्षित मुनि श्री जयकीर्ति थे और उनके शिष्य आचार्य श्री देशभूषण जी थे— जो श्री पायमागर जी की परम्परा के पट्टाचार्य थे । उक्त दोनों परम्पराओ में आचार्य शान्ति सागर जी की पट्टाचार्य परम्परा कौन-सी मानी जाय ? प्रा० धर्मसागर जी वाली या आचार्य देशभूषण जी वाली? हालाकि धावकों के लिए दोनो ही पूज्य है पर पूज्य होते हुए भी भ्रम-निवारणार्थ वस्तुस्थिति तो समझनी ही होगी और यह भी समझना - सोचना होगा कि क्या अन्य पूर्वाचार्यों की परम्पराएँ भी कभी ऐसी विवादास्पद स्थितियों में हो निश्चित हुई होगी। जरा सोचिए । ३. देखते-देखते धांधला ? एक कथा है-एक दिन वज्रदन्तचक्रवर्ती अपनी सभा मे विराजमान थे। एक माली ने उन्हें एक सुन्दर मुकलित बगेकान्स कमल लाकर भेंट किया । उसमें एक मरे हुए भोरे को देखकर महाराज विचारने लगे देखो, एक नासिका इन्द्रिय के वशीभूत होने से इस भ्रमर की जान चली गई तो फिर मैं तो रात्रि दिवस पचेन्द्रिय के भोगोपभोग में लीन हो रहा हूं, कभी तृप्ति हो नहीं होती। यदि मैं इनको स्त्रय नही छोड़ दूंगा, तो एक दिन मेरा भी यही हाल होगा । ऐसा विचार कर ससार से उदास हो वे अपने पुत्र अमिततेज को राज्य देने लगे, परन्तु उसने कहा-पिता जी, जिस कारण श्राप इस राज्य को छोड़ते हैं, मैं भी इसे छोड़कर आपके साथ क्यों न चलूं ? वज्रदन्त के बहुत समझाने पर भी राज्य को जूठन समान जानकर उसने स्वीकार नहीं किया । अन्य पुत्रो को कहा तब वे भी अमिततेज के ही अनुयायी निकले। जो उत्तर अमिततेज से मिला या यही सब से मिला निदान अमिततेज के पुत्र पुण्डरीक को राज्य देकर यशोधर तथंकर के चरणो के निकट महाराज वज्रदन्त ने दीक्षा धारण की।' हमने पू० आचार्य देशभूषण जी के आचार्य पट्ट ग्राहकत्व के लिए प्रचारित ( दो मुनियों के प्रति ) विभिन्न दो प्रकार की सूचनाएँ प्रकाशित देखी और दोनो सकल (समस्त ) दि० जैन समाज के नाम से प्रसारित देखी। समझ में नही आया कि सकल (एक) ने दो-रूप कैसे धारण कर लिए? सकल शब्द एकत्व का सूचक हैद्वित्व का नहीं । ऐसे सकल के नेतापन का दावेदार कौन ? जो भेदवाद पर अंकुश न लगा सका हो ? स्पष्ट तो यहो होता है कि समाज पर किसी का अकुश नही सकल के भी कई भेद और कई नायक जैसे मालुम देते है नश्यन्ति बहुनायकाः ।' - हमारी दृष्टि से तो सच्च दिवम्बर मुनि ऐसे विवादों मे सदा तटस्य और उदासीन ही रहते है वे अमिततेज आदि धाताओ की भाति और उससे भी कहीं अधिक विरक्ति का भाव दर्शाते है। यदि कहीं कोई विसंगति होती है तो भ्रमोत्पादक नेताओ की प्रेरणा से ही होती है - सच्चे साधु की ओर से नहीं स्मरण रहे साधुपद, । - ज्ञाता साधु की मर्यादाएँ, साधुकी क्रियाएँ बहुत उच्च है वे साधु के अध्यक्षस्व की ही अपेक्षा रखती है। फलत उनके - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परा सोचिए पैराग्यमयी मुद्रा संबंधी विधान, अधिकारों और पद-आदि ... 'प्रौपशमिकाविभव्यत्वानांच': संबंधी क्रियाओं में अगुमा-मुखिया बनने या पर-प्रेरणावश उनमें विघ्न या भेद-परक सूचनाएं प्रसारित करने का मोक्ष में जिन भावों का अभाव होता है, तत्संबंधी यह अधिकार श्रावकों को नहीं-जैसा कि किया गया है। हां, सूत्र है। इसका अर्थ ऐसा किया जा रहा है कि वहाँ धावकों का कर्तव्य है कि वे ऐसे अवसरों पर साधु को औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक भावों का और दिख-दिखावे, जयकारों या विरुदावली-गानों आदि मे पारिणामिक भावों में से भव्यत्व भाव का अभाव हो जाता न भरमाएं बल्कि उन्हें उनके कर्तव्य-निर्वाह हेतु-आत्म- है। हम यहाँ मायिक भावों को इसलिए छोड़ रहे हैं बलवर्धक दशभक्त्यादि जैसे धर्मानुष्ठानों के विशदरीति से कि-लोग वहाँ क्षायिक भावों का रहना कहते हैं और करने का अवसर ही प्रदान करें-उन्हें जय-जयकार में पारिणामिक में से जीवत्व को भी स्वीकार करते हैं घेरें नहीं जैसा कि वर्तमान में चल पड़ा है। जरा निम्न भव्यत्व तो वहाँ है ही नहीं। पंक्तियां भी देखिए, कि इनमें कैसे सामंजस्य बैठेगा? विचारणीय यह है कि उक्त सूत्र में 'आदि' शब्द का 1. 'आचार्य श्री (शान्तिसागर ने सन् १९५२ में भाव किस मर्यादा में है ? न्यायसंगत तो यही है कि 'आदि' २६ अगस्त शुक्रवार को वीरसागर महाराज को पट्टाचार्य शब्द सदा ही प्रसंगगत शेष सभी के लक्ष्य में होता हैपद प्रदान किया, उन्होंने कहा-हम स्वयं के संतोष से वह किसी को छोड़ता नहीं। यहां भावों का प्रसंग है। अपने प्रथम निम्रन्थ शिष्य वीरसागर को प्राचार्यपद देते योर सूत्र में प्रथमभाव के बाद आदि शब्द होने से पांचों है...।' दि० 'जैन साधु परिचय' पृ० ५८ ही भावों का ग्रहण होना चाहिए और तदनुसार मोक्ष में २. 'चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी, पांचों ही भावों का अभाव स्वीकार करना चाहिए। पाठक तच्छिष्य भाचार्य श्री जयकीति जी उनके पट्टशिष्य सोचें कि-क्षायिकभाव और पारिणामिक भावों में जीवत्व भाचार्य देशभूषण जी महाराज'' -एक पोस्टर के रह जाने जैसा अर्थ सूत्र के किस भाग से फलित किया ३. जैन परम्रा में आचार्य शान्तिसागर से आरम्भ गया है ? हुई बाचार्य श्रृंखला में मुनि श्री विद्यानंद पांचवें आचार्य - नवभारत २६ जून ८७ हमारी दृष्टि में उक्त सूत्र से ऐसा फलित करना सभी भौति न्याय-सगत होना चाहिए कि-मोक्ष में सभी भांति, ४. दिगमरब आ० १०८ अजीतसागर जी महाराज को भी शान्तिसागर जी महाराज के चतुर्थ पट्टाधीश के सभी प्रकार के मभी भाव-जो जीव-(संसारी) अवस्था रूप में प्रतिष्ठित किया गया।' के हैं-नहीं रहते । मोक्ष होने पर शुद्धचेतना मात्र ही शेष -जैन गजट ३० जून ८७ रहता हैं जिसका उक्त भावों से स्वाभाविक कोई संबंध नहीं। बिकारी (कर्म-सापेक्ष) अवस्था का नाम जीव है, ५. 'ला० रनदेशभूषण मुनिमहाराज के करकमलों जो कर्माधार पर जीता-मरता है।-कर्म-सापेक्षता के द्वारा ही. 'अपने परस्थान पर आचार्यरल पद नियोजित कारण उसी के पांच भाव हैं और शुद्ध-चेतना इन सभी .."किये हैं। परमपूज्य १०८ बाहुबली जी बालाचार्य ही भावों से अछूता-'चिदेकरस-निर्भर है। इसी भाव में श्री माचार्यरत्न।' -एक पोस्टर' वीरसेन स्वामी ने कहा है सिवा ण जीवाः' और तथ्य भी सलवार भविष्य में दिगम्बर गुरुओं को लेकर पुनः कभी कोई यही है। जरा सोचिए । सूत्र में 'भव्यत्वानां ' क्यों दूषित व भ्रामक वातावरण न बने, इसके लिए आप कैसा, कहा ? इसे हम फिर लिखेंगे। क्या उपाय सोचते हैं ? जरा-सोचिए। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rogd. with the Registrar of Nowspaper af R. No. 10591/62 . . . वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन नसम्ब-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित प्रपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों पोर पं.परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य. परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... नग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह । पचपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १५.. समाधितन्त्र प्रौर इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित भवणबेलगोल और दक्षिण के प्रम्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... जैन साहित्य और इतिहास पर विशर प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहग्सुत्त: मूल ग्रन्थ की रचना पाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिदान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों पोर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १०००से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज मोर कपड़े की पक्की जिल्व । २५.०० जैन निवग्य-रत्नावली: श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया पानशतक (ध्यानस्तव सहित): संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री भावक धर्म संहिता : श्री बरयावसिंह सोषिया बैन लक्षणावली (तीन भागों में) : स. पं० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग ४.... जिन शासन के कछ विचारणीय प्रसंग : श्री पपचन्द्र शास्त्री, सात विषयों पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन २.०० मूल जैन संस्कृति अपरिग्रह: श्री पपचन्द्र शास्त्री २... Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942) Per set 600-00 सम्पादक परामर्श मण्डल डा. ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक श्री पचन्द्र शात्र प्रकाधक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवामन्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-३ BOOK-POST Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ४० कि० ३ वीर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक अनेकान्त ( पत्र-प्रवर्तक : श्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') इस अंक में— क्रम विषय १. "मैं" और "तू" डा० कु० सविता जैन २. दिवंगत हिन्दी सेवी डा० ज्योति प्रसाद जैन ३. १०वीं शताब्दी के जैन काव्यों में बौद्धदर्शन की समीक्षा - श्री जिनेन्द्रकुमार जैन ४. ऋषभ, भरत और बाहुबलि का चारित्रिक विश्लेषण - श्रीमती डा० ज्योति जैन पृ० १ २ ४ 2 ५. सम्यक्त्व प्राप्ति यत्न साध्य है या सहज साध्य है - श्री बाबूलाल जैन १४ ६. एक अप्रकाशित कृति अमरसेन चरिउ - डा० कस्तूरचन्द्र 'सुमन' ७. क्या मूलाचार यापनीय ग्रन्थ है - डा० कुसुम पटोरिया ८. जैन समाज किधर जा रहा है। - श्री भंवरलाल जैन न्यायतीथं १५ १६ २२ २. श्वेताम्बर तेरापंथ द्वारा दिगम्बर समाज पर बुला प्रहार - श्री पद्मचन्द्र शास्त्री २३ १०. 'सिद्धा ण जीवा' - धवला - श्री पद्मचन्द्र शास्त्री २५ ११. जरा सोचिए : -सम्पादकीय ३० जुलाई-सितम्बर १९८७ प्रकाशक : वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली- २ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत-शत बार सादर नमन हम नेताओं को राजा मानते हैं-सन्मान के साथ। किसी को छोटा, किसी को बड़ा । सभी का अपना शासन है-कई भागों में विभक्त-भारतीय, प्रादेशिक, नागरिक और स्थानीय संस्थाओं आदि के रूप में। सभी मोर्चे संभालने और विवाद-विजयी-स्व-दृष्टि मनवाने में निपुण । पुराने राजा लड़ते थे शासन के लिए। और गणतंत्र में इनकी लड़ाई है सेवा के नाम पर, सेवक बनकर सेवा में आने के लिए। वे द्रव्य और भूमि को आत्मसात् करते थे और इनको मिलते हैं उपहारयश, प्रतिष्ठा, मान और सन्मान, बुराई-भलाई भी। आज कम राजा होंगे ऐसे--जो इन सम्पदाओं में से किसी एक से महरूम रहे हों। कइयों को तो इनमें से बहुत कुछ मिल चुका होगा-कई कई बारग्रामों, नगरों, जंगलों तक में। इनको बहुत कुछ मिल चुका होगा-त्यागियों, विद्वानों, सेठों और साधारण जनता के बीच। फिर भी इन्हें संकोच नहीं होता बार-बार इनके ग्रहण करने से । आखिर, संकोच हो भी तो क्यों ? इनकी तो आदत अनादि से पर को ग्रहण करने की रही है । जैनी नाम धरा कर भी ये जैन के सिद्धान्त 'अपरिग्रह' को नहीं जान पाए हैं। फलतः-- स्वयं परिगह में डूबे हैं, त्यागियों को परिग्रह के चक्कर में फंसाते हैं -संस्थाओं के उत्सवों में घेरकर, उनकी जय बोलकर और अपने मन्तव्यों पर उनकी मोहरें लगवाकर। ये सब जैन हैं - जैनत्व की अभ्यास दशा में। कभी इनका ये परिग्रह छूट जायगा और कल्याण होगा इनका और समाज का। विरले ही संकोची और सच्चे त्यागी आदि होंगे जो इनके चक्कर से बच पाए हों। धन्य हैं चक्करों से बचने वाले-नग्न दिगम्बर मुनि, व्रती-श्रावक और निःस्पृह नेताओं को। सबको हमारा सादर नमन। वार-बार नमन, सौ बार नमन। KXXXXX**** KKK**********kkkkkkkkxxxxx कर्म परवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये। पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता ॥ __कर्मों के आधीन, नश्वर, दुखों से मिश्रित और पाप के कारणभूत सांसारिक सुख की चाहना नहीं करना, नि:कांक्षित अंग है। Xxxxxxxx*********Xxxxxxxxxx Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ४० किरण ३ } मोम्म् अनेकान परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५१३, वि० सं० २०४४ { जुलाई-सितम्बर "मैं" और "तू" मैं शुद्ध बुद्ध चैतन्य रूप, तू जड़ पुद्गल का रागी । शुभ्र स्फटिकसम उज्जवल, तू कलुषित भावों का धारी ॥ मैं शीतल अमृत जलधार सदृश, तू तप्तायमान लौह-सा दग्ध । मैं आनन्द महोदधि का वासी, तू राग-द्वेष भावों से तप्त ॥ मैं मोह-अरि का हन्ता तू मोह-रिपु का दीन दास । मैं ध्रुव अचल और अनुपम, तू हर क्षण काल का ग्रास ॥ मैं ज्ञान ज्योति की दीपशिखा, तू अज्ञान तिमिर का वासी । मैं वीतराग बन कर डोलूं, तू शलभ सदृश अनुरागी ॥ मैं निज स्वभाव में लीन हुआ, तू पर भावों के साथ बहा । मैं एक अकेला आकिंचन, तू प्रिय जनों से रहा घिरा ॥ मैं हर क्षण ज्ञाता-दृष्टा, तू हर क्षण कर्ता-भोक्ता । मैं हर क्षण कर्म काटता तू हर क्षण कर्म जोड़ता || मैं शुद्धोपयोग में रमण करूँ, तू पुण्य-बंध का अभिलाषी । मैं मुक्ति रमा का सहचर, तू चंचला लक्ष्मी का साथी | मैं 'सविता' सम आलोक पुंज, तू निशा सदृश दिग्भ्रमित रहा । मैं मोक्ष मार्ग का पथिक बना, तू स्वर्ण महल में रमा रहा ॥ मैं जरा-मरण से मुक्त हुआ, तू रोग-शोक से व्यथित सदा । "मैं" ने पाया सिद्धों का स्वरूप, "तू" ने पाया संसार सदा ॥ -डॉ० सविता जैन २/ ३५ दरियागंज, नई दिल्ली Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवंगत हिन्दी-सेवी डा० ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ चार वर्ष पूर्व दश खंडों में पूरी की जाने वाली महत् एक बात अवश्य खटकती है कि ग्रन्थ के प्रथम खंड योजना के अन्तर्गत 'दिवंगत हिन्दी-सेवी' शीर्षक बृहदकाय में दिवंगत जैन हिन्दी-सेवियों की मात्र २७ प्रविष्टियां हैं, कोष के प्रथम एवं द्वितीय खंड प्रकाशित हुए थे। सन् और द्वितीय खंड में मात्र ३४-इस प्रकार दोनो खडो को १८०० ई० से लेकर वर्तमान पर्यन्त के दिवंगत हिन्दी. लगभग १८०० प्रविष्टियों में केवल ६१ जैन सम्मिलित हो सेवियों के अकारादिक्रम से निर्मित इस परिचयात्मक कोष पाए हैं। इतना ही नही, प्रथम खड के अन्त में सहायक जैसी श्रम एवं समय साध्य योजना के कार्यान्वयन का भार सामग्री की जो सूची दी है, उसमें लगभग ३०० पुस्तकों समर्पित हिन्दीसेवी श्री क्षेमचन्द्र 'सुमन' वहन कर रहे हैं। और लगभग १५० पत्र-पत्रिकाओ के अंकों आदि का उल्लेख और उनके सुष्ठ मुद्रण-प्रकाशन का श्रेय शकुन प्रकाशन है-उक्त सूची में भी मात्र तीन-चार जैन प्रकाशनों का दिल्ली के संचालक श्री सुभाष जैन को है। अद्यावधि समावेश किया गया है। हिन्दी जैन साहित्य के इतिहास, प्रकाशित प्रथम खंड की पृष्ठ संख्या ७८० है और उसमे लेखकों एव कृतियों का परिचय प्रदान करने वाले दर्जनों कुल ८८६ प्रविष्टियाँ हैं। द्वितीय खंड मे ८५० पृष्ठ और प्रकाशन उपलब्ध है, जिनके अतिरिक्त अनेकान्त, जैन ८९३ प्रविष्टियां हैं। अधिकांश परिचय सचित्र है। सिद्धान्त भास्कर, शोधाक, शोधादर्श, वीरवाणी जैसी उल्लिखित हिन्दी-सेवियो मे अनेक ऐसे भी हैं जो हिन्दी प्रतिष्ठित शोध-पत्रिकाओं की फाइलो में प्रभत सामग्री जगत के लिए प्रायः अज्ञात या अपरिचित थे, और जिन्हें बिखरी पड़ी है। अनेक अभिनन्दन ग्रन्थ, स्मृति ग्रन्थ, संकलक सम्पादक श्री सुमन जी ने हिन्दी भाषी क्षेत्रों का स्मारिकाओं, विशेषाको आदि में भी अच्छी सामग्री मिल प्रामानुग्राम भ्रमण करके खोज निकाला है। जिसका जो जाती हैं। आज सामग्री का प्रभाव नहीं है, अतएव ऐसे न्यूनाधिक परिचय प्राप्त हुआ, संक्षेप मे दे दिया है। प्रत्येक कोशो के सम्पादक यदि अनभिज्ञता, अपरिचय या साधना. खंड प्र-ह तक स्वय में पूर्ण है-जैसे-जैसे सामग्री एकत्रित होती भाव को इस कमी का कारण बतायें तो वह गले उतरने गई या होती जा रही है, प्रकाशन की सुविधानुसार आगामी वाली बात नही है। प्रथम खण्ड के अन्त में आगामी खडो खंड निकालते रहने की योजना है। शायद यह विवशता में प्रकाशनार्थ प्रस्तावित साधिक अढाई हजार परिचयो में रही, किन्तु इससे कालक्रमिक, सुव्यवस्थित अथवा वर्गीकृत भी जैनो की सख्या मात्र ७५ ही है, जिनमे से भी ३४ तो चित्र उभर कर नहीं आता। बहुधा अति प्रसिद्ध, अथवा द्वितीर खंड में आ गए है, अवशिष्ट आठ खण्डो के लिए १६वीं शती के पूर्वार्ध के, और नितान्त अपरिचित अथवा लगभग ४० बचते है। जबकि १८०० से वर्तमान पर्यन्त के २०वीं शती के उत्तरार्ध के साहित्यसेवी, साथ-साथ मिल ही दिवंगत जैन हिन्दी-मेवियो की संख्या लगभग ५०० गए है । व्यक्तिशः परिचय भी कहीं-कही अपर्याप्त, असन्तोष- अनुमानित है इसके अतिरिक्त, अद्यावधि प्रकाशित दोनो जनक, सदोष या भ्रान्त प्रतीत होते हैं। आकार-प्रकार, खंडो मे समाविष्ट दिवगत जैन हिन्दी-सेवियो के कई कागज, मुद्रश, साज-सज्जा, जैकेट आदि से समन्धित प्रत्येक परिचय सदोष अथवा भ्रान्त है--वीर सेवा मन्दिर एव खंड का मूल्य ३०० रु० है । ग्रन्थ के निर्माता एवं प्रकाशक 'अनेकान्त' शोध पत्रिका के सस्थापक, साहित्यकार, बधाई एवं धन्यवाद के पात्र हैं। प्रकाशन पठनीय, प्रेरक समीक्षक, कवि, सम्पादक, पत्रकार स्व० आचार्य जुगलएव संग्रहणीय है। किशोर मुख्तार 'युगवीर' की स्वर्गवास तिथि १९५४ ई. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगत हिन्दी-सेवी दी है, जबकि सही तिथि १६६६ ई० है । उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का भी अपर्याप्त व आशिक ही परिचय है, उनका फोटो चित्र भी बहुत पुराना लगा १९२०-२५ का है, जबकि उनके अनेको चित्र १६५०-६० के बीच के वीर सेवा मंदिर में ही उपलब्ध होगे पं० नाथूराम जी प्रेमी के परिचय के साथ जो चित्र दिया है, वह उनका प्रतीत नही होता हमने कई बार उनके दर्शन किए है, उनके अभिनन्दन ग्रन्थ में तथा तदुपरान्त भी उनके फोटो चित्र प्रकाशित हुए हैं। कवि फूलबन्द जैन 'पुष्पेन्दु' को प्रविष्टि में दो तन्नाम भिन्न-भिन्न व्यक्तियो को — एक लखनऊ निवासी और दूसरे खुरई निवासी को व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही अपेक्षाओं से अभिन्न बना दिया - खुरई निवासी 'पुष्पेन्दु' का तो अभी दो-तीन वर्ष पूर्व निधन हुआ है। डा० गुलाबचन्द चौधरी के शोध प्रबन्ध का शीर्षक वा विषय गलत दिया है-वह शोध प्रबन्ध अंग्रेजी में लिखा गया एवं प्रकाशित हुआ है-पालिटिकल हिस्टरी आफ नर्दन इंडिया फाम जैना सोर्सेज प० गणेशप्रसाद जो वर्णी, या क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी वर्णी जो बड़े वर्णी जी नाम से भी प्रसिद्ध रहे, न्यायाचार्य थे तथा अनेक पुस्तको के लेकख भी थे, उनका परिचय 'आचार्य गणेश रीति महाराज' के रूप में दिया है जो ठीक नहीं है उन्होंने न कभी मुनि दीक्षा ती और न मचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए कुछ अति भक्तों ने उनके अन्त समय मे इनका समाधिकरण कराते हुए उन्हे मुनि संज्ञा दे दी थी और शायद 'गणेशकीर्ति' नाम भी । इस प्रकार कई परिचय सदोष हैं। कोई परिचय कुछ अधिक संक्षिप्त या अपर्याप्त सा रहे तो उतनी हानि नहीं जितना कि यथार्थ या भ्रान्त परिचय से है। अच्छा तो यह होता कि एक स्वतन्त्र खंड में ही समस्त दिवंगत जंन हिन्दी सेवियो का परिचय दे दिया जाता। अवश्य ही इस परिचय-कोष के विद्वान सकलन- सम्पादक जैन नहीं है, किसी जैन संस्था, संस्थान या जैन दातार का इसके निर्माण या प्रकाशन में आर्थिक या अन्य योगदान भी नहीं है-इसके उत्साही प्रकाशक सयोग से जैन अवस्य हैं, किन्तु जैन के नाते इस ग्रन्थ का प्रकाशन उन्होंने नहीं किया, वरन् एक व्यवसायी के नाते किया है। अतएव ऐसे प्रकाशन से वे अपेक्षाएं तो नही की जानी चाहिए जो एक जैन साहिय प्रेमी को हो सकती है। तथापि जैसी गोराता या उपेक्षा हिन्दी साहित्य, या समग्र भारतीय साहित्य के आधुनिक इतिहास ग्रन्थों में जैन साहित्य एवं साहित्यकारों के साथ प्राय: बरती जाती रही है, इस सन्दर्भ में कोष से उसकी अपेक्षा कुछ अधिक न्याय होने की आशो थी। हमें विश्वास है कि इस कोष के आगामी खंडों में उसके यशस्वी सम्पादक एवं प्रकाशक उक्त कभी की पूर्ति करने का प्रयास करने की कृपा करेंगे । चार बाग, लखनऊ सम्पादकीय - प्रन्थ के संपादक श्री क्षमचन्द्र 'सुमन' से हमने बात की तो उन्होंने कहा - "यद्यपि हिन्दी साहित्यसेवी मे अंकित जैनों के परिवादि में जैनियों का सहयोग रहा है ? जैसी सूचनाएं मिली, संकलित की गई हैं । तथापि यदि तथ्यों में कुछ खामियां रह गई हों तो सपादक के नाते हमें खेद है हमे संशोधन क जैसे-जैसे सुझाव मिलते जाएँगे उनको विधिवत् अगले संस्करण या परिशिष्ट मे देने का ध्यान रखेंगे । जैन विद्वानों और जानकारों से निवेदन है कि वे हमारा अधिक-से-अधिक सही रूप में सहयोग करे। हमें खुशी है कि डा ज्योतिप्रसाद जी का इधर ध्यान गया । धन्यवाद ।" जानकारो से आशा की जाती है कि जिन जन दिवंगत हिन्दी सेवियों का परिचय इन दो खण्डों में नहीं गया है, उनका प्रामाणिक परिचय सुमन जी को यथा शीघ्र भेजें ताकि आगामी खण्डों में उन विद्वानों के परिचय का समावेश किया जा सके । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "१०वीं शताब्दी के जैन काव्यों में बौद्ध दर्शन को समीक्षा" 0 जिनेन्द्र कुमार जैन साहित्य समाज का दर्पण है। इसलिए समाज की १०वीं शताब्दी के जैन काव्य ग्रन्थों में प्रतिपादित सभ्यता एवं संस्कृति के लिए तत्कालीन साहित्य का बौद्ध दर्शन की समीक्षा को निबन्ध में प्रस्तुत करने का अध्ययन अपेक्षित है। कवि अपने विचारों को व्यक्त करने प्रयत्न किया गया है । जिसमें बौद्ध दर्शन के निम्न बिदुओं के लिए किसी कथा के माध्यम से उस समय की सामाजिक, पर चर्चा की गई है .आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, दार्शनिक आदि परिस्थितियों १. अनात्मवाद (नैरात्मवाद): अथवा मान्यताओं की झांकी प्रस्तुत करता है। २. क्षणिकवाद : जैन संस्कृति एवं साहित्य के विकास मे मध्ययुगीन ३. प्रतीत्य समुत्पादवाद (कारण-कार्यवाद): जनाचार्यों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । यद्यपि इस युग ४. शून्यवाद : के साहित्य से साम्प्रदायिक विरोध एव वैमनस्य की परम्परा ५. निर्वाण (मोक्ष): परिलक्षित होती है, फिर भी जैनाचार्यों ने महिष्णुता, अनात्मवाद :--जगत को नश्वर, क्षणविध्वंशी एव समभाव, उदारता अहिंसा एव अनेकान्त प्रादि सिद्धान्तो अनित्य मानने वाला बौद्ध दर्शन आत्मा (जीव) की भी के माध्यम से उच्च आदर्श प्रस्तुत किया है। नित्यसता को स्वीकार नहीं करता। प्रत्येक वस्तु क्षणिक मध्ययुग, जनसाहित्य में वणित धार्मिक एवं दार्शनिक है, अतः यदि पचस्कन्ध' को आमा मान भी लिया जाय, विचारों के मन्थन की दृष्टि से १०वी शताब्दी मे लिखा तो उसे क्षणिक (अनित्य) माना जायेगा, नित्य नही । गया जैन साहित्य विशेष महत्व का है। इस शताब्दी के इसलिए आत्मवादी मतो द्वारा आत्मा को नित्य मानना जैन साहित्य में प्राकृत भाषा मे निबद्ध विजय सिंह सूरि कृत उचित नहीं है। बौद्ध दर्शन शरीरपर्यन्त ही जीव की सत्ता 'भुवनसुन्दरीकहा' धार्मिक एवं दार्शनिक मामग्री की दृष्टि स्वीकार करता है अर्थात शरीर के नाट होते ही जीव पच से महत्वपूर्ण कृति है। अपभ्रश साहित्य मे पुष्पदन्त कृत स्कन्ध-समुच्चय (रूप, विज्ञान वेदना, सज्ञा और सम्कार) महापुराण, णायकुमार चरित, जसहर चरिउ, वीर कवि कृत का समूह होने के कारण अन्य रूप धारण कर लेता है। जम्बू सामिचरिउ, हरिषेण कृत धम्मपरिक्खा, मुनि राम आ. वीरनन्दि ने आत्मा को नित्य और ज्ञानधारा सिंह कृत करकड चरिउ तथा संस्कृत साहित्य में सोमदेव सूरि कृत 'यशस्तिलक चम्पू' नीति वाक्यामत, वादीभ सिंह रूप ही माना है।' समस्त क्रियाओं का मूल आत्मा को मानते हुए भी जगत को क्षणिक मानने के कारण बौद्ध सूरि कृत गचितामणिवीरनन्दि कृत चन्द्रप्रभचरितं,सिद्धर्षि कृत उपमितिभवप्रपच कथा हरिसेणकुत वृहत्कथा, कोश । दर्शन में आत्मा की पृथक एवं नित्यसत्ता स्वीकार नही की एव अमितगति कृत धर्म परीक्षा आदि प्रमुख कृतियां हैं, गई।' मोमदेब सूरि ने बौद्ध दर्शन की जीव सम्बन्धी जिनमें तत्कालीन धर्म एव दर्शन की पर्याप्त सामग्री मान्यता को स्पष्ट करते हुए कहा है, कि-जो बौद्ध मरे उपलब्ध है। हए प्राणी का जन्म स्वीकार करते हैं और जो ऐसे धर्म को उन ग्रन्थों मे जैन धर्म एव दर्शन के साथ-साथ वैदक, देखते हैं जिसका फल प्रत्यक्ष प्रतीत नहीं है। ऐसी उनकी चार्वाक, बांद, सांख्य न्याय, वैशेषिक, शैव, वेदान्त आदि मान्यता युक्तियुक्त नही है, मात्र प्रामक है।' भारतीय दर्शनो का तुलनात्मक वर्णन किया गया है । बौद्ध दर्शन के उपर्युक्त आत्मा सम्बन्धी मान्यताओं की Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०वी शताब्दी के जैन कामों में बौदर्शन की समीक्षा कवियों ने समीक्षा करते हुए कहा है कि-"केवलचित्त- मणमात्र तक उस वस्तु कारण का अस्तित्व रहता है। संतानज्ञानधारा ही आत्मा है" ऐसा मानना उचित नही और अगले क्षण उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। है। क्योकि सन्तानी (सन्तानवान) द्रव्य के बिना कोई भी जैसे :-एक बीज किन्ही दो कार्यों का कारण नहीं बन सन्तान-गुण पांय-सम्भव नहीं है। गुण द्रव्य को आश्रय सकता अतः एक बीज (कारण) से एक पौधा (कार्य) ही बनाकर उसी में रहते हैं । अतः ज्ञान की धारा तो गुण है, उत्पन्न होता है। चूकि पौधा परिवर्तनशील (क्रमिक इसलिए गुणी आत्मा के बिना गुण-ज्ञानधारा की सत्ता कैसे विकासशील) होता है, इसलिए पौधे के विकास का कारण रह सकती है। इसी प्रकार यदि क्षणिकवाद के सिद्धान्त के (बीज) भी परिवर्तनशील होता है। अतः यह कहा जा कारण आत्मा की नित्य सत्ता स्वीकार न करते हुए, उसे सकता है कि प्रथम क्षण जिस बीज का अस्तित्व था, दूसरे, क्षण-क्षण में परिवर्तनशील माना जाये तो छ: मास तक की ही क्षण उस बीज की सत्ता समाप्त हो गई। इसलिए एक व्याधि (रोग) की वेदना (दुःख) कौन सहन करता है? बीज से (कारण है) एक ही पौधा (कार्य) उत्पन्न वौद्ध धर्म में आत्मा को पच-स्कन्ध (रूप वेदना, सजा, होता है। संस्कार और विज्ञान) का समुच्चय मात्र (सघात समूह) माना गया है। किन्तु ये स्कध भी क्षणमात्र ही स्थायी रहते मह पुराण" मे पूर्व पक्ष उठाते हुए कहा गया है कि हैं, तब उन्हें उक्त सिद्धान्तानुसार कैसे बांधा जा यदि जिस क्षण मे जीव उत्पन्न होता है, वह क्षण विनश्वर सकता है। है। और जीव के जो संस्कार दिखाई देते हैं, वे क्षरणवर्ती ___स्कन्ध हैं। इसलिए न तो आत्मा की ही नित्य सत्ता है "शरीर पर्यन्त ही आत्मा की सत्ता है" बौद्ध दर्शन के इस मत की समीक्षा कवियो ने कस्तुरी एव चम्पक पप और न पूर्वकृत कमो की ही। की गंध के उद्धरण देकर की है। कहा है कि-जिस उक्त अंश के निराकरण मे महाकवि पुष्पदन्त ने महाप्रकार कस्तूरी के समाप्त हो जाने पर भी उसकी गध बनी पुराण मे मंत्री स्वयबुद्ध द्वारा उक्त कथन की समीक्षा रहती है, उसी प्रकार शरीर के नष्ट हो जाने पर भी करते हुए लिखा है कि यदि जगत को क्षणभगुर माना आत्मा का अस्तित्व रहता है। अथवा जिस प्रकार चम्पक जाये तो किसी व्यक्ति द्वारा रखी वस्तु उसी व्यक्ति को पुष्प को तेल में डालने से मात्र गध नष्ट नही होती, उसी प्राप्त न होकर अन्य व्यक्ति को प्राप्त होनी चाहिए । प्रकार आत्मा का और शरीर का पृथक अस्तित्व है।" अथवा द्रव्य को क्षणस्थायी मानने से वासना का (जिसके द्वारा पूर्व मे रखी हुई वस्तु का स्मरण होता है) भी मणिकवाद :-क्षणिकवाद के नियमानुसार जगत की अस्तित्व नही रह जाता है।" यदि क्षण-क्षण में नये अन्य समस्त वस्तुओं का अस्तित्व क्षणमात्र ही रहता है : किसी जीव उत्पन्न होते रहते है, तो प्रश्न उठता है कि जीव घर भी वस्तु की शाश्वत व नित्य सत्ता नहीं होती। से बाहर जाता है, वही घर कैसे लौटता है ? अतः जो प्रत्येक वस्तु का क्षणमात्र ही अस्तित्व रहता है और अगले वस्तु एक रखी उसे दूसरा नही जान सकता।" जीव की ही (दूसरे ही) क्षण वह बहुत नष्ट हो जाती है । जो नित्य क्षणिक सत्ता मानने वाले बौद्ध दर्शन के इस सिद्धान्त की अथवा स्थायी प्रतीत होता है, वह भी अनित्य है। वस्तु की (क्षणिकवाद की) समीक्षा करते हुए वीरनन्दि कहते हैं नित्य-प्रतीति मात्र भ्रम है। कि यदि जीव की क्षणिक सत्ता मानी गई है तो जो जीव क्षणिकवाद के समर्थन में बौद्ध दार्शनिक अर्थ किया- एक क्षण में अच्छे-बुरे कर्म करेगा वह दूसरे ही क्षण नष्ट कारित्व का तर्क प्रस्तुत करते हैं। जिसका अर्थ है-किसी हो जायेगा। फलत: जो जीव दूसरे क्षण मे उत्पन्न होगा कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति । इस सिद्धांतानुसार जिस वही पूर्वकृत कर्मों का फल भोगेगा। इस दृष्टि से क्षणिक भरण बस्तु (कारण) से कार्य उत्पन्न होता है, उसी क्षणमात्र जीव को कृत व आकृताभ्यागम् दोष लगेगा। जिससे बौद्ध तक उस वस्तु (कारण) से कार्य उत्पन्न होता है, उसी दर्शन का क्षणिक वाद खण्डित हो जाता है।" एक ओर Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ष ४०, कि०३ ममेकन्त बल्तको क्षणिक मानना, और दूसरी ओर-"जो मैं के माध्यम से माध्यमिक सम्प्रदाय की स्थापना की। इन्होंने बाल्यावस्था में था, वही में युवावस्था में हूँ" इस प्रकार अपनी माध्यमिककारिका मे शन्यवाद की विस्तृत व्याख्या शकत्व मानने से भी क्षणिकवाद खण्डित हा जाता है।" की है। आर्य देव (दूसरी शताब्दी) बुद्धरालित ( वी शता.), चन्द्रकीति (६वीं शता०) शान्तिदेव (७वीं शता०) बौद्ध दर्शन की मान्यता है कि बासना के नष्ट होने तथा शान्ति रक्षित (८वी शता०) आदि प्रमुख शून्यवादी पर ज्ञान प्रकट होता है। इसलिए उनकी यह उक्ति आचार्य हैं, जिन्होंने माध्यमिककारिका की व्याख्याओं के क्षणिकवाद के सिद्धान्त को भंग कर देती है। साथ-साथ अन्य कई महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन प्रतीत्य समुत्पाद की समीक्षा :-(कारण-कार्य किया है। बाद): माध्वाचार्य ने अपने सर्वदर्शनसंग्रह में शून्यवाद की बौखदर्शन में चार आर्यसत्यो के विवेचन के साथ व्याख्या करते हुए कहा है कि-"तत्व (दर्शन का मूल साथ द्वादशनिदान की भी चर्चा की गई । अर्थात् दुःखा क पदार्थ) शून्य ही है, जो इन चार कोटियों से नितांत मुक्त १२ कारणों को स्पष्ट किया गया है। जिसे प्रतीत्य- है-(१) सत् (२) असत् (३) उभयात्मक (४) अनुभ कारण-कार्यवाद) कहा जाता है । इस सिद्धान्ता- यात्मक ।" अर्थात शून्य उसे कहते हैं, जो सत भी न हो, नुसार बुद्ध यह प्रदशित करना चाहते थे कि दुख के न असत् हो, न सदसत् हो और न सदसत् से भिन्न ही हो। कारण को जानकर ही उसका विनाश लिया जा सकता है। अत. शून्य एक अनिर्वचनीय तत्व है, जिसका केवल ज्ञान क्योंकि कार्य (दुःस) की उत्पत्ति एवं विनाश, कारण हो (अवधि-अज्ञान) पर ही निर्भर है। हीनयान आचार्य तथा ब्राह्मण और विद्वानों ने भी संसार में प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति का कोई न कोई बौद्ध दर्शन के इस शून्य का अर्थ सकल सत्ता का निषेध या कारण अवश्य है। "अस्मिन सति इद भवति" अर्थात अभाव ही किया है।" अर्थात शून्यवाद को ज्ञाता, ज्ञेय "इसके होने से यह होगा" इस प्रकार का भाव ही प्रतीत्य- और ज्ञान इन तीनों का ही अभाव मानने वाले मत के रूप समुत्पाद है। श्चेखत्स्की" के मत मे हीनयान शाखाएँ में प्रस्तुत किया है। प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ इस प्रकार मानती है- 'प्रति प्रति १०वी शताब्दी के आचार्यों ने भी बौद्धदर्शन सिद्धात इत्यनाम विनाशिनां समुत्पादः" अर्थात् प्रत्येक धर्म या की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत की है। आचार्य अमित स्त का उत्पाद उसके विनाश से बधा है । अत. क्ष णक गति" ने कहा है कि "सर्वशून्यता की कल्पना करने पर वाद के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक वस्तु क्षणिक है । अतः जगत में कुछ भी वास्तविक नही प्रतीत होता। यह जो अाणिक वस्तओं का अविच्छिन्न प्रवाह ही प्रतीत्य- दृष्टिगोचर होता है, वह अविद्या के कारण सत् प्रतीत होता समुत्पाद है। है।" कवि ने इस सिद्धान्त की आलोचना इस प्रकार की प्रस्तत सिद्धान्त की समीक्षा करते हुए महाकवि कि-"जो वस्तुत: स्वप्न में देखी गई वस्तुओं के समान पER ने कहा है कि---यदि क्षण विनाशी पदार्थों मे भ्रान्ति से परिपूर्ण है।" ऐसा स्वीकार करने पर जहाँ कारण-कार्यरूप धाराप्रवाह माना जाये, जैसे-गाय उसके उपदेष्टा बुद्ध का ही अस्तित्व नहीं रह सकता, वहाँ (कारण) से दूध (कार्य) एवं दीपक (कारण) से अजन बन्ध और मोक्ष आदि तत्वों की सत्ता/व्यवस्था कैसे हो (कार्य) की प्राप्ति माना जाये, तो प्रनिक्षण गो और दीपक सकती है ? अर्थात नही हो सकती। पुष्पदन्त कहते हैं(कारण) के विनष्ट हो जाने पर दूध एवं अंजन (कार्य) यदि शून्यवादी जगत में शून्य का ही विधान करते हैं तो की प्राप्ति कैसे हो सकती है। बौद्धों के इस इन्द्रियों के दमन, वस्त्रों को धारण करना, शून्यबाद :-- शून्यवाद की भावना को जन्म देने का श्रेय व्रत पालन, रात्रि से पूर्व भोजन करना और सिर मुंडन से दूसरी शताब्दी के आचार्य नागार्जुन को है । जिन्होंने शून्यवाद क्या प्रयोजन ।" Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०वी शताब्दी केनकायों में बीवदर्शन की समीक्षा महान नीतिकारक एवं दार्शनिक प्राचार्य सोमदेव ने वासना की अग्नि का बूम जाना है। जिसमें लोभ, क्रोध, यशस्तिलक चम्पू में समस्त भारतीय दर्शनों पर प्रकाश घृणा व प्रम रूपी अग्नि बुझकर कामासव, भावासक एवं डालते हुए उनकी समीक्षात्मक व्यख्या प्रस्तुत की है। बोद्ध अविद्यासव आदि मन की विशुद्ध प्रवृत्तियाँ समाप्त हो दर्शन के शून्यवाद के सम्बन्ध में वे कहते हैं-इस लोक में जाती है।" निर्वाण को 'सितिभाव' या शीतलता की निश्चय से न तो कोई अन्तरंग तत्व (आत्मा आदि पदार्थ) अवस्था कहा गया है। इसमें कमो का नहीं बल्कि रागहै, और न ही बाह्यतत्व (घट-पट आदि) है। क्योकि द्वेष रूपी मलो का क्षय हो जाता है। शरीर के रहने पर प्रस्तुत दोनों तत्व विचार रहित हैं। अत: शून्यता ही भी जिसमें तृष्णा का अभाव हो निर्वाण कहलाता है। कल्याण करने वाली है।" "वही मैं हू, वही (पूर्वदृष्ट) रजतसूत्त मे कहा गया है कि निर्वाण के बाद पुनर्जन्म नहीं पात्र है, वे ही दाताओ के गृह है" इस मान्यता के समर्थक होना । यह (निर्वाण) मानव-शरीर का दीपक के बुत बौद्धों को आत्मा की शू-यता को नहीं मानना महिए।" जाने के समान है। जिसमें जीव लोभ, क्रोध, भ्रम आदि सोमदेव सूरि आगे कहते है कि जब बौद्ध दर्शन समस्त विकागे से मुका परमानन्द या पूर्ण शान्ति की अवस्था समार में शून्य का विधान मानता है तो उसक तपश्चरण को प्राप्त होता है।" करने एवं मूर्ति को नमस्कार करने का क्या प्रयोजन ? सोमदेव सरि ने भी बौदों की इस मान्यता को स्पष्ट वास्तव में इससे उनकी मूर्खता ही प्रकट होती है । ५ करते हुए कहा है कि जिस प्रकार बुझता हुआ दीपक किसी भी दिशा को नही जाता, बल्क तेल के समाप्त होते "ससार में कुछ भी नित्य नहीं है, सब कुछ शून्य है, ही नष्ट (शांत) हो जाता, है, वैसे ही समस्त दुःखों का इसे मैं प्रमाण से सिद्ध कर सकता हूँ ऐसी प्रतिज्ञा यदि क्षय करके मोक्ष को प्राप्त हो केवल शान्ति का लाभ पाता आपके द्वारा (माध्यमिक बौद्ध) की जाती है तो आपका है। बौद्ध दर्शन आत्म शुन्यता आदि तत्वो की भावना से सर्वशून्यतावाद का सिद्धान्त स्व: ही समाप्त हो जाता ___ मुक्ति मानता है ।" अर्थात समम्त . गत क्षणिक, दुःरूरूप, है। क्योंकि प्रमाण तत्व के सिद्ध हो जाने पर शून्यवाद का स्वरक्षणात्मक एव शून्य रूप है, इस तरह से चार प्रकार विधान नही किया जा सकता।" चूकि 'मैं' शून्य तत्व को की भावना से मुक्ति होती है।" सिद्ध करता है, इसलिए 'मैं' की सत्ता स्वयसिद्ध है। अत: बौद्धों की उक्त मान्यता का खण्डन करते हुए कवि बौद्धो का शू यवाद उनके द्वारा ही खण्डित हो जाता है। कहता है कि-भावना मात्र से मुक्ति प्राप्त नहीं हो निर्वाण मोक्ष :-भगवान बुद्ध ने अपनी शिक्षा चार सकती। क्योंकि भावना से सभी शुभ-शुभ वस्तु चित्त में पार्यसत्यों में समाहित करते हुए ससार को दुःखमय कहा स्पष्ट रूप से झलकने लगती है। अर्थात वस्तु का मात्र है। दु.ख, दु.ख का कारण, दु ख-निरोध, एव दु ख निरोध के चिन्तन होता है। प्राप्ति नही। यदि भावना मात्र से मुक्ति उपाय। इन चार आर्यसत्यों को मानव, जीवन में मूर्त रूप की प्राप्ति माना जाये तो बचको अथवा वियोगिर्यो की भी देकर जन्म-मरण के भवचक्र से छुटकारा पा सकता है। मुक्ति होनी चाहिए।" तृतीय आर्यसत्य (दुःख-निरोध) के अन्तर्गत बुद्ध ने निव्वाण बौद्ध दर्शन मे वस्तु को प्रतिक्षण विनाशशील माना (निर्वाण) का उल्लेख किया है । गया है। इस सिद्धात को मानने से बन्ध व मोक्ष का निर्वाण शब्द भगवतगीता एव उपनिषदो में भी मिलता अभाव हो जायेगा। क्योंकि यदि वस्तु को सर्वथा क्षणिक है। जहां पर उसका अर्थ, 'आत्मसाक्षात्कार' अर्थात, 'ब्रह्म ही माना जाये, तो प्रत्येक वस्तु अगले क्षण में समूल नष्ट से मिलन' लिया गया है। जबकि बौद्ध दर्शन में इसका हो जायेगी एसी अवस्था में जो आत्मा बंधा है (कर्म से शाब्दिक अर्थ है, "बुझा हुआ।" कुछ लोग उसे जीव का बद्ध है), वह दूसरे क्षण नष्ट हो जायेगा, तब मुक्ति किसे अन्त समझते हैं, जो उचित नही है। बौट ग्रन्थों मे जमने होगी। इसलिए राग-द्वेष रूप आम्यन्तर मल के जय हो और बुमने का जिक्र बहुत आया है। अत: निर्वाण का अर्थ जाने से जीव के आत्म स्वरूप की प्राप्ति को मोक्ष कहते है Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० अनेकान्त अत: बोद्ध जो दीपक के बुझने सरीबी आत्मशुता से दर्शन की माताओं एवं खण्डन की परम्परा को स्पष्ट मुक्ति मानते हैं, वह अम्भव है ।" किया गया है। किन्तु इस युग के कवियों ने अपनी रचनाओ में तत्कालीन अन्य दर्शनो पर भी लेखनी बतायी है। - सुखाडियाविवि० उदयपुर इस प्रकार १०वीं शताब्दी का समूचा जैन साहित्य इस तरह की दार्शनिक मान्यताओं एवं उसके खण्डन-मण्डन की सामग्री मे भरा पडा है। प्रस्तुत निबन्ध मे मात्र बौद्ध १. मिनि प्रश्न २ ईश्वरभिज्ञामिनी १२६ 3. चरित (चीनदि - सोलापुर सस्करण, २२८४१५३ सन्दर्भ-सूची ४ गायकुमारचरित (पदन्त ) - ६।५।२ ५. मस्तिक म्पू महाकाव्य (सोमदेवसूरि), दीपिकापं० सुन्दरलाल शास्त्री ५१११९०९६४ ६. चन्द्रप्रभवन्ति (वीरनन्दि ) - २२८४१५३ ७. जहररिङ (पुष्पदन्त ) - २१२६५ ८ शर्मा रामनाथ - भारतीयदर्शन के मूल तत्वपृ० १५१ ६ यशस्तिलक चम्प महाकाव्य ( सोमदेव ) - ५।११०११६२ १०. जसरपर (पुष्पदन्त) ३।२१।११६ ११. महापुराण ( पुष्पदन्त), सम्पादक - डा० वैद्य भा० ज्ञा० पीठ प्रकाशन २०१६।३५ १२. महापुराण - २०/२०१०-५ १३. खनि खनि अण्ण जीउ जइ जाउ, तो वहिरंग पिक आव अण्णे थवियउ अण्णण यागइ, सुवि वाइकाइ वक्खाणइ || - नायकुमारचरिउ, ६।५।१०-११ ४. क्षणिक पसानियज्ञनिक्षिप्तदूषणम्। कृतनाशदिकं तस्य सर्वमेव प्रसज्यते || चन्द्रप्रभवति ।०६।५४११ १५ वयस्तिलकचम्पूमहाकाव्यदीपक प० सुन्दरतात शास्त्री- ६।१२६।४०८ १६. जसहर चरिउ - ३।२६०५ १७. Stcherbatsky - Conception of Buddhist Nirvan – Page 9 5. magcafe-LIXIE - १६ ( क ) " अतस्तत्वं सद्सदुभयानुभयत्मिक चतुष्कोटि विनिर्मुक्त शून्यमेव" - सर्वदर्शन संग्रह (माध्वाचार्य) हिन्दी भाष्यकार - प्रो० उमाशकर शर्मा 'ऋषि', चौखम्भा विद्याभवन वाराणसी, पृ० ६३-६४ (ख) माध्यमिक कारिका (नागार्जुन), १.७ : २०. उपाय, बलदेव बौद्ध दर्शन मीमांसा १० २९८ २१. धर्म परीक्षा (अतिगनि) सोलापुर सस्करण १. १७४१२६६ - २२. सुष्णु असेसु वि जइ कहिउ तो कि तो पंचिदियदण्डणु । चीवरवणिवसणु वयधरण सतहडी मोयणु सिर मुण्डणु ॥ - ( णायकुमारचरित्र ६ । १-१३) महाकाव्यं ( सोमदेव ) दीपिका ६४११०१६ २३. यशस्तिलक चम्पू प० सुन्दरलाल शास्त्री २५. वही - ५१११२।१६३ २४. वही - ५११०६ १६२ २६. तिलक पप्पू महाकाव्यं (सोमदेव ) ६३४१९१ २ सयुक्त निकाय III २५१, २६१, २०१ " २८. समेत विकाय, Encyclopedia of Religion & Ethics I. २६. रजत सुत - ७, १३ ३०. धम्मपद - २०२, २०३ ३१ यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य (सोमदेव ) ६१३, १४१८६८७ ३२. वही - अश्वास ६, पृ० १५४ २२. मध्वाचार्य) १०३५, ३६ ३४. यशस्तिलकचम्पूमहाकाव्यं ( सोमदेव ) - ६।२६।१८९ ३५. वही - ६।१०६ २०५ ३६. तिलक महाकाव्य (सोमदेव ) - ६०२१६२०७ सुखाडिया वि०वि० उदयपुर Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ, भरत और बाहुबलि का चारित्रिक विश्लेषण अपभ्रंश महापुराण के आधार पर 0 (श्रीमती) डा० ज्योति जैन आदि तीर्थंकर ऋषभदेव प्रथम चक्रवर्ती भरत और के जन्मादि के) मे किया है। हम कम से तीनों का आद्य कामदेव बाहुबलि का चरित्र समग्र भारतीय साहित्य चारित्रिक विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे है। के आकर्षण का केन्द्र रहा है। जैन साहित्य तो इनकी अमर गाथाओं से भरा पड़ा है। इनके प्रजापतित्व बीरत्व अषम और अप्रतिम व्यक्तित्व की छाप इतनी गहरी है कि सभी ती० ऋषभदेव को जैन परम्परा में आद्य तीर्थकर, संस्कृतियों ने इन्हें अपनाया और अपने-अपने अनुरूप कमभूमि के आदि प्रवर्तनकर्ता तथा प्रजापति के रूप में आकलन किया। पूजित किया गया है स्वामी समन्तभद्राचार्य ने लिखा है "प्रजापतिर्यः प्रथम जिजीविष, साहित्यकारी और शिल्पियो के लिए इनके चरित्र शसाष कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ।" आदर्शमय है । आगम और लौकिक दोनों प्रकार के साहित्य जैन साहित्य के आगम ग्रन्थों, पुराणों, कथाओं एवं में उल्लिखित हैं। पुराण, काव्य, कथाचरित, मादि इनके काव्य ग्रन्थों में उनका स्मरण किया गया है। भागवत् में गुणानुवाद से भरे पड़े है। संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश आदि उन्हें आठवां अवतार कहा गया है ऋग्वेद के एक मत्र में भाषाओ के अतिरिक्त दक्षिण मारतीय भाषाओ में भी इन कहा गया है कि मिष्ट भाषी, ज्ञानी, स्तुति योग्य ऋषभ महापुरुषों का चरित्र उपलब्ब है । अपभ्र श भाषा मे महा को माधक मन्त्र द्वारा वधित करो' एक अन्य मन्त्र में कवि पुष्पदन्त विरचित 'महा पुराण' या त्रिषष्ठि महापुरुष उपदेश और वाणी की पूजनीयता तथा शक्तिसम्पन्नता के गुणालंकार' पुराण एतद्विषयक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें साथ उन्हें मनुष्यो और देवों मे पूर्वयाया कहा गया है।' ६३ शलाकापुरुषो का चरित्र निबद्ध है। यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में बुद्धि एव बल के लिए उनका महापुराण के आदिपुराण और उत्तरपुराण ये दो भाग आह्वान किया गया है। है। आदि पुराण के पूर्वार्ध मे उक्त तीनों महापुरुषों का लिङ्ग, मार्कण्डेय, कर्म, नारद, ब्रह्माण्ड आदि पुराणों चरित्र विरतार से चित्रित है। इसमे कुल ३७ सन्धियां या , के अनुसार स्वयभुव मनु से प्रियव्रत उनके आग्नीध्र नाभि परिच्छेद है। और नाभि के ऋषभ हुए। भागवत् के अनुसार वे योगी इसमें पूर्व --९वी शती के आचार्य जिनसेन का संस्कृत थे। बौद्ध साहित्य में ऋषभ महावीर के साथ उल्लिखित भाषा में निबद्ध 'महापुराण' उपलब्ध है। जिसमे भी हैं। शिव और ऋषभ के ऐक्य-सन्दर्भ में अनेकों लेख पत्र६३ शलाका पुरुषों का चरित्र चित्रित है । अत: इस अनुमान पत्रिकाओ मे समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। को पर्याप्त अवकाश मिलता है कि पुष्पदन्त ने जिनसेन का मुनि श्री विद्यानन्द महाराज ने बाबा आदम को भी अनुकरण किया है, पर नही, पुष्पदन्त ने चरित्रो का चित्रण ऋषभदेव माना है। मुनि श्री की दृष्टि मे आदम आदिनाथ तो जिनसेन या जैन परम्परानुसार ही किया है पर उनकी का अपभ्रश है । शैली अपना है, यथा जिनसेन ने तीर्थङ्करों के पूर्वभवो वा पह सब लिखने का प्रयोजन यही है कि पाठक यह चित्रण पहले किया है।' पर पुष्पदन्त ने बाद (ऋषभदेव समझ सकें कि ती ऋषभदेव जैन परम्परा में ही नहीं, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, बर्ष ४०, कि०३ अनेकान्त वैदिक या अन्य परम्पराओं में भी उल्लिखित हैं। पुष्पदन्त राज्य व्यवस्था का सूत्रपात तीर्थंकर ऋषमदेव ने ही कृत महापुराण और जैन परम्परा के अनुसार ऋषभदेव किया उन्होंने विभिन्न जनपदों, खेट-खर्बट तथा ग्रामों की इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर थे। वे अन्तिम स्थापना की और साम-दाम-दण्ड-भेद आदि की कलकर नाभिराय और मरुदेवी के पुत्र थे। गर्भ में आने से व्यवस्था की। ६ माह पूर्व ही नाभिराय के आंगन में रत्नों की वृष्टि वर्ण व्यवस्था की सर्वप्रथम स्थापना भी तीर्थङ्कर हई। मरुदेवो ने १६ स्वप्न देखे। आषाढ़ शुक्ल द्वितीया ऋषभदेव ने की उन्होंने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन को उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वे गर्भ मे अवतरित हुए। वर्ण बनाये यद्यपि मनुष्य जाति एक है, अत: ऊँच-नीच का चैत्र कृष्ण नवमी को उत्तराषाढ़ नक्षत्र में मरुदेवी ने प्रश्न नही। मात्र वृत्ति और आजीविका को व्यवस्थित रूप देने के लिए ही उन्होंने यह वर्ण भेद किया। वैदिक एक ओजस्वी पुत्र को जन्म दिया।" विभिन्न देवपुत्रों के साथ क्रीडाएं करते हुए उनका बचपन बीता । युवा होने सस्कृति जहाँ यह विभाजन जन्म से स्वीकारती है वहाँ पर यशस्वी और सुनन्दा के साथ उनका विवाह हुआ।" जैन संस्कृति कर्म से । कहा गया है 'कम्मुणा बंभणों होई कम्मुणा होई खत्तियो । ऋषभदेव का सम्भवत: पहला चरित्र है जिसने वइसो कम्मुणा होई सुद्दो हवई कम्मुणा।" वैवाहिक जीवन का आरम्भ किया। इससे पूर्व भोग भूमि महापुराण की छठी और सातवी सन्धियों में ऋषभदेव में युगल सन्तान होती थी और वही युवा होने पर पति- की प्रव्रज्या का सुन्दर वर्णन है। सर्वविदित है कि ऋषभदेव की प्रव्रज्या पत्नी हो जाते थे। नाभिराय ने उनका बड़ी धूमधाम से । ने दीर्घकाल तक राज्य का सुन्दर सचान किया और पट्टबन्ध किया और ऋषभदेव राजकाज चलाने लगे।" नीलांजना का विनाश देखकर प्रवज्या ग्रहण की थी। यह उनकी महारानी यशस्वती से भरत, ६६ अन्य पुत्र तथा प्रतीक इस बात का है कि मनष्य को राज्य और सत्ता से ब्राझी नाम की पुत्री और सुनन्दा से बाहुबलि पुत्र तथा सदा चिपके नही रहना चाहिए, जीवन को क्षणिक मानते सुन्दरी नाम की पुत्री इस प्रकार १०३ सन्तानें हुई।" हुए आत्मचिन्तन में भी रत होना चाहिए। ऋषभदेव जी का जीवन लोक कल्याण के लिए था ऋषभदेव ने शरीर से ममत्व छोड़कर कठोर तपश्चरण उनसे पहले कल्प वृक्षों से सभी की आवश्यकताएं पूरी किया। आहारार्थ निकलने पर कही आहार नहीं मिला, होती रहती थीं अतः आजीविकार्थ भ्रमण का प्रश्न ही नहीं लोग उपहार में बहुमूल्य वस्तुएं लाते पर सन्यासी को इनसे था, पर उनके काल में कल्पवक्षो की शक्ति क्षीण होने क्या मोह ? यह उनकी इस वृत्ति का परिचायक है कि लगी, अत: उन्होंने असिमसि, कृषि, वाणिः आदि का कठिन से कठिन आपद आने पर भी धर्म और धेर्य न उपदेश सर्वप्रथम दिया। उन्होंने पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी छोड़ो। अन्त में हस्तिनापूर के सोमप्रभ के लघु भ्राता को वर्णमाला और अंकों का उपदेश दिया । ब्राह्मी गोद में श्रेयांस ने उन्हें इक्षु रस का आहार दिया। तभी से यह दाहिनी ओर बैठी थी, और सुन्दरी बायीं ओर। इसी दिन इक्षु तृतीया (अक्षय तृतीया) के नाम से प्रचलित कारण वर्णमाला दायी ओर अंक बायी ओर को लिखे जाते हुमा । उन्हें फाल्गुन कृष्ण एकादशी को केवल ज्ञान की हैं। पूत्र को भी यथायोग्य शास्त्रो का ज्ञान उन्होंने प्राप्ति हुई। कराया। इस प्रकार उन्होंने सन्तानों को सुशिक्षित बनाकर इन्द्र ज्ञा से कुबेर ने समशरण का निर्माण किया, ६.०ने कर्म से यह उपदेश दिया कि माता-पिता का कर्तव्य जिसमें देव, मनुष्य, पशुओं आदि के बैठने के लिए अलगवे वल जन्म दे देना ही नहीं है किन्तु उन्हें सुशिक्षित बनाना अलग स्थान था। तीर्थकर की दिव्यध्वनि को सभी जीव ी है, तथा पुत्रों से भी पहले पुत्रियों को सुशिक्षित करना अपनी-अपनी भाषा मे सुनते थे। किसी समय पह विवाद आवश्यक है। का विषय था किन्तु विज्ञान ने आज ऐसे यन्त्रों का निर्माण Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ, मरत और बाहुबलि का पारित्रिक विश्लेषण कर डाला है, जो स्वयं एक भाषा से दूसरी भाषा में अनु- अभी हाल ही तीर्थंकर ऋषभदेव ने संस्कृति का निर्माण वाद करते चलते हैं। तीर्थकर ऋषभदेव ने सात तत्त्वों, करते हए जनता को रहना सिखाया था, दूसरी ओर उन्हीं छह द्रव्यो, नवपदार्थों का सुन्दर उपदेश दिया। अन्त मे के पुत्र उसे नष्ट करने पर तुले हुए थे कैसी विडम्बना है। दिगम्बर परम्परानुसार माघ कृष्ण चतुर्दशी और श्वेताम्बर ज्योतिषियों से चक्र के नगर में प्रविष्ट न होने का परम्परानुसार त्रयोदशी को सूर्योदय के समय अनेक मुनियों सूयादय क समय अनेक मुनियो कारण जानकर उन्होने चतुर दूत बाहुबलि के पास भेजा, के साथ कैलाश पर्वत पर निर्वाण को प्राप्त हुए। पर बाहुबलि ने भरत की अधीनता स्वीकार न कर युद्ध तीर्थंकर ऋषभदेव का वर्ण काञ्चन, चिह्न वषम, यक्ष करना उचित समझा। भरत और बाहुबलि के युद्ध का गोमुख, यक्षिणी चक्रेश्वरी," गर्भावक्रान्ति: श्वेत वषम सुन्दर चित्रण महापुराण" मे हुआ है। रूप" देह ५०० शरासन, आयु ८४ लक्ष्य पूर्व थी।" उनके इस प्रकार भरत के चरित्र को हम किसी सत्ता लोलुप ८४ गणघरों मे वृषभसेन प्रमुख थे। पूर्वधरों की संख्या पुरुष का चरित्र कह सकते हैं, जो राज्य के लिए अपने ४७५०, अवधिज्ञानियो की १०००, केवलियों की २०००० भाई को भी क्षमा न कर सका। पर वस्तुतः देखा जाये मनःपर्यज्ञानियों की १२६५०, अनुत्तरवादियों को १२६५०, तो यह प्रश्न अकेले भरत का नहीं था, यह प्रश्न राजधर्म आयिकाओं की ३०००००, श्रावको की ३५०००० तथा का था। युद्ध करना उनकी विवशता थी। कर्तव्य था। श्राविकाओं की संख्या ५ लाख थी। इस सन्दर्भ में श्री विष्णु प्रभाकर ने 'सत्ता के आर-पार' मे लिखा हैचक्रवर्ती भरत "नारीमूर्ति-मब यह आपके चाहने न चाहने का भारतीय इतिहास में भरत नाम के दो प्रतापशाली प्रश्न नही है, राजधर्म का प्रश्न है....''आपने छह खण्ड राजाओ का उल्लेख मिलता है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के राजाओं को क्यों अपने चरणों में झुकाया। के पुत्र भरत और द्वितीय महाराज दुष्यन्त के पुत्र भरत। भरत (तड़पकर) सब याद है हमें, पर भाई का भाई पुराणों में दोनों का ही उल्लेख हुआ है। बहुत पहिले से युद्ध....."नारीमूर्ति-राजधर्म बहुत गहन हैं। वहाँ इतिहासविदो की यह मान्यता थी कि दुष्यन्त-शकुन्तला सांसारिक दृष्टि से उचित-अनुचित का, नाते-रिश्ता का, के पुत्र भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भारतवर्ष कोई अर्थ नहीं है, अर्थ है केवल अपना कर्तव्य-पालन करने पड़ा। किन्तु ज्यों-ज्यों प्राचीन साहित्य का प्रकाशन होता का और अपना कर्तव्य है, टुकड़ों में बटी धरती को एक रहा, इतिहास अपने अवगुण्ठन खोलता रहा, यह मान्यता करना........" टटती रही और आज लगभग सभी इतिहासविद् यह इसी सन्दर्भ में स्वयं लेखक की एक कविता तीर्थङ्कर स्वीकार करते हैं कि तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत के (इन्दौर) फरवरी १९८१ में दृष्टव्य है। नाम पर ही इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। युद्ध होने से पूर्व ही दोनो पक्षों के मन्त्रियों ने विचार महापुराण के अनुसार भरत इस अवसपिणी के प्रथम कर प्रस्ताव रखा कि आप दोनों चरमशरीरी हैं, आप का चक्रवर्ती थे। ऋषभदेव जब भरत की राज्याभिषिक्त कर कुछ न बिगड़ेगा, व्यर्थ सेना का रक्तपात क्यों हो? अत: बन चले गये, तब भरत दिग्विजय के लिए निकले उन्होंने आप जल, दृष्टि और बाहयुद्ध करके हारजीत का निर्णय अत्यन्त बलशाली मागध देव को पराजित किया ।" अन्य कर लें। सभी युद्धों में भरत पराजित और बाहुबलि भी अत्यन्त शक्ति सम्पन्न राजाओं को जीता। समस्त विजयी हुए। पराजय के दारुण दुःख से अभिभूत भरत ने उत्तर भारत पर विजय पाई।" किन्तु अयोध्या आकर बाहुबलि पर चक्र चला दिया, पर वह उनकी प्रदक्षिणा कर चक्र नगरी में प्रविष्ट न हुआ। यहाँ तक उनके चरित्र का लोट आया। संक्षिप्त विवरण प्राप्त होता है किन्तु इसके आगे का चरित्र बाहुबलि की दीक्षा और उसके बाद केवल ज्ञान न जैन पुराणों का सबसे लोकप्रिय भाग रहे हैं। एक तरफ होने पर भरत ने उनकी पूजा की और समझाया तब उन्हें Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, वर्ष ४०, कि०३ अनेकान्त केवल शान हुआ । दीर्घकाल तक राज्य श्री का भोग कर, का प्रतीक है।' भरत को पराजित करके भी वे उनके सिर के सफेद बाल को देखकर उन्हें वैराग्य हुआ पुत्र को अनीति भरे आचरण के प्रति तत्काल क्षमा भाव धारण राज्य देकर उन्होने दीक्षा ले ली और कठिन तपस्या कर कर लेते है, यह उनकी अनुपम क्षमाशीलता का मोक्ष पद पाया। . उदाहरण है। बाहुबलि चक्रवर्ती नरेश अपने समय का सर्वशक्तिमान और महापुराण मे बाहुबलि का उल्लेख एक स्वातन्त्र्य प्रेमी सर्वाधिक संप्रभुता सम्पन्न महापुरुष होता है। जीवन के और उनका शरीर अतिशय सुन्दर था। उन्हें अपनी जनता किसी भी क्षेत्र में पराजय की पीड़ा से उसका कभी परिचय से बहुत प्यार था, भले ही उनका राज्य भरत की अपेक्षा नही होता किन्तु बाहुबली के चरित्र की यह विशेषता है छोटा हो। भरत द्वारा दूत भेजकर अधीनता स्वीकार करने कि उनके हाथो उन्ही के अग्रज को तीन बार पराजित के प्रस्ताव को वे नहीं मानते और युद्ध करने के लिए होना पड़ा । व्यक्ति मे सायं का बल और अदम्य साहस हो तैयार हो जाते है। वह सत्ता के लिए नही अपने अधिकारो तो उसका कोई कुछ नहीं बिगाड सकता यहाँ तक कि देवी के लिए लड़ते है। वह कहते हैं कि यह भाई-भाई के प्रेम __ शक्तियाँ भी नही। देवों से सरक्षित सम्राट भरत का चक्र का प्रश्न नही अधिकारो के संघर्षका है। वे अद्भुत देहयष्टि बाहबलि का कुछ नही बिगाड़ सका। के स्वामी थे। इसलिए वह तीनों-युद्धों में भरत को पराजित कर देते हैं। भरत द्वारा क्रोधित होकर चक्र चलाये जाने उनके चरित्र की एक महनीय विशेषता यह है कि पर बाहुबलि को वैराग्य हो जाता है। वह महाबली पूत्र उन्होने जीत कर भी हार मान ली लेकिन वे भाई से नहीं को राज्य देकर दीक्षा ले लेते हैं और कठोर तप करते हैं। हारे वे हारे अपने अन्तस्तल से । जीत के बाद विचारो का द्वन्द चला, कैसा यह ससार है, कैसी घणित इसकी समग्र जैन साहित्य मे बहुबलि की तपस्या का जैसा प्रवत्तियां हैं.....यही सोचते रहे वे क्षण भर और वैराग्य वर्णन मिलता है वेसा अन्य किसी तपस्वी की तपस्या का की संसार-असारता की भावना विजयी हुई सत्ता की नहीं। वे पाषाण प्रतिमा की तरह स्थिर, नग्न, मोन, भावना हार चुकी थी। उन्होने कठोर तप किय। यही एकाकी ही ध्यानस्थ खड़े रहे। दिन और रात सप्ताह और कारण है कि आज वे तीर्थङ्कर न होते हुए भी तीर्थङ्करी मास बीत गये पर एक बार भी उनका ध्यान नहीं टूटा। की तरह पूजे जाते हैं। अनीति पर नीति की, असद पर उनके चमणो में सों ने वामियों को बना लिया था। दो सद की, दुष्प्रवृत्तियो पर सुप्रवृत्तियो की विजय के वे माधवी लताए भी उनकी देह के सहारे चढती चली गयी। प्रतीक हैं। यही कारण है कि आज भी बाहुबलि की मूर्ति के हाथ और पैरो पर लिपटी हुई बेलों के चिह्न बने होते हैं। इस प्रकार इन तीनो महापुरुषो ने अपने-अपने चरित्र से मानव जाति के समुन्नयन में महद् योगदान दिया है। इतना होने पर भी उन्हे केवल ज्ञान की प्राप्ति नहीं संसार की किसी भी सस्कृति में ऐसे महापुरुष नही हैं, हई। अन्त मे भरत द्वारा नमस्कार करते ही उन्हें केवल जिनकी विचारधारा और चिन्तन का मानव जीवन पर ज्ञान हो जाता है और वे ऋषभदेव से पहले ही मुक्तिबधू. स्थायी प्रभाव पड़ा है, पर ये तीनों ऐसे ही हैं। उनके पति बन जाते है। उपदेश जितना कल उपादेय और आदर्शमय थे उतने ही बाहुबलि के चरित्र की अपनी विशेषताये है। 'क्षमा आज हैं, और 'यावच्चन्द्रदिवाकरी रहेंगे। वीरस्य भूषणम्' की वह साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं । पिता प्रदत्त छोटे से राज्य की स्वतन्त्रता के लिए वह बड़े भाई की -१३०, बड़ा बाजार, चुनौती को सहर्ष स्वीकार करते हैं, यह उनके अजेय पौरुष खतोली २५१२०१ (उ.प्र.) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ, भरत और बाहुबलि का चारित्रिक विश्लेषण सन्दर्भ-सूची १. आदिपुराण : अनु० पं० पन्नालाल, ज्ञानपीठ १६६३, १६ श्वेताम्बर परम्परा १०० पुत्र व पुत्रियां-१०२ सन्ताने पर्व-४-१५ मानती हैं २. महापुराण (आदिपुराण) : सम्पा० पी० एल० वद्य, १७. उत्तराध्ययन सूत्र : ककत्ता १९६७, २०३१ मा० दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई १९३७. सन्धि २१-२७ १८. महापुराण : पुष्पदन्त नवम सन्धि ३. वहत्स्वयंभू स्रोत्र : पाटनी ग्रन्थमाला मराठे २४७६.२ १६ वही: उत्तरपुराण द्वितीय खण्ड, बम्बई १९४०, ४. श्रीमद्भागवत : गीता प्रेस गोरखपुर, पचम स्कन्ध परिशिष्ट १ ५. ऋग्वेदः सम्पा० विश्वबन्धु, होशियारपुर १।१६०१ २०. वही : परिशिष्ट २ ६. वही ३।४।२ एवं अन्य-८१४५।३८, १०।१८७।१,६॥ २१. वही : परिशिष्ट २ २६४ आदि २२. वही परिशिष्ट ३ ७. यजुर्वेद : संस्कृति सस्थान बरेली, ३१।१८ २३. भारतीय इतिहास एक दृष्टि : ज्ञानपीठ १९६६, ८. अथर्ववेद : सस्कृति संस्थान बरेली १९४२१४ पृष्ठ २४ ६. श्रीमद्भागवत : पचम स्कन्ध । २४. महापुराण पुष्पदन्त, बारहवी सन्धि १०. धम्मपद : धर्मरक्षित, मा० खेलाडीलाल वाराणसी २५. वही : पन्द्रहवी सन्धि ५६, गाथा ४२३ २६. वही : सत्तरहवी सन्धि ११. विश्वधर्म की रूपरेखा : मुनि विद्यानन्द, पृष्ठ १६ २७. 'मत्ता के आर-पार': ज्ञानपीठ १९८१, पृ० ७ १२. महापुराण : पुष्पदन्त, तृतीय सन्धि २८. श्वेताम्बर परम्परा दष्टि, वाक्, बाहु मुष्ठि और दण्ड १३. वही तृतीय सन्धि ये पांच युद्ध मानती है - १४. वही चतुर्थ सन्धि २६. महापुराण पुष्पदन्त, सोलहवी व सत्तरहवीं सन्धि । १५. वही पचम सन्धि जम (सु० १८ का शेषाश) मुनि अमरसेन इस प्रकार सम्यग्दर्शन की उत्पनि के अल्पज्ञता का भी उल्लेख किया है। ग्रन्थ समाप्ति तिथि कारणो मे प्रथम कारण जिनेन्द्र की पूजा का महत्व प्रनि- सवत १५७६ चंत्र शुक्ला पञ्चमी शनिवार बताई गई है। पादित कर अपने भाई मुनि वइरसेन के साथ सन्यासपूर्वक कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रति कामना प्रकट करते हुए प्रस्थ देह त्याग कर पांचवें स्वर्ग में देव हुए । राजा देवदत्त और को समाप्त किया है कि-"तैल, जल और शिथिल रानी देवश्री ने जिनेन्द्र की पूजा की। बन्धन से ग्रन्थ को बचाइए। इसे मूर्ख के हाथ में न अन्त में कवि ने आचार्य परम्परा का उल्लेख करते दीजिए।" हुए उनसे आनन्द प्राप्ति की कामना की है। ग्रन्थ रचना प्रभारी एवं शोध सहायक के प्रेरक चौधरी देवराज के पूर्वज करमचन्द चौधरी का जैन शिक्षा सस्थान परिचय देने के उपरान्त गुरु के प्रति कृतज्ञता पोर अपनी जिला सवाई माधोपुर (राज.) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व प्राप्ति यत्न साध्य है या सहज साध्य है ? 0 श्री बाबू लाल जैन अर्ध पुद्गल परावर्तन काल शेष रहने पर सम्यक अर्थ उपसम सम्यक्त्व के प्राप्त होने के प्रथम समय दर्शन होता है अथवा सम्यक दर्शन होने पर अर्ध पुद्गल मे अनन्त संसार को छिन्न कर अर्ध पुद्गल परिवर्तन परावर्तनकाल शेष रह जाता है। प्राय: करके हमारे समाज मात्र किया। में, विद्वानों में एव त्यागियों में यही मान्यता प्रचलित है कि इसी प्रकार का कथन सूत्र ११ एवं १५ में भी है। जिसका अर्ध पुदगल परावर्तन काल मोक्ष प्राप्ति मे शेष श्री जयधवला-कषायपाहुड गाथा २ शंका २६० पन्ना रहता है उसी के सम्यक प्राप्त करने की योग्यता होती २५३ । है। अगर संसार ज्यादा है तब सम्यक्दर्शन प्राप्त नही । होगा । कितना ही पुरुषार्थ करे परन्तु काल अधिक है तब समाधान-जो अनादि मिथ्यादृष्टि जीव तीनों सम्यक दर्शन नहीं होगा। इससे मालूम देता है कि सम्यक् य. कारणो को करके उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और कारणा दर्शन पुरुषार्थ प्रधान नही है परन्तु काल लब्धि के आधीन इस प्रकार जिसने अनन्त संमार को छेदकर संसार के हैं। वह काल लब्धि कब आवेगी यह मालम नही। उसके रहने के काल को अर्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण किया। पहले पुरषार्थ करने से कोई फायदा नही है। इस विषय यह कथन युक्तियुक्त मालूम होता है। मिथ्यादृष्टि पर विचार करना जरूरी है। कोई भी कर्म ७० कोडा का संसार अनन्त है अर्थात जिसका अन्त नहीं है क्योकि कोडी सागर से ज्यादा स्थिति वाला नहीं होता है इससे कर्म का उदय आयेगा नया बंध होता जायेगा और फिर भी यह बात नही समझी जा सकती है कि इस जीव की उसका उदय आ जायेगा इस प्रकार चलता ही रहेगा। काल लब्धि अभी आयी है या नहीं। इसके अलावा फिर अन्त नहीं होगा। परन्तु जब यह सम्यक्त्व प्राप्त करता है और कोई उपाय रहा ही नही कि जिससे यह समझा जा तब सम्यक्त्व प्राप्त करने के प्रथम समय में इसका अन्त सके कि मोक्ष प्राप्ति में अभी अर्ध पुद्गल परावर्तन से पाने-जिसका अन्त नहीं था वह ससार अर्ध पुद्गल परिकाल ज्यादा है या समय के भीतर है। भगवान सर्वज्ञ वर्तन मात्र रह जाता है। इसलिए हरेक सजी पंचेन्द्रिय मोर आचार्य सभी जीवों को सम्यक प्राप्ति का उपदेश जीव को सम्यक्त्व प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। देते हैं। वहाँ यह नहीं कहते कि अमुक जीव को अभी सम्यक्त्व प्राप्त करना पुरुषार्थ आधीन है। पुरुषार्थ नहीं करना चाहिए क्योंकि अभी अर्ध पुद्गल भी परावर्तन काल से मोक्ष प्राप्ति में काल ज्यादा है। कुछ रोज पहले पू० प्राचार्य विद्या सागर जी से भी इस विषय में श्री धवला जी और जय धवला जी में चर्चा हुई थी उन्होंने भी इसी बात को पुष्ट किया है। निम्न विषय मिलता है विद्वानों और त्यागियों से निवेदन है बे इस बात का विचार करें। षट् खण्डागम प्रथम खण्ड पु. ५सूत्र उपसम सम्मत्तं परिवण पढम समए प्रणतो संसारो २/१० अन्सारी रोड, दरियागंज, छिम्णो प्रड पोग्गल परिवट्टमत्तो को। नई दिल्ली-२ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अप्रकाशित कृति अमरसेन चरिउ On० कस्तूरचन्द्र 'सुमन' एम. ए. पी-एच. डी. प्रस्तुत कृति का सामान्य परिचय अनेकान्त वर्ष ३७ इच्छा से मुनियों का स्मरण करते हैं। अपने पुण्य योग से किरण ४ में प्रकाशित किया गया है। ग्रन्थकार और ग्रंथ चारण मुनियों का आगमन देख वे हर्षित हुए, उन्होंने के प्रेरक का परिचय प्रस्तुत करने के बाद प्रस्तुत लेख में आहार दिया। मुनि आहार लेकर अपने यथेष्ट स्थान की ग्रन्थ की बिषयबस्तु का अंकन करना लेखक का ध्येय है। ओर गमन कर जाते हैं। रचयिता पण्डित माणिक्कराज ने सम्पूर्ण कृति में द्वितीय परिच्छेद मुनि अमरसेन का जीवनवृत्त अकित किया है। उन्होने चारण मुनियों के आहार लेकर चले जाने के पश्चात् इसे सात परिच्छेदों में विभाजित करते हए प्रथम परिच्छेद सेठ अभयकर दोनों भाइयों से भोजन के लिए निवेदन के आदि मे चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना करके उनकी करता है किन्तु दोनों भाई चतुर्विध आहार का त्याग कर वाणी हृदयङ्गम करते हुए गोतम गणधर तथा उनको देते हैं । सेठ प्रीतिभोज में सम्मिलित होने के लिए आग्रह परम्परा में हुए मुनियो की स्तुति पूर्वक अपनी गुरु परम्परा करता हैं किन्तु दोनों भाई स्वीकृति नही देते। अन्त में का उल्लेख किया है। अनन्तर ग्रन्थ के प्रेरक चौधरी देव. निराहार रहते हुए नमस्कार मंत्र जपते-जपते समाधिपूर्वक राज के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापिन की है। दुर्जन और शरीर त्याग सनत्कुमार स्वर्ग मे देव हये। सज्जनों के स्वभाव का अकन करने के बाद मूल कथा वहां से चयकर दोनों भाई जम्बूद्वीप-भरतक्षेत्र के आरम्भ हुयी है। कलिंग देश में विद्यमान दलवट्टण नामक नगर के राजा राजा श्रेणिक महावीर के समवशरण में जाकर गौतम सूरसेन और रानी विजयादेवी के अमरसेन बहरसेन नामक गणघर से ग्वाल-बाल छ। भवान्तर पूछते है। उत्तर मे युगल पुत्र हुए। हस्तिनापुर का राजा सूरसेन का मित्र अमरसेन वइरसेन युगल भाइयो के पूर्वभव का अकन इस था। अमरसेन वइरसेन हस्तिनापुर मे ही जनमें और युवा परिच्छेद की विषय-बरतु है। ये दोनो भाई पूर्वभव मे हुए । हस्तिनापुर का राजा देवदत्त सूरसेन नप के निकट भरतक्षेत्र मे ऋषभपुर नगर के निवासी अभयकर सेठ के जाता है इधर अमरसेन वइरसेन के सौन्दर्य को देखकर घण्णंकर पुण्णकर नामक कर्मचारी थे। ससार से उदासीन राजा देवदत्त की रानी देवश्री सूरमेन के पुत्रो पर मुग्ध होकर उन्होने ब्रह्मचर्य धारण कर लिया था। उनके हो जाती है। वह अमरसेन वइरसेन से अपना मनोरथ भी धार्मिक स्नेह को देखकर सेठ अभयकर उन्हे स्नान करा- प्रकट करती है किन्तु सफलता न मिलने पर अपने शील कर जिन मन्दिर ले जाता है। पूजा के लिए वह सेठ भंग करने का आरोप लगाकर राजा देवदत्त से उन्हें मार अपनी द्रव्य इन दोनो भाइयो को देता है किन्तु वे द्रव्य डालने का आदेश करा देती है। नहीं लेते। मुनिराज के समझाने पर भी वे अपनी प्रतिज्ञा चाण्डाल कुमारों को बचा लेते है। वे कुमारों को का निर्वाह करते हैं । उनके पास पांच कौडियां थी जिनसे ऐसे स्थान में चले जाने के लिए कहते हैं जहाँ राजा पूजन सामग्री लेकर वे भाव पूर्वक जिनेन्द्र की अभिषेक देवदत्त न पहुंच सके । कुमार चले जाते हैं । इधर चांसल पूर्वक पूजा करते हैं। दो कृत्रिम नरमुण्ड राजा को देकर कुमारों के मारे जाने घर आने पर सेठानी उन्हें सरस स्वादिष्ट भोजन की सूचना द देते हैं। परोसती है। दोनों पाई आहार आहारदान में देने की अमरसेन वदरसेन दोनों भाई जंगल में पककर एक Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ४०, कि.. वृक्ष के नीचे विश्राम करते हैं। बम का निवासी यक्ष आश्वासन देकर जैसे ही वस्तुएँ हाथ में लेता है कि पांवड़ी दम्पत्ति मुग्ध होकर इनकी सहायता करते हैं । यक्ष लाकर पैर मे पहिन वह कंचनपुर पा जाता है, चोर हाथ मलते इन्हें दो आम्र फल लाकर नीचे गिराता है जिनमे बडा रह जाते हैं। फल सात दिन में राज्य प्राप्त कराने वाला था और छोटा वइरसेन की वेश्या से पुन: भेट हो जाती है। वेश्या फन भक्षक को नित्य पांच सौ रत्नदायी। फलों के रहस्य इसकी पावडी लेना चाहती है। वह इसे उगने के लिए को शातकर छोटा फल वइरसेन विधिपर्वक खाकर पांच छलपूर्वक मन्मथ मन्दिर के दर्शन कराने के लिए आग्रह सौ रत्न प्राप्त करने लगता है और बड़ा फल अम सेन को करती है। वइरसेन जैसे ही वेश्या को लेकर वहां जाता देकर उसके रहस्य की प्रतीक्षा करता है। है कि वेश्या इसे मन्दिर में छोड पावडी पहिन कर कंचन पुर आ जाती है । मन्दिर में उसी समय एक देव दर्शनार्थ । तृतीय परिच्छेद आता है। वइरसेन की व्यथा सुनकर वह उसे पन्द्रह दिन बइरसेन भाई अमरसेन से भोजन सामग्री लाने के लिए बाद पुन' आकर यथा स्थान ले जाने का वचन देता है। 'कंचनपुर जाता हूँ" कहकर चला जाता है। इधर कचन जाते समय पश्चिम की ओर गमन न करने के लिए कह पुर नरेश का मरण हो जाने तथा योग्य उत्तराधिकारी के कर चला जाता है। वइरसेन उत्सुकता वश उस ओर अभाव में "हाथी जिसका अभिषेक करे वही नगर का नृप जाता है। जाता है। एक वृक्ष के फूल को सूघते ही वह गधा बन वर्ष ह' इस निश्चय से हाथी नगर में घुमाया जाता है। वह जाता है । देव यथा समय आकर और इसे मनुष्य का रूप जान वन मे जाकर सोये हुए अमरसेन का अभिषेक करता है। देकर चलने के लिए आग्रह करता है किन्तु यह देव को अमरसेन कचनपुर के राजा घोषित होते हैं। उधर वइर. जर पाँच दिन बाद पूनः आने के लिए निवेदन करता है। देव सेन कंचनपुर जाकर एक वेश्या के चक्कर पड़ जाता स्वीकृति प्रदान कर जैसे ही जाता है कि वइरसेन दोनो है। वह अमरसेन के पास लोट नहीं पाता। अमरमेन वृक्षों के फन पृथक्-पृथक रख लेना है और पांच दिन बाद बहुत खोज कराते हैं किन्तु प्रच्छन्न वेश में रहने से वे इसे देव के माने पर उसकी सहायता से कंचनपुर आ जाता खोज नहीं पाते। वेश्या लोभारष्ट होकर वइरसेन का धन लेना वेश्या इमे देखकर कृत्रिम पश्चाताप प्रकट करती है। चाहती है। वह वइरसेन से उसकी धन प्राप्ति का रहस्य वहरसेन वेश्या को छलने की दृष्टि से अपने लाये हुए फून ज्ञातकर और उससे आम्रफल लेकर घर से हाथ पकडकर के सम्बन्ध मे वेश्या से कहता है कि जो इन्हे सूंघता है निकाल देती है। बइरसेन बार-बार मुंह धोता, कुरले वह युवा हो जाता है। वेश्या इन फूलो को सूघने की करता किन्तु रत्न नही गिरते । वह हताश होकर सोचता है कि स्त्रियों को गुप्त भेव प्रकट न करे। उसे चारुदत्त, इच्छा प्रकट करती है और वइरसेन जैसे ही उसे फूल यशोधर मुनि, गोपवती, रक्तादेवी आदि के इस सम्बन्ध में सुंधाता है कि वेश्या गधी बन जाती है। वइरसेन अपने उदाहरण याद आते हैं। साथ 'कए गए कपट व्यवहार का प्रतिफल देने की दृष्टि से उमे मार मार कर नगर मे घुमाता है । वेश्य के कुटम्बी चतुर्थ परिच्छेद विरोध करते हैं किन्तु उनकी एक नहीं चलती। वे हताश वहरसेन नगर के बाहर एक मन्दिर मे आता है। होकर राजा से निवेदन करते है। राजा अपनो सेना देवयोग से उमी मन्दिर मे चार चोर किसी योगी की भेजता है किन्तु लाठी के प्रहार से यह सेना को भी परामाधना से प्राप्त कथरी, लाठी और पांवड़ी तीन वस्तुए जित कर देता है। अन्त मे राजा स्वय आक्रमण करता चुराकर पाते हैं। वस्तुओ के बटवारे को लेकर झगडते है। वह जैसे ही वइरसेन को देखता है कि उसे हृदय से हए उन चोरों से बहरसेन अगडे का कारण पूछता है तथा लगा लेता है। वइरसेन भी बड़े भाई अमरसेन से लिसोरों से तीनों वस्तुओं के गुण हात कर बटवारे का का प्रसन्न हो जाता है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक प्रकाशित कृति प्रमरसन रिड १७ पञ्चम परिच्छेद एक दिन वह सुव्रत मुनि से मेंढक की इस वृत्ति का कारण अमरसेन कुशलता पूछने के बाद वइरसेन से वेश्या के पूछती है-"मेंढक तेरा पूर्वभव का पति है, इसीलिए वह गधी बनाए जाने का कारण पूछते हैं । वइरसेन उत्तर देते तेरे आगे आगे चलता है।" मुनि द्वारा यह रहस्य प्रकट हुए कहता है कि इस वेश्या ने मुझे छला है। कपट पूर्वक करते ही भयदत्ता का मेंढक के प्रति स्नेह बढ़ जाता है। इसने मेरा आम्रफल तथा पांवड़ी ली है। अमरसेन वइर- वह उस मेंढक को वहां से लाकर अपनी बावली में रखती सेन से ऐमा ज्ञात कर वेश्या से अपनी वस्तुयें लेने और और जिनेन्द्र भाषित दश धर्म की शिक्षा देती है। एक उसे मनुष्य रूप देने के लिए कहता है। वदरसेन गधी दिन राजा श्रेणिक महावीर के समवसरण-दर्शन के लिए को वेश्या बनाकर अपनी वस्तुयें ले लेता है । वहरसेन को घोषणा कराते हैं। नगरवासियों के साथ सोत्साह यह यूवराज पद दिया गया। अमरसेन वइरसेन दोनों भाई मेंढक भी मुंह मे कमल की एक पांखुड़ी दबाकर जिनेन्द्र एक दिन चारण युगल मुनियों को आहार कराते है। की पूजा के लिए जाता है। मार्ग में संकीर्णता देखकर वह आहार कराते हए उन्हें अपने पूर्व भव का स्मरण होता है। हाथी के नीचे अपनी सुरक्षा समझ कर चलने लगता है उन्हें याद आता है कि पूर्वभव मे वे धण्णकर पुण्णकर कि चलते चलते वह हाथी के पैर तले आकर मर जाता नाम के कर्मचारी थे, उन्होने मुनियों को आहार कराकर है। मरणकाल में पूजा के शुभ भाव रहने से वह मेंढक उनसे धर्मोपदेश सुना था। इस भव मे मुनि से अपने पूर्व मरकर देव हुआ। भव तथा सौतेली मां के दोषारोपण सम्बन्धी कारण ज्ञात ___अमरसेन मुनि कहते हैं हे राजन ! इसी प्रकार कुसुकर दोनों भाई नगर में आते हैं। यहा आकर उन्होने मान्जलि व्रत का महात्म्य है। इसकी साधना से स्वर्ग चतुर्विध दान दिया; कुआं, बावली, सरोवर तथा मन्दिर और मोक्ष प्राप्त होता है। मदनमञ्जूषा स्वर्ग गयी और चक्रवर्ती रत्नशेखर तथा उसका सेनापति घनवाहन दोनों निमिन कराये। आचार्य देवसेन से दोनों दीक्षित हए । मुनि व्रत धारण कर तप करते हुए कर्म-विनाशकर मोक्ष बारह प्रकार का तप करते हुए वे विहार करते है। राजा गये। रत्न शेखर राजा वज्रसेन और रानी जयावती का देवसेन और रानी देवश्री इन दोनों अमरसेन वइरसेन पुत्र था। विद्याधर धनवाहन से उसकी प्रीति हो गयी थी। मुनियों के दर्शनार्थ आते है। धनवाहन के साथ रत्नशेखर अढाई द्वीप की यात्रा करता अमरसेन राजा देवसेन को सम्यग्दर्शन और उसके प्रथम कारण पूजा का महात्म्य समझाते हुए कहते हैं सिद्धकूट जिनालय में पूजा करते समय उसे मदनकुसुमावलि और कुसुमलता दोनों बहिनें जिनेन्द्र पूजा के मञ्जूषा नामक कन्या दिखाई दी। मदनमञ्जूषा भी इसे लिए पुष्प चयन करते समय सर्प द्वारा काटे जाने से मर देखकर कामाक्रान्त हुई। वह इसे अपने घर ले जाती है कर पूजा के भाव स्वरूप स्वर्ग मे देवाङ्गनायें हुयी। पूजा और अपने पिता से अपनी मनोव्यथा प्रकट कर देती है। की अनुमोदना करने से प्रीतिकर यक्षाधिपति हुआ था तथा पिता स्वयंवर रचाते है और स्वयंवर में इसका विवाह कुछ भवों के उपरान्त उसने मोक्ष भी प्राप्त किया। रत्नशेखर से कर देते हैं। षष्ठ परिच्छेद घनवाहन के चारणमुनि अमितगति से रत्नशेखर की मुनि अमरसेन राजा देवसेन के लिए पूजा के फल से मदनमञ्जूषा मे हुई प्रीति का कारण जानने की इच्छा मेंढक के देव होने का वृत्तान्त सुनाते हुए कहते है राजन् ! व्यक्त करने पर मुनि कहते हैं कि आप तीनों का पूर्वभव से पूर्वभव मे मेढक राजगृही नगरी का नागदत्त नामक सेठ सम्बद्ध है। मंगलावती के राजा जितशत्रु का श्रुतकीति था। भयदत्ता नाम की उसकी सेठानी थी । नागदत्त आर्त- नामक एक पुरोहित था। प्रभावती उसकी पुत्री थी। ध्यान से मरकर मेढक हुआ। पूर्व स्नेह के कारण वह श्रुतकीर्ति मुनि हो गये थे । प्रभावती की मां सर्प के काटने का आँचल पकड़ता है, जहाँ वह जाती उसके से मर गई थी। मोहवश श्रुतकीति अपने पद से च्यूत आगे आगे उछलता है। भयदत्ता पानी लेने नहीं जाती। हुए। प्रभावती ने उन्हें सत्पथ पर स्थिर रखने के लिए Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८, बर्ष ४०, कि०३ बह प्रयत्न किये । बह विरक्त हो गयी। श्रुतकीति विद्या से स्वर्ग गया और स्वर्ग से चयर चक्रवर्ती अचल का भेजकर प्रथम तो उसे अपने निकटवर्ती वन में लाया अभिराम नामक पुत्र हुआ। अनन्तर श्रावक के व्रत धारण अनन्तर विद्या के द्वारा उसे कैलाश पर्वत पर भिजवाया। करते हए देह त्याग कर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग गया। इधर पूर्वयहाँ प्रभावती की देवी पपावती से भेंट हुई। पपावती ने। भव सम्बन्धी इसका पिता धनद वैश्य विभिन्न योनियों में कुसुमाञ्जलि व्रत की विधि एवं फल का निरूपण करते प्रमण करने के वाद पोदनपुर नगर में अग्निमुख ब्राह्मण हए यह व्रत प्रभावती को ग्रहण करने के लिए प्रेरित का मदुमति नामक पुत्र हुआ। किया, अतः व्रत धारण करते हुए मुनि त्रिभुवनचन्द से अपनी आयु तीन दिन मात्र को शेष ज्ञात कर इसने महा- मृदुमति वेश्या में आसक्त होकर अपना सम्पूर्ण धन तप भी धारण कर लिया। श्रुतकीर्ति ने विद्या भेजकर का नाश कर देता है । धन के अभाव में दुखी होकर वह इसका तप भंग करना चाहा किन्तु विद्या के अनेक उपसर्ग चोरी करने लगता है। एक दिन वह राजमहल में चोरी करने पर भी उसे योग से विचलित न कर सकी। प्रभा- करने गया । रात्रि मे वह राजा की रानी के साथ हो रही बती संन्यास पूर्वक देह त्याग अच्युत स्वर्ग में पपनाथ बातों को सुनता है। राजा रानी से कह रहा था कि रानी नामक देव हुई और स्वर्ग से चयकर रत्नशेखर । प्रभावती प्रातः होते ही मैं तप ग्रहण करूंगा, रानी कहती है कि मैं का पिता धनवाहन और माता मदनमञ्जूषा हुयी है। भी दीक्षिस हो जाऊँगी। संसार में कुछ भी तो सार नहीं सप्तम परिच्छेद है। मृदुमति राजा रानी के विचारो से प्रभावित होकर प्रातः महाव्रत धारण करने का निश्चय कर लेता है तथा राजा देवसेन से मुनि अमरसेन कहते हैं-हे राजन! प्रातः होते ही तीनों दीक्षित हो गये । त्रिलोक मण्डल हाथी की प्रसिद्धि और भवन की सिद्धि में कुसुमाञ्जलि पूजा ही एक हेतु है। केवली देशभूषण ने मदुमति विहार करता हुआ एक ऐसे नगर पहुंचा बताया था कि कई भवपूर्व भरत और त्रिलोकमण्डन हाथी जहाँ कोई गुणनिधि नामक चारण मुनि विराजमान थे। सर्योदय और चन्द्रोदय नामक सहोदर थे। विशुद्ध तप को उनके मासोपवासों से नगर के लोग अधिक प्रभावित थे । स्याग दोनों राज्य संचालन में रत हुए। आर्तध्यान से मर गुणनिधि ने योग पूर्ण कर जैसे ही गजपुर के लिए विहार कर स्त्रीपर्याय में भ्रमण करने के बाद चन्द्रोदय गजपुर किया कि मदमति मुनि उस नगर में आये । चर्या के लिए नगर में कुलकर नाम से उत्पन्न हुआ और सूर्योदय गजपुर उनके निकलते ही श्रावकों ने बार बार प्रश्न किया कि नगर के मंत्री विश्रतास का श्रुति नामक पुत्र । दोनों मर. क्या आप वही मासोपवासी मुनि हैं? इस प्रश्न का मुनि कर तियंच योनि में भ्रमण करने के बाद राजगही नगरी मदुमति ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे मौन रहे। उन्होने में एक ब्राह्मण के पुत्र हुए। बड़े का नाम विनोद और यथार्थ स्थिति प्रकट नहीं की। इस कपट व्यवहार के छोटे का नाम रमण रखा गया। विनोद और रमण मर कारण मदुमति मुनि तप के प्रभाव से ब्रह्म स्वर्ग मे उत्पन्न ए। राजा स्वम्भूति इन दोनों हिरणो का तो हुए किन्तु वहां से चयकर त्रिलोकमण्डन हाथी हुए हैं शिकारी के पास से ले जाकर जिन मन्दिर के समीप बांध तथा अभिराम का जीव स्वर्ग से चयकर भरत हुआ है। देता है। हिरण भाव पूर्वक जिनेन्द्र की पूजा सुनते हैं। पूजा के भावों के साथ मरकर रमण का जीव हिरण इस प्रकार अपना भवान्तर सुनकर भरत ने दीक्षा स्वर्ग में देव हुआ और विनोद का जीव तिर्यञ्च योनि में ग्रहण की, कैकेयी ने तप धारण किया, राम ने अणुव्रत भ्रमण करने के बाद धनद नामक वैश्य हुआ। रमण का धारण कर त्रिलोकमण्डन को भी धारण कराए। इसी जीव स्वर्ग से चयकर इसी वैश्य का भूषण नामक पुत्र कुसुमाञ्जलि पूजा के फलस्वरूप ग्वाल करकण्ड नामक आ। वन में सर्प के काटने से मरकर भूषण माहेन्द्र स्वर्ग राजा हुआ। में देव होने के बाद भोगभूमि में उत्पन्न हुआ। भोगभूमि (शेष पृ० १३ पर) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या मूलाचार यापनीय ग्रन्थ है 0 डा० कुसुम पटोरिया मूलाचार दिगम्बर परम्परा में मान्य मुनि-आचार का स्त्रीमुक्तिविचारप्रकरण में इसका उल्लेख श्वेताम्बर प्रतिपादक ग्रन्थ है। घवलाकार आचार्य वीरसेन, ने इसका सिद्धान्तके रूप मे ही किया है।' आचारांग के नाम से उल्लेख किया है। मूलाचार के ये दश श्रमणकल्प है आचेलक्य, उद्दिष्टत्याग, शय्याटीकाकार वसुनन्दि मुनि ने अपनी वृत्ति में इसे बट्टकेर/ धरपिंडत्याग, राजपिण्डत्याग, कृतिकर्म, व्रत, पुरुषज्येष्ठता. बटकेरि प्रणीत बताया है, परन्तु मूलाचार की कुछ हस्त- पतिकण मास और पर्यषण । इनमें से शय्याधरपिण्ड लिखित प्रतियो मे इसे कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत कहा गया है, तथा राजपिण्ड त्याग का उल्लेख दिगम्बर परम्परा में कहीं जिससे बट्टकेरि और कुन्दकुन्द को एक मानकर कुछ प्राप्त नहीं होता। शय्याघर का अर्थ है वसतिका बनवाने विद्वानों ने इसे आचार्य कुन्दकुन्दप्रणीत माना था।' प्रारम्भ सुधरवाने या देने वाला। इस शय्याधर के पिण्ड का त्याग मे पण्डित परमानद शास्त्री ने इसे सग्रह ग्रंथ माना था,' मुनि के लिए आवश्यक कल्प (नियम) है। परन्तु पं० पर बाद में इसे मौलिक ग्रन्थ स्वीकार किया है।' सदासुख जी भगवती-आराधना पर अपनी वनिका में यद्यपि यह सत्य है कि मूलाचार और आचार्य कुन्द इसका अर्थ 'स्त्री-पुरुषो के क्रीडा का स्थान' करते हैं, इसका कुन्द की रचनाओं में अनेक गाथाएं समान है, उदाहरण कारण दिगम्बर परम्परा में दशस्थिति कल्प का उल्लेख के लिए मूलाचार का द्वादशानुप्रेक्षाधिकार तथा आचार्य नहीं है। कंदकंद की द्वादशानुप्रेक्षा को देखा जा सकता है, परन्तु ये दोनो उल्लेख प्राचार्य कुन्दकुन्द की विचारधारा के ध्यान से देखने पर प्रतीत होता है कि यह प्रन्थ अनेक प्रतिकूल हैं, क्योकि उन्होने बोधपाहर (गाथा ४८) मे स्पष्ट स्थलो पर आचार्य कुन्दकुन्द की विचारधारा से मेल नही रूप से कहा हैखाता। उत्तममज्झमगेहे दारिदे ईसरे णिरावेक्खा । वस्तुत: यह ग्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा का सव्वत्थ गिहिदपिंडा पवज्जा एरिसा भणिया ॥ है। यद्यपि पं० नाथुराम जी प्रेमी ने 'वट्टकेरि का मूलाचार' निबन्ध में इस पर सप्रमाण ऊहापोह किया है, परन्तु फिर अर्थात् उत्तम और मध्यम घरो में दरिद्र अथवा भी विद्वान् मूलाचार नाम ही इसे मूलसघ का ग्रन्थ मानते ऐश्वर्यशाली के घर सर्वत्र समान भाव से अन्न ग्रहण करना हैं। पं० परमानद जी शास्त्री ने 'वट्टकेराचार्य और मूला- चाहिए । इस स्थिति में पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्री का चार' निबन्ध में यही प्रतिपादित किया है। यह कथन 'कि दस कल्प तो दिगम्बर परम्परा के प्रतिकूल अत: क्या मूलाचार यापनीय ग्रन्थ है, इस पर पुनः नहीं , किन्तु अनुकूल ही है, उचित नहीं है। विमर्श आवश्यक है। आहार और औषधि से मुनि द्वारा मुनि को शस्थितिकल्प: वैयावृत्ति: मूलाचार मे मुनियों के दशस्थिति कल की प्रतिपादक मुनि द्वारा मुनि के वैयावत्य का वर्णन करते हुए कहा गाथा निबद्ध है। यह गाथा भगवती आराधना (४२१), गया हैजीतकल्पभाष्य (गा० १९७२) तथा अनेक श्वेताम्बर अन्यो सेज्जागासणिसेज्जा उवधी पडिलेहणा उवग्गिदे । में मिलती है। भाचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड के बाहारोसहवायविकिचणुव्वत्तणदीसु ॥ (गापा ३९१) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, वर्ष ४०, कि० ३ मनेकान्त अर्थात् शय्या, स्थान, आसन, उपधि, प्रतिलेखन, वृत्य करता है, वह तो शुभोपयोगी श्रमण का भी आचरण आहार, औषधि वाचन, उठाना-बैठाना आदि क्रियाओं में नहीं है, वह तो गृहस्थ का धर्म है। वैयावृत्त्य करना चाहिए। उपाश्रय में भिक्षा लाकर भोजन न करने के संकेत : अन्यत्र समाचार अधिकार में 'अच्छे वेज्जावच्च' आदि मूलाचार में समाचाराधिकार तथा समयसाराधिकार १७४वीं गाथा की टीका में आचार्य वसुनन्दि ने वैयावृत्ति __ में दो बार एक गाथा प्राप्त होती हैका अर्थ शारीरिक प्रवृत्ति और बाहारादि से उपकार णो कप्पदि विरदाणं विरदीणवासयम्हि चिट्ठडे । करना लिखा है-'वेज्जावच्चं-वैयावत्यं कायिकव्यापारा- तत्थ णिसेज्जउवट्टणसज्झायाहारभिक्ख वोसरणे ।। हारादिनिरुपग्रहणम् ।' __ अर्थात् साधुओं का आयिकाओं के उपाश्रय में ठहरना समाचाराधिकार में ही अन्यत्र भी कहा गया है युक्त नहीं है। वहाँ बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार; सुहदुक्खे उवयारो वसही आहारभेसजादीहिं भिक्षा, व्युत्सर्ग आदि उचित नहीं है। तुम्हं अहंति वयणं सुहदुक्खुषसंपया णेया ।। ४।२१ चौथे अध्याय में इसकी टीका मे आहार और भिक्षा का भेद करते हुए कहा गया है कि आयिकाओं को बनाया अर्थात् सुख और दुःख में वसति, आहार और भैषज हुआ भोजन आहार तथा श्रावकों की दी हुई भिक्षा है । आदि द्वारा उपकार करना तथा मैं आपका हूं, इस प्रकार आर्याओं के समाचार में उन्हें रोदन, स्नापन, भोजन-पचन के वचन सुखदुःख में उपसंपत् हैं । आदि ट्विध आरभ तथा साधुओं के पादप्रक्षालन आदि यह विचारधारा आचार्य कुन्कुन्द की विचारधारा के न करने के लिए कहा गया हैविपरीत है। प्रवचनसार में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा रोदणण्हावणभोयणपयणं सुत्त च छविहारंभे विरदाणं पादमक्खणधोवणगेय च ण य कुज्जा ॥ १६८ जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो। आयिकाओं का समाचार : ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से ॥२५० आयिकाओ के लिए भी वही यथाख्यात समाचार अर्थात यदि वैयावत्य करने में उद्यम श्रमण काय को बताया गया है, जो मुनियो के लिए है। वे मुनि ओर खेद पहुचाकर वैयावृत्य करता है, तो वह श्रमण नही है। आयिका को एक श्रेणी में रखते हैं, उनके व्रतो को उपचार काय को क्लेश पहुंचाकर वैयावृत्य करना श्रावकों का से महाव्रत नही मानते । आगे स्पष्ट कहा हैधर्म है। एव विधाणचरियं चरति जे साधवो य अज्जाओ। ते जगपुञ्ज कित्ति सुह च लण सिज्झति ॥ ४१७१ उनके मत से श्रमण दो प्रकार के होते है--शुद्धोपयोगी अर्थात् इस प्रकार आचरण करने वाले साधु व आर्या तथा शुभापयागा। अरहतादि का भाक्त, प्रवचन म जाम- दोनों जगत्पूज्य होकर कीर्ति व सुख प्राप्त करके सस युक्तो के प्रति वात्सल्य, वंदन, नमस्कार, अभ्युत्थान, (गुरुओं होते है। के आदर के लिए खड़े होना) अनुगमन आदि मे प्रवृत्ति स्त्रीमुक्ति का स्पष्ट उल्लेख दिगम्बर परम्परा बिलकुल शूभोपयोगी के लिए निन्दनीय नहीं है। शुभोपयोगी प्रतिकल है, फिर भी इसे मूलसंघ के प्राचार्य की कृति माधु दर्शन-ज्ञान का उपदेश करते है, शिष्यो का मानना दुराग्रह ही कहा जाएगा। संग्रह एवं पोषण करते हैं तथा जिनेन्द्रपूजा का उपदेश तीर्थडरों के धर्म में अन्तर का उल्लेख : देना है। यह चर्या सरागी साधु की है। जो चातुर्वर्ण मूलाचार में कहा गया है किश्रमणसघ का कायविराधना से रहित होकर उपकार करता बावीसं तित्थथरा सामाइयसयम उवदिसंति । है, तो उसका यह आचरण भी राग की प्रधानता से छेदोवढावणियं पुण भयवं उसहो य वीरोय॥ शुभोपयोग है। परन्तु जो काय की विराधना करके वैया. अर्थात बाईस तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का उपदेश Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या मूलाधार यापनीय ग्रन्थ है ? दिया है, भगवान वृषभ तथा बीर ने छेदोपस्थापना का। है। इसमें भी साधुओं के मूलगुण, उत्तरगुण रत्नत्रय तथा इनके धर्म में दूसरा अन्तर यह है कि वृषभ व वीर के भिक्षा आदि की शुद्धि का ही वर्णन है। कहा गया है धर्म प्रतिक्रमण सहित है, जबकि मध्यम तीर्थंकरों के काल वैराग्य पर साधु थोड़े से शास्त्रज्ञान से ही सिर हो जाता में अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण किया जाता था। है। उसके लिए उपदेश हैसपडकम्मो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। भिक्खं चर, वस रणे, थोव जेमेहि मा बहू जंप । अवराहे पडिकमण मज्झिमयाण जिणवराण ।। ६।१२९ दुख सह, जिण णिछा मेति भावेहि सुट्ट वेरग्यं ॥ १०४ ___ यह अन्तर आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थो मे या उनको ज्ञान, ध्यान, केशलोच, व्युत्सृष्टशरीरता, प्रतिलेखन, परम्परा में कही नहीं कहा गया । दशस्थितिकल्प, मूलगुणों का पालन करना चाहिए। यात्राये दोनो गाथाएं भद्रबाहुकृत आवश्यकनियुक्ति मे हैं। साधनमात्र आहारग्रहण करना चाहिए । गिरिकदरा आदि में निवास करना चाहिए। आयिकाओं के उपाश्रय में अशचित्व के स्थान पर अशभत्व अनुप्रेक्षा का कथन : अनावश्यक नहीं जाना चाहिए। सगतित्याग करना यद्यपि संग्रह-गाथा मे अशुचित्व का नामोल्लेख है चाहिए। इस प्रकार इस अधिकार मे पुनरुक्तियां हैं। (१२) पर वर्णन करते समय सर्वत्र अशुभ की चर्चा है। आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार से इसका विषय संभवता संग्रह गाथा में भी असुहत्तं ही होगा, क्योकि इसकी भिन्न है। संस्कृत छाया मे अशुभत्वम् ही है। टीका मे भी मूल शब्द प्रवर्तक और स्थविर पदों के उल्लेख: अशुभत्व ही मानकर उसका अर्थ अशुचित्व किया गया है। मूलाचार मे आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर तथा अन्यत्र जहां अशुभ अनुप्रेक्षा के वर्णन में पांच गाथाओं में गणधर ये पांच पद बताए गये है। दिगम्बर परम्परा में अशुभ शब्द का ही प्रयोग है। आचार्य व उपाध्याय इन दो पदो का ही उल्लेख एवं दश अनगार भावना : विवरण मिलता है। तीर्थङ्करों के बचनों की गुम्फित करने अनगारभावनाधिकार नामक नवमे अधिकार मे वाले उनके साक्षात शिष्य TTET कटे गये है। साधओं की दश भावनामों का वर्णन है। ये दस भावनाएं तत्थ ण कप्पा वासो जत्थ इमे स्थि पच आधारा। हैं लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान उज्झन, वाक्य, आइरियउवमायापवत्तधेरा गणघरा य ॥ ४॥३१ तप और ध्यान की शुद्धि । उज्झनशुद्धि का अर्थ है शरीर यापनीय सकलित आगम को मानते है तथा स्त्रीमुक्ति से ममत्व का त्याग । इन अनगारभावनाओ अथवा अनगार- के समर्थक है। उपर्युक्त उल्लेखो से उनके श्वेताम्बर आगमों सूत्रों का उल्लेख उत्तराध्ययनसूत्र में भी मिलता है। वहां का समर्थन प्रमाणित होता है साथ ही स्त्रीमुक्ति का स्पष्ट इस ३५वें अध्ययन का नाम अनगारमार्गगति है। उल्लेख है। अत: मूलाचार यापनीय ग्रन्थ ही प्रतीत समयसाराविकार: होता है। लोग शोध करें कि वास्तविकता क्या है? मूलाचार के एक अध्याय का नाम समयसार अधिकार ___ आजाद चौक सदर नागपुर सन्दर्भ-सूची १. अनेकांत वर्ष १२ किरण ११ मे प्रकाशित निबन्ध मौलिक ग्रन्थ है।' 'मूलाचार की मौलिकता और उसके रचयिता, प. ४.जैन साहित्य और इतिहास द्वितीय संस्करण ५, वीर हीरालाल सिद्धान्त शात्री। निर्वाण स्मारिका, जयपुर १९७५ २. अनेकात वर्ष २किरण ५ मे प्रकाशित 'मूलाचार ५. मूलाचार गाथा १०९ संग्रह प्रथ है' निबन्ध । ६. प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० १३१ ३. अनेकांत वर्ष १२ किरण ११मे प्रकाशित निबन्ध- ७. भगवती आराधना भाग १ जन संस्कृति संरक्षक संघ 'मूलाचार संग्रह ग्रंथ न होकर आचारांग के रूप ५ शोलापुर १९७८ प्रस्तावना पृ० ३५ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज किधर जा रहा है ? 0 श्री भंवरलाल न्यायतीर्थ इन दिनों हमारे पास कुछ ऐसे पत्र, पेम्फलेट पर्चे आये बुद्ध पैदा हुए उनका धर्म फैला। पर वहाँ आज कितने हैं हैं जिनमें जैन समाज की पतनोन्मुख अधोदशा का चित्रण बुद्ध के अनुयायी और क्या है उनका धर्म । चीन जापान में है। राजस्थान व मध्य प्रदेश आदि में गत दिनों घटित बुद्ध हैं-क्या शाकाहारी हैं ? मछली मांस का उपयोग वहाँ कुछ घटनाओं को पढ़कर/सुनकर हमें अत्यधिक आश्चर्य, घडल्ले के साथ होता है। कहाँ रही बुद्ध की अहिंसा? दुख और साथ ही लज्जा का अनुभव हो रहा है कि जैन उनकी दया और करुणा ने कितना चोपट कर दिया अहिंसा समाज आज किधर जा रहा है। हम नहीं चाहते कि सिद्धान्त को। दूसरी ओर हम देखते हैं ऋषभादि महावीर उन पो/पत्रों को प्रकाशित किया जावे जिनसे समाज पर्यन्त तीर्थंकरों और उनके गणधरो, आचार्यों के उपदेश की हंसी उड़ने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। और सिद्धान्त आज भी अविच्छिन्न रूप से चले आ रहे धर्म क्या है---इसे लोग समझते नही सिद्धान्तानुकूल हैं क्यों ? इसलिए कि धर्म के प्रति आस्था विश्वास और हमारी चर्या नहीं रही। समाज का नेतृत्व पूजीपतियो और । उनके पालन के प्रति कट्टरता रही-वहाँ परिस्थितिवश भी शैथिल्य नहीं आने दिया। इतरलोगो के द्वारा आघात सहेव्रतियों के हाथो मे है-विद्वानो के हाथो में नही। पैसा पर धर्म से नही डिगे । धर्म के नाम पर ३६३ पाखंड मत व्रतियों को भी अपनी और आकर्षित कर रहा है। धनिक भले ही बन गये हो पर जैन बड़े कट्टर थे अपने नियमों/ चाहते है कि व्रती उनका पोषण करे-उनकी यथेच्छ प्रवृत्ति सिद्धांतों के पालन मे । यही कारण रहा कि जनत्व रहा। को समर्थन दें। धर्म भीरू जैन समाज अन्दर ही अन्दर समय-समय पर परिस्थितियां विकट हुई-पर ऐसे महा दुखी है आज के वातावरण से । बीसो व्यक्तियो से चर्चा मानव भी पैदा हुए जिनने धर्म को दृढ़ता पूर्वक पालने में बार्ता हई वे धर्म विरुद्ध कार्यों को देखकर कहते है कि यह ही योगदान किया-परवर्ती आचार्यों विद्वानों ने शैथिल्य का क्या हो रहा है। कभी जैन समाज मे ऐसा नही हुआ-पर विरोध किया १०वी ग्यारहवीं शताब्दी तक और उसके उनमें हिम्मत नहीं, साहस नही खुलकर कहने की। उप बाद भी जैनाचार्य होते रहे हैं-जिनने धर्मत्व को समझाया। गहन और स्थितिकरण अग का ही सहारा पकड़े बैठे है। पं० आशाधरजी आदि मनीषी, तत्पश्चात् कवि बनारसी किन्हीं अंशों में बात सही भी है क्योकि जांध उघाड़ने मे दास, प. टोडरमलजी, जयचंद जी, सदासुख जी आदि आखिर अपनी ही तो बदनामी है। क्या चित्र होगा-इतर अनेक विद्वान् हुए जो महावीर के मार्ग पर चलने की समाज के सामने । लेकिन बार-बार ऐसी बाते ही सामने प्रेरणा देते रहे। ४०-५० वर्ष पहले भी होने वाले बाती जिसका आपरेशन यदि नहीं हआ तो क्या जनस्व पं. गोपालदास जी वरेया, ५० जीवन्धरजी, पं० माणिकचंद गोपालटामजी वोगा.. रह सकेगा। भगवान आदिनाथ से लेकर भ० महावीर जी न्यायाचार्य, वर्णी गणेशप्रसादजी, पं. देवकीनन्दजी, पर्यन्त सब तीर्थंकरों ने कभी धार्मिक शिथिलता के आगे पं. रमानाथजी, पं० चैनसुखदासजी आदि कई विद्वान् शिर नहीं झुकाया। बुद्ध ने परिस्थितियों व बया करणा उसी परंपरा के हुए जिनने निर्भीक होकर जैनत्व को के भाव से समय-समय पर सघस्थ प्रतियों की बात पर समझाया, प्रचार किया। आज भी पं.बंशीधरजी वीना, ध्यान दिया। संघ मे कइयों ने चाहा कि भन्ते ! भूख-प्यास पं० कैलाशचन्दजी शास्त्री,पं० फूलचन्दजी, पं. जगन्मोहनसर्दी गर्मी सही नहीं जाती-कुछ उपाय बताइये। बुद्ध को लालजी आदि विद्वान है पर पड होचले हैं। कई तो रुग्ण वल्कल के उपयोग की आज्ञा देनी पड़ी। वहां भगवान (शेष पृ.॥पर) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर तेरा-पंथ द्वारा दिगम्बर समाज पर खुला-प्रहार (ले० श्री पप्रचन्द्र शास्त्री अभी हमने एक पुस्तक देखी 'बाल कहानियाँ' । इसमें उसे वह अन्दर ही अन्दर रखता था, कभी भी काम में नहीं इतिहास से और आगमिक तथ्यों से हटकर दिगम्बर-मत लेता था। कई वर्ष व्यतीत हो गए। ममत्व की भावना के विषय में बहुत कुछ ऊल-जलूल मनमाने ढंग से लिखा दिनों-दिन बढती ही गई। गया है। पुस्तक आदर्श साहित्य सघ से प्रकाशित और एक दिन वह गोचरी गया हुआ था गुरु ने सोचाअणुवत-विहार नई दिल्ली से प्राप्य है और इसके लेखक क्या करना चाहिए यह चेला पछेवड़ी को काम में नहीं लेता है-मुनि श्री कन्हैयालाल, तेरापथी श्वेताम्बर आचार्य है। ममत्व रखता है। आखिर गहराई से चितन कर गुरु तुलसी के शिष्य । ने उस पछेवड़ी के टुकड़े-टुकड़े कर सन्तो को दे दिए । वह पुस्तक के आलेखों में पृ० ४९० पर एक शीर्षक गोचरी से वापिस आया। पता लगते ही उसके हृदय में 'विगम्बरमत' के नाम से छपा है। यह आलेख जैन एकता क्रोध की चिनगारियां उछलने लगीं। गुरु के प्रति द्वेष का ढोल पीटने वाले आ० तुलसी एवं उनके तेरापथ द्वारा उबलने लगा। सोचा-कपड़ा रखने वाले मुनि अपनी महान् दिगम्बर परम्परा पर खुला प्रहार ही है । यह पुस्तक साधना में कभी भी सफल नही हो सकते। क्योंकि वस्त्रों बताती है कि आ० तुलसी जी अपने भक्तो मे दिगम्बर पर ममत्व (मूळ भाव) आये बगैर नहीं रहता। अत: इस मुनि और दिगम्बर मत के प्रति किस प्रकार घृणा का भाव संघ में रहना उचित नही है। अलग होकर वस्त्रों का भर रहे हैं। उन्होंने अबोध बालको तक में बैमनस्य के परिहार कर साधना करना श्रेयस्कर है। बीजारोपण करने को भी नहीं बख्शा। जबकि श्वेताम्बर चिन्तन क्रियान्वित हुआ। कपड़ो का परित्याग कर परम्परा स्वयं मानती है कि भगवान ऋषभदेव तथा नग्न हुआ। संघ से अलग होकर साधना करने लगा। उस भगवान महावीर दिगम्बर थे। मुनि ने अपनी बहिन 'पालका' को भी नग्न होने के लिए हम श्वेताम्बराचार्यों के प्रन्यो से दिगम्वरत्व की प्रेरित किया। वन्धव मुनि के सकेत को वह कैसे टाल प्राचीनता सिद्ध करें इससे पहिले पाठकों को उस प्रसग से सकती थी? उसने कपड़ो का परित्याग किया; बह नग्न अवगत करा दें जो उस पुस्तक में छपा है । पाठक उतने बनी। लोगो मे अपवाद होने लगा. मुख-मुख पर निन्दा। मात्र से ही समझ जाएगे कि तेरापथी श्वेताम्वर-साधु किस जैन-समाज को निन्दा । घृणा । प्रकार फुट के बीज बोने में लगे हैं-रसगुल्लों के नाम पर विष दे रहे हैं। अपरिमित अपवाद सुनकर मुनिवर ने चिन्तन कर पुस्तक का अंश इस भांति है अपनी बहन को लाल कपड़े पहना दिए । बाई जी के नाम दिगम्बर मत से प्रसिद्ध कर दिया। स्त्री कपड़े पहने बिना रह नहीं भगवान महावीर के ६०६ वर्ष पश्चात् दिगम्बर सकती, इस पुष्टि से स्त्री को मोक्ष नहीं, यह बात वायु की सम्प्रदाय का प्रारम्भ हुआ, ऐसी मान्यता है । एक बुटकना भांति सर्वत्र फैल गई। शास्त्रों का नया निर्माण हुआ। नाम का साधु था। वह गुरु से बढ़कर भी अपने आपको वस्त्र रखने वाले को मोक्ष नहीं मिल सकता। ऐसे सिद्धान्तों विशेष ज्ञानी समझता था। अहम् के उच्च शिखर पर चढ़ा का प्रचार होने लगा लोग रन साधुओं को दिगम्बर कहकर सबको निम समझता था। उसके पास बहुत ही पुकारने लगे। आगे जाकर धीरे-धीरे वहां से दिगम्बर मत मूल्यवान एक पछेवड़ी थी, उस पर ममत्व होने के कारण के नाम से प्रसारित हो गया। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, ४०कि .. बनेकान्त एक बुटकने साधु ने, किया वस्त्र परिहार। इतना ही क्यों ? श्वेताम्बर तो आदि तीर्थंकर ऋषभचला दिगम्बर मत तदा, उस दिन से साकार ॥" देव के धर्म को भी अचेलक-दिगम्बर मान रहे हैं। उनमें - उक्त मनगढन्न कहानी गढ़कर लेखक ने दिगम्बरत्व भी आदि और अन्त के दो तीर्थंकरों को अचेल (दिगम्बर) पर घृणित प्रहार किया है जो सवैया निम्ध है। हम स्वीकार किया गया है । तथाहिश्वेताम्बर ग्रन्थों के कुछ उवरण दे रहे हैं जिनसे दिगम्वरत्व 'आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिगो।' के सदाकाल अस्तित्व की पुष्टि होती है। तथाहि -पंचाशक १२ समणे भगव महाबोरे संवत्सरं साहिय मास चीवर. -प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थकर धारी होत्या, तेण परं अचेलर पाणि पाडिम्महिए।' महावीर का धर्म अचेलक (दिगम्बर) था। -कल्पसूत्र, षष्ठक्षण, पृ० १५७ अब रही अचेलक शब्द के अर्थ की बात । सो अचेल 'तदेवं भगवना सवस्त्र धर्म प्ररूपणाय साधिकमासाधिक का अर्थ 'ईषतवस्त्र' करना, स्वय में अपने को धोखा देना वर्ष पावद्वस्त्रं स्वीकृत' सपात्रधर्म स्थापनाय च प्रथमां है। यदि कदाचित् 'ईषत्' अर्थ कर भी लिया जाय तो पारणां पत्रेण कृतवान्, तत' पर तु यावज्जीवं प्रचेलकः सोचा जाय कि महावीर के पास कौन-सा 'ईषत्' वस्त्र रह पाणिपात्रश्चाभूत।-वही (सुवोधनी) पृ० १५८ गया था ? जब कि पूरा देवघ्य दो भागों में विभक्त होकर 'श्री महावीरदेव: कृपया चीवराधं विप्राय अदात् । ब्राह्मण को चला गया। इसके बाद उन्हें किसी ने कभी (स: विप्रः) साधिकमासं वर्ष यात् भगवत पृष्ठमनुगच्छन् वस्त्र दिया हो तो प्रमाण खोजा जाय ? अन्यथा यही ठीक दक्षिणवाचालासन्नसुवर्णवालुकानदीतटस्पतरुकण्ट के विलग्न समझा जायगा कि-अचेलक का अर्थ सर्वथा निर्वस्त्र-नग्नदेवदूष्याचं अग्रहीत् ।' -कल्पसूत्र, कल्पलता पृ० १३३ दिगम्बर है और महावीर अचेलक निर्वस्त्र, दिगम्बर थे उक्त अशो से स्पष्ट है कि भ. महावीर साधिकमास और उनके समय भी दिगम्वर-मत था। जरा, कल्पसूत्र के वर्ष पर्यन्त चीवरधारी (सचेल) रहे और बाद मे आजीवन 'चीवरधारी' शब्द के मुकाबले में उसके विपरीत शब्द अचेल-(निर्वस्त्र) दिगम्बर रहे। उन्होंने आधादेवदूष्य 'अचेलक' को भी गहराई से सोचिए कि-क्यों 'अचेलक' सोमनामा ब्राह्मण को दे दिया और आधा कांटो मे उलझ की जगह 'चीवर रहित नही कहा गया ? जबकि महावीर कर रह गया, जिसे ब्राह्मण ने उठा लिया। ऐसे में जब सर्वथा ही चीवर रहित हो गए थे। हमारी दृष्टि तो ऐसी महावीर स्वयं दिगम्बर थे, तब दिगम्बर मत को उनके है कि 'अचेलक' शब्द का जानबूझ कर प्रयोग किया गया, ६०६ वर्ष बाद से चला बतलाना स्व-वचन वाघिन ही जिससे 'अ' को भ्रामक अर्थ - ईषत् में लेकर, भद्रबाहु है-जैसे कोई पुत्र अपनी माता को वन्ध्या कह रहा हो। स्वामी के समय में प्रादुर्भूतश्वेताम्बर मत को पुरातन सिद्ध ऐसे में सोचना चाहिए कि लोग मनगढन्त कहानियों के किया सा सके। सभी जानते हैं कि 'अ' का प्रयोग सदा आधार पर एक दूसरे पर कब तक कीचड़ उछालते रहेंगे? ही 'नहीं' 'सर्वथा अभाव' के लिए होता आया है । अस्तु, श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र ने तो दिगम्वरत्व को खुलकर जो भी हो, हमे समाज में औरों की भांति, एकता के पुष्टि की है। उन्होंने तो कटि-सूत्र मात्र रखने वाले तक प्रदर्शन कर, एकता के नाम पर सम्प्रदायों मे काटे बोना को भी नपुंसक तक कह दिया है । तथाहि इष्ट नहीं। हम चाहते हैं कोई, कहीं भी, किसी प्रकार 'कीवो न कुणइ लोयं लज्जइ पडियाइ जलमुवणेई। कीचड न उछाले--जो जिस मान्यता में है उसी में रहे। सो वाहणो य हिंडइ बंधइ कटि पट्टयमकज्जे ॥' हम ऐसी एकता से बाज आए। आचार्य धर्मसागर महाराज -सबोध प्रकरण, पृ० १४ -वे केशलोच नहीं करते, प्रतिमावहन करते शरमाते ने एक बार कहा था-'दोनो के तमो हो सकते है जब है शरीर पर का मैल उतारते हैं, पादुक एं पहिनकर फिरते दाना नग्न हा जाय या दाना कपड़ पाहन ल। पोर ऐसा है और बिना कारण कटिवस्त्र बाधते हैं : वेनीव । हो नहीं सकता।' फलत. सब अपने में बने रहें-कोई :-जन सा० और इति• पृ० ३५० शान्ति रूपी अमृत में अशान्ति का विष न घोलें। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ eate ४० /१ से जागे- ( चिन्तन के लिए) 'सिद्धा ण जीवा'जीवा' - धवला गतांकों में हम घवला की उक्त मान्यता की पुष्टि आगम के जिन विभिन्न प्रमागो और तर्कों द्वारा कर चुके हैं उनमें एक सकेत यह भी है कि सिद्धो मे जीव का लक्षण उपयोग नही पाया जाता। क्योंकि शास्त्रों में उपयोग के जो विभिन्न लक्षण मिलते है वे सभी लक्षण कर्म की अयोपराम दशा में ही उपयोग की सत्ता की पुष्टि में हैं और आचायों का यह कथन युक्तिसंगत भी है क्योंकि उपयोग संसारी आत्मा का लगाव-रूप एक ऐसा परिणाम है जो अपूर्णदर्शन-ज्ञान यानी क्षयोपशम अवस्था मे ही संभव है । यतयोपशम अवस्था ज्ञानदर्शन चैत परिणाम ) ( चैतन्य की अस्पता की सूचक है और अल्पता ही जिज्ञासा में कारण है और जिज्ञासा ही किसी परिणाम के उत्पन्न होने या परिणाम के परिणामान्तरश्व में कारण है। जिनके घातिया कर्मों का क्षय हो चुका हो, उनमे सर्वज्ञता के कारण समस्त तस्वों की त्रिकाली समस्तपर्यायें प्रकट होने से न तो किसी परिणाम के पैदा होने का प्रसन है और ना ही परिणामांतरश्व का कोई कारण है। मानी हुई और अनुभूत बात है कि कोई भी परिणाम किसी जिज्ञासा (अपूर्णता ) के पूर्ण करने के प्रसंग मे ही जन्म लेता है और सिद्धों में पूर्णज्ञान के कारण किसी जिज्ञासा की सभावना नही रह जाती, जिससे उनके उपयोग-परिणाम हो सके। कहा भी है- ' संसारिणः प्राधान्येनोपयोगिनः, मुक्तेषु तद्भावात् ।' - राजवा० २|१०|४ उपयोग शब्द : अब जरा उपयोग शब्द की व्युत्पत्ति पर भी पान दीजिए— उपयोग शब्द उप उपसर्गपूर्वक जोड़ना-ना अर्थ वा 'जियो' धातु से निष्पन्न है वाले और इसकी व्युत्पत्ति है - 'उपयोजनमुपयोगः, उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेद प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः, कर्मणिघा ।' अभि० रा० पृ० ८५६, अर्थात् जिस कारण जीव वस्तु के परिच्छेद के प्रति व्यापार करता है, या वस्तु के प्रति जुड़ता है बहु उपयोग है। ले० पद्मचंद्र शास्त्री, नई दिल्ली विचार करें कि क्या अनंतज्ञाता सिद्ध भगवान किसी विषय (वस्तु) के परिच्छेद हेतु वस्तु मे अपने ज्ञान दर्शन की अभिमुखता, समीपता या जोडरूपता जैसा कोई व्यापार करते या कर भी सकते है या नही ? जब कि समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायें उनके ज्ञान में स्वतः ही स्पष्ट है । ऐसे मे वस्तु परिच्छेद की बात ही पैदा नहीं होती तत्वदृष्टि । से भी अनन्त ज्ञाता सिद्ध भगवान विषय की ओर स्वयं अभिमुख नहीं होते, अपने शान को स्वयं उससे नहीं जोड़ते, अपितु पदार्थ स्वयं ही उनके दर्पणवत् निर्मल अनतज्ञान में झलकते हैं। ऐसे मे पदार्थों के स्वयमेव ज्ञान में झलकने रूप पदार्थों की प्रक्रिया को, पदार्थों के प्रति सिद्धों का उपयोग जुडाव या लगान कैसे और क्यों कहा या माना जा सकेगा ? अर्थात् नही माना जा सकेगा। फिर जब सिद्धी मे उपयोग परिणाम की उत्पत्ति में कारणभूत ज्ञान-दर्शन को न्यूना क्षयोपशम जैसी कोई बात ही नहीं ना तो क्षयोपशम अवस्था में ही होती है, और । न्यूनना उपयोग, न्यूनता की स्थिति मे ही होता है। फलत ऐसा ही सिद्ध होता है कि अनन्त दर्शन-ज्ञानमयी अशरीरी अवस्था मोक्ष में उपयोग को कोई स्थान नहीं वास्तव में तो क्षायिक दर्शन और ज्ञान ये दोनों पूर्ण ज्ञान दर्शन - उपयोग नहीं है। — उपयोग के भेदों से ससारियों को लक्ष्य कर जो केवसदन और केवलज्ञान को उपयोग कहा है वह भी व्यवहार है और वह अरहंतों में भी मात्र उनके जीव-संज्ञक होने की दृष्टि से ही है-मोक्ष या सिद्ध दशा को दृष्टि से नहीं है। कहा भी है- 'मुक्तेषु तदभावात् गोगः क -राजवा० २०१००५ यहाँ मुक्त से अरहंतो का ग्रहण करना चाहिए वे जीव हैं और जीव के 'संसारिणो मुक्ताश्च' जैसे भेदों में आते हैं और वे आयु आदि औदयिक प्राणो से जीवित हैं और उनका चेतन, घातिया कर्मों से मुक्त हो चुका है। सिद्ध दशा तो मुक्त होने के बाद, - Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वर्ष ४०, कि०३ अनेकान्त अशरीरी होने-संसार छूटने के बाद की मोक्ष रूप निर्मल कहीं भी उपयोग होने में क्षयोपशम की भांति, आवरण-क्षय अवस्था मात्र है। कहा भी है-'प्रवस्थान्तरं मोक्ष इति ।' के निमित्त होने का मूल-स्पष्ट उल्लेख किया गया हो । यद्यपि वास्तव में केवलज्ञानी अरहंतों में भी ज्ञान तो उसे विचार श्रेणी में लाया जा सकता है। फिर हमें की अनन्तता होने से उनमें उपयोग को स्थान नही-गोण मान्य प्राचार्य अमृतचन्द्र की इस बात का ध्यान भी रखना होल्पित है- 'गौणः कल्प्यते।'-उनके मन भी नही होगा कि उन्होंने उपयोग को पर-द्रव्य के संयोग का कारण है, फिर भी ज्ञान उनकी दिव्य ध्वनि' में कारणभूत है और और आत्मा का अशुद्ध परिणाम बतलाया है, जिसकी दिव्यध्वनि ज्ञान का कार्य है इसलिए उनमे उपयोग कल्पित सिद्धों में सभावना नही। तथाहि-'उपयोगो हि आत्मनो किया जाता है। इस विषय को धवला में शका समाधान- पर द्रव्य सयोगकारणमशुद्धः।-प्रव० सा० टीका २१६४. पूर्वक स्पष्ट किया गया है कि दिव्य ध्वनि ज्ञान का कार्य इस भौति उपयोग अशुद्ध और विकारी दशा का सचक है। वहां उल्लेख है ___ होने से सिद्धों में नहीं, इसलिए "सिद्धा ण जीवा' कथन 'तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य वचसोऽपि न संत्त्वमिति; सर्वथा उचित है। चेन्न; तस्य ज्ञानकार्यत्वात् ।'-धवला १।१।१२२ पृ. ३६८ प्राण और चेतना: शंका-अरहंत परमेष्ठी मे मन का अभाव होने पर मन हम यह तो स्पष्ट कर ही चुके हैं कि प्राण और के कार्य रूप बचन का सद्भाव भी नहीं पाया जा चेतना का सम-काल अस्तित्व होना जीव तत्त्व का परिचायक सकता है? है। प्रमाण-दृष्टि से जीव मे सम-काल मे प्राण और चेतना समाधान-नहीं, क्योंकि वचन ज्ञान के कार्य हैं, मन के दोनों ही होने चाहिए और हैं। श्री वीरसेनाचार्य साधारण नहीं। आचार्य नही थे उन्होने वास्तविकता को पहिचानकर ही -केवलज्ञानोपयोग के संबंध में एक बात और है जो जीव-संज्ञा में कारणभूत जीवत्व को औदयिक और नश्वर उभर कर समक्ष पाती है। सर्वार्थसिद्धि हिन्दी टीका मे माता और चेतन सिद्धांत-शास्त्री पं० फलचद जी ने अध्याय १ के सूत्र ६ को रख 'सिद्धा ण जीवा' जैसी घोषणा की। टीका में स्पष्ट लिखा है कि 'मूलज्ञान में कोई भेद नहीं है, विचारना यह भी होगा कि प्राण और चेतना इन पर, प्रावरण के भेद से वह पांच भागों में विभक्त है। दोनों में मुख्य कौन है? चेतना के अस्तित्व मे प्राण है या ज्ञानपीठ संस्करण १९४८, पचाध्यायी में इसी बात को प्राणों के अस्तित्व से चेतना? हमारी दृष्टि से तो आचार्य स्पष्ट रूप में घोषित किया है---'क्षयोपश मिकज्ञानमुपयोगः मान्यतानुसार प्राण कर्माधीन औदयिक और नश्वर भाव स उच्यते ।'-२१८८० है और चंतन स्थायी है । और आचार्य की दृष्टि मे जीवत्व पंडित जी जैन सिद्धान्त के ख्यातनामा निष्णात विद्वान् और जीव-संज्ञा औदायक प्राणों पर आधारित हैं। ऐसे में हैं। उनके उक्त कथन से स्पष्ट है और सन्देह को गुजायश स्थायी भाव चैतन्य नाम को तिरस्कृत कर ओदयिक भावनहीं रह जाती। इसके अनुसार जहाँ आवरण-भेद होता है, जन्य नश्वर जीव-जीवत्व नाम को प्रधानता देना और वहीं ज्ञान मे भेदरूप-मतिज्ञानादि व्यवहार होता है और जीवत्व जैसे औदयिक भाव को चेतन का पारिणामिक भाव आवरणक्षय की अवस्था में नही । एतावता ज्ञानावरणरहित कहना, कैसे संभव है यह सोचने की बात है ? फलतः आचार्य अवस्था-पूर्णज्ञान मे भेदजन्य केवलज्ञानादि जैसा नाम के कथन 'चेयणगुणमवलम्व्य परूविदमिदि' के परिप्रेक्ष्य में भी क्यों होगा और उक्त नाम के अभाव में कथित- तो हम 'सिद्धा ण जीवा' के ही पक्ष में हैं । हमारी बुद्धि में तो समता जीता। केवल ज्ञानाधित उपयोग भी क्यो होगा? फिर जब सर्वत्र लोगों का यह कथन भी सही नहीं बैठता कि- आचार्य ने लक्षणों मे उपयोग को क्षयोपशम की निमित्तता ही स्वीकार सिद्धा ण जीवा' कथन जीवस्व के औदयिक भावाश्रितापेक्षा की गई है तब आवरणक्षयावस्था के ज्ञान-केवलज्ञान की में किया है और पारिणामिकभावापेक्षया जीवत्व का गणना उपयोगों में क्यों होगी? यदि आचार्यों द्वारा निषेध नहीं किया। क्योंकि यदि उन्हें आत्मा के प्रति Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सिद्धा न जीवा वसा 1 जीवश्व-भाव का कथंचित् भी पारिणामिकपना स्वीकृत होता तो वे 'चेपणगुणमबलम्व्य' के स्थान पर अवश्य हो 'पारिणामिकभावमलम्य जीवत्वं परूनि मिदि' जैसा कथन करते और जीवश्व का ऐसा निरादर न करते फिर जब जैसा कि लोग समझ रहे हैं वैसा-यदि आचार्य को जोवश्व में व्याप्त चेतन मे औौदधिक ओर पारिणामिक दोनों भाव स्वीकार्य होते, तब वे सिद्धों मे जीवत्व के सर्वया अभाव का स्पष्ट उल्लेख न करते । जब कि एक भाँति भी सिद्धो मे जीवत्व होने पर भी उसका सर्वथा निषेध करना न्याय्य नही कहा जा सकता । मालूम होता है कि वास्तविकता यही है किऔदयिक भावरूप जीवत्व सिद्धों में है नहीं और आत्मप्रति पारिणानिक-भाव में जीवत्व को स्थान नहीउसे तो सदा से वेतन ग्रहण किए बैठा है। जीवा हि महज चेतन्यलक्षणपारिणामिकभावेनानादिनिधना ।' पंचास्ति० टोका ५३ । इसीलिए आचार्य ने नश्वर औदयिक जीवत्व को सर्वथा तिरस्कृत कर वेदणगुण को प्रधानता दे कथन किया है और दो टूक बात कह दी है- 'सिद्धाण जीवा ।' आचार्य ने यह तो वही कहा नहीं कि हम जीवस्व को कथंचित् पारिणामिक भी मानते है और प्रसंग मे हमने मौदयिक भावरूप जीवत्व मात्र का निषेध किया है ? इसके विपरीत उन्होंने इस भाव को ही स्पस्ट किया है कि उमास्वामी ने चेतन गुण के आधार से प्ररूपणा की है। इसमे उनका भाव है कि जीव में एक काल मे पारिणामिकरूप चेतनत्य और ओविकरूप जीवश्व दोनो भाव है और उमास्वामी ने चेतन गुणरूपपारिणामिक भाव को प्रधानकर प्ररूपणा की है और सर्वथा प्राणाधार पर आश्रित जो जो पारिणामिक नहीं है) को सर्वया सर्वचा छोट जोवत्व दिया है। वीरसेन स्वामी जी ने इसी भाव में 'पारिणामिकmraateese refer' न लिख 'चेवणगुणमवलम्ब्य परुविद' परूवित्रमिदि' जैसा वाक्य लिखा है और उमास्वामी ने भी 'मोक्षप्राप्त आत्मा मे शेष गुणों मे जीवत्व की जगह 'सिद्धत्व' शब्द दिया है-अम्बत्र केवल सम्यक्त्व ज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः ।' यदि आचार्य को 'जावत्व' कथमपि चेतन के पारि खामिक रूप में स्वीकृत होता तब जहाँ उन्होंने 'सिद्धाणं वि जीवतं किष्ण इच्छिदे प्रश्न का उत्तर- ( मन मे २७ - ऐसा भाव रखकर कि 'यदि उपचार से भी सिद्धों में जीवत्व मान लिया जाय तो क्या हानि है?' ) 'उबया रस्स सच्चत्ताभावादो' रूपकथन द्वारा दिया, वहां वे 'सिद्धाणं वि जीवत किष्ण इच्छिदे' का सीधा उत्तर सहा जीवतस्साभावो ण, पारिणामियजीवत्तं तु तत्थ अत्थि एव रूप मे भी दे सकते थे। इससे लोगों का यह कथन भी फलित हो जाता कि आचार्य और्वाधिक और पारिणामिक दो प्रकार का जीवत्व मानते है और वे प्रसंग मे पारिनामिक रूप जीवत्व की सत्ता मान रहे हैं। पर, स्पष्ट ऐसा होता है कि उन्हें सिद्धों में जीवत्व किसी भी भांति स्वीकार्य नहीं और इसीलिए वे सिद्धों मे जीवत्व के उपचार (करने मात्र) का भी निषेध कर रहे है-उपचार को ठीक नहीं मान रहे- 'उवया रस्स सच्चताभावादो ।'उक्त तथ्य तब और खुलकर सामने आ जाता है जब आचार्य यह स्पष्ट कह देते हैं कि जीविंद गुम्बा इदि -- सिद्ध पूर्व मे जीवित थे । क्या, इसका यह स्पष्ट भाव नही कि सिद्ध अवस्था मे वे किसी भांति भी जीवित नही कहे जा सकते - वे सिद्ध होने से पूर्व जीवित थे - उनमें जीवत्व था । यदि वास्तव में आचार्य को (लोगो की धारणा की भांति ) सिद्धों में किसी भांति भी जीवत्व स्वीकृत होता तो वे 'जीविदपुव्वा' न कहकर ऐसा ही उल्लेख करते कि वे पहिले औदविकरूप जीवत्व में जीवित थे और सिद्ध अवस्था में पारिणामिक रूप जीवत्व में जीवित हैं। पर, ऐसा कुछ न कह उन्होंने सिद्धों में जीवत्व का सर्वथा ही निषेध कर इस मान्यता को स्पष्ट रूप में उजागर कर दिया कि सिद्धो मे जीवत्व किसी भांति भी नहीं है और जीवन में पारिणामिकपने का व्यवहार भी ससारावस्था तक कहलाता है और बाद मे उसका स्थान चेतन -- का शुद्धरूप 'सिद्धत्व' ले लेता है। फल :: 'सिद्धा ण जीवा' । उपयोग स्वभाव : तस्वार्थसूत्र के कर्ता श्री उमास्वामी आचार्य ने जब जीव का लक्षण उपयोग किया तब एक बार फिर उन्होंने अन्य द्रव्यों की स्वाभाविक परिणति किस रूप में होती है इसका भी खुलासा वर्णन किया है और वह परिणति (जिसे उपग्रह नाम से कहा है) हर द्रव्य का अवश्यंभावी स्वभाव है— जीव में भी सदाकाल होनी चाहिए। तथाहि 'गति स्थित्युपग्रहो धर्माधर्मोपकारः । । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८, वर्ष ४०, कि०३ अनेकान्त काशस्थावगाहः । शरीरवाइमनः प्राणापानापुद्गलानां। विपरीत तत्व को समझाने के लिए 'अजीव कायाधर्माधर्मा. सुखजीवित मरणोपग्रहाश्च । बर्तनापरिणामक्रिया परत्वा- काशपुद्गला:' सूत्र रचा, तब उन्हें उक्त निर्दिष्ट अजीव परत्वे च कालस्य और परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।'- शब्द से विपरीत (उस जोड़ी का) शब्द देना भी जरूरी हो गति में सहायक होना धर्म द्रव्य का, स्थिति मे गया और इसीलिए उन्होने 'जीवाश्च' सूत्र की रचना की। सहायक होना अधर्म द्रव्य का, स्थान देना आकाश द्रव्य का, और प्रारम्भिक आचार्यों की दृष्टि भी यही रही-सब ही शरीर-वचन-मन-प्राणापान-सुख-दुःख-जीवन-मरण पुद्गल ने अशुद्ध को समझाने के लिए उसी के माध्यम से कथन द्रव्य का, वर्तना-परिणमन क्रिया-परत्व-अपरत्व जैसा बर्तन किया। यदि प्रथम सूत्र में वे 'अचेतन कायाः' जैसा सूत्र काल का और परस्पर में एक दूसरे का उपकार करना कहते तो 'जीवाश्च' की जगह 'चेतनाश्च' भी कह देते। जीव द्रव्य का स्वभाव कार्य है। आशय ऐसा कि उक्त पर चेतन कहते कैसे ? और किसको? जब कि उपदेश-पात्र द्रव्यों मे यदि निश्चित अपने-अपने कार्य-(उपकार) रूप की वर्तमान अवस्था अशुद्धमात्र हो और उस काल परिणमन नही होगे तो वे द्रव्य तन्नामद्रव्य नही कहलाएंगे। चेतनत्त्व पर उसकी पकड़ ही न हो। यत:-जब जीव की ऐसे में सोचना होगा कि सिद्ध भगवान अन्य सिद्ध भगवानो पकड़ जीवत्व (प्राणधारणत्त्व) मात्र तक सीमित हो तब के लिए या अन्य किसी के उपकार के लिए स्वयं क्या वह शुद्धचेतनत्त्व (स्वभावी दशा) को कहाँ, कैसे पकड़ करते-कराते हैंअथवा कैसे करते-कराते है? यदि ऐसे किसी सकता था और अशुद्ध चेतन को चेतन जैसे शुद्ध सवोधन से उपकार आदान-प्रदान की उनमे सभावना बनती हो तब संबोधित भी कैसे किया जा सकता था! तो वे जीव हैं-कृत्कृत्य और सिद्ध नहीं और यदि उक्त सूत्र में प्रादि शब्द :-अभी तो हम 'औपशमिकादि सभावना नही बनती हो तो वे सिद्ध है-जीव नही। भव्यत्वाना च' के भाव को ही नहीं पकड़ पा रहे है । जहा जीवाश्च का व्याल्यान-एक प्रश्न यह भी उभर कर आचार्य ने कर्मक्षय के बाद की आत्मअवस्था का वर्णन सामने आता है कि यदि जीव नाम आत्मा (चेतनगुण) की करते हुए बतलाया कि उस अवस्था मे औपशमिक आदि अशुद्ध अवस्था का है और जीवत्व नष्ट हो जाता है तो भाव भी नही रहते-वहा उनका भाव समस्त पाँचो भावो आचार्य ने 'जीवाश्च' सूत्र क्यों कहा है और जीव की गणना के अभाव होने से है और इसे सूत्र मे 'आदि' शब्द देकर द्रव्यो में क्यो की? क्या द्रव्य का भी कभी लोप होता है? उन्होने स्पष्ट भी कर दिया है। सूत्र में यह तो कहा नही प्रश्न बड़े मार्के का और तर्क सगत है। हा, द्रव्य का कि आदि शब्द मे पारिणामिक का ग्रहण छोड़ दिया गया कभी लोप नहीं होता। यह बात वीरसेन स्वामी के समक्ष है। 'आदि' शब्द मे तो सभी पांचो भावो का ग्रहण न्याय्य भी रही और इस बात को उमारवामी भी जानते रहे। ठहरता है। फलतः-हमारी दृष्टि से सूत्र मे 'भव्यत्वाना दोनो ने ही शुद्ध मूल-द्रव्य का लाप नहीं किया। उमास्वामी च' का ग्रहण (जैसा कि माना जा रहा दे-) पारिणामिक ने जीव के चेतनत्व को "सिद्धत्व' (शुद्ध चेतन) रूप मे भावो मे से भव्यत्व । नाश होता है और जीवत्व शेष स्वीकृत किया-(अन्यत्र केवल सम्यक्त्व ज्ञान-दर्शन- रहता है' यह बताने के लिए नही मालुम हाता अपितु वह सिद्धत्वेभ्यः) और वीरसेन स्वामी ने चेतन रूप में स्वीकृत इस शका के निवारण के लिए मालम होता है कि कोई यह किया-'चेदणगुणमवलम्व्यपरूविदमिदि ।'-दोनो मान्य- न समझ ले कि-पारिणामिक भाव हाने से भव्यत्व मोक्ष ताओ मे भेद नहीं है। मे रहता होगा। आचार्य का भाव ऐसा रहा है कि भव्यत्व ध्यान रहे कि तत्त्वार्थसूत्र और सभी शास्त्र मोक्षमार्ग भाव जीव का है शुद्ध आस्मा का नही और वह भाव भी के अभिलाषो अशुद्धात्माओ (जिन्हे हम जीव कहते है) जीवत्व की भाति छूट जाता है। क्यो कि-ये बात उमाको बोध देने की दृष्टि से ही रचे गए हैं और उन्ही के स्वामी महाराज के ज्ञान से भी अछूती नही थी कि सवोधन में हैं। आचार्य ने जब 'अवुधस्यवोधनार्थ ससारियो जीवत्वभाव की भांति भव्यत्व भी औदायक है। इस बात की वर्तमान अवस्था जीवपने को लक्ष्य कर उन्हें, उनके को वीरसेन स्वामी ने तो स्पष्ट रूप मे खोलकर सामने ही Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सिवानजीबा-बक्सा रख दिया। वे बलवान आचार्य थे और 'उत्तरोत्तर कमीयः' सभी अचार्य मान्य है। प्रस्तुतप्र संग तो वीरसेन स्वामी के की श्रेणी मे भी थे। वे कहते हैं मन्तव्य की पुष्टि मात्र का है-किसी के विरोध का नही। 'प्रघाईकम्मच उक्कोदय जणिदमसिद्धत्तं णाम । तं दुविह- म :-जब हम जीव में बतलाए गए पांचों तत्य जेसिमसिद्धत्तमणादि-अपज्जवसिदं ते अभन्वाणाम। मावो संबंधी सूत्र औपशमिक क्षायिको भावो मिश्रश्च जेसिमवरं ते भव्वजीवा। तदो भध्वत्तममव्यत्तं च विवाग जीवस्य स्व-तत्त्वमौदयिकपारिणामिको च' पर विचार करते पच्चइय चेव'-धवला पुस्तक १४१५४६१६ पृष्ठ १३ हैं तो हमे इसमे 'जीवस्य स्वत्तस्वम्' शब्द से स्पष्ट निश्चय चार अघातिकर्मों के उदय से उत्पन्न हुआ असिड- हो जाता है कि उक्त पांचों भाव जीव के ही स्व-तत्त्व भाव दो प्रकार का है.......''इनमे से जिनके असिद्धभाव हैं-चेतन के स्व-तत्त्व नही है और इसीलिए जीव अनादि अनन्त है वे अभव्यजीव हैं और जिनके दूसरे प्रकार अवस्था में इनका होना अवश्यमावी है, यदि ये भाव नहीं का है वे भव्यजीव हैं। इसलिए भव्यत्व और अभव्यत्व है तो वह जीव नही है। साथ ही यह भी है कि ये पांचों ये भी विपाक (कर्मोदय) प्रत्यापक ही हैं। भाव जीव में होते हैं और शुद्धावस्था मोक्ष मे इनमे से फिर. पारिणामिक भाव को स्वभाव-भाव माने जाने कोई भी भाव नही हैं-वहां कौके सय-क्षयोपशम आदि का जो चलन है, वह कर्मापेक्षी न होने के भावमात्र मे है* जैसी विवक्षा को भी स्थान नही है। स्मरण रहे कि और अशुद्ध चेतन (जीव) के ही भाव में है-चेतन के वस्तु के शुद्ध स्वरूप मे-जो कपन मे न आ सके और सदाकाल रहने वाले (ज्ञानादि की भांति) स्वभाव-भाव में केवल अनुभव का विषय हो, उसमे विवक्षा कोई स्थान नहीं है। यदि पारिणामिक भाव का भाव सदा काल भावी नही रखती. अस्त । चेतन का स्वभाव होता तो पारिणामिक होन से भव्यत्व फिर, यह भी विचारना होगा कि स्व और तत्त्व जैसे भी कभी नही छूटना चाहिए था जो कि छूट जाता है। दो शब्दों की सूत्र में क्या आवश्यकता थी, सूत्र में केवल भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि आचार्यों को सिद्धा- 'स्व' देने से ही निर्वाह हो सकता था। पर आचार्य ने वस्था मे जीवत्व इष्ट होता तो वे 'ओपमिकादि 'तत्त्वम' जोडकर यह स्पष्ट कर दिया है कि-'तस्य भव्यत्वानां च सूत्र के स्थान पर 'औपशमिकादयश्च जीवत्व भावस्तत्त्वम्'-य-पदार्थः यथा अवस्थितस्तस्य सर्थव वर्य' सूत्र जैसा कथन करके वहां जीवत्व के अस्तित्व की भवनम ।-जो जिस रूप मे स्थित है उसका उसी रूप में स्पष्ट घोषणा करते। पर उन्होंने ऐसा कुछ न कह कर होना तत्त्व है। उक्त स्थिति में जीव के पांचों भाव सत्र मे 'आदि' शब्द से सभी भावो के अस्तित्व का निषेष जीव के स्व-तत्व है और जीव मे ही होते हैं, शुद्ध ही किया है और जीव के पारिणामिकभाव भव्यत्व का भी चेतन मे नही । फलत:-यदि इन भावों से जीव का निषेध (भ्रमनिवरणार्थ ही-जैसा हम ऊपर लिख चुके है) छटना स्वीकार किया जाता है तो वह जीव ही नहीं किया है। ऐसी स्थिति मे यह विचारणीय आवश्यक हो ठहरता-जिसे हम चेतन कह रहे हैं उस शुद्ध रूप में आ गया है कि उक्त 'आदि' शब्द की परिधि से पारिणामिक जाता है। इसीलिए कहा है-'सिद्धा ण जीवा' चेयणभाव को वजित रखना क्यो और किस भाव में लिया जाने गुणमबलम्व्यपरुविदमिदि।' लगा? जबकि 'पादि' शब्द सदा ही अशेष के ग्रहण का हमें श्री वीसेनाचार्य वैसे ही प्रमाण हैं जैसे कुन्दकुन्द मचक रहा है? निवेदन है कि दि प्राचार्य उमास्वामी को प्रमति अन्य अचार्य। हम सभी को मान देकर तस्व-चिंतन उक्त भाव मान्य रहा तो उन्होंने सर्व सन्देहो को दूर करने कर रहे हैं-यदि किन्ही को चिंतन मात्र ही असह्य हो और निश्चित स्थिति को स्पष्ट करने वाला 'औपशमिकाद- और वे सम्यग्दृष्टि के लिए निर्धारित 'तत्त्व-कुतत्त्व पिछाने' यश्चत्वारः भध्यत्वं च' जैसा सूत्र ही क्यो नही बना दिया? का अनुसरण न करें-तो हम क्या करें, हम तो विचार के इस दृष्टि को भी ऊहापोह द्वारा समझा जाय । यतः-हमें लिए ही कह सकते हैं। (क्रमशः) * यद्यप्येतदशुद्धपारिणामिक त्रयं व्यवहारेण संसारि जीवेऽस्ति तथा सव्वे सुद्धा ह सुबणया इतिवचनाच्वनिश्चयेन मास्तित्रयं, मुक्तजीवे पुनः सर्वथैव नास्ति.टी. १३३३११ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा सोचिए ! १. निर्दोष मुनिश्व का उपक्रम परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्ति सागर जी महाराज सच्चे मुनि थे और उनकी साधना खरी थी, वे परीषहों के सहन में सक्षम थे उन्हें यह भी लगन पी कि मुनि मार्ग की धारा अविच्छिन्न बनी रहे और निर्मल रहे। वे मुनियों की बढ़वारी और स्वच्छशासन के पक्ष पाती थे । फलतः - वे साधुचर्या में क्षुल्लक तक को भो सवारी डोली आदि का निषेध करते थे और सस्याओ के रखरखाव, चन्दा, चिट्ठा यादि आडम्बर जुटाने के भी सख्त खिलाफ थे । पर आज वे बातें नहीं रही । आज कई दिगम्बर साधुओ में आचार के प्रति व्याप्त शिथिलता को लक्ष्य कर चिता व्याप्न थी कि किस प्रकार मुनि मार्ग निर्दोष रह सकेगा ? क्योकि साधु-पद सर्वथा 'यम' रूप होता है, जो एक बार ग्रहण कर छोड़ा नही जा सकता - जीवन भर उसका निर्वाह होना चाहिए * । ऐसे में हमारी दृष्टि भी उधर न जा सकी कि किस प्रकार मुनि अपने पद का त्याग कर सकता है ? अब 'तीर्थंकर' पत्रिका के माध्यम से दीक्षा-त्याग के नीचे लिखे तथ्य समक्ष आए हैं " साधु पद छोड़ने की व्यवस्था भी हमारे यहाँ है । तीन अवस्थाएं है किसी ने दीक्षा ली और वह कुमार है, बाल ब्रह्मचारी है तो तीन प्रावधान हमारे सविधान मे हैं—पहला यह कि यदि उससे परीषह सहन नही होते हैं। तो वह गुरु आज्ञा लेकर घर जा सकता है यानी पद छोड़ कर परिवार में लौट सकता है; दूसरे, माता-पिता के इस आग्रह पर कि उसकी परिवार के लिए जरूरत है, आचार्य उसे पद त्याग की अनुमति दे सकता है; और तीसरे यह कि यदि देश के लिए उसकी आवश्यकता है तो राजाज्ञा से राजा भी उसे पद छुड़वा कर ले जा सकता है; परन्तु ध्यान रहे ये तीनों स्थितियाँ कुमारावस्था में दीक्षितों के ● 'यावज्जीव यमो प्रियते - रत्नक० ३-४१; यावज्जीवं यमो शेयः उपा० ७६१; घर्मसं० श्रा० ७ - १६; यथा यावज्जीवनं प्रतिपालनम्। देवाद् पोरोपसर्गेऽपि दुःखे वा मरणावधि - लाटीसं० ५ १५१ । -- लिए ही बनती है।" शंकर वर्ष १७, अंक ३-४, पृ० २१-२२ यदि यह सच है और उक्त प्रावधान दीक्षा-त्याग में आगम सम्मत है तो इनमें दूसरे तीसरे प्रकार के अवसर विरले ही मिले हो, परीसह न सह सकने के अवसर अधिक दृष्टिगोचर होते है। प्रायः अधिकांश मुनि परीषह सहने से जी चुराते हैं और वचने के लिए भांति भांति के बहानों से बाडम्बर जुटाते देखे जाते है । ऐसे कुमार ( अविवाहित) मुनियों को सोचना चाहिए कि वे जन-मार्ग को दूषित करें या आचार्य के आदेश से दीक्षा छोड़ दें ? हमारी दृष्टि से तो उनको पद छोड़ देना ही अच्छा होगा । ऐसे मुनियों को यह प्रावधान भी देख लेना चाहिए कि जिनको गुरु उपलब्ध न हों वे किसकी आज्ञा लेकर पद छोड़ेंगे? इसके सिवाय कोई प्रावधान उनके विषय मे भी देखना चाहिए जो कुमार नहीं है क्योकि परीषद् न सह सकने की कायरता बहुत से अकुमार साधुओं में भी देखी जाती है। यदि उक्त विधि कारगर हुई तो हम अवश्य समझेंगे कि पूज्य आचार्य शान्ति सागर जी ने मुनि मार्ग की जिस परम्परा का पुनः सूत्रपात किया, उस परम्परा के संरक्षण में यह बडा ठोस कार्य होगा और मिथिलापारियों की छंटनी हो जायगी और इसकी बधाई 'तीयंकर' को जायगी। हो, उक्त प्रावधान के आगम प्रमाण अवश्य प्राप्त कर लिए जाँय और उन्हें उजागर किया जाय । हमने आगम में ऐसा नहीं देखा। . हमारी दृष्टि से जैनियों में दो प्रकार के व्रतों का विधान है - एक 'नियम' रूप और दूसरे 'यम' रूप । जो व्रत 'नियम' रूप होते हैं, वे काल मर्यादा में बंधे होते है और समय पूरा होने पर स्वयं छूट जाते हैं। यदि व्रती चाहे तो उन्हें कुछ काल के बन्धन में पुनः धारण कर यमस्तत्र Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है। पर, मुनि का पद 'यम' रूप होता है जो एक नहीं आ सकते। यही कारण है कि अद्यावधि दि० मुनिबार धारण कर छोड़ा नहीं जा सकता-जीवन भर रूप क्वचित्-क्वचित् हमारी दृष्टि में माता रहा है । यदि उसका निर्वाह करना पड़ता है। जैसे-'ब्रह्मगुलाल' ने शिथिलता के निवारण के प्रति हमारी जागरुकता हो तो राजा के आदेश से स्वांग दिखाने हेतु मूनि का वे मुनिधर्म व वेष आज भी निर्मल बना रह सकता है। धारण कर लिया। स्वांग के बाद जब उन्हें राजा ने प्राचार्य का अधिकार दीक्षा छोड़ने की अनुमति देनेकपड़े धारण करने को कहा तो 'ब्रह्मगुलाल ने स्पष्ट जवाब भ्रष्ट करने मे नही, अपितु स्थितिकरण मात्र तक सीमित दिया कि-"यह वह वेष है जो एक बार धारण कर है। जैसे कि वारिषेण मुनि ने पुष्पडाल का स्थितिकरण छोड़ा नहीं जा सकता" और वे वन को चल दिए। किया । एदि कोई मुनि अपना पद छोड़ना चाहे तो उसे कौन रोक सकता है, स्वयं छोड़ दे ताकि मुनिमार्ग शुद्ध ऐसी स्थिति में यदि कोई 'यम' रूप मुनि के व्रत को बना रहे। छोड़ने का उत्सर्ग मार्ग और वह भी गुरु आज्ञा लेकर साधुओ मे शिथिलता का कारण बताते हुए एक छोड़ने का विधान बतलाता हो तो उसे आगम-सम्मत सज्जन ने कहा-'श्रावक तो साधुओ को दोष देते हैं पर, महीं माना जा सकता, अपितु उसे पद भ्रष्टता का द्योतक सब दोष श्रावको का है- 'जैसा खाए अन्न वैसा होवे ही माना जायगा और पद-भ्रष्टता मे आचार्य के आदेश मन।' प्राय. कई श्रावक काले धन की कमाई करते हैं, मुनि लेने जैसी बात करना केवल मनस्तोष और बहाना ही भी आहार उसी धन से करते हैं और मुनियों में अन्न के होगा कि-अमुक मुनि, अमुक प्राचार्य की आज्ञा से पद प्रभाव से आचार-शिथिलता आती है। श्रावक सफेद धन भ्रष्ट हुमा आदि। हम तो समझे हैं कि कोई आचार्य से आहार बनाएं तो मुनि भी सच्चे साधक हों।' किसी की गिरावट के लिए अनुमोदना नहीं कर सकता हम इसके विपरीत सोचकर चलते है-जब साधु अपितु वह सभी का स्थितिकरण करने का अधिकार जानता हो कि इस प्रकार का अनीति से अजित दान रखता है ऐसे में यह स्पष्ट है कि वर्तमान मे जो पद मे शिथिलता उत्पन्न करता है तो वह ऐसी घोषणा क्यो स्थितमुनि परीषह सहन न कर सकने के कारण बाह्या- नही करता कि यदि मुझे न्याय-नीति की सच्ची कमाई से डम्बरों में लिप्त हों वे आचारहीन कहलाएंगे और जो कोई दान देगा तो लगा अन्यथा मेरा लम्बा अनशन दीक्षा छोड देंगे वे पदभ्रष्ट अर्थात् पलायनवादी कहलाएगेजब कि आचार्य कभी भी पथभ्रष्ट होने का समर्थन नहो . समय में गिने-चुने महनती श्रावक-चाहे वे गरीब मजदूर कर सकते। हां, परिस्थिति वश वे ऐसे मुनि को सब से मी क्यों न हों? अवश्य मिल जाएंगे-जैनियों में अभी निष्कासित कर सकते है, उसके उपकरण छीन सकते है। भी प्रामाणिक लोग हैं और धर्मश्रद्धालु भी। मुनि के उक्त भ्रष्टता में आज्ञा अपेक्षित नहीं होती। जो भ्रष्ट होना मार्ग अपनाने से काले धाधे वाले स्वय छंट जाएंगे। चाहें वे स्वय पद छोड़ सकते हैं। स्मरण रहे कि मार्ग साधु की कमजोरी से ही बिगड़ा है ? मुनिगण में व्याप्त शिथिलाचार को पोषण देने वाले पर, कहे कौन ? आज तो द्रव्य की ओर दौड़ है, उत्तम कुछ लोग यह भी कहते सुने जाते है कि क्षेत्र और काल व्यजनो के प्रहार का जोर है और कई साधुओं ने के अनुसार बदलाव स्वाभाविक है। ऐसे लोगो को सोचना संस्थाओं के भवन-निर्माण, रख-रखाव और धुंगाघार चाहिए कि वे अपनी इस बात को नग्नता के परिवेश में प्रतिष्ठा प्राप्तिके साधन जुटाने जैसे कार्य भी पकड़ रखे भी क्यों नही देखते ? यदि क्षेत्र और काल शिथिलता मे हैं-जिरमे प्रभूत धन काले धन से ही आ सकता है, एक आड़े आते है तो वर्तमान सन्दर्भ मे नग्न-वेश आड़े क्यों नम्बरी कमाई करने वाला तो इस युग मे पेट-भर रोटी नहीं आता? यत.-पाज तो अधिकाश जनता नग्नता कपड़ा कमा ले यही काफी है। को हेयको दृष्टि से ही देखती है। पर ध्यान रहे कि "साइ इतना दीजिए, जामें कुटंम समाय । धर्म अपरिवर्तनीय होता हैं -उसमें क्षेत्र और काल आहे मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय ॥" इस रूप Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२, पर्व ,जि. की भावना भी गरीब ही रख सकता है। सोचिए, हो उन्हें अतीत में अभिनन्दन ; सन्मान भेटे और जयकारे असलियत क्या है ? कहीं दो नम्बरी द्रव्य से संपादित सभी मिले हों? समाज में छात्रवत्ति फंड हैं, विधवा सहायतागतिविधियां खोखली तो न होगी, प्रभून काले धन से कोष हैं, अस्पताल अनाथालय और उदासीन जैसे निर्मित भवन मठाधीशों के मठ तो न बन जाएंगे? जरा- उदासीनाश्रम भी हैं, पर किसी ने पंडितों की वृद्ध और सोचिए ! हम तो मुनियों की बात के श्रद्धालु हैं एतावता असहायावस्था में उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन बिताने के लिए हमें ऐसी सम्भावना बन तो प्राश्चर्य नहीं । कोई सहायता फण्ड खोल रखा हो तो देखें। हाँ ऐसा तो है कि जब तक पडित काम करता रहता है तब तक समाज २. जिनवाणी का संभावित भावी रूप? उसे वेतन देता है नौकरी-ड्यूटी-चाकरी के रूप में। वर्तमान में जैसा वातावरण बन रहा है, उससे इसमें इतनी तक समझ नही कि पडित के प्रति उक्त शब्दो संभावना बढी है कि वह दिन दूर नहीं, जब जिनवाणी का के प्रयोग से घणा करे और मासिक को पुरस्कार, दक्षिणा, स्थान पंडित वाणी को मिल जायगा और पण्डित वाणी ही या आनरेरियम के नाम से पुकारे । ऐसे में कैसे होगे पडित जिनवाणी कहलाएगी। आज स्थिति ऐसी है कि लोग तैयार और क्यों करेंगे वे अपनी पीढ़ी को, अपने जैसा आचार्यों को मूलभाषा-प्राकृत, संस्कृत से दूर-पंडितों बनने के लिए प्रोत्साहित ? क्या, गुलामी करके भी भखो के भावानुकल-भाषावद्ध अनुवादों को पढ़ने के अध्यासी मरने के लिए? जरा सोचिए । बन रहे हैं और ऐसे कई अनुवादो के कारण विवाद भी ---सपादक पनप रहे हैं। एक दिन ऐसा आयेगा कि हमारे हाथ में विवाद की जड अनुवाद मात्र रह जाएंगे और मूल जिन- ३. क्या त्रिगुटा तथ्य नहीं? वाणी की संभाल कोई भी न करेगा। __"धर्म भी एक धन्धे के रूप में विकसित हो रहा है। तीर्थकरो या उनके सेवको को सुख दुख का कर्ता हर्ता ऐसे में आवश्यक है कि पडित गण जनता के समक्ष बना देने से धर्म अनेक लोगो के लिए आजीविका का मूल के साथ मूल का शब्दार्थ मात्र लिखित रूप में प्रस्तुत करें। यदि पिन्ही को व्याख्या करनी इष्ट हो तो मौखिक अच्छा साधन बन गया है। कोई गृहस्थाचार्य के रूप में ही करें-ताकि गलत रिकार्ड की संभावना से बचा जा तो कोई मन्त्र-तन्त्र वेत्ता बनकर धन बटोर रहे है। मत्रित सके। यत: व्याख्या में विपरीतता के सभावित होने से अंगूठियो. ताबीजों एव यंत्रों की बिक्री एक अच्छा धन्धा उसका होना भविष्य में जिनवाणी को ही दूषित करेगा। बन गया है। धर्म की ओट में पल रहे और तेजी से बढ़ रहे इस गोरखधन्धे का सूत्रधार एक त्रिगुटा है। ज्ञानआज स्थिति ऐसी है कि पंडित-निर्माण की परम्परा चारित्र से रहित वे नव धनाढ्य जो पैसे के बल पर खण्डित हो रही है और इसी कारण शुद्धात्मा की चर्चा तक समाज के नेता बनना चाहते हैं इसके संचालक है। धर्म में लीन अनेक अपण्डित भी अपने को पडित मान, अपनी से प्राजीविका चलाने वाले गृहस्थाचार्य और शिथिलाचारी कषायो के पोषण में लगे हैं। कई भले ही बाह्य चारित्र को त्यागी-व्रती इनके सहयोगी है। तीन वर्ग एक दूसरे के पाल रहे हों तो भी क्या ? कइयों का अन्तरंग तो मला ही हितो का पृष्ठ पोषण करते हुए समाज को अंधेरे में धकेल देखा गया है -कषायों का पुंज।। आज की आवश्यकता है पल्लवग्राहिपाण्डित्यं के स्थान जब कोई कार्य आजीविका या प्रतिष्ठा का साधन पर मूलभाषादि, सैद्धान्तिक ठोस पण्डितों की-जिनको बन जाता है तो व्यक्ति उसे हर कीमत पर बचाने का ओर से समाज ने आंखें मूंद रखी हैं। आज परिपक्व प्रयास करता है। यह त्रिगुटा वर्तमान में ऐसा ही कुछ पंडितो तक की बीमारी और बुढ़ापे में भी दुर्दशा है-भले कर रहा है। धार्मिक पत्र-पत्रिकाएँ जिन्हें अहिंसा, प्रेम, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परा-सोचिए ३. सदाचारका सन्देश वाहक होना चाहिए। समाज में पूणा के साथ अन्तर्गमित वीतरागता, अहिंसा, सदाचार अपरिदेष फैलाने का माध्यम बन रही हैं। ग्रह, नीतिगत व्यवहार, धारवाएँ जीवन से तिरोहित हो अब तो चातुर्मास के साथ समाज का धन गाजे-बाजे, रही हैं। समाज का नेतृत्व विद्वानों व त्यागियों के हाथों पैम्पलेटबाजी व प्रदर्शन में बर्बाद होता है। जैनियों का। से निकल कर सेठों के हाथों में जा रहा है। सब संस्थाओं आचार व्यवहार इतना गिर गया है कि जैन पकौड़ी के संचालक एक तरफ से धन बटोरने में लगे हैं।' भण्डार, गोभी और प्याज से दुकान सजाते हैं। जैन नाम -(जन-सदेश' १३-८.८७ पृ०४८ से साभार) (पृ० २२ का शेषांश) शैय्या पर हैं। शास्त्र की गद्दी पर बैठकर धर्मचर्चा लालसा रहती है। चाहे शिष्य कैसा ही हो। बिना पाये करने वाले समझाने वाले विद्वानों की कमी आ गई है। सोना नहीं बन सकता। फलतः विद्वानों का नेतृत्व समाज पर नहीं रहा धनिकों का आवश्यक है-इन बातों पर हम विचार करें। वास्तहो गया, जो धर्म तत्व की गूढता को नहीं समझने वाले विक धर्म चलता रहे-यथेच्छ धर्म नहीं हो। काश ! समाज है। धर्मज्ञ हुए बिना उनका नेतृत्व धर्म शून्य ही हो। धर्मात्मा वृद्धजन इन बातों पर विचार करें-युवकों को उन्हें अपनी नेतागिरी राजनीति आदि के उपदेश प्रिय लगते तदनुकल डालें-ताकि जैनागम की अविच्छिन्न धारा बहती हैं और उनसे कई व्रती भी प्रभावित रहते हैं, उन्हें उत्सव, रहे। और सब जैन महावीर के शासन के नीचे चलते रहें। विधान, पंचकल्याण कराने की, शिष्य परिवार बढ़ाने की (वीर-वाणी से साभार) 955555555555555 5 555555550 जौलों अष्ट कर्म को विनाश नाहि सर्वथा, तौलों अन्तरातमा में धारा कोई बरनी। एक ज्ञानधारा एक शुभाशुभ कर्मधारा, दुहूं को प्रकृति न्यारी-न्यारी धरनी ॥ इतनो विशेष जुकरमधारा बन्धरूप, पराधीन सकति विविध बंध करनी। मानधारा मोक्षरूप मोक्ष की करनहार, दोष को हरनहार भी समुद्र तरनी॥ - आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० ६० वार्षिक मूल्य : ६) २०, इस अंक का मूल्य १ रुपया ५० पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पावक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन नसम्प-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों पोर पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य. परिचयात्मक प्रस्तावना से प्रलंकृत, सजिल्द । ... प्रय-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपणं मंगट 1 13 प्रस्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय पोर परिशिष्टों सहित । सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १५... समाषितन्त्र पौर इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित भवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्ष : श्री राजकृष्ण जैन ... जैन साहित्य और इतिहास पर विशर प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । ७... कसायपाहग्सुत: मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व धी गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री पतिवषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिदान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों मोर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । २५.०० अंन निबम्ब-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया पानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२-०. भाषक धर्म संहिता :पी बरयावसिंह सोषिया न लक्षणावली (तीन भागों में): स. पं० बालवाद सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग ४०.०० जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पमचन्द्र शास्त्री, सात विषयों पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन २.०० मूल जैन संस्कृति अपरिग्रह: श्री पपचन्द्र शास्त्री २.०० Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942) Per set 600-00 सम्पादक परामर्श मण्डल ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक श्री पचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवा मन्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३ BOOK-POST Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ४० : कि० ४ वीर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक अनेकान्त ( पत्र-प्रवर्तक : श्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') इस अंक में विषय क्रम १. शान्तिनाथ स्तोत्रम् १. आधुनिक पाण्डित्य का चरमोत्कर्षं - गोरावाला श्री खुशालचन्द्र ३. हम यूं ही मर मिटेंगे तुमको खबर न होगी - श्री पद्मचन्द्र शास्त्री ४. मनीषी व श्रीमानों के उद्गार ५. शिलालेखों के सर्वांगपूर्ण स्तरीय प्रकाशन की आवश्यकता - डा० ज्योति प्रसाद जैन - श्री मुन्नालाल जैन 'प्रभाकर' ८. हिन्दी जैन कवियो के कतिपय नीति काव्य - डा० गंगाराम गर्ग पृ० १ ६. पन्ना में संरक्षित जैन प्रतिमाएँ - श्री नरेशकुमार पाठक १०. णमो आयरियाणं- श्री पद्मचन्द्र शास्त्री ११. जंन गीतों में रामकथा - प्रो० श्रीचन्द्र जैन २ & ६. वस्त्रधारी भ० कबसे हुए श्रीरतनलाल कटारिया १२ ७. सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के अनिवार्य कारण ५ १५ १६ २२ २४ २६ १०. 'सिद्धा ण जीवा' - धवला - श्री पद्मचन्द्र शास्त्री २८ - सम्पादकीय ३० ११. जरा सोचिए : १४. श्रद्धांजलि आवरण पृ० २ अक्तूबर-दिसम्बर १९८७ प्रकाशक : वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, नई दिल्ली -२ : Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जिनवाणी के अथक उपासक स्व० श्री पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री के प्रति : -श्रद्धांजलि सिद्धान्ताचार्य स्व०५० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री जैन-विद्वत्समाज के भव्य दैदीप्यमान एक ऐसे नक्षत्र थे जो अपनी दीप्ति से धर्म की ज्योति को अपूर्व ढग से जगमगाते रहे-कभी जैन-संघ के माध्यम से, कभो जैन-सन्देश के माध्यम से, तो कभी जनता के निमन्त्रणों के माध्यम से । स्याद्वाद महाविद्यालय के माध्यम से विद्या के क्षेत्र मे जैसी क्रान्ति उन्होंने को उसकी मिसाल अन्यत्र नहीं। न जाने कितने अबोधों को उन्होने बोध दिया ? उनमें कितने हो तो आज भी उनकी जगाई ज्योति को कायम रखने में संलग्न है और समाज की सेवा मे तत्पर । सच पूछे तो पण्डित जी के बाद की विद्वत्पीढ़ी के बर्तमान अधिकांश विद्वान् पण्डित जी की जागरुकता और लगन के ही फल है। पण्डित जी ने जैसी साहित्य सेवा की वह जग जाहिर है। वे सच बात के कहने मे भी कभी चूके नही और ना ही कभी किसी से भयभीत हुए । उनके अभाव की पूर्ति सर्वथा असम्भब जैसी है। पण्डित जी ने स्थाद्वाद विद्यालय में स्वयं अध्ययन कर बाद में लगभग ५० वर्षों से अधिक काल प्रधानाचार्यत्व में बिताया। इस बीच उन्होंने विद्यालय के लिए समाज से प्रभत धन भी जुटाया। वे जो लाए मब विद्या. लय को ही समर्पित किया-अपने पास रंच भी नहीं रक्खा। उन जैसा कृतज्ञ विद्यार्थी और कर्तव्य-परायण प्रधानाचार्य-'न भूतो न भविष्यति ।' पूज्य बड़े वर्णी जी के शब्दों में पण्डित जी विद्यालय के प्राण थे-"विद्यालय सो पण्डित जी और पण्डित जी सो विद्यालय ।" यही कारण है कि पण्डित जी की मानसिक और शारीरिक शिथिलता के साथ ही विद्यालय भी क्षीणता को प्राप्त होता जा रहा सा दिखता है । हमे तो अब यह आशंका सी भी होने लगी है कि पूज्य वर्णी जी द्वारा लगाया और पण्डित जी द्वारा पल्लवित किया विद्यालय रूपी उद्यान कही मूरमा न जाए; या कही कोई बानर सेना इसे उजाड़ ही न दे । इसकी संभाल समाज को करना है और समाज की यह भी जिम्मेदारी है कि वह पण्डित जी के आदर्शों को सामने रखकर उन जैसे विद्वान तैयार करने का संकल्प ले। वीर सेवा मन्दिर के समस्त अधिकारी सदस्य एवं कार्यकर्ता व 'अनेकान्त' के सम्पादक त्रय पण्डित जी के प्रति सादर श्रद्धाजलि अर्पित करते हुए उनकी प्रात्म-शान्ति की प्रार्थना करते है। पण्डित जी से बिछड़े परिवार के प्रति संस्था की हार्दिक संवेदनाएं। -सुभाषचन्द्र जैन महासचिव Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् महम् III. Eena ThanRITAutummymagma - -- - - - - - -- परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम ॥ वर्ष ४० वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ अक्टबर-दिसम्बर किरण ४ वीर-निर्वाण सवत् २५१३, वि० स० २०४४ । १९८७ शान्तिनाथ स्तोत्रम् त्रैलोक्याधिपतित्वसूचन परं लोकेश्वररद्भुतं, यस्योपयुहरीन्दुमण्डलनिभं छत्रत्रयं राजते । प्रश्रान्तोद्गतकेवलोज्जवलरुचा निर्भत्सितार्क प्रभं, सो ऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥१॥ देवः सर्वविदेष एष परमो नान्यस्त्रिलोकीपतिः, मन्त्यस्येव समस्ततत्त्वविषया वाचः सतां संमतः । एतद्धोषयतीव यस्य विबुधस्ताडितो दुन्दुभिः, सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥२॥ -पद्मनन्द्याचार्य अर्थ-जिन शान्तिनाथ भगवान के ऊपर इन्द्रों के द्वारा धारण किए गए चन्द्रमण्डल के समान तीन छत्र तीनों लोकों की प्रभता को मूचित करते हैं और जो स्वय निरन्तर उदित रहने वाले केवलज्ञान रूप निर्मल ज्योति के द्वारा सर्य की प्रभा को तिरस्कृत करके सुशोभित है। पाग कालिमा मे रहित वे श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करें। जिनकी भेरी देवों द्वारा ताडित होकर मानो यही घोषणा करती है कि तीनों लोको के स्वामी और सर्वज्ञ श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र ही उत्कृष्ट देव है और दूसरा नही है तथा समस्त तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने वाले इन्हीं के वचन सज्जनो को अभीष्ट हैं, दूसरे किसी के भी वचन उन्हें अभीष्ट नहीं है। पापरूप कालिमा से रहित ऐसे श्री शांतिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करें॥ १,२॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० श्री पं० कैलाशचन्द्र शास्त्रों के प्रति श्रद्धांजलि : आधुनिक पांडित्य का चरमोत्कर्ष पांडित्य से परीक्षोत्तीर्ण पाडित्य यो या मूल कृति मे गृहस्य के छ आवश्यकों मे स्वाध्याय का स्थान महत्वपूर्ण है इस परम्परा के कारण ही श्रुतवर आवार्थी, भट्ट को और विशिष्ट विद्वानों के युग की समाप्ति के बाद भी मूल जिनधर्मी (दिगम्बरी) समाज नायके गंभीर स्वाध्यायी विद्वान् होते आये है। आवार्यकल्प पं० टोडर मल जी, आदि इन परम्परा के आधुनिक निदर्शन है। भारत के बौद्धिक जागरण (बीनसाग) के साथ-साथ प्राच्य अध्ययन को महत्व मिलने पर जिनधर्मों और जिनसम्प्रदायी (श्वेताम्बरी) समाज में भी परीक्षोत्तीर्ण विद्वानां की ओर ध्यान गया। इस परम्परा में गुरूवर पूज्य श्री १०५ गणेश अग्रणी थे क्योंकि काशी के स्वाद्वाद महाविद्यालय ने ही वाराणसेय गवर्नमेंट सस्कृत कोलेज तथा बंगाल- संस्कृत ऐसोसियेशन' कलकत्ता की परीक्षाओं को दिलाना प्रारम्भ किया था। गुरुवार गणेशजी को जयपुर, खुरजा नादि के स्वाध्यायी पडितों का बहुमान था तथा गुरु गोपालदास जी इस मंत्री के ऐसे स्वयम् उन्नत विद्वान थे जिन्होने जनसिद्धा ने विधिवत् अध्ययनअध्यापन के लिए विद्यालय (गोपाल सिद्धात विद्यालय मुरैना) ही नहीं, अपितु जनजागरण के श्रीमान् अग्रदूत के सहयोग से परीक्षालय (माणिकचन्द्र दि० जैन परीक्षालय, मुम्बई) की स्थापना करके जैन को भी परीक्षो तीर्णता का रूप दिया था। जैन जागरण के इन दोनो घीमान् अग्रदूतो के प्रसाद से स्व० प० माणिकचन्द्र (चावली) देवकीनन वशीधर (हनी), बशीधर शोलापुर मक्खननाम तथा चन्द्र जी ऐसे उद्भट जिनवाणीवसा समाज देश को हुए तथा जनन्याय के प्रथम ब्राह्मण गुरुवर अम्बादास शास्त्री की साधना का ही यह फन मुकन या कि प्रमेयकमा अष्टमस्री आदि गहन तथा उम ग्रन्थो का पठन-पाठन सहज हो सका था । तया स्व० ० घनश्यामदास ( महशैनो) तथा जीव-धर (इन्दौर) क गुरुव में समाज जै न्यायतीर्थों को पा सका था। जैनपांडित्य की दूसरी पीढ़ी- इन गरुओ की कृपा से सुलभ आधुनिक चैनपण्डिस्प की दूसरी पीढ़ी के विद्वानो मे स्व० ५० राजेन्द्रकुमार (मा० दि० जैनमध ) जी (जयपुर) अजितकुमार जो (मुनदान) कैनाशचन्द्र (वाराणसी) ऐसे थे, जो धर्म-समाज मे १९२१ मे आग के सास दशको मे सब प्रकार से सम्बद्ध है। शापति राजेन्द्रकुमार जी ने गुरु को सम्मान दिया, साथियों को क्षमता के अनुसार अध्यापन, सम्पादनादि मे लगाकर बढ़ाया और अनुविद्वानों को समन प्रकरके ऐसे लोगो का छोडा है, जो समाज की विविध संस्थाओं का आज भी सचालन कर रह है। कनिकारी स्व० ५० चैनसुखदास जी से बार जैन समाज के श्रीमात् किन्तु प्रवाहपतित मारवाड़ी समाज का विवेकचक्षु ही नही बोला था, अपितु ऐसा शिष्य समुदाय छोड़ गए है जो उनकी अलख को जगाये है। गुरुवर पं० गोपालदास पी के बाद आमाज और स्थितिपालक जैन समाज को यह जगाने का भार शार्दूल पडित राजेन्द्रकुमार जी पर दि० जैन शास्त्रार्थं स (याला) के रूप मे आया था। इसमे स्व० लाला शिवामन (अम्बाला ) अहदास पानीपत) आदि श्रीमान् जहा उनके साथी ये वही स्व० पं० [भजितकुमार, मंगलसेन (विशारद ) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक पांडित्व का परमोत्कर्ष वाणीभूषण तुलसीराम (बड़ोत), आदि धीमान् प्रमुख सह- प्राप्त की थी जो अंग्रेजी या प्राकृत भाषादि के कारण, योगी थे। इनके पूर्ववर्ती जन-जनेतर मनीषियों को दुर्लभ थी। योग्यतम सहाध्यायी ख्याति से परेस्व०प० कैलाशचन्द्र जी, ५० राजेन्द्रकुमार जी के स्व. पडितजी की इस साधना का प्रथम प्रसून व्यपान, शान्त तथा अनुशासित सहाध्यायी थे । इनकी वाणी मे रस था, ग्वभाव में मधुरता, व्यवहार में सरलता 'न्यायकुमुदचन्द्र' का प्रथम भाग था, जिसमें स्व. पं० महेन्द्रकुमार जी सहयोगी थे। तथा स्व. पं० नाथूराम तथा आगमानकुल शास्त्रकथन में निर्भीकता थी। फलत: शार्दूल पडित ने इनकी क्षमताओं को पुष्ट करने और 'प्रेमी' की प्रेरणा से यह कार्य ५० कैलाशचन्द्र जी ने हाथ समाज को उनसे लाभान्वित होने का विविध योग में लिया था। तथा माप किया था कि इसका सर्वांगजुटाया । और भारती. बौद्धिकवर्ग को; सात प्राचार्य, समग्र मपादन करेगे । इस सकल्प की पूर्ति के लिए प्रवास शुक्निशास्त्रानुकल मार्गदर्शक-सम्पादक तथा आधुनिक पाठमिलान, आदि शारीरि श्रमसाध्य कार्यों को स्व० शोधलीपरक राष्ट्रभाषा के मौलिक लेखक के रूप में प० महेन्द्र कुमार जी ने किय थे। फलत इनके उत्साह को स्व०५० कैलाशचन्द्र का, पूरी आधी शतीक, प्रदर्शन स्थायित्व देने के लिए पडित (के० च०) जी ने इन्हें ही विहीन तथा विनम्र नेतत्व प्राप्त रहा है। सम्पादक रूप में स्वीकार किया था। और अपने को केवल 'भूमिका-लेखक' ही रखकर तत्कालीन जैन-मनीधर्मशास्त्री -- षियो (स्व० पं० मुखलालजी सघवी, प्राचार्य जुगलकिशोर ___ स्त्र. प. कैलाशचन्द्र जी ने अपने गुरुओं में प्राच्य- मुख्तारादि) को चकित कर दिया था। तथा अपनी सूक्ष्मपद्धति (विषय का मागोपाग वाचन, प्राणा तथा अम्नाय परख और तटस्थ दृष्टिकोण का लोहा मनवा दिया था। या मुख मे पागयण) के अनगार सिद्धान्त ग्रन्थो का जिसके दर्शन उनकी मौलिक कृति 'जैन इतिहास की पूर्वअध्ययन किया था। उन्हें अपने पठित ग्रन्थ कठम्य थे। पीठिका' में होते है। ध्यावाद महाविद्यालय द्वारा १९२७ मे धर्माध्यापक रूप से उन्हे बुलाये जाने का यही कारण था। उसके अग्रज सहा- हाजिर में हुज्जत नहीं गैर की तलाश नहीं'ध्यायी प० जगन्मोहनलाल शास्त्री (कटनी) ने भी इनकी जब आर्यसमाज के प्रमुख शास्त्राथों विद्वान् ने ही जैन ग्रन्यापस्थिति की उत्कृष्टता को स्वीकार करके जैनसमाज तत्वज्ञान पर मुग्ध होकर 'स्वामी कर्मानन्द' रूप धारण के प्रथग तथा सर्वोपरि गुरुकुल (स्या० म०वि०) क कर लिया तो मामाजिक उत्थान की उपशम-श्रेणी के धर्माध्यापकत्व के लिए इन्हें हो उत्तम माना था। तथा ज्वलन्त निदर्शन, स्व. प. राजेन्द्रकुमार जी ने 'शास्त्रार्थघर सर्वथा सत्य भी निकला । क्योकि ये समय के पाबन्द सघ' के विधायक रूप को प्रधानता दी। और शार्दल स्वात्म-संतृष्ट तथा छात्रहितलं न अध्यापक थे। तथा अपने पंडित से प्रभावित जिनधर्मी-समाज ने अग्रज-जिनधर्मी सहाध्यायियों के समान अध्ययन या विद्यार्थित्व का त्याग संस्थाको (भा ० महासभा तथा परिषद्) से अधिक महत्व नही कर सके थे।' इन्होंने छात्रो के साथ श्वे० न्यायतीर्थ भा० दि० जैनसघ को दिया। तथा एक दशक में ही परीक्षादि ही नही उत्तीर्ण की थी अपितु प्रात्यशोध की इमका मुखपत्र, सरस्वती भवन, प्रकाशन, भवन तथा भिज्ञता के लिए अपने छात्रो से ही पढकर मेट्रिक (अग्रेजी) (जीवनदानी, स्वात्मसतुष्ट तथा समपित) दर्जनाधिक वक्ता परीक्षा भी पास की थी। तथा व्यु-पन्न छात्रो के सहयोग लेखक तथा सचालको ने संघ को जीवन्त संस्था बना से इतिहास-पुरातत्व एवं पाश्चात्यशोधकों द्वारा कृत, प्राच्य दिया था। बाइमय की उस समकालीन शोध की भी पूर्ण भिज्ञता Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, वर्ष ४०, कि० ४ भनेकान्त सर्वोत्तम-प्रेरित सहयोगी बल्कि जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड, आदि को साधारण स्वायाइस यात्रा में स्व. प. कैलाशचन्द्र जी सर्वोपरि थे। यियो के लिए सुगम कर गये है। प्रारम्भ में 'जा.धवल' क्योंकि वे 'अहिंसा' 'भगवान महावीर का अचेलक धर्म' कार्यालय के कारण बना आराण्ह २ से ५ बजे के बैठने, स्तिकावट भी उसी सीरता से लिखने चिन्तन और लेखन का दायित्व उनका स्वगाव बन गया जिसकी झलक 'जैन सन्देश' के सम्पादकियों में स्पष्ट थी। था। जा जब तक किसी प्रबल असाता के उदय, अयात् 'जन-धर्म' ऐसी मौलिक सुपाठय कृति ने उत्तरकालीन १९८० तक एकरूप से चला । इसके बाद कुछ तथोक्तलेखको को इतना प्रभावित किया था कि इसके तुरन्त प्रशंसको के कारण प्रकृति में परिवर्त', आया। तथापि बाद ही समाज को 'जनशासन' तथा 'जन दर्शन' पुस्तके उन्होने हार नहीं मानी । यही कहते रहे कि 'अभी मुझे देखने को मिली थी। यही कारण था कि 'सघ' ने जब आने में बुढ़ापे के कोई लक्षण नहीं दिखते । शारीरिक 'जयधवल का प्रकाशन हाथ में लिया तोडित (कच.) दृष्टि से यह सत्य भी था । क्योकि रवावस्था के साथ ही जी ही प्रधान सम्पादक रहे । गौ कि वे मुक्तकंठ से कहा दमापीड़ित अपनी काया को उन्होने f हा-निग्रह, औषधि करते थे कि इन मूल सिद्धांत ग्रन्थो के उद्धार का श्रेय तथा पोषक- राहण और पत्नी को तीसरी शल्य-प्रसूतिजन्य धीमानों में स्व०५ हीगलाल (सादमल). फलचन्द्र जी मृत्यु के सयोग से बचाने के लिए कृत 'वेद-निया 011 सिद्धांतशास्त्री तथा बालचन्द्र शास्त्री (वीर सेवा मन्दिर) संयम के द्वारा ऐसा कर लिया था कि परिणत वय में उन्हे को इनके प्रधान सम्पादको (स्व. डा० होरालाल, आ. देख कर कोई कल्पना भी नही कर सकता था कि ये कमी ने. उपाध्ये) की अपेक्षा अधिक है। तात्पर्य यह कि दमा के रोगी रहे होंगे । वे अपने जीवन से संतुष्ट थे । सिद्धान्ताचार्य (क०च०) जी को साथियो या समाज ने कहा करते थे-- जी कार्य या पद दिया उसे उन्होने द्यानतदारी से सभाल कर सुख माना । तथा अन्य विद्याव्यासगियो के समान अन्त समयकिसी दायित्व या प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्न नहीं किया। वे अभी क्या जाना, अन्त समय ठीक बीत जाये तो कहा करते थे कि मैं तो 'धर्म और अधर्म द्रव्यों के समान मानगा।' क्या उन्हें अपने भविष्य का आभास था? दांत, तटस्थ या अन्यथासिद्ध कारण है। विद्यालय (स्या० म० आख, कान और अत में स्मति ने भी उनका ख्याल नहीं वि०), 'सघ' तथा प्रकाशनादि के लिए यदि होते है तो किया । जिनधर्मी वाङ्मय का चलता-फिरता रूप विवश में अनुगामी होने में भी सकोच नही करता, नहीं होते तो, हो गया पूर्वबद्ध निकाचिन के उदय के सामने । उनसे में अग्रगामी नहीं बनता।' अन्तिम भेंट के बाद से ही सोचता हूं-"मित्र-पुष्ट एवं मान्य जनवाङ्मय का संयत एव सर्मात साधक, अब नही स्पष्ट ज्ञानपुंज रहेगा । जिज्ञासाए अब भटकेगी।" वह दीपक बुझ गया। उनका अध्ययन, अध्यापन, प्रवचन, लेखन तथा था अपने गुरुओ, साथियो और हम अनुजो से अधिक कर्मठ, ओ माथियो और दम । सम्पादन प्रसाद, माधुर्य एव सार-पूर्ण होता था। वे जिन प्राप्ताल्यसतोषी .था आ-चैतन्य शारदा साधक को यदि ग्रन्थों को पढ़ते-पढ़ाते थे वे या उनकी वरतु (मूल विषय) बुद्धिभ्रन्श हो सकता है, तो हमारा भविष्य ? "विधिरहो उनकी स्मृति में अंकित हो जाती थी। यही कारण है कि बलवानिति मे मतिः" । शत-शत प्रणामों सहितअपने जीवन के अन्तिम तथा कर्मठ दशकों में वे 'जैनन्या' जिनवाङ्मय के इतिहास के समस्त खंडो को ही नही, -खुशालचन्द्र गोरावाला Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम यूँ ही मर मिटेंगे तुमको खबर न होगी [पचन्द्र शास्त्री, सम्पादक 'अनेकान्त' उक्त पक्ति एक गाने की है जो अपने मे बन मायना बाल---HIT जानते है कि यह समागवस्था का मार दई रखती है। हर वह प्राणी जो कुछ जानना---- वह गार है जिसे खोजते-खोले हमे यूं ही बरसो बीत गये गमझना है उसे जीवन में गुनगुनाता रहता है और आखिर यो.बडे-बडे ऋपि-मुनि भी इस रहस्य को खोजते-बोजते में चला जाता है। शायद हमारे महामना पूजप० भी चा बने । आदि श्री कैलाशनन्द्र जी शास्त्री भी जीवन भर इगे नगुनाते आज मैं सोचता है कि वास्तव में पडित जी बड़े दूररह --इमी भाव को लिखते हे और जाते-जाते 'क्ति का दथि और उनका पह दूर-दणन तब राही रूप में अनुभव यं ही छोड गये लोगों को गाने, समझने योर मना करने में आया. जब उनकी रुग्णावस्था मकोठिया जी जैसे कई के लिए। मनीषियो को बरबस गमाज का ध्यान उनकी ओर मुझे याद है जब मैं स्याद्वाद विद्यालय में काला चना पडा कि वह पडित जी का तीमारदारी करेनहीं गया था--वहा । व्यवस्थापक था। पडिनजी प्रायः नको खबरले । यह बात अलग है कि उनक सुपुत्र आदि शिक्षा-प्रद फिल्मो क देखने के शौकीन थे । उनको और सम्बन्धी और कुछ पास-पडौमी उनकी सेवा करते रहे हों, साथ म स्व०प० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य को प्रायः पर, अखिल जैन समाज और घामकर-रामर्थ और नेताकिमी शाम में पिक्चर हाल में आसानी से देख जा टाइप ममाज का गह परम कर्तव्य था। हम नही जानते सकता था। कितनों ने पडित जी की तीमारदारी में योग दिया जोर मुझे अक्सर तब महमकर बरबम यूं ही रह जाना उनकी बीमारी में उनको मुघनी? तिनो न उनके उपपडना था जब मै किसी छात्र को पिक्चर देखने के द: कागेको गही रूप में माना? इमे वे ही जाने ! वरना, समाज स्वरूप कुछ डाट-फटकार मुनाना चाहता था और वा के रवैग्य के प्रति हमागतावमा ही अनुभव है जैसा कि बरबस कह उठना था-'पण्डित जी भाता दख रह थ। पंडित जी ने कहा था - 'हमय ही मर मिटेग, तुमको एक दिन हिम्मत जुटाकर, विद्यालय की छ। पर बर न होगी।'-पडिन जी चल गये और हमें खबर घुमत हए बातो-जानो में मैं पण्डित जी से कह ही बैठा, कभी न हई औरई तो बड़ी देर स-कछुए की चाल से। कि कभी-कभी लडके ऐसा जवाब देकर कि 'पण्डिन जी .इम प्रमग में ममाज अपने अतीत को भी देखे कि भी तो देख रहे थे, मुझे गौन रहने को मजबूर कर दत :सन अनीतक अनगिनत उपकारिता के प्रति कैसा रवैया है। पण्डित जी को गुझसे स्नेह तो था ही। उन्होने मुझे मानाया ? भले ही ममाज ऐसी हस्तियो को उनके प्रति समझाया--पद्मचन्द्र जी, लड़कों को तो डाटना ही चाहिए, उनके जीवनकाल म उन्हे अभिनन्दन देता रहा हो, उनके वे नासमझ होते हैं, फिल्मों को अच्छाइयो का उन्हें कहाँ जयकारे बोल, उन्हे माल्यार्पण करता रहा हो । पर, उसने बोध होता है ? वे बुराइयों को ही अधि: ग्रहण करते है। उनसे एछ ग्रहण नही किया और जो उन्हे दिया वह अतिम उन्होने आगे कहा-आप जानते है कि मैं दिनभर माहि- दिनों के काम न आया। यदि अभिनन्दन ग्रन्थ आदि ही त्यिक काम करता हूं, तत्त्व-चिनन करता हूं और मुझे से सब काम हो जाता होता, तो क्यों नही, बीमार के पिक्चरो मे भी तत्त्व की ही पकड़ रहती है। उदाहरणार्थ सिहहाने बे रख दिए जाते ? जिनसे बीमार की तीमारउन्होंने अपने मधुर कण्ठ से एक पंक्ति सुनाई-'हम यूं ही दारी हो जाय और कोटिया आदि जैसे प्रबुद्धो को तीमार. मर मिटेंगे, तुमको खबर न होगी।' दारी के प्रति चिन्तित न होना पड़े। बस्तु: (शेष पृ.६पर) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० श्री पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री के प्रति : मनीषी व श्रीमानों के उद्गार भी फूल चन्द्र शास्त्री अपने सुख-सुविधा की। इसलिए वह वर्ग ऐसे त्यागी'यह शिकायत तो हमेशा से सूनी जाती रही है कि मुनियों को पसन्द करता है जो इस वर्ग की ऐसी इच्छा धीरे-धीरे शास्त्रीय पण्डिनों का अभाव होता जा रहा है। की पूर्ति में सहायक होते हैं । इच्छा की पूर्ति होना अन्य पर इस समस्या को कमे सूलमाया जाय, यह बात अभी बात है। इच्छा को पूति हो या न हो। यह एक दुकान है तक निश्चित नही हो पाई। इसका हल निकलना भी जो दोनों के सहयोग से चलती है। कठिन है। यह वर्तमान स्थिति है, इसलिए हम जानते है कि जो बात यह है कि स्वराज्य के बाद एक ओर प्रत्येक गया, वह गया । इसकी पूर्ति होना असम्भव है। मान्य ध्यक्ति का लोकिक जीवन स्तर बढ़ने लगा है और दूसरी पण्डित जी श्री कैलाशचन्द्र जी गये, उनकी प्रति न हम ओर महगाई ने चरम सीमा गाठ ली है। समाज चाहे भी कर सकते हैं और न कोई अन्य विद्वान भी। वे अपने ढग तो यह समस्या सुलझ नहीं सकती। के बेजोड़ थे। पर्याय अस्थायी है, वह नियम से जाती है। जो वर्तमान त्यागी-मुनि हैं वे पढ़ने में विश्वास नही उसका स्थान अन्य नही ले सकता । करते । जब वैसे ही उनकी आहार-पानी प्रादि की अनु ___ आज वे हमारे बीच मे नही है। उनके वियोग को हमे सहना पड़ रहा है । उनका साहित्य हमारे लिए मार्ग कुलताए बन जाती है तो वे पढे क्यों। उन्हे ठण्ड से बचने के लिए हीटर चाहिए, गर्मी के ताप से बचने के लिए पखा दर्शक बने । और मार्ग दर्शक के रूप में हम सदा उनको चाहिए, एक स्थान से दूसरे स्थान तक उनके परिग्रह को याद करते रहें यह इच्छा है।' टोने के लिए गोटर गाड़ी चाहिए, उनकी सेवा टहल आदि श्रीजमोनल श्री जगन्मोहन लाल शास्त्रीके लिए आदमी चाहिए, ड्राइवर नाहिए । ममान इस सब 'उनको लेखनी दमदार थी, आगम पक्ष सदा उनके का प्रबन्ध उनके बिना लिखे पड़े ही करती हैं। वे फिर सामने रहता था और समाज की उन्नति उनका ध्येय था । पढ़े लिखें क्यों। कुरीतियों, धामिक शिथिलनाओ की ओर उनका कड़ा मार्ग के विरुद्ध समाज की इस विषय में रुचि का कदम रहता था। विरोध और निन्दा और अन्याय भी कारण है उसकी चाह । समाज मे कुछ कुटुम्ब ऐसे है जो उनको सहना पड़ा, पर पैर पीछे नही किए । वे शुरवीर ताबीन आदि में विश्वास करते है । देवी-देवता में विश्वास थे दह सकल्पो थे । साहित्य क्षेत्र में षटखण्डागम, कषाय करते हैं । त्यागी-मुनि भी ऐसे ही कुटुम्बों को इस कम पाहुड जैसे वरिष्ठ आगम के सूत्रों की तथा उनकी कठिनजोरी को जानते है। इसलिए वे अपने त्यागी-मुनि के तम टीकाओ का अनुवाद करने में उनका प्रमुख हाथ रहा, जीवन को लोकिक सुख रूप बनाए रखने के लिए इस मार्ग अनेक ग्रन्थो की स्वय टीका की, अनेक ग्रन्थों का अनको अपनाते हैं। धर्मशास्त्र तो मक है। हस्तक्षेप करे तो .. कैसे करे। मेरी उनके प्रति सविनय सप्रेम श्रद्धांजलि है।' त्यागी मुनि जानते है कि ऐसा करने से हम त्यागी मुनि भी बने रह सकते है और लौकिक इन्छाएं भी पूरी श्री रतम लाल कटारियाकर सकते है। समाज में ऐसा वर्ग या सम्प्रदाय है जो काशी के स्यावाद महाविद्यालय के वे प्राण थे, उन्होने इसका सापक है। आगम की उसे चिन्ता नहीं, चिश्ता है पाजीवन सुदीर्घ काल तक वहाँ अध्यापन का कार्य किया Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनावीर श्रीमालागार था। उनके अनेक शिष्य है जो अच्छे पदों पर कोई बनासक्त कर्म योगी थे, जिसका ज्वलंत प्रमाण उनका लोक सेवा कर रहा है । कोई समाज सेवा कोई साहित्य 'श्री स्यावाद महाविद्यालय' (वाराणसी) है।' सेवा । समाज को उन्होने अपनी प्रतिभा का खूब दान दिया। जहाँ भी वे धर्म प्रचारार्थ गये अपने लिए कभी कुछ भेट नही ली। अाज ऐसे निःस्वार्थ विद्वान कम ही सिद्धांताचार्य प. कैलाश चन्द्र जी शास्त्री जैन विद्वत् है। उन्होंने महान सिद्धांत ग्रन्थ जयधबला के सम्पादनादि समाज के महनीय विद्वान थे । वे शिक्षक, लेखक, पत्रमे भी पूरा सहयोग दिया।' कारिता और वक्तृत्वकला के पारगामी थे । अर्धशती से भधिक काल तक स्यावाद महाविद्यालय वाराणसी के श्री ज्ञान चन्द खिन्दूका प्राचार्य पद पर स्थित रहकर आपने सभी प्रान्तो के अनेक ___ 'पं० साहव का जीवन साहित्य-सपर्या के लिए समर्पित बालको को निष्णात विद्वान् बनाया है । धवला तथा जयथा। अनेक ग्रन्थों का सृजन, सम्पादन, अनुवाद कर, धवला आदि सिद्धांत के गहन ग्रन्थों की:ोका तथा उनकी अनेक पत्र-पत्रिकाओ का कुशल सम्पादन कर आपने महत्वपूर्ण विस्तृत प्रस्तावना लिखकर नवीन शोध छात्रों सरस्वती की अभूतपूर्व सेवा की है । स्यादाद महाविद्यालय को शोध का मार्ग प्रदर्शित किया है। प्रारम्भ से ही जैन काशी के अधिष्ठाता के रूप मे पंडित जो का समाज के सदेश के प्रधान सम्पादक रहकर अपने सग्रहणीय सम्मादलिए दिया गया, अवदान स्वर्ण अक्षरों में अकित रहेगा। कोय लेखो मे उसकी गरिमा बढ़ाई है। अपने छात्रों को उनका उदार सामाजिक दृष्टिकोण और तर्कसम्मत विचार उन्नत पदों पर देखकर आप प्रमोद का अनुभव करते थे। धारा उनके निर्भीक भाषणो एव लेखों में स्पष्ट प्रतिध्वनित प्राचार्यत्व के काल मे आने उद्दण्ड छात्रो को उद्दण्डता को होती है। पिता के समान महन कर विनयशील बनाया है। भारतऐसे महान साहित्य-सेवी, पत्र-परिणामी, सादा जीवन वर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत परिषद के आप दो बार अध्यक्ष जीनेवाले, सरल एवं निस्पृह व्यक्तित्व के प्रति हम अपनी रह चुके हैं । और उसका ऐमा कोई अधिवेशन नही रहा श्रद्धांजलि अर्पित करते है।' जिसमे आप की उपस्थिति न रही हो । आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी के सानिध्य में चलने वाली षट्खण्डागम श्री प्रेमचन्द जैन, जैना वाचकम्पनी की सभी वाचनाओ में उपस्थित रहकर अपने गहन प्रन्यो 'श्रीमान पंडित जी जैसा निर्भीक बक्ता समाज को की वाचना को सरल एव सुबाह्य बनाया है। मिलना अत्यन्त कठिन है तथा उनकी सेवाओं का मूल्या- भापके निधन से जैन विद्वज्जगत् को अपूरणीय क्षति कन करना भी संभव नहीं है । कठिन से कठिन परिस्थिति का अनुभव करना पड़ा है । मैं एक छात्र के नाते उनके मे भी पंडित जी के पग वीतराग मार्ग से नही डगमगाए। प्रति जपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ उनके उनकी आत्मा को उत्तरोत्तर काल में संसार बंधन को लिए सुख शान्ति की कामना करता है।' छेद कर मुक्ति का लाभ हो ऐसी हम प्रार्थना करते हैं।' श्री साहू अशोक जैन, अध्यक्ष दि० जन-. डा० निजामुद्दीन तीर्थक्षेत्र कमेटी सिद्धांताचार्य प० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने जैन धर्म 'पंडित जी के वियोग मे यह समाज ज्ञान के पथ मे दर्शन पर विपुल साहित्य की रचना कर नयी धर्म ज्योति अनाथ जैसी हो गई है उन्होन अपने जीवन में समाज को लोगों के अन्तःकरण मे जलाई, एक नयी दृष्टि प्रदान की, बो दिया है। उसे कुछ शब्दो मे लिखा नही जा सकता। नयी प्रेरणा दी। वह जैन धर्म दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् पं. जी वास्तव में सरस्वती के वरद् पुत्र थे। उन्हे मेरी थे। उनकी विद्वता को बड़ा सम्मान प्राप्त था। वह हादिक श्रद्धांजलि ।' Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब,पर्व ४० कि०४ श्री रतनलाल गंगवाल- . , सही दिशा की ओर उन्मुन करने में पं० कैलाशचन्द्र जी ____ 'पंडित जी दिगम्बर जैन समाज के एक ऐसे स्तम्भ थे की सूझबूझ बहुत ही प्रशसन मानी जाएगी। जिन्होने अपने ज्ञान से इस समाज को सदैव आकोकित भारतं य परम्परा के मनीपोते. प्रा: मैं अपनी भाव. किया, माता जिनवाणी के वे गम्चे, सपन थे विकार भीनी श्रद्धांजलि अप्ति करता है। भाव से जीवन पर्यन्त वे गम का मार्ग दर्शन करते रहे। दरबारी हाल कोठिया, सम्पाद___मैं पडित जी के प्रति अपनी श्रद्धापर्ण निय. जलि कैसे हा मन पर गे आये, श्रोता एक ट होकर उनके अपित करता है और उनके परिवार के प्रति हार्तिक धारा प्रवाई भाषा को मनते थे। उनके अंना हजारोगा मंवेदना ।' नाखों हों, वे पभावित कर लेते थे। वे स्त्र प्रवक्ता श्री डालचन्द जैन, सांसद --- भी अमा, ण थे । अष्टान्हिका पर्व पर वे बम्बई गये थे। भारतीय दि. जैन ममाज के वियोग में आज एक निहाने आम्म-तत्त्व पर ऐ. प्रवचन किया कि व्याकुल है। मेरी हार्दिक नियाजल।' __- श्रीन पत्र : ग्ध हो गए । शास्त्र प्रवान के बाद एक धोना उनके पाम (हुंने और बोले कि पडि । जी! काप को तो श्री साह श्रेयांसप्रसाद जैन-- आत्म- साकार हो गया होगा।' पाडत जी ने बतनाया दिगम्बर जैन पपिरती की परम्परा में प० कलामचद्र विकोठिया जी का क्या उत्तर देता?' आत्म-तत्त्व जी ऐमे मुमेरू माणिक्य थे, जा मम्यक ज्ञान, गम्यक र्शन पर बोलना अलग चीज है और एक साक्षा कार होना और सम्यक चारित के प्रतीक के संप में युग-युगा. नरो अला चीज है । आत्म-साक्षात्कार के पूर्ण सयम, तक एक जीवन्त तीर्थ के रुप में स्मरणीय रहेगे। उकी इन्द्रिय निग्र , मनोनिरोध और तपश्चर्या आदि आवश्यक वीतराग, धर्म दशन साहित्य एव तीर्थ मे श्रद्धा असाढ़ हैं । पण्डित जी ने यह सस्मरण ज्यो-, -त्यों सुनाया। और अविचल थी। पण्डित जी ने अपने गम्भीर चिमन, वास्तव में वे प्रभावका वक्ता थे। लेखन, मापादन, प्रवचन अध्यापन और मम्था निर्माण व हम शिव्य समुदाय की और से उन्हे . द्वा-सुनन संचालन आदि वनिया में सच लेकर मामाजिक था गपित करते है। उनकी आत्मा को शाश्व। शान्त-लाभ आध्यात्मिक प्रवृत्तियो मे विशिष्ट सहयोग देकर ममाण मे की कामना करते है एवं परिवार के प्रति हाकि स . स्थायी कीर्तिमान स्थापित किया। समाज को समय पर वेदना प्रकट करते है।'--(सकलित) (पृ. ५ का शेषांश) ___ यह भी सचने की बात है कि पस्ति जी जैसी त्याग के स्थान पर सग्रह में और ता के स्थान पर जता धार्मिकता, निकिता, नि:स्वार्थला कितनों मे है और. के हित के नाम पर, चिन्ताओ में तप रहे है । ऐ। मे कैसे कितनो मे धर्म के प्रति वैसे समर्पण के भाव है जैसे उमे और किनसे पूरा हो सकेगा, पण्डित जी का मिा ? थे ? पण्डित जी धर्म के सही विवेवन करने मे कभी के हमारा विश्वास है पण्डित जी का मिशन ही पूरा नहीं-कह दिया सौ बार उनसे जो हमारे दिल मे है।' होगा जब पण्डित निःस्वार्थी होगे, धार्मिक जा पण्डितों ऐसे पण्डित जी को हमारे शत-शत नम।। . . की सुख सुविधा के ध्यान रख उन्हें मान देगे और त्यागी देखना यह भी होगा कि भविष्य मे "कितने नवीर- मुनि आदि सामाजिक-प्रवृत्तियो से दूर-प. आत्मपण्डित अपने को पण्डित जी के रूप में ढाल पाएंग? आ॥ साधना मे लगे रहेग। हम अपने मन्तव्य। इन 'दों के तो नहीं कि केवल आजीविका को दौड-धुप वाल. पणित साथ पूरा करते हैं कि हम सब पण्डि । जी के बादर्श पण्डित जी की पण्डित-प.म्परा को जीवित रखने में समर्थ मार्ग पर च और जो कुछ करें-- सम्मक. म के शे सकेगे ! और यह भी आशा ही कि केवल नेता-टाइ लिए करें। कार सेवा मन्दिर परिवार और डा० उति लोग पण्डितो की कद्र कर सकेगे--सभी अपने-अपने स्वारा प्रसाद आदि सम्पादक मण्डल (अकान्त) ५.ण्डतजी के प्रति मे लगे है। आज तो कई मुनियों का यह हाल है कि सादर श्रद्धावत हैं। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलालेखों के सर्वांगपूर्ण स्तरीय प्रकाशन की आवश्यकता 0 डा. ज्योति प्रसाद जैन "शिलालेख" शब्द का सामान्य अर्थ है किसी शिला पल्लव, कदम्ब, चालुक्य, राष्ट्रकट, चोल, होयसल आदि या पाषाणखंड पर अंकित अथवा उत्कीर्ण अभिलेख । किन्तु अनेक राज्यवशों के इतिहास के प्रधान साधन उनके शिलाइसका उपयोग अब व्यापक अर्थों में होता है और इसके लेख ही है । गत दो-अढ़ाई हजार वर्षों के जैन इतिहास के अन्तर्गत वे समस्त पुरातन अभिलेख जो किसी स्थान के पुननिर्माण में भी जैन शिलालेखों से ही कल्पनातीत सहा. ऐतिहासिक भवनों, देवालयों, स्तंभों, स्मारकों, मूर्तियों, यता मिली है, उनसे नई प्रदेशों के, विशेषकर कर्णाटक कलाकृतियो, शिलापट्रों आदि पर उत्कीर्ण या अकित पाये आदि दाक्षिणात्य देशों के राजनैतिक इतिहास पर भी जाते है, सम्मिलित है। प्राकृतिक या उत्खनित गुफाओं अभूतपूर्व प्रकाश पड़ा है। अथवा गुहामंदिरों, तीर्थस्थानों आदि में प्राप्त शिलांकित १६वी शताब्दी ई. के पूर्वावं मे ही अशोक मौर्य के लेख तथा पाषाण के अतिरिक्त विभिन्न धातुओं से निर्मित शिलालेख एवं स्तम्भलेख प्रकाश मे जागे थे और स्टरलिंग मूर्तियां, यन्त्रों, आदि पर अकित लेख, और दानशासनों ने ग्वारखेल का हाथी गुफा शि० ले० खोज निकाला था । के रूप में लिखाये गये ताम्रपत्रो. या ऐसे ही अन्य शासना- तदनन्तर भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के जनरल कनिंघम देशो आदि से युक्त लेख भी इसी कोटि में आते है। आदि ने उन्हे यत्र-तत्र प्राप्त अनेक शिलालेखो का परि___इतिहास के साधनस्रोतों मे शिलालेखीय सामग्री का चय दिया, स्मिथ, लईग और फुहरर ने मथुरा व आसभर्वोपरि महत्व निविवाद है । शिलालेख में जिन व्यक्तियों पास के ०ि ले प्रकाशित किगे, लुइसराइस ने मैसूर एव घटनायो एवं तथ्यों आदि का उल्लेख होता है, वे उसके कुर्ग का इतिहास वहाँ प्राप्त शि. लेखों के आधार से अकित कराये जाने के समय, तथा कभी-कभी कुछ पूर्ववर्ती लिखा, आर० नरसिंहाचारि ने श्रवण-वेलगोल में प्राप्त समग से सम्बद्ध वास्तविक होते हैं, अतएव प्रायः असंदिग्ध शि० लेखो को (पपी. कर्णा०, भा०२ में) प्रकाशित कर रूप से प्रामाणिक होते है। इसके अतिरिक्त, शिलालेख दिया । किन्तु उसके पूर्व ही, फ्रॉमीसी विद्वान डा. ए. बहुधा मैड़ो-सहस्रों वर्ष पर्यन्त अपने मूलरूप में प्रायः गिरनाट ने १९०८ ई० में अपने निबन्ध "रिपर्दोयर डी यथावत बने रहते हैं। भारतवर्ष में साहित्य सृजन तो ऐपीग्रेफी जैना" मे उस समय तक ज्ञात समस्त जैन शि० विभिन्न भापाओ मे विविध, विपुल एव उच्चकोटि का लेखो को प्रकाशित करा दिया था, जिसका सारांश होता रहा, किन्तु उसमे ऐतिहासिक विधा उपेक्षित रही- कालान्तर में हिन्दी में जैन सिद्धांत भास्कर (आरा) में क्रमबद्ध व्यवस्थित शुद्ध इतिहासलेखन की यहाँ प्रायः प्रवृत्ति भी प्रकाशित हुआ । इस प्रकार, वर्तमान शती के प्रारंभ ही नहीं रही। अत. यदि शिलालेखीय सामग्री प्रचुर मात्रा से पूर्व ही ज्ञात एव उपलब्ध शि० ले० पर विद्वत्तापूर्ण में उपलब्ध न रही होती, तो अनेक युगो अनेक प्रदेशों, ऊहापोह तथा नवीन शि० ले० की खोज, शोध एव प्रकाराज्यो, राजा-महाराजाओ, एवं अन्य विशिष्ट व्यक्तियो शन की प्रक्रिया द्रुतवेग से चल पड़ी थी। परिणामस्वरूप, के इतिहास का निर्माण ही असंभव होता। अशोक, मौर्य रायल एशियाटिक सोसायटी को बम्बई तथा बंगालऔर कलिंग चक्रवर्ती खारबेल जैसे महान सम्राटो के इति- बिहार-उड़ीसा आदि शाखाओ के जर्नलों, एपीग्राफिया हाम के मूग एवं एकमात्र आधार उन नरेशों के शिला- इडिका, एपीग्राफिया कर्णाटिका, कार्पस इन्सक्रिप्शनम लेख ही है। मातवाहन नरेश गौतमी पुत्र शातकीर्ण की इडिरम, इडियन एन्टीक्वेरी, मद्रास एपीग्रेफोकल रिपोर्ट, नानाघाट-प्रशस्ति, शक क्षत्रच रुद्रदामन प्रथम की जूनागढ़- मैसूर आकियोलाजिकल रिपोर्ट, साउथ इण्डियन इन्म. प्रशस्ति, मम्राट समुद्रगुप्त की प्राग-प्रशस्ति और चालुक्य क्रिप्शन्स, इण्डियन आकियोलाजी आदि की विभिन्न जिल्दो पुलकेशिन द्वि० की ऐहोल-प्रशस्ति उक्त नरेशों के व्यक्तित्व मे अनगिनत जनाजैन शिलालेख प्रकाशित हुए। जैन एव कृतित्व की एक मात्र एवं समर्थ परिचायक है। गंग, श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध, विशेषकर शत्रुजय, पाली Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, वर्ष ४०, कि० ४ अनेकान्त ताना, आबू एवं कतिपय अन्यत्र प्राप्त अभिलेखों का संग्रह दिल्ली से प्रकाशित हुए हैं। चतुर्थ भाग में ९८८ और स्व० बा० पूर्ण वन्द्र नाहर ने अपने "प्राचीन जैन लेख पंचम में ३७५ अभिलेख संग्रहीत हुए । इन दोनों भागों संग्रह' (३ भागों) में किया, एक अन्य बृहद् सकलन स्व० के प्रारम्भ में ज्ञानपीट-ग्रंथमाला के प्रधान सम्पादक द्वय, अगरचन्द नाहटा ने "बीकानेर लेख संग्रह" के नाम से विद्वद्वर्य डा. हीरालाल जैन एव टा० ए०एन० उपाध्ये किया था, कुछ एक अन्य भी छोटे मोटे मग्रह प्रकाशित के उपयोगी प्रधान-सगदकीय वक्तव्य भी प्रकाशित है। हुए, और इस प्रकार लगभग ३५०० श्वे. जैन शिलालेख इस प्रकार जैन शिलालेख के सग्रह के पाँचों भागो मे कुल प्रकाशित हो चके है। मिलाकर माधिक २७०० शिलालेख प्रकाशित हो चुके है। दिगम्बर जैन परम्परा म आधनिक साहित्य हासिक इनके अतिरिक्त, आहार के शि० ले०, देवगढ के शिले०, शोधपोज के पुरस्कर्ताओ मे स्व०५० नाथ राम जी प्रेमी मैनपुरी-एटा आदि के तथा मूरत के यत्र व प्रतिमालेख का नाम चिरस्मरणीय रहेगा। दा० गिरनाट की पुस्तक पृथक-पृथक् लघु प्रकाशनो में प्रकाशित हुए है। नाहटा जी से प्रेरणा लेकर, अपनी परम्परा से सम्बद्ध शिलालेखो के के बीकानेर लेख संग्रह में भी अनेक दिगम् जैन अभिप्रकाशन में उन्होंने ही पहल की। फलस्वरूप, श्री माणिक- लेख संग्रहीत है, और जैन सिद्धात भासार, अनेकात, चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रथमाला समिति, जिसके वह मंत्री थे. शोधाक अदि पत्रिकाओं में भी यत्र 17 अक फूटवर के ग्रांक-२८ के रूप मे, १९२८ ई. म. प्रेमी जी ने जैन लेख प्रगशित हुए हैं। अतः अद्यावधि दिगम्बर जैन परशिलालेख संग्रह-भा० का प्रकाशन किया। इग संग्रह का परा मे मारद्ध मब मिलाकर लगभग माढे तीन बार संकलन एवं सपादन उन्होने प्रो. हीरालाल जैन से कराया, हजार शि० ले प्रकाश में आ चुके :: । यदि देश भर के जो अपनी विश्वविद्यालयी शिक्षा समाप्त करके कुछ ही समस्त जिनमदिरों में विराजमान, विभिन्न संग्रहालया में समय पूर्व अमरावती वे किंग एडवर्ड कालिज में संस्कृत संरक्षित, तथा प्राचीन पुरातात्विक स्थलो एव भग्नावके अध्यापक नियुक्त हो गये थे। प्रोफसर मा० ने बडे शेषों मे यत्र-तत्र बिखरी पड़ी खाडेन अखडित जिननिउत्साह एव परिश्रम से इस भाग में श्रवणबेलगोल एवं माओं के पादपीठ आदि पर अकित अभिलेखों का भी उसके आस-पास के ५०० अभिलेखो के मलपाठो का । आकलन किया जाय तो दिगम्बर जैन परम्परा से सबधित संकलन किया, बहभाग लेनो का हिन्दी मे सक्षेपमार या शिलालेखों की संख्या दश सहस्र से भी अधिक होने की अभिप्राय भी साथ-साथ सूचित किया, लगभग १५० पृष्ठ संभावना है। की विद्वत्तापूर्ण ऐतिहासिक प्रस्तावना भी लिखी, अन्त में जो शिलालेख, जिस प मे भो प्रकाशित है, उनसे नामानुक्रमणिका भी दी। इस सग्रह का दूसरा भाग, उसी अनेक जैन राज्यवों, जिनधर्म के पश्रयदाता अथवा उगके ग्रंथमाला के ग्रंथांक-४५ के रूप मे १९५२ ई० में प्रकाशित प्रति सहिष्ण गजाओं-महाराजाओं, गजमहिनाओ, गजहुआ, जिसमे ३०२ अभिनख संग्रहीत हए। तीसरा भाग, पुरुषो, सामन्त-सरदारो, मन्त्रियों और सेनापनियो, धर्मग्रथाक-४६ के रूप मे १९५६ ई० मे प्रकाशित हुआ, जिसमे प्राण श्रेष्ठियो, साहित्यकारों और कलाकारो, श्रावकी५४४ अभिलेख संग्रहीत हए। इन दोनो भागों के सकलक श्राविकाओ, विभिन्न मुनिसंघों एवं उनके प्रभावक्षेयों, प्रमा. प.विजयमनि शास्त्राचार्य थे, किन्तु तीगरे भाग के प्रारभ वक आचार्यों, मुनिराजो एवं आयिकाओ, अनेक तीयों एवं में स्व. डा० गुलाबचन्द्र चौधरी द्वाग लिवित लगभग सांस्कृतिक केन्द्रों, मदिरो आदि धार्मिक निर्माणों, सस्थाओ पौने दो सौ पृष्ठ की विस्तृत ऐतिहामिक प्रस्तावना भी है। एव प्रवृत्तियों के विषय मे प्रभूत अपयोगी एवं रोक संग्रह के चतुर्थ एवं पचम भाग के संग्रहकर्ता एवं मम्पादक ज्ञातव्य प्राप्त हुए है । तथापि यह जानकारी बहुत कुछ डा. विद्याधर जोहरापुरकर है। प्रत्येक के प्रारभ में स्थूल, सतही या अपर्याप्त ही है। यह युग गभीर तल. उनकी उपयोगी प्रस्तावना भी है। ये दोनो भाग, क्रमशः स्पर्शी शोध-खोज और अनुसंधान का है। उस दृष्टि से १९६४ और १९७१ ई० मे भारतीय ज्ञानपीठ, काशी/ प्रकाशित शिलालेखों का जो रूप एवं विवरण प्राप्त हैं Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलालेखों के सर्वांगपूर्ण स्तरीय प्रकाशन की आवश्यकता वह सदोष एवं अपर्याप्त है। प्राप्त शिलालेख पाकृत, से ही सतोष कर लेने से अब काम नहीं चलता । ग्वयं सम्कृत, कन्नड, तामिन, तेलेगु आदि विभिन्न भाषाओ के हमने उपरोक्तरीत्या प्रकाशित प्राय: सभी जैन शिलालेखों हैं । लिपि भी कई प्रकार की प्रयुक्त हई है। काल और का अवलोकन अनेको का गंभीर अध्ययन एव मयन भी क्षेत्र के भी अगर है । जिन अग्रेजी प्रकाशनो से वे लिए किया है, और अनुभव किया है कि अने। बार उनके गए है उनमें वे बहुधा रोमन लिपि मे प्रकाशित है और गूढार्थों, उनमे अन्तनिहित ऐतिहासिक तथ्यो आदि को उनका अविकल शब्दानुवाद क्वचित् ही प्रस्तुत किया गया सम्यक रूप से समझ लेना कितना समय एव श्रमसाध्य है, है । अतएव उपरोक्त जैन शिलालेख-संग्रहो में प्रकाशित फिर भी मन को पूर्ण सतोप नहीं होता। इस विशेषज्ञता, अभिनेको के पाठ मुख्यतया उक्त अग्रेजी प्रकाशनो पर से शोध-खोज एव अनुसंधान के युग मे संदर्भ ग्रयो एव लिए गए होने के कारण बहुधा सदोष, त्रुटिपूर्ण अथवा मौलिक साधन-सामग्री यथा पुराभिलेख आदि, का शुद्ध, अशद्ध भी.--सर्वथा एव सर्वत्र यथावत भी नही। निर्दोष, सर्वांगपूर्ण सम्पादन-प्रकाशन अत्यावश्यक है। सग्रहा में अनेक शिलालेखो का नो मूल पाठ भी नहीं दिया अस्तु, जो शिलालेख आगे से प्रकाशित किये जाए; गया है, केवल मामान्य परिचय या सक्षिप्त अभिप्राय से चाहे वे उपरोक्त जैन-शिलालेख-सग्रह के षष्ठमादि भागों ही सन्ताष कर लिया गया है । सग्रहों के स+लको-सम्पा- के रूप में हो, अयवा उक्त संग्रह के प्रथम, द्वितीय एव दको को शिलालखा का भाषाओ, विशेषकर कन्नड, तमिल, ततीय भाग जो अब प्रायः अप्राप्य हा गए हैं, उनके पुनतेलेगु आदि का प्राय काई ज्ञान हा प्रतीत नहीं होता। मद्रण-प्रकाशन के रूप में हों, अथवा क्षेत्र विशेष या युगइस कारण उनक द्वारा प्रदत्त अभिलखो के परिचय या विशेष से सबधित अभिलेखो के स्वतत्र या सस्थागत प्रकामापसागाद भी अनेक बार अनुमानपरक, सदाष या भ्रात शित संग्रह हो, अथवा नवप्राप्त एकाको आभलख ही हो, हो गए है। शिलालखा के मूल सदर्भ भी अनकबार प्रत्येक अवस्था मे (१) शि० ले० का प्राप्तिरथल, भाषा, सदाष एव अपयाप्त है। लिपि, आकार-प्रकार आदि सक्षिप्त परिचय और स्पष्ट वस्तुतः, जैसा कि जन-शिलालख सग्रह, भाग-४ के स्रोत-सदर्भ, (२) अभिलेख का यथागणव यथाप्राप्त शुद्ध र प्रधान सपाद का डा० हारालाल जीव डा० उपाध्य जी पाठ, (३) उमका अन्वयार्थ, (४) अविकल हिन्दी अनुवाद, ने अपन संयुक्त वक्तव्य (पृ० ७-८) में स्वय स्वीकार (५) विशेपार्थ या आवश्यक टिप्पणी आदि, दिया जाना किया है, "लखा का जा भूलपाठ यहा प्रस्तुत किया गया अत्यावश्यक है। जिस भाषा में अभिनख उपलब्ध है, है, वह सावधानापूवक तो अवश्य लिया गया था, तथापि उसके संपादक को उक्त भाषा का अधिकारी विद्वान होना उस अन्त-प्रमाण हान का दावा नहीं किया जा सकता। चाहिए अथवा ऐसे विद्वान के सहयोग से ही उसका सपादनकन्नड लंखो का यहां जा देवनागरी में लिखा गया है अनुवादादि क ना आवश्यक है। किमी प्रौढ़ एवं अनुभवी उसम मी लिपि भद से अशुद्धियां हा जाना सभव है। इतिहासज्ञ विद्वान तथा पुराभिलेख -विशेषज्ञ का सहयोग पाग पीछ विशिष्ट विद्वानों द्वारा पाठ व अथे संशोधन भी अपेक्षित है। सम्बन्धी लेख लिख ही गए हागे । अतएव विशष महत्व. यदि जैन शिलालेखो के जो भी सग्रह अब प्रकाशित पूर्ण मौलिक स्थापनाओं के लिए सशाधका का मूल स्राता हो वे उपरोक्तरीत्या सपादित हो तो फिर उनके लिए का भी अवलोकन कर लेना चाहिए---कन्नड लख। का उनके अध्येताजी एवं मशोधको को अग्रेजी प्रादि विदेशी जो सार हिन्दी में दिया गया है उसाक आधार मात्र स भाषायो के उन प्रकाशनों की खोज मे नही भटकना कोई नई कल्पनाए नही करना चाहिए । यथावत: य लख पडेगा जो स्वयं सर्वथा निर्दोष या पूर्ण मी नही है। यह संग्रह सामान्य जिज्ञासुओ के लिए तो पर्याप्त है, किन्तु समय की महती आवश्यकता हे और उससे जैन इतिहास विशेष साधको के लिए तो ये मल सामग्री की ओर दिग्निर्देश मात्र ही करते है।" के सम्यक् पुनर्निर्माण में अपूर्व सहायता मिलगी । "कुछ न होने की अपेक्षा कुछ तो हुआ" मात्र इतने -चारबाग, लखनऊ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्रधारी भट्टारक कब से हुए श्री रतनलाल कटारिया 'भट्टारक' शब्द पूज्यार्थ में प्रयुक्त होता है (राजा जिनमें प्रभाचन्द्र का हाल इस प्रकार दिया है :--"श्री भट्टारको देव:-प्रमर कोष) सस्कृत कोषों मे राजा, भट्टा- प्रभाचन्द्र बहुत से शिष्यों के साथ पाटण खंभात धारा देवरक और देव ये ३ शब्द पूज्य अर्थ में भी बताए हैं यथा- गिरि आदि में विहार करते हुए मिथ्यामतों का खडन आ० श्री सूर्यसायर जी महाराज, भट्टाकलक, समन्तभद्र करते हुए योगिनीपुर (दिल्ली) मे आये। वहां भव्य जीवों देव । पहिले सभी नग्न दिगम्बर साधु इसी अर्थ में भट्टारक ने उन्हें महोत्सव के साथ रत्नकीति के पट्र पर बैठाया। भी कहलाते थे किन्तु वनवास छोड़कर जब ८-१०वी वहां उन्होंने विद्या से वादियो के मत काभजन करके महमद शताब्दी से चैत्यवास-नगरवास प्रारम्भ हुआ और दि० शाह के मन को रजायमान किया।" साधू भी मठाधीश हुए तो यह पूज्य शब्द भी बदनाम यहां महमद शाह को खुश करने की बात लिखी है हो गया। भ्रष्टाचार, अनाचार, शिथिलाचार से ऐसे ही इससे उस किंवदन्ती का संकेत मिलता है जिसमें कहा अनेक उच्च शब्द हीन बन गये है। जैसे-"पाखडी" जाता है कि-बादशाह ने भट्टारक से यह विनती की थी (पापं खण्ड यति, पाखण्डाः सर्वलिगिनः) पाप का खण्डन कि हमारी बेगमे भी आपका दर्शन करने को बड़ी उत्सुक करने वाले सब संप्रदाय के साधुओ को कहा जाता था हैं। अत: आप उन्हे दर्शन देने को वस्त्र धारण कर ले । किन्तु बाद में यह मायाधी धूर्त अर्थ मे हो गया। इसी इस प्रार्थना पर भट्टारक जी ने वस्त्र धारण प्रारम्भ किया प्रकार के कुछ शब्द निम्नांकित हैं (अति परिचय से भी था। अवज्ञा (व्यग) हो जाता है) १. बुद्ध-बुद्ध। २. नग्न, वस्त्र धारण की प्रथा इन प्रभाचन्द्र ने चलाई ऐसा नागा । ३. चार्वाक (चारुवाक्चालाक । मुंडी मोडया। 'जन सन्देश' शोधांक २६ नवम्बर मन् ६४ के अक मे पृ० ५. लुंचक (लौच करने वाला) लुच्चा। ६. मस्करि पूरण= ३५८ पर लिखा है। "बुद्धिविलास" पृष्ठ ८४ से ८८ तक मस्करा । ७. ध्रवपद (ध्र पद) धुरपट । ८. कर्महीन (सिद्ध) मैं भी इस सम्बन्ध का वर्णन है। वहां फिरोज शाह के करमहीन (अभागा)। ६. निःकम (सिद्ध)-निकम्मा। वक्त में प्रभा चन्द्र ने वस्त्र धारण (लगोट धारण) किया १०. महत्तर-महतर (भंगी)। ११. भद्र भद्दा, भद्दर । लिखा है। १२. हजरत, उस्ताद, गुरू, दादा-चंट । १३. रामायण= 'बाहुबली चरित' के उक्त पद्यों मे जो महमद शाह का रामाण (विसवाद)। १४. महाभारत युद्ध । १५. वक्ता नाम लिखा है उसकी जगह 'जैनग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह' भाग बकता। १६. हिन्दी (अनुवाद) करना=निंदा करना। २ पृष्ठ ३३ में "महमूद" पाठ है। १७. महाजन महाजिन्द । १८. राग (प्रेम) रहस्य । नग्न भारतवर्ष का इतिहास' (पाठ्य पुस्तक) मे नासिरुभट्रारकों ने वस्त्र कब कैसे धारण किया? नीचे इस पर हीन महमूद (दिल्ली के बादशाह) का राज्यकाल सन् विचार व्यक्त है: १२४६ से १२६६ यानि विक्रम सं० १३०३ से १३२३ भट्टारक पचनन्दि के गुरु भट्टारक प्रभाचन्द्र जी का तक का बताया है । यही समय प्रभाचन्द्र के पट्ट का पड़ता पट्टकाल "भट्टारक संप्रदाय" पुस्तक के पृष्ठ ६१ पर विक्रम है। इससे यही सिद्ध होता है कि प्रभाचन्द्र ने जिस बादसं० १३१० से १३०४ तक का लिखा है और वही बाहु शाह के मन को रंजित किया था वह बादशाह नासिरुद्दीन बली चरित (धनपालकृत अपभ्रंस) के कुछ पद्य उद्धृत है महमूद था। उसने सादा जीवन बिताया था। 'भट्टारक Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बस्त्रधारी महारक कब से हुए संप्रदाय' पु०१४ में भी इसी बादशाहं का उल्लेख है। उत्तर :-ऐसा नही है, दोष लगाना किसी भी भाव वस्त्र धारण की शुरुमात प्रभाचन्द्र ने फिरोजशाह के लिंगी का स्वरूप या लक्षण नही है। अबुद्धि पूर्वक लगना वक्त में की है जैसा कि बुद्धि विलास में लिखा है। यह और बात है और बुद्धि पूर्वक चलाकर दोष लगाना अन्य फिरोजशाह जलालुद्दीन खिलजी हो सकता है। जिमका बात है। अनिचार-दोष लगने पर उनका पतिक्रमण, आलोराज्य काल 'भारतवर्ष का इतिहास' में विक्रम सं० १३४७ चना, प्रायग्नितादि किया जाता है ताकि गलती की से १३५३ तक बताया है। फिरोजशाह तुगलक तो वह पुनावृत्ति न हो। किन्तु जो सदा जान-बूझकर दोष लगाता नही हो सकता क्योंकि तुगलक का राज्यकाल विक्रम स० है और उन्हे उपेक्षगीय मन्तव्य मानता है यहां तक कि १४०८ से १४४५ तक का है। (सन् १३५१ से १५ देखो दोगनी दो। ही नही मानता, उन्हें स्वरूप और जायज भट्टनरक संप्रदाय पृ. १४ टिप्पण नं. ३६)। गानना। वह जैन साधु नही हो सकता । आज प्रायः यहो प्रश्न :-वसन्त कोति पहले ऐतिहासिक भट्टारक हो रहा। धानको का बाम साधुर्यों का संयम पलाना प्रतीत होते है इन्हें वनवासी और शेर द्वारा नमस्तुत कहा है कि मान नही सच्चा मुशिभक्त है जो सबसे बड़ा कहा है। श्रुतसागर सूरि के अनुमार ये ही मुनियों के वस्त्र लाने की धु । म, चतुराई के साथ साधुओ का सयम विगा. धारण के प्रवर्तक थे। यह प्रथा इन्होन मोडलगढ़ मे आ है। जो मका विरोध करते है उन्हे मुनि-निंदक कहा आरम्भ की थी। इनकी जाति बघेरवाल थी। विक्रम स० नाना है। संगार भी बडा विचित्र है । माधु भी मीठे जहर १२६४ को ये पट्रारूढ़ हुए थे (देखो "भारक सप्रदाय" को ही पचात । न यो गोच पाते है कि हम अपना पृ.६३) तब भट्टारक प्रमाचन्द्र (विक्रम स० १३४७ से ही अहिन नही कर रहे है किन्तु जिन-मार्ग-परम्परागका १३५३) द्वारा वस्त्रधारण का प्रारम्भ कैसे बताया जाता विधात कर रहे है। श्रावक भी यह नही सोचते कि साधुओ ने एक तरह से उनके ही भरोसे घर-बार छोड़ उत्तर-पट प्राभूत टीका पृ. २१ मे श्रुतसागर ने महावन अगाकार किया है-दीक्षा ग्रहण की है तब हम अपवाद वेष के रूप में लिखा है कि कालकाल म बच्छादि मिथ्यामोह व उनका सयम घानकर उनके साथ विश्वासलोग नग्न रूप देख मुनियो पर उपद्रव करते है अत: गत घात तो नहीं कर है ? इसी का परिणाम है कि आज कीति ने यह उपदेश दिया कि-"चर्यादि के समय चटाई पवित्र साधु सरया मलिन दूषित नष्ट भ्रष्ट मालोच्य आदि के द्वारा शरीर को ढंक ले, चर्या के बाद उमछाई गौरवहीन हो रही है। आज किसी को इसका अन्तस्ताप दे।" श्रुतसागरसूरि ने अपवाद वेष को मिथ्यात्य बनाया नहीं दिखता। है। पहिले चटाई टाट आदि का ही प्रयोग हुआ था वह नग्न दिगम्बरत्व सिर्फ कुन्दकुन्द की परम्परा नही है भी कुछ काल विशेष के लिए, सदा वस्त्र धारण (सूती) किन्तु जैन परम्परा है जैन ही नही सारी प्रकृति और का प्रचलन नही हुआ था। यह प्रभाचन्द्र के वक्त से हो रामार इसी मुद्रा (नग्न दिगम्बररव) से आकत है चाहे प्रारम्भ हुआ है। यह विशेषता है। पण हो पक्षी हो भन्मजात मनुष्य हो अजीव तक हो सभी वसन्त कीति व्याघ्राति सेवितः शीलसागरः।। "भट्टा- जगत जनन्द्र मुद्रा से ही अकित है। कोई भी वस्त्रालंकार रक संप्रदाय" पृ० ८६ के इस पलोक का जो पृ० ६३ में से मुक्त पंदा नही होता। "शेर द्वारा नमस्कृत" बर्ष किया है वह सही सगत प्रतीत सर्व पश्यत वादिनी जगदिद जैनेन्द्र मुद्रांकित ॥ नहीं होता । उसका अर्थ "बघेरवाल" होना चाहिए। "नोलशास्त्र" (उमास्वामीकृत) जैनो का बाइबल प्रश्न :-पुलाक बकुश कुशील को भावलिंगी साधु सर्वमान्य ग्रन्थ है, दि०० दोनो इसे मानते हैं। बहुत से माना है और मूलादि गुणों में दोष लगाना इनका स्वरूप भाई सोचते है कि इसमे कही भी नग्नत्व का प्ररूपण मामा है तब वस्त्र धारण कर लिया वह भी परिस्थिति नहीं है किन्तु यह मोचना उनका भूल भरा है। क्योंकि वश कालदोष से तो क्या हानि है? इसके अध्याय ६ सूत्र में "शीतोष्णवशमशकनारम्य..." Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, वर्ष ४०, कि०४ रूप में २२ परिषह बताये हैं। सूत्र ८ "मार्गाच्यवन निर्ज- नगर दिल्ली में पानसाह फिरोज शाह पठाण की में रार्थ परिषोढव्याः परीषहाः" में मार्ग से व्युत न होने के प्रतिष्ठा हई सवा करोड़ रुपये लागे । एक बार पातसाह लिए और कर्म निर्जरा के लिए इन २२ परीषहों को सहन फिरोजशाह ने हिन्दुओं के विरुद्ध मुसलमानों की शिकायत करना बताया है। इस प्रकार परिषह साधु जीवन की पर सिपाही भेजे तब भट्रारक जी की पालकी बिना कहारों नीव है बिना नग्न परिषह धारण किये वह जिनमार्ग से के चलकर आई और सिपाहियों के हाथ यों के यों रह च्युत माना गया है। जहाँ मूल मे ही नग्नत्व का प्ररूपण गए, मुह बांके हो गये, जुबान बन्द हो गई। बादशाह किया गया हो वहाँ उसका अभाव बताना अज्ञान है। ने सुनी तो आकर हाथ बांध कर भट्टारक जी के चरणों मे माघओं के लिए सव परोषहों का सहन करना आवश्यक गिरा और बोना-मेरा कसूर माफ करो। बतामा है। बिना नग्नत्व के शातोष्ण दशमशक (सर्दी, फिर बेगमों ने बादशाह से कही-ऐसे औलिया(संत) गर्मी, हांस-मच्छर की) परिषह भी सम्भव नही अतः नग्नत्व के दर्शन हमको भी करावो। बादशाह ने भट्टारक जी से प्राथमिक और आवश्यक है। तृण स्पर्श, मल, शय्यादि अर्ज करी कि--बेगमें दीदार करना चाहती हैं । यह वक्त परिषह भी नग्नत्व में ही पूर्ण फलित होती है । अत नग्नत्व नगन रहने का नहीं, आप दूसरे खुदा हो सो एक लगोट का लोप करना जैनधर्म का हो लोप करना है। दि० श्वे. तो लगाना ही चाहिये । भट्टारक जी की स्वीकृति पा के भेद को मिटा कर श्वेताम्बर विकृत मार्ग को ही पुष्ट बादशाह ने लाल लगोट कराई फिर सिंदूरिया वस्त्र भी करना है अत: जैन साधु का वस्त्र धारण करना जिनसासन । भट्टारक जी ने ग्रहण किया सं० १३१० से यह वस्त्र रखने का दूषण है अपराध है किसी भी स्थिति में योग्य नहीं। की प्रथा शुरू हुई।" अजनो मे भी नग्नत्व को परम हम का रूप माना है। जैन निर्ग्रन्थ के लिए वस्त्र धारण करना निन्द्य है दोषास्पद Note- इतिहास में इस फिरोजशाह (जलालुद्दीन है अपने पद और नाम के विरुद्ध है। संसार के सब धर्मों खिलजी) का समय वि० स० १३४७ से १३५३ है। अनः से जैन को अलग पहचान नग्नत्व ही कराता है। ऐसे १३१० संवत् के साथ इसकी संगति नही बैठती। स० जगत् के भूषण नग्नत्व के लिए अनन्तशः बन्दन ! १३१० भट्टारक प्रभाचन्द्र का पट्ट पर बैठने का है। इस घटना के समय का ठीक से निश्चय न होने के कारण वही "वीरवाणी" पृ० २१४ (१८ जून ८८ अक) मे "एक स० १३१० लिख दिया गया हो। इतिहासज्ञों को ठीक ऐतिहासिक गुट का'' (वि० स० १९८५ म लिखित) निबध निर्णय करना चाहिये। फिरोजशाह का समय १३१० मे बताया है कि नहीं है। "सवत् १३१० में भट्टारक प्रभाचन्द्र जी के समय में -केकड़ी (अजमेर) ३०५४०४ जो सिद्धान्त ज्ञान आत्मा और पर के कल्याण का साधक था आज उसे लोगों ने आजीविका का साधन बना रखा है। जिस सिद्धान्त के ज्ञान से हम कर्म कलंक को प्रक्षालन करने के अधिकारी थे। आज उसके द्वारा धनिक वर्ग का स्तवन किया जाता है यह सिद्धान्त का दोष नहीं, हमारे मोह की बलवत्ता है -वर्णी-वाणी I पृ० १८३ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के अनिवार्य-कारण श्री मुन्ना लाल जैन, 'प्रभाकर' अनादि काल से जीव के साथ दर्शन मोह (मिध्यात्व) 'त.दृशी जायते बुदिळवपायश्चतादृशा । लगा हुआ है। जिसके कारण यह जीव संसार की ८४ सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ॥' लाख योनियों में भटक रहा है । और दुःख सह रहा है। जिस जीव की जैसी होनहार होती है। उसकी वैसी सुखी होने के उपाय भी करता है, परन्तु सिद्धि नहीं होती " ही बुद्धि हो जाती है प्रयत्न भी उसी प्रकार का करने क्योंकि सुखी होने के सच्चे उपाय का इसको पता नहीं है। वह सच्चा उपाय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हैं। उसके बिना लगता है और उसे सहायक (निमत्त भी) उसी प्रकार के मिल जाते है। (भवितव्यता की व्युत्पत्ति) भवितु योग्य अनेक उपाय करने पर भी दु.खों से छुटकारा नहीं पाता जैसे कि पं० प्रवर प० दौलत राम जी ने 'छह ढाला' में भवितव्यम् तस्य भावा: भवितव्यता जो होने योग्य हो उसे भवितव्य कहते हैं और उसका भाव भवितव्यता है। कहा है, "मुनिव्रत धार अनन्तवार ग्रीवक उपजायो, हमारी दृष्टि से इसलिए सम्यग्दर्शन की प्राप्ति केवल 4 निज आतम ज्ञान बिना सुख लेश न पायो। ताते जिन पुरुषार्थ से मानना आगमानुकूल नही बैठना । क्योंकि वर कथित तत्व अभ्यास करीजे, सशय विभ्रम मोह त्याग सम्यग्दर्शन रूपी कार्य की सिद्धी में पांच समवाय नियमतः आपो लख लीजे।" तथा मंगत राय जी ने बारह भावना होते हैं । उपादान (पदार्थ की कार्य का होने की योग्यता में कहा है, 'वीतराग सर्वज्ञ दोष बिन, श्री जिन की वाणी अर्थात (स्वभार) पुरुषार्थ, काल, नियति और निमिन इन सप्त तत्व का वर्णन जा में, सो सबको सुख दानी ।। बार पांच कारणों को सूचित करते हुए वनारसी दास जी नाटक बार इनका चितवन कर श्रद्धा उर धरना। मंगत इसी समय सार में कहते हैं। जतन से भव सागर तरना ॥' तथा इसी सम्यग्दर्शन को मोक्ष प्राप्ति की प्रथम सीढ़ी भी कहा है इसके बिना 'पद सुभाव पूरव उदय, निह, उद्यमकाल शास्त्रों का बहुत ज्ञान तथा क्रियाए भी. सम्यकपने को पक्षपात मिथ्यानपथ सरवगी शिवचाल ।। प्राप्त नही होती, 'मोक्ष महल की प्रथम सोढ़ी या बिन इसका आशय इतना है कि किसी एक कारण मात्र ज्ञान चरित्रा, सम्यकता न लहे सो धारो भव्य पवित्रा' से सम्यग्दर्शन रूपी कार्य की सिद्धि मानना एकान्तवाद इस सम्गग्दर्शन की प्राप्ति के विषय मे ५० प्रवर प० होगा। गोमदृसार कर्मकाण्ड गाथा ८७९ से ८८३ मे भी टोडरमल जी ने कहा है, 'भला होनहार है ताते जिस पाँच प्रकार के एकान्तवादियों का कथन आता है। उसका जीव के ऐसा विचार आये है कि मैं कौन हूँ मेरा कहा आशय भी यही है कि जो इनमें से किसी एक से कार्य की स्वरूप है। यह चरित्र कैसे बन रहा है ? मुझे इन बातन सिद्धि मानता है वह मिथ्या मान्यता और जो इन पांचों का ठीक करना ऐसा विचारते अति प्रीतिकर शास्त्र अध्य- के समवाय को स्वीकार कर उनसे कार्य सिद्धि मानता है यन करने को उद्यमवत होता है, सप्त तत्वो के स्वरूप को उसकी मान्यता सच्ची है। अब रही मिथ्यात के काल की जानकर उनका विचार करता है। जो सम्यग्दर्शन की बात । सो वह अनादि अनत और अनादि सांत दो भागो प्राप्ति का सच्चा उपाय है।' पृष्ठ २५, अब सम्यग्दर्शन में विभक्त है क्योंकि सर्वत्र अनत (जिसका कभी अन्त नही कब प्राप्त होता है। उसके लिये अष्टसहस्री पृ० २५७ होता) मानेंगे तो मिथ्यात् का कभी अन्त नहीं होगा, में भट्टाकलंक देव ने कहा है-- जबकि अनंते भव्य मिथ्या दृष्टियों ने मिथ्यात का नाश Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ बर्ष ४०, कि०४ अनेकान्त करके निर्वाण प्राप्त किया है। के अनुसार हो जाती है। ये संसार में देखने में भी माता मो० मा० प्र०। ८० पर कहा है है कि कोई भी माता-पिता अपनी सस्तान को डोटे मार्ग 'कषाय उपशमने ते दुख दूरि ढोय नाय सुखी होप पर नहीं लगाना चाहते और अच्छे मार्ग पर चलाने का परन्तु इनकी सिद्धि इनके किये गायन के आधीन नाही, पूरा प्रयत्न भी करते है परन्तु बहुतों की सन्तान जिनकी भवितव्य के आधीन है । जात अनेक उपाय करते देखिये __होनहार बुरी है-उनको अपने माता-पिता की अच्छी अर सिद्धि न हो है । वहरि उपाय बनना भी अपने अधीन शिक्षा अच्छी नहीं लगती। खोटी संगति वालों की बातें नाहिं । भवितव्य के अधीन है । जाते अनेक उपाय करना अच्छी लगती है और खोटे मार्ग पर चलने लगते हैं। ऐसे विचार और एक भी उपाय न होता देखिये है। वहरि अनेको दृष्टान्त देखने में आते हैं। काकतालीयन्याय करि भवितव्य ऐसा ही हो। जैसा अपका प्रयोजन होय तमा ही उपाय होय अर जाते कार्य की सिद्धि छहढाला की पहली ढाल में भी कहा है-"तहतें मी होय जाय।' चय थावर तनघरे, यो परिवर्तन पूरे करे।' अर्थात मिथ्यात्व के काल में पांच परावर्तनों को अनेक बार पूरे इसलिये सम्यक्त की प्राप्ति मे पानाही समवाय को कर लेते है। इसका यह अभिप्राय है कि इस जीव का मानना पड़ेगा। यदि इनमे से एक भी समवाय का अनाव । ज्यादा समय एक इन्द्रिय में ही व्यतीत होता है क्योंकि होगा तो बाकी चारों समवाय भी न होंगे इसलिए कले वहां पांचों परावर्तनो का काल अनन्त नहीं हां बहुत है पुरुषार्थ से ही सम्यग्दर्शन की प्रप्ति मानना आगमा कल और जब मिथ्यात्व का काल अल्प समय रह जाता है नही है। इसके अतिरिक्त सम्यग्दर्शन से पहले पाच तो उसे अर्धदगन परावर्तन कहते हैं। और तभी वह लब्धियों का होना अति आवश्यक है उनके बिना भी अपने को तथा ससार को समझने का प्रयत्न करता है तब सम्यक्त्व नही होता । इनमें भी चार लब्धियाँ, क्षयोपशम, व्य को मम्यकता की प्राप्ति होती है। कहा भी हैविशुद्धि, देशना तथा प्रायोग ती अने का वारसमय तया । 'तत्पति प्रीतिचिर्तन येन वार्तापि हि अता। निश्चितं सः अभव्यो के भी हो जाती है) वा भी मम्पदशं । हाने का भवेद्भयो भाविनिर्वाण भाजनम्' (पद्मनन्दि पंच विशतिका नियम नही है। हाँ पांचवी करण ब्धि के होने पर (एकत्वशीर्तव : २३) इससे यह मालूम होता है कि जो सम्यग्दर्शन के प्राप्त होने का नियम अवश्य है इसके लिये भव्य है, उसके मिथ्यात्व का काल अनन्त नहीं है क्योकि भी प० टोडरमल जी ने कहा है-- मिथ्या दृष्टि ही मिथ्यात्व का नाश करके सम्यक्त्व को जाकै पूर्व कही च्यारि लधि तो भई होय, प्राप्त करता है। अब रही यह बात कि सम्यक्त्व की अर अंतर्मुहुर्त पीछे जाकै सम्यक्त होना होय । प्राप्ति कैसे होती है ? उसके लिए कहा हैतिसही जीव के करण लब्धि हो है मो इस कारण 'तात जिनतर कथित तत्त्व अभ्यास करीजे, मन्धि वाला के बुद्धि पूर्वक तो इतना ही उद्यम ही है.- सशय, विभ्रम, मोह त्याग आपो लखि लीजे।' जिस तत्व विचार विष उपयोग नप होय लगावे । तत्त्व अभ्यास के लिए पहिले आगम के द्वारा सातो (मो० मा० १० पेज ३८६) तत्त्वो के अर्थ को समझना, फिर उसका बार-बार चिन्तइस करण लब्धि की प्राप्ति उमी जीव को होती है। वन करना श्रेयकर है। सारे आरम्भ और कषाय भावों से जिसको अन्तर्मुहर्त में सम्यग्दर्शन होना होता है। इसके उपयोग को हटाकर तत्त्व विचार में लगाना चाहिए। लिये कहा है-"जैसी जस भवितव्या तैसी मिले सहाय। क्योकि तत्त्व विचार करने का और दर्शन मोहनीय की आपु न पावे ताहि पर ताहि तहाँ ले जाय।' इसका अर्थ--- स्थिति कम होने का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है अर्थात अपना बस होनहार पर नहीं चलता किन्तु बुद्धि होनहार जब यह तत्व अभ्यास में उपयोग को लगाता है तब दर्शन Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के अनिवार्य कारण १७ मोह घटते-घटते उपशम अवस्था को प्राप्त हो जाता है। विचार पुरुषार्थ है। तत्त्व विचार करना इस जीव का सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का यही सच्चा उपाय है। जब यह अपना कार्य है इसलिए आचार्यों ने पुरुषार्य करने का उपजीव इस उपाय को करता है तो पांचों समवाय होते हैं। देश दिया है जिससे यह जीव आलसी न हो जाय । वहां ·ोई किसी के आधीन नहीं है। क्योंकि जिस कार्य (सम्यग्- भी पंच समवाय के निषेध से तात्पर्य नहीं है । तात्पर्य मात्र न) का जिस समय पुरुषार्थ करता है वो समय ही उस इतना है कि हम अपने उपयोग को जितनी शक्ति संसार कार्य की सिद्धि काललब्धि है और जिसका विचार कार्यों में लगाते हैं, उतनी शक्ति तत्त्व विचार करने में करता है वह निमित्त, उसका फल होनहार (भवितव्यता) लगाएं । और जीव की सम्यग्दर्शन के रूप होने की योग्यता उपादान एक दृष्टान्त मरीचि का देखिए, मरीचि भगवान इसलिए अकेले पुरुषार्थ के आधीन सम्यक्त्व की प्राप्ति आदिनाथ का पोता था और जब वह भगवान के समोमानना ठीक नही । टोडरमल जी ने भी मिथ्यात का काल शरण में बैठा था तब उसको बताया कि वह आगे चलकर अनन्त न मानकर (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० ३७६ पर कहा महावीर नाम का अन्तिम तीर्थकर होगा। क्योंकि उसके है कि-'याका उद्यम तो तत्त्वविचार का करने मात्र ही तीर्थकर होने में उस समय बहत कार है।' इसका आय वहां अन्य समवायो का निवेध करना अभी अच्छी नहीं थी। उसको बहुत काल तक संसार में नहीं है और जहां तत्त्व उपदेश भी नही है वहां (नरक में) कई भव धारण करने थे, इससे भगवान की वाणी सुनने भी पूर्व उपदेश के संस्कार होते है, वहा भी तत्त्व विचार पर भी उसकी बुद्धि स्वच्छद होने की हो गई और जब करने से दर्शनमोह की स्थिति घटकर अत: कोटाकोटि उसका संसार निकट आ गया अर्थात् उसकी होनहार प्रमाण रह जाती है और वह मिथ्यात अवस्था में ही घटते अच्छी आ गई तो सिंह की पर्याय में भी उसकी बुद्धि घटते उपशम अवस्था को प्राप्त हो जाती है और सम्य संयम धारण करने की हो गई। इन सभी से सिद्ध होता क्त्व की प्राप्ति हो जाती है । इसके सम्बन्ध मे १० जी ने है कि उपाय करने की बुद्धि भी भवितव्य के आधीन है। यहां तक कह दिया है कि----'कषाय उपशमने ते दुःख दूर कातिकेयानप्रेक्षा में भी कहा हैहोय जाय सो इनकी सिद्धि इनके किये उपायन के आधीन 'जं जस्स जम्हि देसे जेरण विहाणेण जम्हि कालम्हि । नहीं भवितव्य के आधीन है। जाते अनेक उपाय करना त तस्स तम्हि देसे तेण विहाणेण तम्हि कालम्हि ॥ विचार और एक भी उपाय होता न देखिये है बहुरि काक को सक्कइ चालेंदु इदो वा अहमिदो जिणदो वा।' तालीय न्याय करि भवितव्य ऐसा ही होय जैसा आपका अर्थात जिस जीब का जिस देश में जिस निमित से प्रयोजन होय तसा ही उपाय होय अर ताते कार्य की सिद्धि भी होय जाय। बहरि उपाय बनना भी अपने जब जसा हाना होता है उस जीव का उसी देश में उसी आधीन नाहिं भवितव्य के आधीन है (१०७६) पं० निामत्त उसा समय को निमित्त उसी समय वैसा ही होता है, उसे टालने में इन्द्र दौलतराम जी ने भी कहा है.-- 'आतम के अहित विषय या जिनेन्द्र भगवान भी समर्थ नहीं हैं और भी कहा हैकषाय, इनमे मेरी परिणति न जाय।' इन सबका यही 'कारज धीरे होत है काहे होत अधीर । तात्पर्य है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए कषायों को समय आये तरुवर फरे केतो सींचों नीर ॥ कम करके तथा आरम्भ और परिग्रह का भी परिमाण अर्थात् समय आने पर ही कार्य होता है, इसके लिए करके और अपनी मान्यता का भी पक्षपात छोड़कर शान्त कुछ लोयों का कहना है कि टोडरमल जी ने कहा है कि चित्त से जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए सात तत्त्वो का काल लब्धि किछु वस्तु नाहीं इसका अर्थ ये नहीं है कि चिन्तन करना ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय है काल लब्धि कुछ नहीं होती, इसका अभिप्राय तो केवल जिस समय यह भव्य जीव तत्त्वों का विचार करता है तब इतना है कि काललब्धि तो समय है कार्य के होने का। वही समय इसके कार्य की सिद्धि की लब्धि है तथा तत्त्व अर्थात् जिस समय जो कार्य होता है वही उस कार्य की Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८, वर्ष ४०, कि०४ अनेकान्त काललब्धि है। इसीलिए केवल पुरुषार्थ से ही कार्य की छ महीने आठ समय में छ सौ आठ जीव ही मोक्ष प्राप्त सिद्धि मानना एकान्त है। हर कार्य के होने का समय और करते हैं, कमती-बढ़ती नहीं ऐसा नियम है। यदि नियमन निमित्त नियत है ये सम्यक् नियति है और एक ही से सारे हो तो जब चाहें मोक्ष चले जाएं किन्तु ऐसा नहीं हो कार्यों का होना मानना मिथ्या नियति है, इसको एकान्त- सकता। क्योंकि मोक्ष जाना इसके स्वयं या मात्र पुरुषार्थ वाद कहा है। गोम्मटसार में जहां ३६३ पाखंडों का वर्णन के आधीन नहीं हैं। भवितव्यता के अधीन है। किया है, वहां-सम्यक्-नियति को मानने को एकान्त नही नियति के विषय मे पूज्य क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी कहा है । इस जीव को जब यह श्रद्धा हो जाती है कि जो वर्णी भी कहा करते थे-'जो-जो भाषी वीतराग ने सोहोना होगा सो ही होगा मेरे करने से नहीं होगा तब सो होसी वीरा रे। अनहोनी न होय कभी भी काहे होत उसको पर द्रव्यों से पंचेन्द्रिय के भोगों से और संसार को अधीरा रे।' इसका अर्थ भी यही है कि जो होना है सो बढ़ाने वाले आरम्भ से भी अरुचि हो जाती है और वह वीतरागी (केवल ज्ञानी के ज्ञान मे है) यदि इसको न तत्त्व विचार करने के लिए उद्यमवंत होता है और उसको मानेंगे तो केवलज्ञान नही रहेगा। इसके अतिरिक्त ससार सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और जिमका ससार अभी में देखा भी जाता है कि किसी कार्य के करने का बहुत निकट नही आया वह किसी एक पुरुषार्थ को ही प्रधान उपाय करते हैं परन्तु कार्य की सिद्धि नहीं होती और कभी मानता है, बाकी चार समवायो को उमके प्राधीन मानता कभी एक कार्य के पूरा करने को जाते हैं परन्तु रास्ते में है। उसकी मान्यता सही नही है। क्योकि बुद्धि भवि अनायास ही दूसरे कार्य की सिद्धि हो जाती है। रोग के तव्यता के आधीन है। क्योकि कहा है कि-विनाशकाल विषय में भी देखिए, रोग के आने का कोई उपाा नहीं आने पर बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और निमित्त भी वैसे ही करता परन्तु रोग आ जाता है और अनेक उपाय करने मिलते है। हां, आगम मे पुरुषार्थ करने का उपदेश अवश्य पर भी रोग नही जाता और कभी-कभी बिना दवा खाये दिया है। क्योकि हमको ऐसा पता नहीं कि हमको सम्यग्- श्री रोग ठीक हो जाता है। ये सब नियति नहीं है तो क्या दर्शन कब होन। है ? हाँ इतना जरूर है कि तत्त्व विचार है? सूरज पूरव मे ही उदय होता है और पश्चिम से अस्त के विना सम्यक्त्व नहीं होगा। इसलिए हमें पुरुषार्थ करना होता है। बच्चा पैदा होता है, बड़ा होता है, फिर बूढा चाहिए। परन्तु श्रद्धा यही रखनी चाहिए कि कार्य की भी हो जाता है। जरा एकाग्र चित्त से विचार करिए ये सिद्धि भवितव्यानुसार ही होगी। इस धारणा से हमको नियति नहीं है तो क्या है. यदि निर्यात न हो तो संसार साता असाता के उदय में भी सान्त्वना मिलती है। जिस की व्यवस्था ही नहीं चल सकती। ज्यादा क्या कहें नियति जीव का भला होना होता है उसी को भवितव्यता पर और होनहार इतनी प्रबल है कि इसके विषय मे कहने को विश्वास होता है। यदि ऐसा मान ले कि पुरुषार्थ करने शब्द भी नहीं है। हाँ, इतना अवश्य है कि पुरुषार्थ के से ही मुक्ति हो जायगी तो इस क ल में इमी सहनन से बिना कार्य नही होता परन्तु पुरुषार्थ भी नियति के आधीन तथा इसी पर्याय मे मोक्ष हो जानी चाहिए लेकिन आगम है। यहां तक कि नियति आर होनहार पर विश्वास होना में कहा है कि इस कान मे मोक्ष नहीं होती इसका कारण भी नियति के आधीन हैं। भी यही है कि जब मोक्ष होनी होगी तभी होगी। क्योंकि अन्सारी रोड, दरियागज, नई दिल्ली-२ प्रज्ञैव दुर्लभा सुष्ठु दुर्लभा सान्यजन्मने । तां प्राप्य ये प्रमाद्यन्ते ते शोच्याः खलु धीमताम् ।। -आत्मानुशासनम् ६४ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन कवियों के कतिपय नीतिकाव्य डा० गंगाराम गर्ग, भरतपुर अपभ्रंश की तरह हिन्दी मे भी जैन कवियों ने चरित भी क्षत्रशेष की उक्तियां मर्मस्पर्शी हैं । 'भूख' शान्त करने काव्य और नोति ग्रन्थ दोनो ही लिखे है। महाकवियों के के लिए मनुष्य अनेक नाटक रचता है। छत्रशेष कहते हैंविलास सज्ञक काव्य संग्रहों में से 'बनारसी विलास में' तन लौनि रूप हर, थूल तन कस कर, मन उत्साह हरं, अध्यात्म बत्तीसी, दश दान विधान, अक्षर माला, दिला. राम विलास मे ज्ञान बत्तीसी, अध्यात्म बारहखडी तथा बल छीन करता छिमा को मरोरै, गही बिढ़ मरजाव तोरं, पावदास कृत 'पारस विलास' मे 'सुगति बत्तीसी' उपदेश सुअन सहन मद कर सुअन सहेन भेद कर लाज रहता, धरम प्रवृति जप, तप पच्चीसी, बारहखड़ी, हितोपदेश पाठ आदि नीति विषयक ध्यान नास कर, धीरज विवेक हरै, करति अथिरता कहां स्वतत्र रचनाए है । महाकवि बुधजत की 'बुधजन सतसई' कुल कानि, कहा राज पंच गुरु, पान सुधा बस होय जीव के अलावा द्यानतराय के 'छहढाला' मे भी नीति तत्त्व के बहु दोष करता। दर्शन होते है। सांगानेर निवासी जोधराज के दो ग्रन्थ युवावस्था के कान्तिमान् शरीर की स्थिति वृद्धावस्था 'ज्ञान समद्र' और 'धर्म सरोवर' नीति के बड़े ग्रन्थ है। मे कितनी घणिन हो जाती है:आगरा के रूपचन्द का दोहा परमार्थी' और कामा (भरतपुर) के हेमराज का 'हेमराज शतक' दोनो ही नीति सकुचो सरीर, अलि गई तुचा, सूषो मांस, काव्य लोकप्रिय हो चुके है। फिर भी हस्तलिखित शास्त्रों प्रावझत पाउ, पथ चले खेद धरतां । की खोज करने पर पर्याप्त नीति ग्रन्थ मिल सकते हैं। दांत गयो दाढ़ गई, दिष्टि हू अविष्ट भई, कुछ अचचित नीतिकाव्य इस प्रकार है : नासा नेन मुख द्वार मल बहु झरता । सोस हले हाय हले, वदन निरूप भयो, १. मनमोहन पंचसतो : बांधव न बूझ बात, नारी हिय जरता। पाच सो सर्वयों से युक्त 'नीति' का सबसे बड़ा ग्रन्थ धिक् यो बुढ़ापो भैया, देख क्यों न खोजौ, है। अभी तक अज्ञात यह विशाल ग्रन्थ अजमेर स्थित मायो जहां पुत्र, पिता की अवग्या धनी करता। सोनी जी की नसियां में विद्यमान शास्त्र भण्डार मे उप- परम्परागत नीतिकारो की तरह क्षत्रशेप के अनुसार लब्ध है । कवि ने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में अपने नामो शील का आचरण मानसिक और शारीरिक सुख का ल्लेख के अतिरिक्त कुछ और नही बतलाया : माधार है। यश देने वाला और पूर्व कर्मबन्धो को नष्ट गुन फुर्रा दुरो दुरमति सकल, दुरितारत कारन नसह। करने वाला है :कहि 'छत्र सहस' परभव विष जिह तिह विधि सब सुष लहह। सील तं सकल गुन आप हिय बास कर, संवत् १९१६ में रचित इस रचना मे दुर्जन-सज्जन, सील ते सुजस तिहु जग प्रगटत है। कुगुरु, सुपंथ, 'अपराध-निषेध' मित्र-शत्रु आदि सामान्य सील ते विधन प्रोध, रोग सोग दूर होय, नैतिक विषयो की चर्चा के अतिरिक्त जैन दर्शनानुकूल सील तें प्रबल दोष, दुःख विघटत है। 'पुद्गल' का विवेचन है। परम्परागत नैतिक उक्तियो के सील ते सुहाग भाग, विन दिन उर्व होय, साथ-साथ 'भूख', 'वृद्धावस्था' जैसे सामान्य विषयों पर पूरब कर्मबंध रिननि घटत है । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, वर्ष ४०, कि०४ अनेकान्त सील सौं सुहित सुचि दीसत न प्रांनि जग, ककथ च्यारि बिगारि जगत् को तिनको नहि सुहावं। सील सब सुख मूल वेद यों रटत है। 'सुरति' सो जन मोहि भावे, ते सिव पंथ बतावै ।। २. 'विनोदीलाल के सवैये': ४. बत्तीस ढाला: 'नेमिनाथ को नव मंगल', 'नेमि ब्याह', 'राजुल सवाई माधोपुर मे उत्पन्न कवि टेकचंद षट् पाहुड़, पच्चीसी', 'नेमिराजुल बारहमासा', आदि नेमिनाथ-राजुल तत्वार्थ सूत्र, सुदृष्टि तरगिणी की वनिकाओ के कारण विषयक काव्य ग्रन्थों की रचना से स्पष्ट है कि विनोदी- जैन भक्तों में बड़े लोकप्रिय है। 'बत्तीस ढाला' इनकी लाल को नेमि-राजुल प्रसंग बड़ा प्रिय था। उन्होने अचचित रचना है। इस छोटी रचना मे वेसरी, गाथा, 'भक्तामर चरित्र भाषा' नामक एक बड़े ग्रन्थ की भी रचना सवैया, कवित्त, कुण्डलियां, छप्पय, चौपाई, सोरठा, चाल की। 'नवकार मत्र महिमा' के नाम से लिखित कवि के अडिल्ल, पद्धड़ि, षड़गा, भुजगी, भरैठा, गीत आदि कई ६०-७० सवैये नीति विषयक हैं। नाम स्मरण के अतिरिक्त छन्दों का प्रयोग करके कवि ने अपने छद-ज्ञान का परिचय इन्द्रिय दमन और दया आदि नीति विषय कवि को प्रिय दिया है। 'बत्तीस ढाला' के ६३ छंद और कुछ ढालों मे है। दया के बिना तीर्थयात्रा, विमिन्न मुद्रायें धारण करना अभिव्यक्त कवि के नीति विषय 'मनुष्य जीवन की महत्ता', निरर्थक है। कवि विनोदी लाल बाह्याचार की उग्र स्वरो 'स्वजनों की क्षणभंगुरता', रजस्वला स्त्री का रहन-सहन', में निन्दा करते हैं: 'विश्वास योग्य पात्र', 'पाप', 'दान' आदि है। चारों द्वारिका के न्हाये कहा, अंग के दगाये कहा, प्रकार के दानो का फल कवि ने इस प्रकार कहा है :संख के बजाये कहा, राम पइयतु है। सो दे भोजन दान, सो मन वांछित पावै । जटा के बढ़ाये कहा, भसम के चढ़ाये कहा, औषधि दे सो दान, ताही न रोग सतावै । घूनी के लगाये कहा, सिव ध्यायतु है। सूत्र तरणे दे दान, ज्ञान स अधिको पावै । कान के फराये कहा, गोरख के ध्याये काहा, प्रभ वान फल जीव, सिद्धि होइ सो अमर कहावै ।। सोंगो के सुनाये काहा, सिद्ध लइयतु है। भोजन करते समय ध्यान रखने योग्य आचरण की क्या धर्म जाने बिना, आपा पहिचाने बिना, महत्त्वपूर्ण बातें 'कुण्डलिया-रचयिता' गिरधरदास की कहत 'विनोदी लाल' कहूं मोष पइयतु है । तरह जैन कवि टेकचद ने जन साधारण को समझाई हैं -- ३. सूरति को 'बारहखड़ी' : भोजन करता जुद्ध कभु नहि ठानिये। जैन कवि सूरति कृत बारहखड़ी में चालीस दोहे और लोक विरोधी जो भोजन नहि मानिये । छत्तीस छन्द हैं। स्वार्थपरता 'कर्मबन्ध' साधु महिमा, पंच बिरुध न मिलि, नहि इक थल खाइये। आत्मचिन्तन इसके वर्ण्य हैं। सांसारिक कुकथाओ से दूर नन मूवि बुधि भोजन, भूलि न खाइये ॥६॥ जाति विरोधी कोई, तहाँ नहिं खाइये । रहकर मागम और अध्यात्म का चिन्तन करते रहना श्रावक कालक्षण है। ऐसा नीतिकार सूरति का मानना संस जुत भोजन नहि, बुधजन पाइये। अंधगमन जहाँ होइ, तहाँ खांनी नहीं। इत्यादिक बुधवान, धरौ हिरवं मही॥२०॥ ससा सोही सुगुर हैं, सुनि सुगुरुन की सीष । सबा रहे सुभ ध्यान मैं, सही जैन को ठीक । ५. 'मनोहर के सवैये' : सही जैन की सही जिनु के, और कछ नहि भाव भाव। मनोहर के नाम से प्राप्त ६०-७० सवैये चिन्ता, कर्ममागम और अध्यातम बानी, पूछ सुनावै गावै । प्रभाब, उद्यम, बाह्याचार, विषयासक्ति परिवार की Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दीन कषियों के कतिपय मोतिकाम्य स्वार्थपरता, 'होनहार' आदि विषयों से सम्बन्धित हैं। सत्संग से श्रेष्ठ बनने की बात 'मनोहर' ने कई लौकिक उदाहरणों से सिद्ध की है :चंदन संग कीये पनि काठ जु, चंदन गंध समान जुले है। पारस सौ परसे जिम लोह जु, कंचन सुख सरूप जु सोहै। पाय रसायनि होत कयीर जू, रूप सरूप 'मनोहर' जोहै। त्यौ नर कोविद संग किये सठ, पंडित होय सबै मन मोहै। ममता की स्थिति में कवि ने शास्त्रपठन, सयम, मोन वृत्त, तप, दान, योग आदि सभी साधनाओं को निरर्थक माना है:ग्रंथन के पढ़े कहा, पर्वत के चढ़े कहा, कोटि लछि बढ़े कहा, कहा रंकपन में । संयम के प्राचरे कहा, मौन वृत्त धरे कहा, तपस्या के करे कहा, कहा फिर बन में। दाहन के दये कहा, छंद करे तै कहा, जोगासन भये कहा, बैठे साधजन मैं । जोलो ममतान छटे, मिथ्या डोरिहन टूठे। ब्रह्म ज्ञान बिना लौ न, लोभ को लगनि मैं। सोचकबन की मन परतीत लोज्यो, तेरौं सोच कीये कछू कारिज सरि है। सोच कोये दुख भास, सुख सबही नास, पूरब न दीयो दान, तातं दुख भारी है। जैसे दुख सुख तेरे होय करम अनुसार ही प्राप सह रे, टार नहिटर है। कोदि बुद्धि करो फिरि फिरि, नाना देश माहि कियो, - बढ़ती न पावं कछ, निश्च तु धरिहै । प्रजा को सुख देना, राजाज्ञा का पालन करना, शीलवती होना और शुभ मार्ग पर चलना क्रमशः राजा, प्रजा, स्त्री और पुरुष को पावनता के मापदण्ड होते हैं। ऐसा लक्ष्मीचद का मत है : पावन राजा होय, प्रजा को सुख उपजाये। पावन परिजा होय, राज सब प्रानि न पाये। पावन नारी होय, सील गुन दिढ़ करि पाल। पावन नर जो होय, भल सुभ मारग वाले। ए च्यारों जु पवित्र हैं, ते पवित्र सहजै बरै। लषमी कहत एह भवसागर तिरं। ६. लक्ष्मीचन्द : उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विभिन्न चरित काव्यों १४ छप्पय, १२ कवित्त और २८ दोहो में लक्ष्मीचद और भक्तिपूर्ण रचनायो के लेखन से जैन कवियों की दष्टि ने 'साधु', 'शील', पुण्य, 'शास्त्र पठन', पवित्रता आदि भक्ति और सिद्धान्त चर्चा में ही नहीं रही. उन्होने आदर्श नीति विषयों पर उक्तियां कही है। 'सुख' और 'दुख' दोनों की 'म' और 'ख' दोनों जीवन की स्थापना मे भी रुचि ली है। गिरते हुए जीवन जावन के का समभाव से सहने का 'गीता' जैसा उपदेश लक्ष्मीचंद ने मूल्यों के इस युग मे ऐसी रचनाएं बड़ी उपयोगी हैं। इन पंक्तियों में दिया है: ११०-ए, रणजीत नगर, भरतपुर (राज.) ___ सम्यग्दृष्टि बाह्य पदार्थों को तो जुदा समझता ही है पर अन्तरंग परिग्रह जो रागादिक हैं उनको भी वह हेय जानता है, क्योंकि बाह्य वस्तु को अपना मानने का कारण अन्तरंग के परिणाम ही तो हैं। यदि अन्तरंग से छोड़ दो तो वह तो छूटी ही है। सम्यग्दृष्टि बाह्य पदार्थों की चिन्ता नही करता, वह उसके मूल कारणों को देखता है। इसलिए उसकी परिणति निराली ही रहती है। -वर्णीवाणी I पृ० ३५० Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिला संग्रहालय पन्ना में संरक्षित जैन प्रतिमाएँ 0 श्री नरेशकुमार पाठक' जिला संग्रहालय पन्ना की स्थापना जिला पुरातत्व सुमतिनाथ का लांछन चक्र तथा उसके दोनों ओर उपासक संघ पन्ना एवं मध्य प्रदेश पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग करबद्ध मुद्रा मे दोनों के सहारे बैठे द्रष्टव्य है । प्रतिमा का के सहयोग से १९७४ में की गई संग्रहालय में कुल ७३ आकार १११४७६x२५ से. मी. है। प्रतिमायें एवं कलाकृतियां संग्रहीत है, जो कि हिन्दू एव सुपार्श्वनाथ–सातवे तीर्थकर सुपार्श्वनाथ कायोत्सर्ग जैन धर्म से सम्बन्धित है, जिनमे २० जैन प्रतिमायें संग्र- मुद्रा में शिल्पांकित हैं। (सं० कृ. २४) सिर के ऊपर होत हैं, ये सभी जन मूर्तियां पन्ना नगर एव जिले के पांच फण नाग मौलि का आलेखन है । दायां हाथ खण्डित अन्य शिल्प केन्द्रो से प्राप्त हुई है । जो कि चन्देल कालीन है। वितान मे त्रिछत्र, अभिषेक करते हुए गजराज दोनों शिल्प शैली की हैं । सरक्षित प्रतिमाओं का विवरण निम्न- ओर दो-दो जिन प्रतिमा उत्कीर्ण है। तीर्थकर के दाहिने लिखित हैं: पार्श्व में मकर मुख, गज शार्दूल व परिचारक का अंकन प्रादिनाथ-प्रथम तीर्थतर ऋषभनाथ जिन्हे आदि- है। नीचे दाहिनी ओर यक्ष तुम्बर तथा यक्षी पुरुषदत्ता नाथ भी कहते है, की सग्रहालय मे दो प्रतिमाये सग्रहीत (नरदत्ता) का आलेखन है। प्रतिमा का आकार १०६x हैं। प्रथम प्रतिमा मे पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा मे (स० ४०४ २५ से० मो० है। ऋ० ७) उत्कीर्ण तीर्थकर आदिनाथ के पेर एवं मुख की विमलनाथ-तेरहवे तीर्थंकर विमलनाथ कायोत्सर्ग ठड्डी आशिक रूप से खण्डित है। वितान मे अभिषेक मुद्रा मे अकित है। प्रस्तर खण्ड का (सं० ऋ०६२) करते हुए गज, मालाधारी विद्याधर युगल एव जिन प्रति- दक्षिण पार्श्व व तीकर्थर का पैर खण्डित है। वाम पार्श्व मायें अकित है । पादपीठ पर परिचारक तथा पादपीठ के ऊपर से क्रमशः अलंकृत प्रकोष्ठ के मध्य कायोत्सर्ग मे जिन नीचे यक्ष गोमुख एवं यक्षी चक्रेश्वरी अकित है। मध्य में प्रतिमा, पद्मासन में जिन प्रतिमा, परिचारक अकित हैं। आसन पर आदिनाथ का ध्वज लांछन वृषभ का आलेखन नीचे आसन पर लांछन वराह का अंकन है। नीचे निमित है। प्रतिमा का आकार ११४७४ ३१ से० मी. है। कायोत्सर्ग में निर्मित तीर्थकर प्रतिमा व परिचारक अकित दूसरी मूर्ति में भी भगवान ऋषभनाथ पद्मासन की हैं। पादपीठ के ऊपर अस्पष्ट लांछन अंकित है। प्रतिमा ध्यानस्थ मुद्रा में उत्कीर्ण है। (स.क्र. २६) वितान मे का आकार १३७४७५४३१ से० मी० है। जाभिषेक दोनो ओर जिन प्रतिमा एमालामा धर्मनाथ-- पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ की सग्रहालय मे घर अंकित हैं। नीचे दोनो और जिन प्रतिमायें. परि- तीन प्रतिमायें संग्रहीत हैं । प्रथम कायोत्सर्ग मुद्रा मे तीर्थकर चारक तथा पादपीठ पर दायी ओर यक्ष गोमुख और धर्मनाथ (सं० कृ० १५) अंकित हैं। ऊपरी भाग में बायी ओर यक्षी चक्रेश्वरी का आलेखन है। मध्य में सिंह त्रिछत्र; गजाभिषेक, मालाधारी, विद्याधर उनके नीचे तथा आसन पर आदिनाथ का ध्वज लांछन नन्दी (वषभ) उकड बैठे परिचारक का अंकन है। पादपीठ पर दोनों बना हुआ है। प्रतिमा का आकार १४५४१०५४४० ओर सिंह, मध्य में लांछन बच का अंकन है। प्रतिमा का से० मी. है। आकार ११६+३२x२५ से० मी० है। समतिनाथ-पांचवें तीर्थकर सुमतिनाथ की प्रतिमा दूसरी कायोत्सर्ग मुद्रा में अकित तीर्थकर धर्मनाथ पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में अंकित है। (सं० ऋ० ६) को मूर्ति के ऊपरी (सं० ऋ० २३) भाग में त्रिछत्र, दोनों मुख व वक्ष स्थल खण्डित है। पादपीठ पर सिंह, मध्य में ओर कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन प्रतिमायें, मकर मुख, गज, Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिला संग्रहालय पन्ना में संरक्षित बैन प्रतिमाएं शार्दल, नीचे दोनों ओर जिन प्रतिमायें, यक्ष, किन्नर एवं परिचारक तथा पादपीठ पर यक्ष-यक्षी का अंकन है। यक्षी कन्दर्पा (या मानषी) का अंकन है। पादपीठ पर प्रतिमा का आकार ७२४४०x१७ से. मी. है। करबद्ध मुद्रा में धर्मनाथ का ध्वज लाछन बज्र का अंकन कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित तीर्थकर (सं० ऋ० ८) के है । प्रतिमा का आकार ११६ ४ ३२४ २५ से. मी. है । सिर पर कुन्तलित केश लम्बवत कर्ण, अजान वाह-देव का तीसरी तीर्थकर धर्मनाथ की पद्मासन में बैठी प्रतिमा पर खण्डित है। ऊपरी पावं में मालाधारी विद्याधर हैं, का शिरोभाग खण्डित है, (सं० ऋ० ४५) ऊपरी भाग मे बायी ओर उत्कीर्ण विद्याधर प्रतिमा खण्डित है। नीचे दो मालाधारी विद्याधर तथा नीचे पादपीठ पर सिंह, मध्य मे। न र सिंह माय मे छोटी जिन प्रतिमायें बायी ओर के परिचारक के गले से लांछन बच्न का अंकन है। प्रतिमा का आकार ५७४ ऊपर का भाग खण्डिन है। परिचारको के पापर्व में उपा३५४ २२ से. मी. है। सक गण करबद्ध मुद्रा मे खचित है। मूति का आकार १२८४ ५० x ३० से. मी. है। नेमिनाथ-बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ पपासन की र ध्यानस्थ (स० क्र.६०) मुद्रा में बैठे हैं। तीर्थंकर का कायो सर्ग मुद्रा में अकित दूसरी तीर्थकर मूर्ति (सं. सिर, हाथ एव पैर खण्डित है। वितान में विछत्र, अभि- ऋ० ३) के सिर पर कुन्तालित केश, लम्बवत कर्ण, अजान षेक करते हुए गज, मालाधारी विद्याधरो का आलेखन है वाहु, ध्यानस्थ मुद्रा में उत्कीर्ण है । पीठिका मे दोनो ओर पावं में दोनों ओर चतुर्भजी अस्पष्ट देव, हाथियो पर खड़े सिंह मध्य में आसन पर अस्पष्ट लांछन उसमे दोनो ओर परिचारक उत्कीर्ण हैं। पादपीठ पर दायी ओर यक्ष गोमेद, दो-दो उपासक गण घुटने के सहारे बैठे अपने दोनो हाथो बायी ओर यक्षी अम्विका अंकित है। पादपीठ के मध्य में अस्पष्ट वस्तु लिए हुए दिखाए गए हैं। प्रतिमा का सिंह एव ध्वज लांछन शख का अंकन है। प्रतिमा का आकार १४८४४७४३८ से० मी. है। आकार ८२४५१४३० से. मी है। तीसरी कायोत्सर्ग मुद्रा में अकित तीर्थकर प्रतिमा (सं० ऋ० १६) का दायां हाथ व पैर खण्डित है। प्रतिमा "लांछन विहीन तीर्थकर प्रतिमाएँ" छत्र, प्रभामण्डल से युक्त है, ऊपर दोनों पाश्वों मे दो-दो संग्रहालय में आठ लांछन विहीन तीथंकर प्रतिमायें नितिमा नीचे वामिका हो संग्रहीत है। जिनमें तीन पगासन एव पांच कायोत्सर्ग ओर सिह मध्य मे आसन पर निर्मित लांछन अस्पष्ट है। मुद्रा मे अकित है। प्रथम पद्मासन में अकित लाछन विहीन प्रतिमा का प्राकार १०४४५०x२० से. मी. है। तीर्थकर (सं० ऋ० ३३) का अधिकाश भाग खण्डित है। पार्श्व मे चावरधारी परिचारक का अंकन है। पादपीठ के कायोत्सर्ग मुद्रा में अकित पांचवीं तीर्थंकर प्रतिमा के दोनो ओर यक्ष-यक्षी की अस्पष्ट प्रतिमायें अकित है। दोनों हाथ खण्डित हैं। (स० क्र. २२) ऊपरी भाग में दोनों ओर जिन प्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। नीचे प्रतिमा का आकार ६६४५५ x २४ से० मी० है। मकर मुख, पार्थ में गज शार्दूल का अंकन है। पादपीठ __ दूसरी पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में अकित तीर्थकर पर सिंह, उपासक, उपासिका, आसन पर ध्वज लांछन (स० ऋ० ४४) प्रतिमा का शिरोभाग खण्डित है। पार्व अस्पष्ट अकित है। प्रतिमा का आकार १२३४२७४२७ में परिचारकों का अकन है। प्रतिमा का आकार ४२x ४०x१६ से० मी० है। से० मी० है। तीसरी पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा मे अंकित प्रतिमा सर्वतोभद्रिका-अलकृत स्तम्भ प्रकोष्ठ के मध्य चारों का सं० ऋ० ५२) शिरोभाग व पैर खण्डित है। ऊपरी (सं० ऋ० १३) पद्मासन में तीर्थकर प्रतिमायें अंकित है। भाग में छत्र मालाधारी विद्याधर दो-दो जिन प्रतिमायें ऊपरी भाग में एक जिन प्रतिमा दाहिनी ओर कोने पर उनके नीचे तीन-तीन कायोत्सर्ग मुद्रा मे जिन प्रतिमा, (शेष पृ० २५ पर) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो आयरियाणं श्री पप्रचन्द्र शास्त्री आचार्य और साधु दोनों पदों में अन्तर है। आचार्य करना मात्र है और स्व-अनुशासन व साधना से उतना अनुशास्ता हैं और साधु साधक । तत्व दृष्टि से यहां अनु- प्रयोजन नहीं जितना प्रयोजन दि. साधु को होना चाहिए। शास्ता का भाव पर से भिन्न अपनी आत्मा पर शासन हो सकता है कि आज के कुछ आचार्यों में भी ऐसी सूझ करने वाला है और वह इसलिए कि शुद्ध दिगम्ब रत्व में घर कर बैठी हो और वे पर कब शासक बनाने या प्रचार स्व-स्व में ही है, वहां पर के विकल्प या पराए पर शासन और समाजिक सुधार को प्रमुख कर साधक पद को गौण करमे को स्थान ही नहीं है। इसमें साधना भी है और कर बैठे हों तब भी आश्चर्य नहीं। अस्तु, यदि व्यवहार अनुमास्तापन भी । एतावता आचार्य (साधु और अचार्य) मनि-मार्ग चलाने के लिए ऐसा माना भी गया है और अब दोनों श्रेणियों में हैं और ' णमो आयरियाण" पाठ भी इसी भी माना जाए तोदृष्टि में है। पर, बाज हम परिग्रह के मोह मे अतीत के सभी जानते हैं कि दिगम्बर वेष धारण करना बड़ा उक्त तथ्य को नकार कर मात्र व्यवहार की ओर इतने प्रादर्श और कठिन कार्य है । तीर्थकर आदि महापुरुषों को मुके है कि जो सघ सर्वथा स्व से भिन्न है-परिग्रह रूप वज्र्य, पहिले किसी को दीक्षा देने की परम्पराएँ ऐसी रही है, अपरिग्रही गहाव्रती साधु के लिए सर्वथा परिग्रह है, हैं कि जो किसी लम्बे काल १०-१५ वर्षों तक मुनि संघ उस परिग्रह पर शासन करने वाले को आचार्य मान बैठे। में रह कर क्रमशः ब्रह्मचारी, क्षुल्लक, ऐलक जैसे पदों का हैं-स्व-अनु-शासक और माधक जैसे तथ्यों को तिरस्कृत पूर्ण अभ्यास कर चुका हो, और परिपक्व प्रायु हो, वही कर बैठे हैं। अन्यथा, लोगों की उक्त मान्यता का विरोध मुनि-पद में दीक्षित होने का श्रेय प्राप्त कर सकता था। तो इसी से हो जाता है कि जब हम उन्हें दिगम्बर अपरि ऐसे में उसके पद से च्युत होने की कदाचित् सम्भावना ग्रही, महाव्रती मान बैठे तब उनमे संघ-परिग्रह जैसा कम होती थी। पर आज तो लम्बी अवधि के ऋमिक परिग्रह भी क्यों? क्या मात्र धन-धान्णाद ही परिग्रह है अभ्यास के बिना ही युवक-युवतियों में दीक्षा देने और या साधु-संस्था की संभाल का विकल्प परिग्रह नही है ? लेने जैसी प्रवृत्ति भी अधिक दृष्टिगोचर हो रही है। हम यदि ऐसा है तब तो परिग्रह के अन्तरग चौदह भेद भी समझते हैं कि कहीं ऐसी प्रवृत्ति सम्राट् भरत के ग्यारहवें परिग्रह.नहीं कहलाए जाने चाहिए। स्वप्न फल को सत्य रूप में चरितार्थ करने के लिए ही स्थिति कुछ ऐसी बन रही है कि जैसे हम परिग्रही तो नहीं अपनाई जा रही? यदि हमारा कथन ठीक है तो अपने को परिग्रह का स्वामी माने हुए हैं वैसी ही धारणा विद्यमान ऐसे वय-वृद्ध आचार्य और मुनि-गण (जो मंतर. मूलतः व्यवहार आचार्य पद मे भी कर बैठे हैं । फलस्वरूप जंतर, टोना-टोटका आदि करते-कराते हैं) के प्रति चचित हमने केवल इतना मान लिया है कि आचार्य का कार्य अपवाद भी-स्वप्न फल को सत्य करने हेतु-सही होने संघ रूपी परिग्रह पर अनुशासन करना, उसकी संभाल चाहिए क्योंकि स्वप्न फल* के अनुसार इस काल में वृद्ध ऊंचे स्वर से शब्द करते हुए तरुण बल का विहार देखने से लोग तरुण अवस्था में ही मुनि-पद में ठहर सकेंगे, अन्य अवस्था में नहीं।" --"पार्श्व ज्योति" दिनांक १५-२-८७ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमो मायरियाणं वय मुनि पद के योग्य नहीं हैं। पर, ऐसा होना नहीं करना भी मुनि-पद के अनुकूल नहीं। अस्तु हमारी दृष्टि से चाहिए क्योंकि समाज में आज भी सु-मार्ग लग्न आचार्य तो मुनि को बहुसंख्यक कुमारी-साध्वी परिवार को बढ़ाना पाए जाने का अपवाद नही-वे पाए भी जाते हैं। समय और पद दोनों ही रीति से वयं है। यद्यपि इस दीक्षा मार्ग के निमित्त कई संरक्षकों को दहेज जैसे दानव अभी एक ज्वलंत प्रश्न यह भी उभर कर सामने से मुक्ति भले ही मिल जाती हो। हम तो कुमारों को भी प्राया है कि क्या ऐसी सुदृढ़-सुरक्षित भूमि तैयार हो मुनि-दीक्षा देने से पूर्व दसियों वर्षों तक लगातार त्याग चुकी है, जो एक-दो नहीं, अपितु बिना किसी क्रमिक दीर्घ और क्रमिक नियम पालन का अभ्यास कराना ही उचित कालीन अभ्यास के, समुदाय रूप में ढेर सी कुमारियों और समझते हैं और ऐसे में ही "णमो आयरियाणं, णमो लोए कुमारों को दीक्षा देकर उनकी भावी-सुरक्षा व स्थिरता के सब्ब साहूणं" जैसे पदों की सार्थकता समझते हैं। प्रति पूर्ण निष्ठा की जा सके ? हम अभ्युदय की कामना करते हैं। पर, इस विषय में लोगों की दृष्टि जो भी हो, अभी हमारे सामने एक प्रश्न यह भी आया कि क्या हम तो यदा-कदा स्त्री जाति के प्रति अपवादों को पढ़. आचार्यों को ऐसी अपरिपक्व वय में दीक्षा देनी चाहिए? सुन चौंक जाते हैं कि कही पग डगमगा न जाएं ? या कोई हमने कहा-लोक बेढंगा है, यदि आचार्य किसी के आततायी अवसर देखकर त्याग की कमर ही न तोड़ दे? वैराग्य को दृढ़ न करे तो कहेगा ये संसार से उबारने के और यह आशंका इसलिए भी कि गत दिनों ही दिगम्बरेतर साधन नहीं जुटाते । और यदि आचार्य वैराग्य दढ़ करा जन-साध्वी..... के प्रति सत्य या मिथ्या (?) अनेकों उसे उधर ले जाते हैं तो कहेगा-ये उम्र नहीं देखते। सब अपवादों को सभी पढ-सुन चुके हैं जबकि दिगम्बर मार्ग में भांति लोकापवाद है। हमारी दृष्टि में तो साधु का कार्य उससे कठोर नियम और कठोर साधनाएँ हैं, और फिर वैराग्य में लगने-लगाने का ही है, वह इससे विरत क्यों आज के इस प्राततायी वातावरण में? होगा? यद्यपि यह ठीक है कि दीक्षाचार्य व्यवहार दृष्टि से उक्त स्थिति में कहीं ऐसा तो नहीं कि-यह श्रावकों दीक्षित से उसका उत्तरदायित्व निर्वाह कराने के प्रति का ही फर्ज है कि वे आचार्य को सांसारिक दूषित वाताबंध जाता है। उसका कर्तव्य हो जाता है कि वह शिष्या वरण से अवगत कराएँ और उन्हें ढेर-सी कुमारी और या शिष्य की पूरी-पूरी संभाल करें। पर, यह निर्वाह तब कुमारों की दीक्षा-प्रक्रिया से विरत करें। श्रावक और और कठिन होता है जब आचार्य पुरुष-जातीय और मनि-पद भक्त होने के नाते हम तो सारा दोष श्रावकों को दीक्षिता स्त्री-जाति हो क्योंकि मुनि-पद में रहते हुए वह ही दे सकते हैं और तब-जबकि श्रावकों की दृष्टि में स्त्री-जाति से सीधे निकट सम्बन्ध का अधिकारी नही। आचार्य आस्म-विभोर रहने वाले और सांसारिक प्रपंचों से एतावता वह शिष्या के अंतरंग को भी गहराई से नहीं दूर हों। वस्तु स्थिति क्या है? जरा सोचिए । पढ़ सकता, चौबीसो घण्टे उस परिग्रह की सार-संभाल वीर सेवा मन्दिर, दरियागंज, नई दिल्ली-२ (पृ० २३ का शेषांश) दो-दो स्तम्भ प्रकोष्ठों में कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन प्रतिमायें सन में ध्यानस्थ मुद्रा में (सं०० ६४) जिन प्रतिमा अंकित अंकित हैं। ठीक इसी प्रकार चारों ओर जिन प्रतिमाओं का है। बायीं ओर एक जिन प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकन है। प्रतिमाका आकार ४३६४ ६६ से०मी० है। उत्कीर्ण है। प्रतिमाका आकार ५४४३७४२३ सेमी. है। जिन प्रतिमा का पार्श्व भाग-संग्रहालय में जिन दूसरी मूर्ति में पद्मासन में जिन प्रतिमा (सं०२०५६) प्रतिमा के बाम पाश्वं भाग से सम्बन्धित दो प्रतिमायें का सिरोभाग है। प्रतिमा का आकार ४५४२७४१२ संग्रहीत हैं। प्रथम अलंकृत स्तम्भ प्रकोष्ठ के मध्य में पद्मा- से. मी. है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन गीतों में रामकथा प्रो० श्रीचन्द्र जैन विश्वेश्वर सर्वज्ञ तुम रामचन्द्र भगवान । में करेंगे:पूजों चरण त्रियोग से हृदय विराजो मान । जो प्राकृत कवि परम सयाने। -विद्यावारिधि प० मक्खन लाल शास्त्री भाषां जिन्ह हरि चरित बखाने । नाम लेत सब दुख मिटें, हे रघुनन्दन राम; भए जे ग्रहहिं जे होइहहि मागे। विघ्न हरन, मंगल करन, पद बन्दू अभिराम ।। प्रनवउँ सहि कपट सब त्यागे॥ स्व० धन्यकुमार जैन 'सुदेश' (रामचरित मानस, बाल कांड) -- X---- भारत की तीन प्रमुख परम्पराओं (१ वैदिक २ जैन यं शंवाः समुपासते शिव इति ब्रह्म ति वेवान्तिनः । एवं बौद्ध) में श्री रामकथा वर्णित है। पुराणों, काव्यों, बौद्धा बद्ध इति प्रमाण पटव: कति नैयायिकाः । नाटकों आदि में भी भ० श्री रामचन्द्र जी का विराट ग्रह न्नित्यथ जैन शासन रतः कति मीमांसकाः । व्यक्तित्व चित्रित किया गया है। स्वर्गीय राष्ट्रीय कवि सोऽयं वो विदधातु वांछित फलं प्रैलोक्य नाथ: प्रभु ॥ मैथिलीशरण गुप्त के कथनानुसार जब भगवान राम का (हनुमन्नाटक-मंगलाचरण) वृत्त स्वय ही काव्य है तब रामकथा-गायको का कवि बन श्री रामचन्द्र की जीवन-गाथा लोक-जीवन में उसी जाना पूर्ण सम्भव है : राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है। प्रकार व्याप्त है जिस प्रकार दूध में नवनीत, जल में कोई कवि बन जाय स्वयं संभाव्य है। शीतलता एवं धूप में उष्णता समाहित है। हिन्दी तथा प्रदेशीय लोक-भाषाओं से रामचरित्र चिरकाल से श्री राम का चरित्र युगीन रहा है, बड़ी आस्था-श्रद्धा से गाया गया है। तेलुगू मे लगभग जिसमें युग-बोध के साथ परिस्थितियाँ विविध रूपों में ३०० रामकाव्य उपलब्ध हैं । बाल्मीकि रामायण, अध्यात्म उभर कर आई है। फलत: वे युग-पुरुप कहलाए तथा रामायण, आनंद रामायण, रामायण मजरी, उत्तर रामयुग-प्रवर्तक रूप में पूजित हुए। युग-परिवर्तन के साथ चरित, हनुमन्नाटक आदि सस्कृत रचनाओ के साथ रामआराधको के मन्तव्यों में बदलाव आया और उनका उदात्त चन्द्रिका, रामशलाका, रामचरितमानस, माकेत, वैदेही चरित्र कभी मानव के रूप में तो कभी परमेश्वर के रूप वनवास, रामशक्ति पूजा आदि हिन्दी काव्य विशेषतः में वन्दनीय अनुकरणीय रहा है और आज भी है। उल्लेख्य हैं। निम्नस्थ पंक्तियां इसी कथन को परिपुष्ट करती हैं : जैन साहित्य में निम्नस्थ रामायणे प्रमुख है :राम, तुम मानव हो ? ईश्वर नहीं हो क्या? प्राकृत-(१) पउम चरिउ--विमलसूरि । विश्व में रमे हुए नही, सभी कहीं हो क्या ? (२) पउमरिउ-चउमुह । (३) पउम चरिउ-स्वयम्भू । तब मैं निरीश्वर हूँ, ईश्वर क्षमा करे; संस्कृत-(१) पद्म चरितम-रविषेण । तुम न रमो तो मन तुम में रमा करे। (२) जैन राम यण-हेमचन्द्र । (साकेत- स्व. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त) (३) रामचरित--देवविजयगणि । "हरि अनंत हरि कथा अनंता।" के अनुसार श्रीराम (४) रामपुराण- सोमसेन । की कथा विविध रूपों में अनेक भाषाओं के माध्यम से (५) पद्मपुराण-- भट्टाक चन्द्रकीति । वणित है। गोस्वामी तुलसीदास ने स्वयं ऐसे कई कवियों (६) पमपुराण-धर्म कीति । (७) त्रिषष्ठिशलाका चरित-हेमचन्द्र । को प्रणाम किया है, जिन्होंने प्राकृत आदि भाषाओं में (८) पुण्य चन्द्रोदय-कृष्णकवि । हरि चरित्रों का वर्णन किया है, कर चुके हैं एवं भविष्य (९) सीता चरित-नेमिदत्त । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन गीतों में रामकथा कन्नड़-(१) पम्प रामायण-नागचन्द्र । वत् एकात्मक हो गए हैं । फलतः लोक में श्री राम हैं और (२) कुमुदेन्दु रामायण-कुमुदेन्दु। भगवान रामचन्द्र में यह सारा संसार समलंकृत है।। (३) रामकथावतार-देवचन्द्र । आदि-२। हिन्दी-(१) पद्मपुराण-खुशहालचन्द्र। जैन साहित्य के लोक-प्रिय महान् कवि श्री बनारसी(२) पद्मपुराण वचनिका-दौलतराम । दास जी की यह आध्यात्मिक रामकथा विषयक अभिव्यक्ति (३) सीता चरित्र-रायमल्ल । जिनमत सम्मत दार्शनिक चिरंतन का रूपकात्मक स्वरूप (४) सीता चरित्र-रामसिंह । (५) रामचरित-भट्टारक सोमसेन विरचित विराजे रामायण घटमांहिं । रामपुराण का हिन्दी अनुवाद । मरमी होय मरम सो जाने, मूरख माने नाहिं। अनुवादक पं० लालबहादुर शास्त्री। विराजै रामायण घटमाहि। आदि । आतम राम ज्ञान गुन लछमन सीता सुमति समेत । जैन राम साहित्य मे अनेक कथान्तर द्रष्टव्य है। शुभोपयोग वानर दल मंडित वर विवेक रण-खेत । जैन पुराणो मे महापुरुषों की सख्या तिरसठ बताई गई है। ध्यान धनुष टंकार शोर सनि गई विषयादिति भाग। इनमे २४ तो तीर्थकर है, १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ भई भस्म मिथ्यामति लंका उठी धारणा प्राग ।। वासुदेव और प्रत वासुदेव । श्री राम आठवे वासुदेव, जरे अज्ञान भाव राक्षस कुल लरे निकांक्षित सूर । लक्ष्मण आठवे वासुदेव और रावण आठवें प्रतिवासुदेव जझे राग-द्वेष सेनापति संशयगढ़ चकचूर ॥ है। यहा जैनधर्म प्रभावित अनेक पात्र जिनदीक्षा लेकर बिलखत कंभकरण भवविमुख पुलकित मन दरयाव । मोक्ष प्राप्त करते है । द्रष्टव्यः, कविवर भया भगवतीस चकित उदार वीर महिरावण, सेतुबंध समभाव ॥ रचित निर्वाणकांड भाषा एवं यति ननसुखदास कृत सती मूछित मन्दोदरी दुराशा, सजग चरन हनुमान । सीता का बारहमासा। घटी चतुर्गति परणति सेना, छटे अपक गुणवान ॥ __ गेय प्रधानगीत-लोक मानस के सहज उद्गार है, निरखि सकति गुनचक्र सुदर्शन, उवय विभीषण बीन । जिनमे जीवन की अकृत्रिम झाकियां स्वाभाविक रगों में फिर कबंध महीरावण की प्राणभाव सिर हीन । चित्रित हुई है। यथार्थवादी धरातल पर उद्भत ये लोक इह विधि सकल साधु घट अंतर होय सहज संग्राम । स्वर बड़े सुहावने, मधुर एव आशावादी है। जिस प्रकार यह विवहार दृष्टि रामायण केवल निश्चय राम ॥ जैन रामकथा के विविध प्रसगो में सांस्कृतिक अभिनय भगिमा अभिव्यंजित हुई है उसी प्रकार जैनगीतो में राम- इस प्रकार दो प्रमुख रूपा (रविषेणाचार्य कृत पा. चरित धार्मिक आयामों से आच्छादित हआ है। श्री राम पुराण एव श्रीगुणभद्राचार्य प्रणीत उत्तर पुराण के कथानकों का यह चिंतन कितना उदात्त-पावन है : में) वणित तथा जैन गीतो मे निरन्तर गुजरित जैस रामकब मैं बनहीं शिवमगचारी। कथा, श्रमण-सस्कृति के मुख्य विशेषताएँ समन्वित होकर भव-वैमव से प्रीत न मेरो । 'वसुधैव कुटम्बकम्' के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित करती है पर सुख देन नीत है मेरी। तथा भनवान् श्रीराम के लोक मंगलार्थ समर्पित स्वरूप छन भंगुर जगती को माया । की अर्थवता को उद्घटित करती है। छन भगुर यह जीवन काया | ---xकब बनहीं परमार्थ विचारी। इस विदेह जीवन-दर्शन में, कर्मयोग सन्यास मिलेगा। कब मैं बन हों शिवमगचारी॥ रघपति के जीवन वर्शनमें, शिव-पथ का विश्वास मिलेगा। वस्तुतः इन लोक गीतों मे भगवान् राम दुग्ध-सलिल. -शशि श्रीचन्द्र जी का यह अन्तिम लेख रीवा में आयोजित संगोष्ठी के लिए लिखा गया था। दुःख है वे इसे अपने जीवन मे पढ़ नहीं पाये। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतांक ४०/३ से आगे :(चिन्तन के लिए) "सिद्धा ण जीवा'-धवला 0 श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली-२ प्रसंग तत्वों की पहिचान का है और हम भी 'तत्त्व- स्मरण रहे कि आश्रव, बंध, सवर, निर्जरा आदि जैसे कुतत्त्व पिछाने' वाक्य को पूर्व में दुहरा चुके है। उक्त तत्त्व या पदार्थ नामवाची सभी रूप, चेतन और अचेतन प्रसंग में हमारी धारणा है कि-जैन दर्शन में छः द्रव्यों के मिश्रित-विकारी अस्तित्व है। इनमें से कोई भी स्वतंत्र की स्वतंत्र और पृथक्-पृथक् त्रिकाली सत्ता स्वीकार की या मूलरूप मे वैसा नही जैसे कि छह द्रव्य हैं । फलतः इन गई है तथा छहों द्रव्यों में पुद्गल के सिवाय अन्य सभी तत्त्वों को मूलरूप में वैसे ही स्वीकार नही करना चाहिए द्रव्यों को प्ररूपी बतलाया गया है-'नित्यावस्थितान्य- जैसे छह द्रव्यों को स्वीकार किया जाता है। खुलासा इस रूपाणि', 'रूपिणः पुद्गलाः।-ऐसा भी कथन है कि प्रकार हैलोक-अलोक में छह द्रव्यो के सिवाय कही कोई सातवां जैसे जीव में पुद्गल कर्मों के आगमन मे हेतु भूत द्रव्य नहीं है-सभी इन छह द्रव्यों में समाहित है। ऐसी मन-वचन-काय द्वारा आत्मप्रदेशो के परिस्पन्द को आस्रव स्थिति में हमारी दृष्टि से लोक में अन्य जो भी बुद्धिगम्य कहते हैं और स्वय ये मन-वचन-काय भी किसी एक शुद्ध होता है वह सभी चेतन अचेतन का विकारी रूप है। द्रव्य के शुरूप नही है-वे भी चेतन-अचेतन के मिश्रण द्रव्य, पदार्थ या तत्त्व कुछ भी कहो, सभी शब्द से निष्पन्न है, तब मिश्रण से निष्पन्न आस्रव को मूल या एकार्थक और एक भाववाची जैसे रूप से प्रचलन में चले शुद्ध तत्व (द्रव्य) कैसे माना जा सकता है ? वह तो दो के मिश्रण से होने वाला व्यापार है। ऐसे ही बध भी कोई आ रहे हैं। प्रायः कुछ लोगो की धारणा ऐसी है कि आलव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष भी वैसे ही स्वतंत्र स्वतंत्र मूल तत्व नही, वह भी कषायभाव पूर्वक चेतन के साथ जड़ कर्म के बंधने की क्रिया मात्र है और मिश्रण से स्वभावी तत्व हैं जैसे स्वतंत्र-स्वभावी छह द्रव्य हैं और निष्पन्न क्रिया को मूलतत्त्व (द्रव्य) नहीं माना जा सकता। इन तस्वों या पदार्थों का अस्तित्व द्रव्यों से जुदा है। यही बात सवर मे है। वहां भी मूल तत्त्व चेतन आत्मा ऐसे में सहज प्रश्न उठता है कि जब द्रव्य, तत्त्व और और अचेतन कर्म हैं और वहाँ पुदगल कर्म के आगमन के यदार्थ जैसे सभी सांकेतिक शब्द एकार्थक और एकभाव- सोक्रिया भी दो का fe रुकने रूप क्रिया भी दो का विकार है। इस प्रकार पुदगल वाची प्रसिद्ध हैं और लोक-अलोक में छह द्रव्यो के सिवाय कर्मों का आना, बंधना, रुकना सभी विकारी हैं। ऐसे ही अन्य कोई स्वतंत्र-सत्ता नहीं; तब आचार्यों ने छह द्रव्यो, निर्जरा यानी कर्मों का झड़ना भी चेतन-अचेतन दोनो मूलसात तत्त्वों और नव-पदार्थों का पृथक्-पृथक् वर्णन क्यों तत्वों के विकारी भावो से निष्पन्न व्यापार है-कोई मूल किया? क्या आस्रव, बंध, संवर और निर्जरा तथा पुण्य, स्वतंत्र तत्त्व नहीं है । अब रही मोक्ष तत्त्व की बात । सो पाप की कोई स्वतंत्र, स्वाभाविक सत्ता है ? अथवा यदि वह भी परापेक्षी अवस्था से निष्पन्न है और वहां भी मूल ये सभी स्वतंत्र नहीं हैं तो इनको तत्त्व क्यों कहा गया है तत्त्व शुद्ध चेतन ही है। और क्यों इनके श्रवान को सम्यग्दर्शन का नाम दिया गया? जब हम दिव्य ध्वनि से पूर्व के गौतम (बाद में गणघर) जब कि ये सभी चेतन-अचेतन के आश्रित रूप हैं। के प्रति इन्द्र द्वारा प्रकट की गई जिज्ञासा का मूल श्लोक Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवानजीवा-बवला २६ पड़ते हैं तब उसमें हम इन सभी को मोक्ष-मार्ग के विधान सोचने की बात यह भी है कि क्या जीव और अजीव में पाते हैं, न कि त्रिकाली स्वतंत्र (द्रव्य) की सत्ता के दोनों की उपस्थिति के बिना आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा रूप में।-"इत्येतन्मोक्षमूलं ।" आदि। पूरा श्लोक इस और मोक्ष हो सकते हैं ? जो इन्हें स्वतंत्र तत्त्व (द्रव्य) प्रकार है माना जा सके? फिर यह भी सोचना है कि जब लोका'काल्यं द्रव्यषटकं, नवपदसहितं जीव षटकाव्य लेश्या। लोक में छह द्रव्यों के सिवाय अन्य कुछ नहीं, तब यह पंचान्ये चास्ति कायाः व्रतसमितिगतिमन चारित्र भेदाः॥ स्वतंत्र तत्त्व कहा से आ गए? शास्त्रों में मानव, बंध, इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितोक्तमहद्भिरीशः । संवर और निर्जरा के जो लक्षण दिए है, उन लक्षणों के प्रत्येति श्रदधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः॥' अनुसार किस तत्त्व का समावेश (अन्तर्भाव) किस स्वतत्र अर्थात्-इनका श्रद्धान ज्ञान और अनुभवन किए द्रव्य मे होता है ? यह भी सोचना होगा। हमारी दृष्टि से बिना मोक्ष या मोक्षमार्ग का अनुसरण नहीं किया जा तो द्रव्यों में कोई भी स्वतंत्र द्रव्य ऐसा नही, जिस किसी सकता। जो भव्य प्राणी इन विधियो, क्रियाओं और एक मे भी स्वतत्ररूप से इन तत्वों का अन्तर्भाव हो सके। स्थितियों का विधिपूर्वक सही-सही श्रद्धान ज्ञान अनुभवन अतः मानना पड़ेगा कि इन उपर्युक्त तत्त्वो की द्रव्यों जैसी करता है वह सम्यग्दृष्टि होता है। इसका आशय ऐसा है कोई स्वतत्र सत्ता नही अपितु ये सभी के सभी चेतन मारी प्राणी को मोक्षमार्ग दर्शाने मे आस्रवादि तत्त्व अचेतन के विकार से निष्पन्न है। इन्हें हम वेतन-अचेतन हैं यामी-सारभूत हैं। इन प्रक्रियाओं को समझे बिना को विकारी क्रिया भी कह सकते हैं और क्रिया या व्यापार कोई जीव मोक्षमार्ग में नही लग सकता-जब कोई जीव कभी द्रव्यवत स्थायी नही होते । अन्यथा यदि व्यापार-क्रिया इन विकृतियों-विकारों को समझेगा, इनसे परिचित ही तत्त्व हो जाय, तो खाना, पीना, सोना, जागना, उठना, होगा तभी वह निवृत्ति-(मोक्षमार्ग) की ओर बढ़गा बैठना आदि व्यापार भी तत्त्व कहलाएंगे और इस प्रकार और काल-लब्धि के आने पर उस भव्य जीव को मोक्ष तत्वों की तत्त्वों की संख्या सात न रहकर असख्यातों तक पहष भी हो सकेगा; आदि। इस प्रकार तत्त्व या पदार्थ नाम जाती जायगी। अत: ऐसा ही मानना चाहिए कि प्रसग मे तत्त्व प्रसिद्ध जो कुछ है वह सब मोक्षमार्ग-दर्शाने के भाव में शब्द का अर्थ सारभूत है और मोक्षमार्गी को इन प्रक्रियाओं नवसारभत है-किसी स्वतत्र सत्ता के भाव में नहीं को जानना चाहिए, क्योकि ये मोक्षमार्ग मे-भेद-विज्ञान है, ऐसा सिद्ध होता है । फलत: मे उपयोगी-सारभूत हैं। इसी प्रकार जो स्थिति इन आनव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष कोई स्वतत्र तत्त्वों की है वही स्थिति जीव की है और जीव भी विकारी तत्त्व (द्रव्य) नहीं-वहां तत्त्व शब्द का अर्थ मोक्षमार्ग में अवस्था है। जब भेद-विज्ञान द्वारा आत्मा को जीवत्व सारमत-प्रयोजनमत मात्र है। भाव ऐसा है कि उक्त पोय का बोध होगा, तब वह अपने को विकारत्व से पृथक सभी अवस्थाएँ विकारी भाव तक सीमित है और उसी कर सकेगा-स्व-शुद्धत्व मे आ सकेगा और उसका विकारी दष्टि में मानी गई हैं। इसी प्रकार 'जीव' संज्ञा भी भाव 'जीवत्व' छूट जायगा-वह 'सिद्ध' या परम आत्मा विकारी होने के भाव में है, जब विकारी आत्मा विकार. या शुद्ध-चेतन हो जायगा। इसी भाव मे श्री वीरसेनाचार्य रहित अवस्था में आ जाता है तब वह जीवरूप में न कहा जी ने घोषणा की है कि-'सिद्धा ण जीवा जाकर 'सिद्ध' या परम-आत्मा कहलाता है और आचार्यवर इस प्रसंग में 'जीवाश्च' सूत्र क्यों कहा और अचेतन वीरसेनाचार्य ने इसी तत्त्व (वास्तविकता) के प्रकाशन के का नामकरण भी अजीव क्यों किया? इसका खुलासा हम लिए स्पष्ट किया है कि-'सियाण जीवा' अर्थात् सिख पहिले ही कर चुके हैं। लोग इस विषय को लोकषणा या जीव नहीं हैं उन्हें जीवितपूर्व कहा जा सकता है- पक्ष-व्यामोह का विषय न बनाएं-यह चितन का ही विषय 'जीविद्पुवा इदि' है । इसे पाठक विचारें, हमें आग्रह नहीं। (क्रमशः) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा-सोचिए ! १. धर्मलाभ और धर्मवद्धि : प्रति भावना भाएं-'सद्धर्मबुद्धिर्भवतु।' और यह इसलिए स्वामी समन्तभद्राचार्य की 'बोजाऽभावे तरोरिव' कि ऐसे मुनियों में अभी धर्म के ठीक बीज होने की संभावना है और वे बीज, वृक्षरूप में बढ़ सकते हैं। अन्यथाबीज के अभाव में वृक्ष की भांति । इस उक्ति को प्रस्तुत करते हुए एक सज्जन ने विचार दिए कि : अब तो कतिपय मुनियों में शिथिलाचार पनपने की सभी जानते हैं कि वृक्ष की उन्नति तभी होती है जब बात कतिपय कट्टर मुनिभक्त भी करने लगे हैं। उन्होंने मूल में बीज हो । पर, अब ऐसा मालूम देता है कि वर्त- कहा-हमारे पास कई ऐसे पत्र सुरक्षित हैं (उन्होंने हमें मान आविष्कारों के युग मे स्वामी समन्तभद्र के वाक्यों कई मनीषियों के तत्कालीन कई पत्र भी दिखाए) जिनमें को झुठलाने के प्रयत्न भी जारी हैं। बाज लोग धर्मरूपी मुनियों के शिथिलाचार सम्बन्धी अनेकों उल्लेख हैं। बीज के अभाव या मुरझाने मे भी 'धर्मवृद्धि' के स्वप्न वे बोले-आप इन्हें छापेगे? संजोने मे लगे हैं; पहिले उनमे आचाररूप धर्म स्थापित हमने कहा-यह तो मुनि-निन्दा है और मुनि-निन्दा तो करें। उदाहरण के लिए हमारे यहां मुनियो द्वारा एक के हम सख्त खिलाफ है। हम बरसो मुनि-चरणों में रहे वाक्य बोला जाता है-'धर्म बुद्धिरस्तु'-तुम्हारे धर्म में हैं, हम ऐसा करने को तैयार नहीं। बुद्धि हो। यह वाक्य मुनिवर उस जैन के प्रति बोलते हैं, बे बोले-आपको पत्रो के प्रकाशन में क्या आपत्ति जो उन्हें नमोऽस्तु अथवा बन्दन करता है। बड़ी अच्छी है ? पत्र तो दूसरो के है । बात है-आशीर्वाद और वह भी धर्मवद्धि का । पर, आज हमने कहा-कुछ भी हो, छापने में धर्म की हँसाई के युग रे जब हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह रूपी पापो मे तो है ही। यदि पत्र छापने से सुधार की गारण्टी हो तो बढ़वारी सुनी जा रही है तब धर्म के बीज कितनो में हमे छापने में कोई आपत्ति नही। पर, छापने से सुधार सुरक्षित होगे ? शास्त्रो में पापों के एक देश त्यागी को ब्रती हो ही जायगा यह विश्वास कैसे हो? श्रावक कहा गया है और अष्ट मूलगुण धारण जैन मात्र खैर, बहुत चर्चा चली और हमने उनसे कुछ पत्रो की को अनिवार्य है। ऐसे में कितने जैन ऐसे है जिनके मात्र फोटो-स्टेट कापियां ले ली और कह दिया देख लेंगे। पत्र रात्रि भोजन का त्याग हो और बिना छना पानी न पीने वास्तव मे कट्टर धर्मश्रद्धालु मनीषियों के ही है। एक पत्र का नियम हो? कितनो मे धर्म के बीज ठीक है जिन्हें तो एक लेख के प्रति एक मुनिराज के उद्गारों का है। 'धर्मवद्धि' जैसा आशीर्वाद दिया जाय? वे बोले-हम तो लिखा हैसोचते है कि पापवृद्धि के इस युग मे धामिक नियम पालकों "आपने जैन समाज एवं साधुओं में जो शिथिलाचार के सिवाय, जिनके बीज मुरझा रहे हो-उन्हे 'धर्मवृद्धि' फैल रहा है इसको अंतरंग से प्रकट किया है। देखिए, जसा आशीर्वाद न दिया जाकर यदि धर्मलाभ' या 'पाप- नाराज तो होना ही नहीं किन्तु इसका दृढ़ता से प्रतिकार हानिर्भवतु' कहा जाय तो उपयुक्त जंचता है। वे आगे करना होगा। आपने पत्र में असली बातों को लिखा है। बोले-एक बात और है जो श्रावकोचित होगी। वह यह पैसा, प्रतिष्ठा और सत्ता में सभी पागल होने जा रहे हैं, कि-आज के वातावरण के देखते-सुनते हुए जब कतिपय निज धर्म को छोड़कर। इससे धर्म, समाज और साधु (क्वचित्) मुनियो में शिथिलता के प्रति लोगों में चिता परम्परा में समीचीनता नहीं रह रही है। एक नाम के व्याप्त है। तब धावकों का कर्तव्य है कि वे ऐसे मुनियों के पीछे धर्म और मागम-आर्ष-परम्परा का नाश कर रहे Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा-सोचिए ३१ हैं। ठीक समय पर प्रतिकार कर स्थिर करना जरूरी है। सही) ऐसा वातावरण बन चुका है जो दिन पर दिन लाकुंदकंद आचार्य का मूलाचार और शिवकोटी आचार्य का इलाज होता जा रहा है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो भगवती आराधना ग्रन्थ उल्लंघन (कर) अपने प्रतिष्ठा को भंवर में पड़ी धर्म की नैया एक दिन अवश्य डब जायगीबढ़ाना चाह रहे हैं।" इसमें सन्देह नहीं। इसी विषय की चिता एकाधिक कई विद्वानों में व्याप्त हमने देखा है कि कई जानकार किन्हीं के दोषों के है, उनके भी पत्र हैं । इस प्रसंग में एक चोटी के विद्वान के प्रति आपस मे कानाफूसी करते हुए भी खुलकर कहने की लेख को हम अभी पढ़े हैं उसके कुछ अंश इस प्रकार है- हिम्मत नहीं कर पाते । 'हमसे तो अच्छे हैं' सम्प्रदाय वाले ठण्ड से बचने के लिए हीटर चाहिए, गर्मी सिर फोड़न तक को तैयार है। पराधीन या मुंह-देखी के ताप से बचने के लिए पंखा चाहिए, एक स्थान से दूसरे करने वाली कोई पत्रिकाएँ असलियत छापेगी क्यों? इस स्थान तक उनके परिग्रह को ढोने के लिए मोटरगाडी प्रकार जब सभी अोर से सुधार-मार्ग अवरुद्ध हो; तब क्यों चाहिए, ड्राइवर चाहिए । समाज इस सबका प्रबन्ध उनके न खुले ताण्डव को बल मिलेगा-जमा कि मिल रहा बिना लिखे-पढ़े ही करती है।" है ? जरा सोचिए ! हम मुनि-निन्दा के भय से अन्य सगीन जैसे पत्रो को जानबूझकर नहीं छाप रहे । हो, यदि धर्म-मार्ग मे ऐसी मार्ग दर्शन दें: भयावह स्थिति है तो अवश्य ही विचारणीय और प्रतीकार हमने एक शोध-सस्थान की परिचय-पत्रिका मे पढ़ा हैके योग्य है। नेता यदि धार्मिक नेता है तो उन्हें और सभी "मनुष्य का हृदय एक अष्टदलाकार सुन्दर पुष्प के समाज को भी ऐसे सुधारों के लिए ठोस कदम उठाना समान है । भाषा उसका विकास है और भाव-लिपि उसकी चाहिए। गध है। द्रव्यलिपि कामधेनु कल्पवृक्ष है। शब्द नौका है, हम यह निवेदन और कर दें कि हम जो कुछ उद्धरण अर्थ तटभूमि है। अतः अनादि सिद्धान्त के रूप में प्रसिद दे रहे हैं, सब उपगृहन और स्थितिकरण की भावना से एव सम्पूर्ण आगमों को निर्मात्री, भगवान आदिनाथ के धर्मवद्धि के लिए ही दे रहे हैं। कोई हमारे प्रति ऐसे भ्रम मुख से उत्पन्न वर्णमातृका का ध्यान करना चाहिए। में न पड़े या ऐसा ना ही समझे या कहे कि-मुनिपंथ में अर्थात् बारहखड़ी सीख कर शास्त्रों का अध्ययन करना से किमी की ओर से हमारा कोई बिगाड़ हुआ होगा या चाहिए।-धवला" हमारे किसी लाभ की प्राप्ति में किसी ने कोई बाधा दी प्राचीन शास्त्रीय मौलिकताओं, पुरातत्त्व. इतिहास होगी। हम तो सभी मुनियों के भक्त है और हमारी श्रद्धा आदि की खोजों के लिए स्थापित किसी शोध-संस्थान द्वारा मे विधि-विधान द्वारा दीक्षित शुद्ध-चारित्र पालक सभी खोजा हुआ; धवला से उद्धत उक्त अंश हमें बड़ा हदयमुनि, साधु है । फलतः हमें मुनियों के आचार के ह्रास या ग्राही लगा। इससे ऐसा मालूम होता है कि उन दिनों भी मुनियों में छीना-झपटी जैसी बातें सुनना नही रुचता। प्राचीन रचनाओ में आज जैसे भाषा-बहाव की जमावट अतः कुछ लिख देते हैं। अब तो श्रावकों व मुनियों को करने में कई आचार्य सिद्ध-प्रज्ञ रहे हैं । और ऐसा सम्भव स्वयं ही सोचना चाहिए कि पानी कहां मर रहा है ? और भी है। क्योंकि उन दिनों कई आचार्य घोर तपस्वी होते थे किसे कहां सफाई करना है। हमें आशा है कि जिस ओर और उनमें कोई-कोई अपने तप के प्रभाव से भविष्य-ज्ञाता पानी मर रहा होगा उसी पक्ष की ओर से बहाव उबलेगा। तक बन जाते थे-ऐसी जन-श्रुति है । अतः यह भी संभव तथ्य क्या है ? जरा सोचिए ! है कि धवलाकार भी उसी श्रेणी में रहे हों और तब उनके और यह भी सोचिए कि यदि वास्तव में इस मार्ग में भावों और लेखनी में आधुनिक (वर्तमान में प्रचलित) बिगाड़ है तो सुधार के साधन क्या हैं ? क्योकि आज शैली, भाषा-भाव की पुट आ गई हो और उन्होंने उस समाज में धर्म-ह्रास के प्रति (प्रकारान्तर से अनजान में ही भंगिमा को तत्कालीन प्राकृत या संस्कृत भाषा में गूंथ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ वर्ष ४० कि.४ दिया हो ! जिसका उपर्युक्त (उद्धृत) सही शब्दार्थ धवला और इसमें गुण-ग्राहकता का उपदेश है-गुण ग्रहण ही के मूल से उद्धृत किया गया हो। खैर, जो भी हो-हमें सबसे बड़ी पूजा है, सच्ची पूजा भी यही है और अनेक आचार्य के प्रति अपूर्व श्रद्धा है, इमलिए पिपासा शान्त ईश्वरवाद का मूल भी यही है । बड़ी खुशी की बात है कि करने के लिए हमने धीरे-धीरे कई दिनों तक धवला के आज आचार्य कुन्दकुन्द द्वि-सहस्राब्दी मनाने का उपक्रम पन्मों को पलटा । पर, वहुन खोजने पर भी जब उक्त मूम- जोरों पर है। लोग कुन्दकुन्द के नाम पर स्तूप खड़े कराने, अंश न मिल सका और हम निराश रहे, तब हमने शोध- उनके नाम पर संस्थाएँ खडी कराने और उनकी रचनाओं संस्थान के अधिकारी को पत्र लिखा कि वे हमें दिशा-निर्देश को अपनी बुद्धि अनुसार (मनमाने ढंग से भी) अनेक दें कि उक्त अंश के मूल को धवला की किस पुस्तक के किस भाषाओं में रूपान्तरित करने-कराने में सक्षम हों, उनमें पेज पर देखा जाय ? लेकिन आज तक कोई जवाब न मिला। वैसी बुद्धि और वैसा द्रव्य भी हो, यह सब तो शक्य है। ____ अब विद्वानों से प्रार्थना है कि यदि उन्होने धवला के पर, ऐसे कितने लोग हैं जो उन जैसे मार्ग का सही रूप में उक्त अंश के मूल को किसी पुस्तक में देखा हो तो हमे मार्ग अनुसरण कर सकें, वैसे ज्ञान और वैसे आचार-विचार में दर्शन दें। अन्यथा, उक्त प्रसग मे हमे लिखना पड़ेगा कि अपने को ढाल सकें ? इसका अनुमान लगाना शक्य नहीं। ऐसी विसंगति क्यों? क्या ऐसे शोध-संस्थान हमे सही दिशा और आज जैसी स्थिति और मनोवृत्ति में तो यह सर्वथा दे सकेंगे ? जरा सोचिए ! हो शक्य नही। ३. साथ दें और अनुमोदन करें: हमारा अनुभव है कि आज लोगों में व्यक्ति पूजा की ___ आज गुणग्राहकता का स्थान व्यक्तिपूजा ले बैठी- होड़ है । कई लोग महापुरुषों की व्यक्तिगत पूजा के बहाने जिसका परिणाम आचार-विचार का ह्रास सन्मुख है । लोग अपने व्यक्तित्व को पुजाने में लगे हैं। क्योंकि उत्सवों, महावीर और कुन्दकुन्दादि को प्रमुखला देकर उनके व्यक्ति- शताब्दी और सहस्राब्दियों के बहाने अपने व्यक्तित्व को गत गान में लगे हैं और उनका मुख्य केन्द्र उन्ही के चमकाना सहज है-किन्तु गुणों का ग्रहण करना सहज व्यक्तित्व को महान बताने मात्र में लग बैठा है। महावीर नहीं। काश, कुन्दकुन्द द्वि-सहस्राब्दि में यह हो सके कि ऐसे थे, कुन्दकुन्दादि ऐसे थे इसे सब देख रहे हैं । पर, हम लोग अपने को कुन्दकुन्दवत् सहस्रांश रूप में भी ढाल सके, कसे हैं, इसे विरले ही देखते होगे । पूर्वजों के नाम पर उनके उपदिष्ट धर्म के आचरण का सही मायनों में प्रण कहीं भवन बन रहे हैं, कही संस्था खड़ी हो रही है- ले सक-धर्म मार्ग में आगे बढ़ सके-तो हम स्वागत के पुदगल के पिण्ड जैसी। लोग इस हेतु बे-हिसाब लाखों-लाख लिए तैयार हैं। अन्यथा, हम अब तक के ऐसे कई उपक्रमों संचय कर रहे हैं और बे-हिसाब खर्च भी कर रहे है। कोई को तो बाजीगर के तमाशे की भांति ही मानते रहे है। कहे तो, कहीं-कहीं यह भी सुनने को मिल जाय-कि आप बाजीगर तमाशा दिखाता है, तब लोग खुश होते हैं, प्रशंसा क्यों बोलते हैं, आपका क्या खर्च हो रहा है? तब भी करते है। पर, क्षणभर में बाजीगर के झोली उठाकर जाने आश्चर्य नहीं। समाज की पूरी आर्थिक, मानसिक मौर के बाद लोग खाली पल्ला चल देते हैं, स्टेज के बांस, काधिक शक्तियां इसी मे लगी है। हर साल महावीर आदि बल्ली और शामियाना उनके मालिक उठा ले जाते हैं, अनेक महापुरुषों की जयन्तियां मनाई जाती हैं। आए दिन माइक वाला पैसे झाड़ चलता बनता है। सभी को जाना अनेक उत्सव और समारोह होते हैं। लोग फिर भी आगे था सो चले गए, रह गया तो बस, मात्र धर्म मार्ग का बढ़ने की बजाय पीछे चले जा रहे हैं-उनके धार्मिक सस्कार सनापन । पुष्ट होने के बजाय लुप्त होते जा रहे है ऐसी आवाजें सुनने में लोगों ने आज तक कितनी जयन्तियां मनाई, इसकी आती हैं और प्रबन-जन इस पर चिंतित भी दिखाई देते हैं। गिन्ती नही। पचीससौवां निर्वाण उत्सव भी मनाया गया स्मरण रहे जैनधर्म व्यक्ति पूजक नहीं, गुण-पूजक है। था; तब कितनों ने बत-नियम लिए और कितनों ने अपने Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचार-विचारों में शुद्धि की? ये सोचने की बात है ? और कारण था-यह हम देखही पके हैं। जैनधर्म के भट्टारकों यह भी सोचने की बात है कि कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दि के के ह्रास का कारण भी यही है। अवसर पर कितने अपने निज का प्रात्मोद्धार करेंगे? यदि इस प्रसंग में कहीं-कहीं अब स्थिति इतनी बिगड़ गई ऐसा हो सके तो अत्युत्तम । हम सबके साथ हैं और हमारा है कि सुधार सहज-साध्य नहीं। कुछ धर्मात्मा, विद्वानों, अनुमोदन भी। त्यागियों व श्रावकों व श्राविकाओं को संगठित होकर ५.दि. मनिका प्रभाव धर्म को ले डूबेगा: शिथिलाचारों की छानबीन कर, सब प्रकार के प्रयत्न कर___ सच्चे देव-शास्त्र-गुरु ये तीनों जैनधर्म के रूप है। बिना भेद-भाव के, शिथिलाचारियों के शिपिलाचारको और, इस पंचम काल में यह धर्म केवलियों के बाद, परिमार्जन कर उनका धर्म में स्थितिकरण करना होगा। शास्त्र और गुरुओं के कारण अनुभव और आचरण रूप में अतः धर्म प्रेमी जन दिगम्बरत्व के शुद्ध-स्वरूप को समान आता रहा है। अब तक धर्मात्मा जैन-विद्वानों और त्यागियों दिगम्बर धर्म की रक्षा में सन्नद हों-ऐसी हमारी प्रार्थना ने इस धर्म की ज्योति को प्रज्वलित रखा है और श्रावकों है। सुधार मार्ग में पक्ष या भय को स्थान नहीं। सच पूछे की रुचि और आचरण को इस ओर कराने का श्रेय भी तो पक्ष और भय ने ही मूल-दिगम्बरत्व और उसके स्वरूप इन्हीं को है। पर कुठाराघात किया है। वरना, मन्दिरों और धर्मशालाओं यह सर्वविदित है कि वर्तमान में शास्त्रों के मूल-रूप के होते, गृहस्थों के बीच-उनकी सुख-सुविधा युक्त कोठियों के पठन-पाठन में हास है और मूल के ज्ञाता विद्वान धीरे- को मुनि व त्यागी अपना आवास क्यो बनाते? शीतोष्ण समाप्त होते जा रहे है तथा कतिपय दिगम्बर त्यागी परीषह सहने के स्थान पर शीत-निवारक हीटर और गुरुओं में ज्ञान की क्षीणता और आचार के प्रति शिथिलता। उष्णताहारी कूलर-एयरकण्डीशनर का उपयोग क्यों देखी और सनी जा रही है-अनेक दिगम्बर व्रतधारी भी करते अथवा क्यों ही दंश-मशकारीषहहारी-मच्छरदानी स्वच्छन्द आचार-विचार बनाने और तदनुरूप प्रचार करने वकछुआ छाप तक का उपयोग करते ? जो बराबर देखने सलीन। इसको जानते-देखते हुए भी वर्तमान अनेक में आ रहा है। क्या मुनिधर्म यही है ? क्या, जैन और विद्वान और श्रावक उनकी इन प्रवृत्तियों का पोषण करते जैनेतर साधु मे वस्त्र-निर्वस्त्र होने मात्र काही अन्तर है. देखे जाते है । ऐसा क्यों? या और कुछ भी ? जरा सोचिए ! हम ऐसा समझे हैं कि अपनी-अपनी आवश्यक्तानुसार समाज में स्थितिपालक और सुधारवादी जैसे दो धड़े निदान और श्रावक दोनों अपने-अपने अभावों की पूर्ति मे हैं। हमारी श्रद्धा उन स्थितिपालकों में है जो प्राचीन और लगे हैं-कोई धनाभाव को निरस्त करने और यथेष्ट की धार्मिक चार परम्परामो को कायम रखने के पक्षपाती प्राप्ति मे और कोई यश-प्रतिष्ठा की पूर्ति में। धर्म और हों। फलत: हम मुनियों को निर्दोष २८ मूलगुणों के पालकधर्म के स्रोत व धर्म के मूर्तरूप-गुरुओं के स्वरूप की रक्षा रूप-प्राचीन स्थिति में देखना चाहते हैं उन्हें शास्त्रका किसी को ध्यान नहीं । पर विहित आचार से तनिक भी विचलित नही होना चाहिए। मिश्चय समझिए कि यदि दिगम्बर गुरु के प्राचार- ऐसे में यदि आचार-विचलित मुनियों को पूर्वाचार में लाने विचार में बदलाव पाता है तो दिगम्बर-धर्म की खैर जैसी सुधार सम्बन्धी हमारी बात मात्र से कोई हमें नहीं-उसका लोप अवश्यम्भावी है।" बौद्धधर्म के भारत सुधारवादी समझ बैठे तो हम क्या करें? क्या, इन मायनों से पलायन और उस धर्म में शिथिलता आने के मूल कारणों मे हम स्थितिपालक नही ? जरा-सोचिए ! में भी उनके साध्वाचार में शिथिलता आना ही मुख्य -सम्पादक आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.००१० वार्षिक मूल्य : ६) २०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते। - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R.No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन बनसम्ब-प्रवास्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी १२ परिशिष्टों पोर पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से प्रलंकृत, सजिल्द । ... नग्रम्प-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन प्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय पोर परिशिष्टों सहित। सं. पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १५... समाधितन्त्र पौरमण्टोपदेश : मध्यात्मकृति, पं. परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित ५-५. पवणबेलगोल पोर दक्षिण के प्रम्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण बन ... ३... और साहित्य और इतिहास पर विशर प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहग्सुत: मूल ग्रन्थ की रचना भाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री पतिवषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिवान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों भोर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज पोर कपड़े की पक्की जिल्द । २५... ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२... भावक धर्म संहिता: श्री वरयावसिंह सोषिया धन लक्षणावली (तीन भागों में):सं.पं. बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग ४.... जिनशासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पचन्द्र शास्त्री, सात विषयों पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन २-० मूल जैन संस्कृति अपरिग्रह : श्री पप्रचन्द्र शास्त्री २.० Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942) Per set 600-00 सम्पादक परामर्श मण्डल ग. ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक श्री पनचन्द्र शास्त्रा प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवामन्दिर के लिए मुदित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३ - - BOOK-POST Page #147 --------------------------------------------------------------------------  Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rogd. With the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन नम्ब-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत मोर प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों मोर पं० परमानन्द शास्त्रो को इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से प्रलंकृत, सजिल्द । ... मैनप्रम्प-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन अन्धकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय पोर परिशिष्टों सहित । सं. पं. परमानन्द शास्त्री । सजिल्द। १५... समाधितन्त्र पौराष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित पवणबेलगोल पौर दक्षिण के प्रम्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... ३... जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । कसायपाइरसुत: मूल ग्रन्थ की रचना भाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों मोर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े को पक्की जिल्द । ... २५-.. पानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२-०. भावक धर्म संहिता : यो दरयावसिंह सोषिया न लसणावली (तीन भागों में): सं०६० बालबाद सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग ४.... जिन शासनकछ विचारणीय प्रसंग: श्री पचन्द्र शास्त्री, सात विषयों पर शास्त्रीय तर्कपणं विवेचन २-० मूल जैन संस्कृति अपरिग्रह : श्री पपचन्द्र शास्त्री Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942) Per set 600-00 सम्पादक परामर्श मण्डल ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक श्री पचन्द्र शास्त्रा प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवामन्दिर के लिए मुद्रित, गोता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३ २.. BOOK-POST Page #149 -------------------------------------------------------------------------- _