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जरा सोचिए !
१. निर्दोष मुनिश्व का उपक्रम
परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्ति सागर जी महाराज सच्चे मुनि थे और उनकी साधना खरी थी, वे परीषहों के सहन में सक्षम थे उन्हें यह भी लगन पी कि मुनि मार्ग की धारा अविच्छिन्न बनी रहे और निर्मल रहे। वे मुनियों की बढ़वारी और स्वच्छशासन के पक्ष पाती थे । फलतः - वे साधुचर्या में क्षुल्लक तक को भो सवारी डोली आदि का निषेध करते थे और सस्याओ के रखरखाव, चन्दा, चिट्ठा यादि आडम्बर जुटाने के भी सख्त खिलाफ थे । पर आज वे बातें नहीं रही । आज कई दिगम्बर साधुओ में आचार के प्रति व्याप्त शिथिलता को लक्ष्य कर चिता व्याप्न थी कि किस प्रकार मुनि मार्ग निर्दोष रह सकेगा ? क्योकि साधु-पद सर्वथा 'यम' रूप होता है, जो एक बार ग्रहण कर छोड़ा नही जा सकता - जीवन भर उसका निर्वाह होना चाहिए * । ऐसे में हमारी दृष्टि भी उधर न जा सकी कि किस प्रकार मुनि अपने पद का त्याग कर सकता है ? अब 'तीर्थंकर' पत्रिका के माध्यम से दीक्षा-त्याग के नीचे लिखे तथ्य समक्ष आए हैं
" साधु पद छोड़ने की व्यवस्था भी हमारे यहाँ है । तीन अवस्थाएं है किसी ने दीक्षा ली और वह कुमार है, बाल ब्रह्मचारी है तो तीन प्रावधान हमारे सविधान मे हैं—पहला यह कि यदि उससे परीषह सहन नही होते हैं। तो वह गुरु आज्ञा लेकर घर जा सकता है यानी पद छोड़ कर परिवार में लौट सकता है; दूसरे, माता-पिता के इस आग्रह पर कि उसकी परिवार के लिए जरूरत है, आचार्य उसे पद त्याग की अनुमति दे सकता है; और तीसरे यह कि यदि देश के लिए उसकी आवश्यकता है तो राजाज्ञा से राजा भी उसे पद छुड़वा कर ले जा सकता है; परन्तु ध्यान रहे ये तीनों स्थितियाँ कुमारावस्था में दीक्षितों के ● 'यावज्जीव यमो प्रियते - रत्नक० ३-४१; यावज्जीवं यमो शेयः उपा० ७६१; घर्मसं० श्रा० ७ - १६; यथा यावज्जीवनं प्रतिपालनम्। देवाद् पोरोपसर्गेऽपि दुःखे वा मरणावधि - लाटीसं० ५ १५१ ।
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लिए ही बनती है।"
शंकर वर्ष १७, अंक ३-४, पृ० २१-२२
यदि यह सच है और उक्त प्रावधान दीक्षा-त्याग में आगम सम्मत है तो इनमें दूसरे तीसरे प्रकार के अवसर विरले ही मिले हो, परीसह न सह सकने के अवसर अधिक दृष्टिगोचर होते है। प्रायः अधिकांश मुनि परीषह सहने से जी चुराते हैं और वचने के लिए भांति भांति के बहानों से बाडम्बर जुटाते देखे जाते है । ऐसे कुमार ( अविवाहित) मुनियों को सोचना चाहिए कि वे जन-मार्ग को दूषित करें या आचार्य के आदेश से दीक्षा छोड़ दें ? हमारी दृष्टि से तो उनको पद छोड़ देना ही अच्छा होगा । ऐसे मुनियों को यह प्रावधान भी देख लेना चाहिए कि जिनको गुरु उपलब्ध न हों वे किसकी आज्ञा लेकर पद छोड़ेंगे? इसके सिवाय कोई प्रावधान उनके विषय मे भी देखना चाहिए जो कुमार नहीं है क्योकि परीषद् न सह सकने की कायरता बहुत से अकुमार साधुओं में भी देखी जाती है।
यदि उक्त विधि कारगर हुई तो हम अवश्य समझेंगे कि पूज्य आचार्य शान्ति सागर जी ने मुनि मार्ग की जिस परम्परा का पुनः सूत्रपात किया, उस परम्परा के संरक्षण में यह बडा ठोस कार्य होगा और मिथिलापारियों की छंटनी हो जायगी और इसकी बधाई 'तीयंकर' को जायगी। हो, उक्त प्रावधान के आगम प्रमाण अवश्य प्राप्त कर लिए जाँय और उन्हें उजागर किया जाय । हमने आगम में ऐसा नहीं देखा।
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हमारी दृष्टि से जैनियों में दो प्रकार के व्रतों का विधान है - एक 'नियम' रूप और दूसरे 'यम' रूप । जो व्रत 'नियम' रूप होते हैं, वे काल मर्यादा में बंधे होते है और समय पूरा होने पर स्वयं छूट जाते हैं। यदि व्रती चाहे तो उन्हें कुछ काल के बन्धन में पुनः धारण कर यमस्तत्र