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________________ सकता है। पर, मुनि का पद 'यम' रूप होता है जो एक नहीं आ सकते। यही कारण है कि अद्यावधि दि० मुनिबार धारण कर छोड़ा नहीं जा सकता-जीवन भर रूप क्वचित्-क्वचित् हमारी दृष्टि में माता रहा है । यदि उसका निर्वाह करना पड़ता है। जैसे-'ब्रह्मगुलाल' ने शिथिलता के निवारण के प्रति हमारी जागरुकता हो तो राजा के आदेश से स्वांग दिखाने हेतु मूनि का वे मुनिधर्म व वेष आज भी निर्मल बना रह सकता है। धारण कर लिया। स्वांग के बाद जब उन्हें राजा ने प्राचार्य का अधिकार दीक्षा छोड़ने की अनुमति देनेकपड़े धारण करने को कहा तो 'ब्रह्मगुलाल ने स्पष्ट जवाब भ्रष्ट करने मे नही, अपितु स्थितिकरण मात्र तक सीमित दिया कि-"यह वह वेष है जो एक बार धारण कर है। जैसे कि वारिषेण मुनि ने पुष्पडाल का स्थितिकरण छोड़ा नहीं जा सकता" और वे वन को चल दिए। किया । एदि कोई मुनि अपना पद छोड़ना चाहे तो उसे कौन रोक सकता है, स्वयं छोड़ दे ताकि मुनिमार्ग शुद्ध ऐसी स्थिति में यदि कोई 'यम' रूप मुनि के व्रत को बना रहे। छोड़ने का उत्सर्ग मार्ग और वह भी गुरु आज्ञा लेकर साधुओ मे शिथिलता का कारण बताते हुए एक छोड़ने का विधान बतलाता हो तो उसे आगम-सम्मत सज्जन ने कहा-'श्रावक तो साधुओ को दोष देते हैं पर, महीं माना जा सकता, अपितु उसे पद भ्रष्टता का द्योतक सब दोष श्रावको का है- 'जैसा खाए अन्न वैसा होवे ही माना जायगा और पद-भ्रष्टता मे आचार्य के आदेश मन।' प्राय. कई श्रावक काले धन की कमाई करते हैं, मुनि लेने जैसी बात करना केवल मनस्तोष और बहाना ही भी आहार उसी धन से करते हैं और मुनियों में अन्न के होगा कि-अमुक मुनि, अमुक प्राचार्य की आज्ञा से पद प्रभाव से आचार-शिथिलता आती है। श्रावक सफेद धन भ्रष्ट हुमा आदि। हम तो समझे हैं कि कोई आचार्य से आहार बनाएं तो मुनि भी सच्चे साधक हों।' किसी की गिरावट के लिए अनुमोदना नहीं कर सकता हम इसके विपरीत सोचकर चलते है-जब साधु अपितु वह सभी का स्थितिकरण करने का अधिकार जानता हो कि इस प्रकार का अनीति से अजित दान रखता है ऐसे में यह स्पष्ट है कि वर्तमान मे जो पद मे शिथिलता उत्पन्न करता है तो वह ऐसी घोषणा क्यो स्थितमुनि परीषह सहन न कर सकने के कारण बाह्या- नही करता कि यदि मुझे न्याय-नीति की सच्ची कमाई से डम्बरों में लिप्त हों वे आचारहीन कहलाएंगे और जो कोई दान देगा तो लगा अन्यथा मेरा लम्बा अनशन दीक्षा छोड देंगे वे पदभ्रष्ट अर्थात् पलायनवादी कहलाएगेजब कि आचार्य कभी भी पथभ्रष्ट होने का समर्थन नहो . समय में गिने-चुने महनती श्रावक-चाहे वे गरीब मजदूर कर सकते। हां, परिस्थिति वश वे ऐसे मुनि को सब से मी क्यों न हों? अवश्य मिल जाएंगे-जैनियों में अभी निष्कासित कर सकते है, उसके उपकरण छीन सकते है। भी प्रामाणिक लोग हैं और धर्मश्रद्धालु भी। मुनि के उक्त भ्रष्टता में आज्ञा अपेक्षित नहीं होती। जो भ्रष्ट होना मार्ग अपनाने से काले धाधे वाले स्वय छंट जाएंगे। चाहें वे स्वय पद छोड़ सकते हैं। स्मरण रहे कि मार्ग साधु की कमजोरी से ही बिगड़ा है ? मुनिगण में व्याप्त शिथिलाचार को पोषण देने वाले पर, कहे कौन ? आज तो द्रव्य की ओर दौड़ है, उत्तम कुछ लोग यह भी कहते सुने जाते है कि क्षेत्र और काल व्यजनो के प्रहार का जोर है और कई साधुओं ने के अनुसार बदलाव स्वाभाविक है। ऐसे लोगो को सोचना संस्थाओं के भवन-निर्माण, रख-रखाव और धुंगाघार चाहिए कि वे अपनी इस बात को नग्नता के परिवेश में प्रतिष्ठा प्राप्तिके साधन जुटाने जैसे कार्य भी पकड़ रखे भी क्यों नही देखते ? यदि क्षेत्र और काल शिथिलता मे हैं-जिरमे प्रभूत धन काले धन से ही आ सकता है, एक आड़े आते है तो वर्तमान सन्दर्भ मे नग्न-वेश आड़े क्यों नम्बरी कमाई करने वाला तो इस युग मे पेट-भर रोटी नहीं आता? यत.-पाज तो अधिकाश जनता नग्नता कपड़ा कमा ले यही काफी है। को हेयको दृष्टि से ही देखती है। पर ध्यान रहे कि "साइ इतना दीजिए, जामें कुटंम समाय । धर्म अपरिवर्तनीय होता हैं -उसमें क्षेत्र और काल आहे मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय ॥" इस रूप
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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