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३२, पर्व
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की भावना भी गरीब ही रख सकता है। सोचिए, हो उन्हें अतीत में अभिनन्दन ; सन्मान भेटे और जयकारे असलियत क्या है ? कहीं दो नम्बरी द्रव्य से संपादित सभी मिले हों? समाज में छात्रवत्ति फंड हैं, विधवा सहायतागतिविधियां खोखली तो न होगी, प्रभून काले धन से कोष हैं, अस्पताल अनाथालय और उदासीन जैसे निर्मित भवन मठाधीशों के मठ तो न बन जाएंगे? जरा- उदासीनाश्रम भी हैं, पर किसी ने पंडितों की वृद्ध और सोचिए ! हम तो मुनियों की बात के श्रद्धालु हैं एतावता असहायावस्था में उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन बिताने के लिए हमें ऐसी सम्भावना बन तो प्राश्चर्य नहीं ।
कोई सहायता फण्ड खोल रखा हो तो देखें। हाँ ऐसा तो
है कि जब तक पडित काम करता रहता है तब तक समाज २. जिनवाणी का संभावित भावी रूप?
उसे वेतन देता है नौकरी-ड्यूटी-चाकरी के रूप में। वर्तमान में जैसा वातावरण बन रहा है, उससे इसमें इतनी तक समझ नही कि पडित के प्रति उक्त शब्दो संभावना बढी है कि वह दिन दूर नहीं, जब जिनवाणी का के प्रयोग से घणा करे और मासिक को पुरस्कार, दक्षिणा, स्थान पंडित वाणी को मिल जायगा और पण्डित वाणी ही या आनरेरियम के नाम से पुकारे । ऐसे में कैसे होगे पडित जिनवाणी कहलाएगी। आज स्थिति ऐसी है कि लोग तैयार और क्यों करेंगे वे अपनी पीढ़ी को, अपने जैसा आचार्यों को मूलभाषा-प्राकृत, संस्कृत से दूर-पंडितों बनने के लिए प्रोत्साहित ? क्या, गुलामी करके भी भखो के भावानुकल-भाषावद्ध अनुवादों को पढ़ने के अध्यासी मरने के लिए? जरा सोचिए । बन रहे हैं और ऐसे कई अनुवादो के कारण विवाद भी
---सपादक पनप रहे हैं। एक दिन ऐसा आयेगा कि हमारे हाथ में विवाद की जड अनुवाद मात्र रह जाएंगे और मूल जिन- ३. क्या त्रिगुटा तथ्य नहीं? वाणी की संभाल कोई भी न करेगा।
__"धर्म भी एक धन्धे के रूप में विकसित हो रहा है।
तीर्थकरो या उनके सेवको को सुख दुख का कर्ता हर्ता ऐसे में आवश्यक है कि पडित गण जनता के समक्ष
बना देने से धर्म अनेक लोगो के लिए आजीविका का मूल के साथ मूल का शब्दार्थ मात्र लिखित रूप में प्रस्तुत करें। यदि पिन्ही को व्याख्या करनी इष्ट हो तो मौखिक
अच्छा साधन बन गया है। कोई गृहस्थाचार्य के रूप में ही करें-ताकि गलत रिकार्ड की संभावना से बचा जा
तो कोई मन्त्र-तन्त्र वेत्ता बनकर धन बटोर रहे है। मत्रित सके। यत: व्याख्या में विपरीतता के सभावित होने से
अंगूठियो. ताबीजों एव यंत्रों की बिक्री एक अच्छा धन्धा उसका होना भविष्य में जिनवाणी को ही दूषित करेगा।
बन गया है। धर्म की ओट में पल रहे और तेजी से बढ़
रहे इस गोरखधन्धे का सूत्रधार एक त्रिगुटा है। ज्ञानआज स्थिति ऐसी है कि पंडित-निर्माण की परम्परा चारित्र से रहित वे नव धनाढ्य जो पैसे के बल पर खण्डित हो रही है और इसी कारण शुद्धात्मा की चर्चा तक समाज के नेता बनना चाहते हैं इसके संचालक है। धर्म में लीन अनेक अपण्डित भी अपने को पडित मान, अपनी से प्राजीविका चलाने वाले गृहस्थाचार्य और शिथिलाचारी कषायो के पोषण में लगे हैं। कई भले ही बाह्य चारित्र को त्यागी-व्रती इनके सहयोगी है। तीन वर्ग एक दूसरे के पाल रहे हों तो भी क्या ? कइयों का अन्तरंग तो मला ही हितो का पृष्ठ पोषण करते हुए समाज को अंधेरे में धकेल देखा गया है -कषायों का पुंज।।
आज की आवश्यकता है पल्लवग्राहिपाण्डित्यं के स्थान जब कोई कार्य आजीविका या प्रतिष्ठा का साधन पर मूलभाषादि, सैद्धान्तिक ठोस पण्डितों की-जिनको बन जाता है तो व्यक्ति उसे हर कीमत पर बचाने का ओर से समाज ने आंखें मूंद रखी हैं। आज परिपक्व प्रयास करता है। यह त्रिगुटा वर्तमान में ऐसा ही कुछ पंडितो तक की बीमारी और बुढ़ापे में भी दुर्दशा है-भले कर रहा है। धार्मिक पत्र-पत्रिकाएँ जिन्हें अहिंसा, प्रेम,