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मूलाचार व उसकी प्राचारवृत्ति गाथा या वृत्ति ज्ञान पी० मं• पृ.
प्रतिमिलान के लिए अपेक्षित पाठ विशेष ५-१२१
२६५
मुनिरित्याशकायामाह चकार (र) सूचितार्थ (?) ५-१२७
२७२
यदि प्रथमस्थानं शुदं द्वितीयं तृतीयस्थानं वानुशाप्य
[वाननुज्ञाप्य ५-१३६
२७७
अत्रोकारस्य ह्रस्वत्व प्राकृतबलात् द्रष्टव्य (प्रसंग ?) ५-१४२ (मल) २७८-७६
....""समणुण्णमणाअणण्णभावो वि चत्तपडिसेवी (?)
वृत्तिका पाठ व अनुवाद भी विचारणीय है। ५-१४५ (मूल) २८१ (गा० ३४२) स मणागवि कि (पाठान्तर--'स मुहदो च कि') ५-१५८ २८६
"तेषा यन्नानाविधान नानाकरण तस्य ग्रहण (?) ५-१८१
३०२ (मूल) (गा० ३७८) गिहत्थ वयणमकिरियमहीलणं (?) (वृत्ति)
वृत्तिगता पाठ विचारणीय है । ५- १० (मूल) ३०७ (गा० ३८७) आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तमोधिनिज्जजा (?) ५-१६३
३०९
दु शीले वा दुबंने व्याध्याक्रान्ते वा (?)
कुले शुक्रकुने स्त्रीपुरुषसन्ताने ५-१६४
वाचनाव्याख्यानविकिचनमूत्र (2) इस प्रकार से यहा कुछ थोडी-सी अशुद्धियों और छायानुवाद के रूप में उन दोनों गाथानों की वत्ति में विचारणीय स्थलो का दिग्दर्शन कराया गया है, वैसे आत्मसात् कर लिया है । यथाअशुद्धियां बहुत दिखती है । पिण्डशुद्धि मे जो श्रमणाचार (क) पचह गाणावरणीयाण नवण्ह दसगावरणीयाणं से अधिक सम्बद्ध है, ऐसे अनेक स्थल है जिनका अभिप्राय असादावेदणीय पचण्ह मत राइयाग मुक्कस्सयो दिदिबंधो तीस समझना कठिन हो रहा है । अन्तिम बारहवे अधिकार मे,
सागरोवम कोडाकोडीपोषटख० सूत्र १, ६-६ ८, (पु०६,
पृ० १४६) विशेषकर गा० १५४-२०६ (अन्त तक) मे, अधिक अशु
(क) पचाना ज्ञानावरगीयाना नवानां दर्शनावरद्धियां उपलब्ध हैं। इससे प्रस्तुत ग्रन्थ का प्राचीन हसन
णीयाना सातवेदनीयस्यासातवेदनीयस्य पंचांतरायाणां लिखित प्रतियो से मिलान करने की अत्यधिक आवश्यकता है।
चोत्कृष्ट स्थितिबन्धो स्फुट विंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः । ग्रन्थान्तरों के सन्दर्भ :
मला वति १२-२०० (जा. पी० स० २, पृ० ३७६) जैसा कि ऊपर मकेत किया जा चुका है. वत्तिकार ग्रा.
यहां 'सातादेवनीय' का उल्लेख प्रमादवश हआ है वसुनन्दी ने अपने पूर्वकालीन अनेक ग्रन्थों से प्रसंगानुरूप
जो निश्चित ही अशुद्ध है। सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति
यही पर आगे गा० २०१ की वृत्ति (ज्ञा० पी० स. २ सन्दर्भ लेकर अपनी उस वृत्ति को पुष्ट किया है। उनमें
पृ० ३७७) में पृथक् से पन्द्रह कोड़ाकोड़ी प्रमाण निर्दिष्ट कुछ इस प्रकार है
की गई है। १. षट्खण्डागम-मूलाचार गाथा १२-२०० व
ख) सादावेदणीय-इत्थिवेद-मणुसगदि-मणुगदिपायो२०१ में निर्दिष्ट ज्ञानावरगादि पाठ मूल प्रकृतियों की
___गाणुपुविणामाण मुक्कस्सओटिदिबधो पण्णारस सागरो
। उत्कृष्ट स्थिति स्पष्ट करते हुए वृत्तिकार ने उन मूल वमकोडाकोडीयो ष० ख० सूत्र १, ६-६, ७ । प्रकृतियों के साथ उनकी उत्तर प्रकृतियो की भी उत्कृष्ट सातवेदनीय - स्त्रीवेद • मनुष्यगति मनुष्यगतिप्रायोग्यास्थिति का वर्णन किया है, जो षट्खण्डागम से प्रभावित नुपूर्यनाम्नामुत्कृष्टा स्थिति: पञ्चदशसागरोपमकोटीही नही, यथा प्रसग उसके सूत्रों को उसी क्रम से संस्कृत कोट्यः । मूला० वृत्ति १२-२०१.