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१४ बर्ष ४०, कि०१
अनेकान्त
गाथा या वृत्ति ४-४
४-२४ ४-२७ (मूल) ४-३० ४-३१ (मूल)
, (वृत्ति) ४-५८ (मूल)
४-६३
४-७०
५.३८
५-३६ (मूल) ५.४७
ज्ञान पी० सं०१०
प्रतिमिलान के लिए अपेक्षित पाठ विशेष नाय पृच्छाशब्दोऽपशब्दः । उत्सर्गापवादसमावेशात् (?) ।
अनुवाद अस्पष्ट है। १२३
तुम्हे महद्गुरुकुले (ज्ञा० पी० सं० 'त्वद् महद्गुरुकुले') १२६
बिदिओऽगिहीदत्थससिदो [बिदियोगिहिदत्थसंसिदो। १२८ (गा० १५.) नमोस्तूनां शासने (जा० पी० सं० टिप्पण मे 'सर्वज्ञाना शासने') १२६ (गा० १५२) साणागेणादि (ज्ञा० पी० स० 'साणगोणादि') [साणगोणसादि]
श्वगवादय. १४७ (गा० १७९) कहा व सल्लावणं (वृत्तिगत पाठ भी विचारणीय है) १५१
अल्पगुह्यदीर्घस्तब्ध: प्रश्रवादिरहितः (?) प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'असण्णिवाए' का अभिप्राय अस्पष्ट है, वृत्तिकार को उसे तीन विकल्पो में स्पष्ट करना पड़ा, फिर भी वह सन्तोषजनक नही है। प्रसग कुछ दुरूह है या अशुद्ध भी हो
सकता है। १६६ (ज्ञा०पी० स०) पूर्वगाथार्थेनास्य गाथार्थस्य नैकार्थ(?) बन्धास्रवोपकारेण प्रतिपाद
नात् (यहाँ एक विशेषता यह रही है कि शुद्ध उपयोग को पुण्यास्रव
रूप निदिष्ट किया गया है)। २००
णेहोउप्पिदगत्तस्स (?) २०४
जीवस्वरूपान्ययाकरणस्सोऽन भागबन्धः जीवस्वरूपाग्यथाकरणं सोऽनुभाग बन्धः] योगाज्जीवाः (?) प्रकृतिबन्ध [प्रदेशबन्ध] च करोति । उहा-उष्ण पूर्वोक्तप्रकारेण सन्निधानाच्छीताभिलाषकारणा
दित्य-ज्वरादि सन्ताप: (?) २१५ (गा. २५६) ससत्तीए [स्वशक्त्या] वृत्तिकार के अर्थ को देखते हुए 'सव्वसत्तीए'
पाठ सम्भव है। २१६ (गा० २६२) हिदमिदमवगहिय (?) २२२
अमुख्य प्रत्यक्षोन्द्रिय- [प्रत्यक्षां इन्द्रिय-] विषयसन्निपाता....... ईषत्प्रत्यक्षभूत । परोक्षं [ईषत् प्रत्यक्षभूतं परोक्ष] श्रुतानु...... भेदेनानेकप्रकार, [प्रकार] श्रुत....."मतिपूर्वक इन्द्रिय ... ..
विज्ञान । यथाग्निशम्दात् खपरविज्ञानं (?) । २२३
शूना (?) पीनांगोदेवदत्तो सर्वासु सन्ध्यादावन्ते [सर्वासु सन्ध्यास्वादावन्ते] पचण्हंपि यन्हयाणमावज्जणं (?)
पचानामप्यह्रवाना व्रतानामावर्जन भंगः । २५८
तथैव (व) ह्रस्व [तथव] ह्रस्व २५६
यदुत नाम तथा न सम्पादयेदभिनीता [सम्पादयेदित्यभिनीता]
५.५७
५.५७
५-५६ (मूल)
५-६५ (मूल) ५-७०
२२८
२४७
५-७५ ५-६६ (मूल)
,, (वृत्ति ) ५-११४ ५-११५