________________
बम्बई सं० गावांक
६-५
"7
६-२२
६-३३
६-५५
६-५८
६-६०
६-६१
६-६२
६-७
६-६८ (मूल)
गाथा या वृत्ति १-६ ( वृत्ति)
१-३५
=
३-५
ज्ञान पी० [सं० पृ०
३३३
३३३-१४
३३४
३४५
३५४
३६७
३६८
३६६
३७०
३७१
३७५
विचारणीय
मूलाधार व उसकी प्राचारवृति
अशुद्ध पाठ
४५
'कुछ
ज्ञा० पी० स० पृष्ठ
१२-१३
४६
श्रवणो
पाखण्डिवध्यासकर्मणो
तेन गृहस्था: । साधवः
जंतुना
सकृत्रिमभेदभिन्न
जुगुप्सा ततश्चेति
गुढघामुक्त, आहारमध्यवहरति
,
मुक्ते प्राणादण नातिमात्र धर्म
। तितिक्षणाया
यद्येवम
भक्षादिके
**
उसके स्थान सम्भव शुद्ध पाठ
श्रमणो
पाखण्डिष्वस्याधः कर्मणो
ते न गृहस्थाः, साधवः
जतुना
सकृत्रिमा कृत्रिमभेदभिन्नं जुगुप्सातदचेति
गुढया युक्तः प्राहरति आहारमभ्यवहरति
भुंक्ते, न प्राणादश
नात्र धर्म (ज्ञा० पी० सस्करण काजस्ाचित् शुद्ध हो सकता है )
। तिरक्खणे तितिक्षरणायां यद्येतदर्थं
भक्ष्यादिके (शा०पी० - टिप्पण
गयेसमणो
ऐसे पाठ जो प्रतिमिलान को अपेक्षा रखते हैं
मे शुद्ध है) गवेसमाणो
२. शा० पी० संस्करण में 'गृ-द्धघाद्यायुमुक्तः आहरत्यम्यवहरति' ? ऐसा पाठ है ।
प्रतिमिलान के लिये अपेक्षित पाठ विशेष सदाचाराचार्यान्यथार्थकथने दोषाभावो वा सत्यमिति सम्बन्ध: I X XX सदाचारस्याचार्यस्य स्खलने दोषाभावो वा । भुंजे भुंक्ष्य वचसा वपसा न भगामीति चतुविधाहारस्याभिसन्धिपूर्वक कायेनादान ( वचन सम्बन्धी कारित व अनुमति से सम्बद्ध पाठ स्खलित दिखता है, अनुवाद मे उसे मूल के बिना ले लिया गया है।)
'सदुभयोज्झनमुभयम्' ('उभय' प्रायश्चित्त से सम्बद्ध यह पाठ निश्चित ही अशुद्ध है, देखिये आगे ०३६२ की वृत्ति में 'उभय' प्रायश्वित का लक्षण उभय-द्यालोचन प्रतिक्रमणे) उपक्रमः प्रवर्तन अस्तित्व (यह पाठ अशुद्ध है, उसके स्थान में 'उपक्रमः अपवर्तन' पाठ होना चाहिये, आगे गा० १२-८३ (० पी० सं० २, पृ० २७१ ) की वृत्ति मे उसका लक्षण - उपक्रम्यते इति उपक्रमः विध-वेदन प्रायुषोघातः, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है। देखिये त० भाष्य २-५२ मे 'उपक्रमोऽपवर्तननिमित्तम्')