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________________ ३०, वर्ष ४०, कि.. अनेकान्त हम उक्त पत्र का नम्बा-चौड़ा का उत्तर निते? आगे की पीढ़ियाँ अवश्य ही अपना मुंह छिपा अपने को हमने तो उनसे साधारण निवेदन कर दिया कि-आश्चर्य जैन लिखना तक बन्द कर देंगी, ऐसी सम्भावना है । पडितों है कि आप अब अभी भी ऐसे लोगों को मान्य-विद्वानों जैसे और त्यागियों को ही यह श्रेय प्राप्त है, जिसके कारण आज संबोधित कर रहे हैं, जब कि वे ऐसे कृत्य करके न मान्य धर्मक्षेत्र मे साधारण से साधारण व्यक्ति भी सरेआम सिर रहे और ना ही विद्वान् । यदि वे मान्य-विद्वान् होते तो उठाकर 'जैन धर्म की जय' बोलता नजर आता है। स्थितिकरण के लिए प्रयत्नशील होते। पर, होते कैसे? वरनाशायद स्थितिकरण मे उनकी दक्षिणा और चन्दा-चिदा के हमें वह ममय भी याद है और देखा है-जब जनियों मार्ग की प्रति हो जाती होगी,-अवश्य ही वे अर्थी होंगे। को सरे-आम नास्तिक कहा जाता था और बात-बात मे मुनि के मूनि पद मे स्थितिकरण होने पर मनि उनको ललकारा जाता था कि वे ग्राने धर्म के सिद्धान्तों की दक्षिणा और उनके चन्दा-चिट्ठा मे कैसे सहायी हो सकते। प्रमाणिकता सिद्ध करें। और जैनी थे, कि अपने को पग-पग अस्तु ! उक्त बातें धर्म-रक्षा में कहाँ तक समर्थ हो सकती है? पर सहमा-सहमा जैसा महसूस करते थे -निराश होते थे। जरा सोचिए ! ऐस में पंडितो के एक संगठन की ही सूझ-बूम और हिम्मत थी, जिसने अपने स्वार्थों को ताक में रख जगह-जगह २. विद्वानों को रक्षा और वृद्धि : शास्त्रार्थ करके धर्म का उद्योत किया और जैनियो को चैन पंडित और मसालची, ये समान जगमांहिं । की साँस लेने के योग्य बनाया । यदि सबूत लेना है तो औरत को दें चाँदना, आप अंधेरे माँहि ।।' पूछिए-परलोक पे जाकर स्व० प० मंगलसेन जी वेदउक्त दोहा हमे किसी ने लिखा है। हमे सतोष है कि विद्या-विशारद से, प० राजेन्द्रकुमार जैन से, प० किसी ने तो वास्तविकता को समझा। वरना, इधर तो अनितकुमार शास्त्री से, प० तुलसीराम जी काव्यतीर्थ से निम्न दोहे का अनुसरण करने वाले ही अधिक संख्या में प. चैनसुखदास न्यायतीर्थ से और वीधूपुरा-इटावा के दिखते हैं ब्र कुंवर दिग्विजय सिंह जी आदि से और मध्यलोक में 'करि फुनेल को आचमन, मोठो कहत सराहि ।' जाकर पूछिए -दि. जैन सघ मथुरा की फायलों से (यदि और तब हम सोचते है-- हो तो) कि कैसे समय पर पडितो ने धर्म-रक्षा और प्रभावना 'रे गन्धी मति-अध तू अतर दिखावत काहि ।' के लिए क्या किया? स्व. गुरुवर्य प० गोपाल दाम वरया हां, यह बिल्कुल ठीक ही तो है कि मसालची और व स्व०प० मक्खनलाल जी मुरैना से भी जाकर पूछिए । सच्चा पति दोनो को उदारता की समता नही - दोनो ही जब विश्वनाथ नगरी काशी मे जैन-ग्रन्थो का सरे आम स्व-लाम न लेकर दूसरों को लाभान्वित करने में अपना अपमान होता था, तब पडित-त्यागियो ने क्या किया, और आथितो का पूरा जीवन तक बेवसी और भटकन मे उन्होने कमे जैन आगम की रक्षा और महत्ता-प्रकाश का गुजार देते हैं और फिर भी उन्हे भत्स्ना के सिवाय कुछ मार्ग खोला ? यह पूछना हो तो स्वर्ग मे जाकर पूछिए नही मिलता। सच भी है, जब वे मति-अध गंधी की भांति पू० क्ष० प. गणेशप्रसाद जी वर्णी, बाबा भागीरथ जो अपनो ज्ञान-रूपी गन्ध अनाडियो में बांटते फिरें, तब नतीजा वर्णी से और पूछिए वहाँ के बाद के कार्यकर्ता ब्र०सीतल प्रसाद तो यही होना था। जी से। कि कैसे इन सबने वहाँ विद्या के अध्ययन के लिए हमने किसी से कहा था कि जिस दिन समाज के बीच 'स्याद्वाद महाविद्यालय खोला? स पंडित और त्यागी उठ जाएंग (पडित तो प्रायः उठ रहे हम फिर लिख रहे हैं कि-अपने श्रावक पद की हैं और त्यागियो को कुछ श्रावक उठाने के जवरदस्त गरिमा रखिए, त्यागियो को परिग्रह के चक्कर मे न फँसाइए प्रयत्न मे हैं) उस दिन समाज को कोई नही पूछेगा । आज और उनके नाम पर नाजायज लाभ भी न उठाइ।। फिर, जो लोग गवं से अपने को जैन घोषित कर रहे हैं, उनकी वह लाभ यश सबधी हो या अर्थ-सबधी ही क्यों न हो?
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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