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जरा सोचिए १. अपरिग्रह को जीवित मूर्तियों की रक्षा : हमने पहिले इशारा किया था वह जीवित धर्म-मूर्तियों
की अक्षुण्णता के मार्ग में था। हमने लिखा था-'मुनि श्री हमने कब कहा कि-जो विचार हम दें उन्हें लोग।
के बहाने हम ऐसी किसी भी सस्था के खड़े करने के पक्ष माने ? तथ्य को न मानने का तो लोगो का स्वभाव जैसा
मे नही, जिममे अर्थ संग्रह करने या उसके हिसाब के रखबन बैठा है। भला; जब लोगों ने तीथंकरो के बताए
रखाव का प्रसंग हो। हम तो मुनि श्री को प्रचार के अपरिग्रह मार्ग की अवहेलन कर उस मार्ग पर अनुगमन ।
साधनों-टेगरकार्डर, माइक, बीडियो और मच आदि से न किया, परिग्रह जुगने मात्र में लगे रहे, नब हम सि
भी दूर देना चाहते हैं। हम चाहते है कि -मुनि श्री का खेत की मूली है, जो उन्हें अपनी बात मनवा सके ? खैर,
घेराव न किया जाए। यदि उनमे कुछ धर्मोपदेश सुनना हो लोग मानें न माने. फिर भी हमे तो अपनी बात कहना हो
तो उनके ठहरने के स्थान पर जाकर ही सुना जाय । है, अस्तु । हम अपरिग्रह के विषय को ही आगे बढ़ा रहे है
मुनि श्री का जयकारा करना कराना उन्हें समूह की ओर और पुनः लिख रहे हैं कि यदि लोग परिग्रह-परिमाण न
खींचना उन्हे मार्ग से च्यून करने जमे मार्ग है। इनसे माधु कर सकें तो न करे; पर, अपरिग्रह को जीवित मूर्तियो को
का अह बढ़ता है, यलिप्सा होती है, राग-रजना होती है, तो तीर्थकर मार्ग पर चलने दे, उनको मार्ग से व्युत करने
और वह जिसके लिए दीक्षित हआ है उस स्व-साधना से के साधन तो न जुटाएँ । स्मरण करे कि-वह कौन-मी
वचित रह जाता है, पर-सुधार के चक्कर में पड़ जाता है : शुभ घडी रही होगी जब उन्होने परिग्रह से मुंह मोड, इस आदि। दिशा मे पग बढाया होगा -नग्न होकर परीषह सहने और अभी-अभी हमे एक पत्र मिला है जो एक प्रतिष्ठित ममत्व-त्याग के भाव में कच-लोंच किया होगा। यदि हम सभ्रात जाता का है और जो मुनिभक्त भी हैं। पाठक उन्हें आदर्श-मनि, यागी बने रहनेमे साधन बन सकें, उन्हें
आज
ती गोधनी बन गई है? शिथिल न करने जैसे साधन जुटाते रहे, तो जिन-धर्म का लिखनेअपरिग्रही--वीतरागी मुनि-मार्ग सदा-सदा अक्षुण्ण रह "अब तो त्यागीवन्द (क्षुल्लक ब्रह्मचारी आदि) नईसकेगा तथा उसके सहारे लोग भी जैनी बन या बने रह नई मस्थाएं बनाते जा रई तथा किसी मुनि के साथ सकेगे।
रहकर उनके नाम और प्रभाव से खब च दा बटोरते हैं : मानव बडा स्वार्थी बन गया है। अपने स्वार्थपूर्ति के लोग तो कहते है कि घर को भी भेजते है. संघ में जो भार्ग मे कुछ लोग अन्यो की गरिमा या उनके पदो तक का मचालिका नाम के जीव है, वे चौके लगाती हैं, पाहार ख्याल नही करते। जैसे भी हो वे उनमे मासारिक भोगो दान वसूल करती है और उनके चौके में जो आहार देना की कामना रखते हैं दि० त्यागियो को भी घेरे रहते है और चाहे वे २१/= या ३१/--- अपित कर सकते हैं।" उन्होंने वहाँ भी अपनी यश-प्रतिष्ठा कायम रखना चाहते है, यह भी लिखा है कि उन्होंने "जो बातें लिखी और कही हैं आखिर क्यो न हो? वे भी तो उन्ही स्वार्थी मानवो में से वे सुनी हई नही, आखो देखी हैं अत: सूर्य की धूप की तरह हैं, जिन्हें मानव संवोधन देते भी लज्जा आती है। भला, सत्य है" वे लिखते हैं हमारे कुछ मान्य विद्वान् इन सब कहाँ का न्याय है कि लोग अमानवीय कृत्य करते रहे, बातों को अनदेखी करने के पक्ष में हैं, वे उपगहन पर तो मान्यों और पूज्यों को गिराने के साधन जुटाते रहे और जोर देते है किन्तु न जाने क्यो, स्थितिकरण के लिए मानव कहलाएं ?
प्रयत्नशील नहीं होते।'