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________________ २८, वर्ष ४०, कि० १ अनेकान्त यदि उसके मूल में कुछ और बैठा है तो मूल तत्त्व 'जीव' चेन-चेतनत्व शब्द व्यापक हैं और जीव-जीवत्व शब्द कैसे होगा? वहाँ तो जो बैठा है वह ही मूलतत्त्व होगा--- व्याप्य (संसार तक मीमित) है। आचार्य की दृष्टि मेंमूल तत्त्व वह होगा जिसके कारण जीव 'जीव-संज्ञक है । इस औदयिक होने मे 'जीवत्व' नश्वर है और चेतन कालिक प्रसंग में इस प्रश्न का समाधान अपने में कीजिए कि वह सत्तावान है। इसीलिए आचार्य ने चेतन के गुण को जीवत्व के कारण जीव है या जीव होने के कारण से उसमें प्रमुखता देकर जीवत्व का परिहार किया है और इसी जीवत्व है ? हमारी दृष्टि से तो जीवत्व होने के कारण परिप्रेक्ष्य में कहा है---'सिद्धा ण जोवा ।से उसकी जीव संज्ञा है न कि जीव संज्ञा पहिले और जीवत्व बाद में है। यदि जीवत्व के कारण से जीव तो क्या अशुद्ध को श्रद्धा सम्यग्दर्शन है ? जीवत्व के औदयिक होने से जीव-सज्ञा भी नश्वर ठहरती है। यदि हमाग कथन ठीक हो तो मूलतत्त्व चेतन, अचेतन । उक्त प्रसग को लेकर किसी ने हमारा ध्यान इस ओर (जैगा कि प्राचार्य की अभीष्ट है) ही ठहरेगे और जीव. भी खीचा कि यदि 'जीवको चेतन की अशुद्ध पर्याय जैसा नाम कर्म-जन्य और व्यवहार मे आया हुआ रूप ही मानेंगे तो सा ग्दर्शन के लक्षण में सात तत्त्वो के श्रद्धान में ठहरेगा। फलत:- जीव के सबध मे, आगम के परिप्रेक्ष्य जीव (अशुद्ध पर्याय) का श्रद्धान क्यो कहा? क्या अशुद्ध मे जिसे 'गुणपर्ययवद्रव्यम्' लक्षण से कहा गया है, वह का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है ? प्रश्न तो नित है; म मल-द्रव्य चेतन- -आत्मा है और 'जीव' व 'सिद्ध'दो उसकी इस विषय मे ऐमा ममझे है किपर्यायें है और 'जीवत्व व सिद्धत्व' उनके गण हैं। इसीलिए मोक्षमार्ग के प्रसग मे भेद-विज्ञान को प्रमुखता दी गई 'चेदणगुणमवलम्बिय परुविद' ऐसा कहा है और इसी चेतन है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान भी बिना भेद-विज्ञान के का शुद्धरूप 'सिद्ध' है, फलत:-'सिद्धा ण जीवा ।' कथन नही होते । स्व मे स्व-म । और पर में पर-रूप से श्रद्धा व ठीक है। ज्ञान करने से सम्यग्दर्शन दि होते है। जहाँ ने वल एक (शुद्ध या अशुद्ध) ही है। वहाँ भेद-विज्ञान कैसा? किसका फिर यह भी सोचिए कि जब जीव से जीवत्व और और किसमे ? मोक्षमार्ग की खोज भी क्या होगी? अE: चेतन से चेतनत्व शब्दो की मगति उपयुक्त हो, तब जीव मे जीवादि के श्रद्धान व ज्ञान नो हो मोक्षमार्ग कहा है। जीव कर्मोदयजन्य जीवत्व जैसी उचित सगति को त्याग कर, मे चेतन 'स्व' है और विकारी भाव 'पर' है. --इनसे ही जीव में विषम-शब्द चेतनत्व की सगति बिठाना और भेद-विज्ञान मध मकेगा और मोक्षमार्ग बन सकेगा। इसके कहना कि-- जीव का गुण चतनत्व है, कहाँ तक उनित अतिरिक्त जो मोक्ष हा चुके है जिन्हे मार्ग की खाज नहीं, है-जब कि जीव का लक्षण उपयोग है और उपयोग उनम सम्यक्त्व 'अात्मानमति' के लक्षणरूप मे विद्यमान ही क्षयोपशमजन्य होता है। फिर-तब, जब कि जीव-जीवत्व, है-भेद-विज्ञान की अपेक्षा नही । ऐसी आत्माओं को चेतन-चेतनत्व जैसे दो पृथक्-पृथक नाम ओर गुण की लक्ष्यकर ही कहा गया है.---'मिद्धा ण जोवा ।'--- पृथक-पृथक रूप में प्रसिद्ध हो। हमारा कहना तो ऐसा है कि जीव का गुण जीवत्व है और चेतन का गुण चेतनत्व कर नागमदिर दि.२ है-दोनों पृथक-पृथक् नाम और पृथक्-पृथक गण है।
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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