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________________ २७ सिता नजीबा-बवला कि दोनों ही नय स्वतंत्र रूप से एक देश को ही ग्रहण करते आत्मा शब्द का प्रयोग : हैं और पदार्थ अपने मे पूर्ण होता है और पूर्ण पकड़ नय के मोक्ष और मुक्त मे क्या अन्तर है यह तो हम बाद में वश की बात नहीं। फलतः पूर्णवस्तु-ज्ञान के परिप्रक्ष्य में कभी लिखेंगे । हो हमने मोक्ष प्रसंग में आचार्यों के कई ऐसे दोनों नयो-प्राह्य लक्षणो को समकाल मे मानना ही यूक्ति मन्तव्य देखे है, जिनमें चैतन्य आत्मा की शुद्ध अवस्था होने संगत है और आचार्य ने भी एक साथ ही दोनों नयो द्वारा का उल्लेख है, (कही जी। की अबस्था का निर्देश हो तो जीव का लक्षण किया है-जो प्रमाणभूत है और इस भांति हमें मालुम नही) तथाहिजीब में प्राण और चेतना दोनो ही एक साथ में मानना निरव शेषनिराकृतकर्ममलकल कस्याशरीरस्यात्मनोऽचि. युक्ति सगतहै-जीव में दोनो लक्षण एक साथ होने ही त्यस्वाभावविक ज्ञानादिगुणमव्यावाधसुखमात्यन्तिकमचाहिए और है तथा उक्त भाव लेने से गाथा में गृहीत । वस्थान्तरं मोक्ष इति ।'--सर्वा० : प्रारम्भिक 'तिक्काले' की मगति भी बैठ जायगी। अन्यथा 'तिक्काले चदुपाणा' मे 'तिक्काले' का क्या भाव है ? यह भी सोचना 'जीवह मो परमुक्खु मुणि, जो परमप्पय लाहु। पड़ेगा। सिद्वो मे तो केवल एक चेतना मात्र है। इस भांति कम्मकलक विमुक्काह, पाणिय बोल्लहिं साहु ॥ धवला का 'सिद्धा ण जीवा' युक्ति सगत और ठीक है। परमात्मलामो मोक्षोभवतीति . . . . . . . . . . . . ...। -परमात्म०१३६ उपयोग क्या? 'कृत्स्नकर्मवियोगेसति स्वाधीनात्यन्तिक ज्ञानदर्शनाचलते-चलते इस प्रसग मे हम एक बात और स्पष्ट नुपमसुख प्रात्मा भवति ।-त. रा० वा. १ २० कर दें कि उपयोग के उक्त लक्षणो के प्रकाश से उपयोग 'मव्वम्म कामणो जो खयहेद् अप्पणो हु परिणामो।' का अर्थ मात्र शुद्ध ज्ञान या शुद्ध दर्शन मात्र जैसा नही -द्रव्य० ३७ ठहरता अपितु उपयोग 'आवरणकर्म के क्षयोपशम 'आत्मबन्धयोद्विधाकरणं मोक्षः ।। निमित्त को पाकर होने वाले चैनन्यानुविधायि परिणाम' -समय आत्मख्याति २८८ का नाम होता है। इस उपयोग मे अशुद्ध चेतना (ज्ञान- 'निर्मला निष्कल. शान्तो निष्पन्नो उत्यन्तनिवृत्तः । दर्शन) कारण है और उन कारणों से होने वाला परिणाम कृतार्थ. साधु वोधात्मा पत्रात्मा तत्पदं शिवम् ॥' उपयोग है और वह उपयोग दो प्रकार के अवलवनो से -ज्ञाना० श होने के कारण दो प्रकार का कहा गया है-ज्ञानोपयोग इसके मिवाय द्रव्य-संग्रह के मोक्षाधिकार में 'आत्मा' और दर्शनोपयोग । जो उपयोग ज्ञानपूर्वक होता है वह शब्द की भरमार है, जीव शब्द की नही । शायद जीव का ज्ञानोपयोग और जो दर्शनपूर्वक होता है वह दर्शनोपयोग परिहार करने या आत्मा और जीव मे भेद दर्शाने के लिए कहलाता है और इस प्रकार मतिज्ञानादि के निमित्त से होने ही ऐसा किया गया हो अन्यथा प्रारम्भसे जीव को प्रमुख वाले उपयोग उस उम ज्ञान के नाम से मतिज्ञानोपयोग करके व्याख्यान करने के बाद, मोक्षाधिकार मे उसकी आदि कहलाते है और चक्ष आदि पूर्वक होने वाले उपयोग उपेक्षा क्यो? देखे - अत्मा के निर्देश-द्रव्य-सग्रह गाथा, चक्षुदर्शनोपयोग आदि नाम मे कहे जाते है। इमी प्रकार ३६, ४०, ४१ ४२, ५०, ५१, ५२, ५३ और ५६ आदि। के उपयोग जीव के लक्षण है और इस प्रकार के उपयोग जीव में ही होते है, सिद्धो में नही। इसीलिए जीव के मूलतत्त्व क्या? लक्षण मे दहा गया है-'उपयोगो लक्षणम् ।' भाव ऐसा विचारना यह भी होगा कि जिस जीव तत्त्व को मोक्ष है कि जहाँ चेतना उपयोग रूप हो वहाँ जीव संज्ञा है और क्रम मे मूल मानकर चला जा रहा है वह 'जीव' मूल तत्व है या मोक्षमार्ग दर्शन के प्रसग मे चेतन की अश जहाँ चेतना शद्ध-ज्ञान-दर्शन रूप हो वहाँ 'सिद्ध' संज्ञा है और इसी धवनाकार ने कहा है-सिद्धा ण जीवाः।' ससारी अवस्था ? या उनके मूल मे कुछ और बैठा है?
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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