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जरा सोचिए
दोनों ही लाभों के लोभ का त्याग करिए। विद्वानो की लिखने की आवश्यकता नही और इसे लोग जानते भी वृद्धि और रक्षा करिए, त्यागियो का स्थितिकरण करिए हों, शायद उनमें चि.ता भी व्याप्त हो कि कैसे और किस
और जो शुद्ध है उन्हें शुद्ध रहने दीजिए और निम्न दोहे के प्रकार तोर्थक्षेत्र आज धर्म क्षेत्र के रूप में सुरक्षित रह विषय मे गहराई से सोचिए, जरा ठण्डे दिल से
सकेगे? कुछ तीर्थों पर तो पिकनिक नैसे वे सब साधन तक 'पंडित और मसालची ये समान जग-माहि । मिलने लगे है जो धर्म से सर्वथा वर और राग-रंग की ओर औरन को दें चाँदना आप अंधेरे माँहि ।।' आकर्षित करने वाले है। जैसे राग-रंग के बीडियो कैसिट,
फिल्म, टी. वी० आदि । जहाँ उस काल में मुनियों ने ३. तीर्थ-क्षेत्र रक्षा :
तपस्या करके-परीपह सहकर और श्रावकों ने घर से अल्पतीर्थ धर्म को कहते है ओर धर्म है वीतरागता व
काल की विरति लेकर व्रत उपवास, पूजा-पाठ, धर्म ध्यान अपरिग्रहरूप । और क्षेत्र स्थान को कहते है जो है परिग्रह
कर तीर्थ और क्षेत्र की रक्षा की वहां आज लोग क्षेत्र पर का एक भेद। कैसा बेजोड जोड़ द तीर्थ और क्षेत्र का?
जाकर कूलर, हीटर, फ्रि। एयर कण्डीशन्ड कमरे और ऐसे बेजोड जोड़ का जोड़ बिठाना बड़ी हिम्मत का काम
गृहस्थी के न जाने कौन-कौन से सासारिक सुख सजोने मे है और तीर्थकरो ने इसे बिठाया--क्षेत्र को भी तीर्थ रूप
लगे है ? ऐसे मे कैसे होगी तीर्थ-रक्षा या कैसे होगी तीर्थकर दिया भूमि भी धर्मरूप में पूजा को प्राप्त हुई । क्षत्र
क्षेत्र रक्षा ? यह टेढा प्रश्न है। हाँ, ऐसे में यह तो हो
देव भी लोगो को तीर्थरूप मे अनुभूत हुए-वहाँ जाकर उनके सकता है कि हम परिग्रही लोग -परिग्रही नाम सार्थक भाव भी बदलने लगे। ठीक ही है-वह चन्दन ही क्या करने के लिए येन-केन प्रकारेण क्षेत्र (भूमि) की स्वजो अपनी बास से अन्यो को सुवासित न करे ? वरना, स्वामित्व हेतु-रक्षा कर सके, पर धर्म रक्षा तो उक्त तत्त्व-दृष्टि से तो यह कार्य अशक्य और असभव ही था- सभी परिग्रह मे ममत्व छोड़े बिना, परिग्रह परिमाण किए धर्म और परिग्रह (क्षेत्र) को एक साथ बिठाना, जो बिना सर्वथा असभव ही है। जबकि लोग परिग्रह तीर्थकरो ने किया।
छोड़ना तो दूर-परिग्रह-परिमाण (वह भी थोड़े दिन का जब अर्से से लोगो ने तीर्थक्षेत्रो को रक्षा की बांग दी
भी) करने को भी तैयार नही। ऐसे में हमारी दृष्टि मे तो है और आज यह कार्य जोरो पर है, तब उक्त स्थिति में
ममत्व छोड़े बिना धर्मरक्षित नही और धर्म की अरक्षा हमे आचार्य समन्तभद्र का 'न धर्मो धार्मिकविना' याद आ ।
मे धर्मक्षेत्र की सच्ची रक्षा नही-क्षेत्र रूपी,(परिग्रह) की है। भला धर्मात्माओ के बिना धर्म कहाँ सुरक्षित रहा रक्षा भने ही हो जाय--अर्थ सचय भले ही हो जाय। है? धर्मरूप तीर्थकर, क्षेत्रो को धर्मरूप बना सके, सभी जानते हैं कि क्षेत्रो को तीर्थरूप प्रदान करने का परपरित मुनि-श्रावक तीर्थ और क्षेत्रों की रक्षा में समर्थ मूल श्रेय वीतरागता की मूर्ति पूज्य तीर्थंकरों व मुनियों को हए, पर, आज तो इन दोनो श्रेणियो मे हा आचार-विचार रहा है--उन्होंने त्याग-तप से भूमि को पवित्र किया; उसे दोनो भाँति हास है, तब धर्म और क्षेत्रो की रक्षा कैसे तीर्थ क्षेत्र बनाया। आज जब वीतराग देव का अभाव है होगी? यह गम्भीर प्रश्न बन गया है। हमारा ख्याल तो तब हमारी आँखे मुनिगण की ओर ही निहार रही हैं कि ऐसा है कि हम ससारियो के स्वभावत परिग्रही होन से जिस कार्य को आज केवल लक्ष्मी के बल पर संपन्न कराने हमारी दृष्टि भी मात्र परिग्रह (भूमि) पर ही केद्रित रह गई की चेष्टाएं की जा रही हैं, उस कार्य की संपन्नता मुनिगरण है और उसी के लिए हम प्रभूत धन-सग्रह में लगे हैं। द्वारा उहज-साध्य है । इन क्षेत्रो पर मुनिगण को (जैसा कि फलतः- हम धर्म से मुखमोड़ मात्र क्षेत्र (भूमि-भवन) की उन्हें चाहना भी चाहिए) शहरी दूषित कोलाहल से दूररक्षा हेतु उद्यमशील है और येन-केन प्रकारेण उसे ही स्व- आपाधापी से दूर --निर्जन एकान्त मे स्वयं की आत्मकब्जे में रखना चाहते है और उस तीर्थ--धर्म को भल साधना मिलेगी और क्षेत्र भी तीर्थ बने रह सकेंगे। यतःरहे हैं जिसके कारण क्षेत्र, तीर्थ क्षेत्र कहलाए ।
हमारी दृष्टि में तीर्थ रक्षा में प्रभून द्रव्य की अपेक्षा वहाँ