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________________ ३२, बर्ष ४०, कि०१ ऐसे नि:स्पृही आत्म-साधको की सदाकाल उपस्थिति अपेक्षित मिल सकेगा। हमने देखा-लोगों में आज आविष्कारों से है, जिनके परम-पूत चारित्र से चारो ओर धर्म तीर्थ सुरक्षित लाभ लेने का मोह इतना बढ़ गया है कि वे स्व-लाभ के हो सकें और यात्रीगण भी उनकी वैराग्यमयी मूर्ति व दिव्य लिए साधु को भी आविष्कारों की ओर खींचने में लगे वाणी से लामान्वित हो सकें। इस उपाय में तीर्थ और क्षेत्र हैं-कहीं माइक कही कैसिट और कही वीडियो, टेप को चारित्ररूपी ठोस स्रोत होगे जबकि लक्ष्मी की प्रामा- आदि : सोचे, इनसे साधु को स्व-लाभ है या परायों का णिकता की गारण्टी नहीं। कौन जाने, कब, कहां, और चक्कर ? । किसके द्वारा, किस प्रकार से उपाजित लक्ष्मी का उपयोग उस दिन की घटना है, जब स्थानीय मदिर मे एक तीर्थ को उतना न उबार सके ? हमारे सभी धार्मिक भावना दोपहर में एक वृद्ध आचार्यश्री प्रवचन कर रहे थे। एक वाले छोटे-बड़े सभी लक्ष्मीपति भी इस तथ्य को स्वीकार सज्जन बोले - पडित जी, महाराज जैसे वृद्ध है वैसे ही करते होगे और यदा-कदा शास्त्रो मे पढते-सुनते भी होगे ज्ञानप्रबुद्ध है-- पूरा आध्यात्मिक बोलते है, हृदय गद्गद् हो कि वीतराग मार्ग में लक्ष्मी भली नहीं। जाता है। पर, इनके दात न होने से वाणी स्पष्ट नही हमारी भावना है कि हमारे जीवित तीर्थ --मुनि- निकलती (जैसा महाराज भी बार-बार कह रहे थे) जिससे त्यागीगण घने-जनसकुल नगरो, कोठियो के दिख-दिखावे से लोगो के पल्ले अधिक कुछ नही पड़ता। यदि श्रोताओ के मुख मोड़, इन क्षेत्रों की ओर बढ़े। श्रावक उनकी तपस्या कल्याण के लिए इनके दांत बनवा दिए जायें तो बाणी के साधन जुटाएं ओर त्यागियो को अपनी ओर न खीच, स्पष्ट निकलेगी और लोगो को दन्त-आविष्कार-उपयोग उन क्षेत्रो पर जाकर उनकी वादना-पूजा-अर्चा करें। इस के फल-स्वरूप अधिक लाभ भी हो सकेगा। उन्होने यह भी प्रकार तीर्थ और क्षेत्र दोनो सहज सुरक्षित रह सकेगे और कहा--- महाराज, प्रवचन के समय माइक की भांति, दातो यह भी चरितार्थ होगा कि जैन धर्म में भगवान नही आते का उपयोग करे और बाद में निकाल दे। इनमें ममत्व न अपितु भक्त ही उनके चरणो मे नत होने-दूर-दूर तक करने से महाराज मे परिग्रह-दोष की तो बात ही नहीं जाते है। उठती, ऐसा तो वे उपकार के लिए ही करेगे? ___ अब जरा आइए, केवल क्षेत्र-रक्षा की बात पर। हमने सिर धुना कि लोगो को क्या हो रहा है ? वे भला, जब क्षेत्र (स्थान) ही न रहेगा तो धर्म कहा रहेगा? अपने स्वार्थ में साधु मे भी कैसी-कैसी अपेक्षाएँ रखने में आखिर, स्थान तो चाहिए हो। सो हमे क्षेत्र-रक्षा करने लगे है। कदाचित आविष्कारो से अधिक और त्वरित लाभ मे इन्कार नही-किसने कहा इसे न करे ? हम तो क्षेत्र लेने के लिए से लोग साधू को T.V. और चित्रपटो के की रक्षा का लोप नही कर रहे हैं। लोग जो रक्षा कर रहे स्टेशनों तक भी खीच ले जाएँ तब भी आश्चर्य नही । हैं सूझ-बूझ से कर रहे है, अच्छा कर रहे हैं, धर्म के लिए क्योंकि आज के आविष्कारो में ये दोनो सर्वाधिक आकर्षक स्थान सुरक्षित कर रहे है। और त्वरित प्रचार के साधन है। हमने सोचा-स्वार्थ की पर, यह सुरक्षा तभी सफल है जब वे स्थान तीर्थ रह पति मे स्वार्थी क्या कुछ नही कर सकता? जो न करे सकें। उक्त विषय में आप क्या सोचते है ? जरा सोचिए ! वही थोड़ा है। ठीक ही है कि४. प्राविष्कारों का उपयोग कहाँ ? 'स्वार्थी दोष न पश्यति । हम सधु को साधु पानकर चल रहे है, कुछ लोगों की हमारा अब तक का अनुभव तो यह है कि आविष्कारो भौति उन्हें प्रचारक या सांसारिक प्रलोभनो में अडिग रहने के प्रयोगो के कारण से ही अधिकांश साधु अपरिग्रहरूप वाले तीर्थकर मान कर नही चल रहे। हमारा लक्ष्य साधु- साधुत्व की लीक से कटकर प्रचारक मात्र बनकर रह गए मर्यादा की रक्षा है- अपनी स्वार्थ-साधना मे उन्हें आधुनिक है-कुछ जनता के लिए और कुछ ख्याति-लाभ और यशआविष्कार की ओर खीचना नही। यदि साधु मे साधुत्व प्रतिष्ठा के लिए। और यह सब दोष है उन श्रावकों का, जो सुरक्षित होगा तो उनसे 'अवाग्वपुषा' भी धर्म का पाठ साधु-चर्या की उपेक्षा कर अपने लाभमात्र में साधुओं को
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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