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________________ आधुनिक साधन जुटाते रहे हैं । अन्यथा साधु अपने कल्याण पर्याय-सिद्ध अवस्था में बिठा दिया गया है, इसे हम लिख के लिए बना जाता है, या मात्र दूसरों के उद्धार में अपना चुके है। हमारी दृष्टि मे मूलत:-शुद्ध ज्ञान-दर्शन उपयोग सर्वस्व खोने के लिए ? जरा सोचिए ! नहीं हैं, अपितु ये दोनों क्षयोपशमावस्था में, निमित्तान्तरों की उपलब्धि में, चैतन्यानविधायी परिणामरूप उपयोग की ५. सिद्धों में उपयोग : एक भ्रान्ति ? उत्पत्ति मे कारण है---'उभयनिमित्तवशात्पद्यमानश्चंतन्याजब जीव का लक्षण उपयोग है, तब उपयोग क्या है ? नविधायिपरिणाम उपयोगः' (देखिए : इमी अंक में इसे सोचिए और उससे निर्णय कीजिए कि लोक परम्परा में प्रसिद्धि को प्राप्त 'जीवतत्त्व' कहने का व्यवहार ससार तक ही सीमित है या औदयिक भावजन्य उस 'जीवत्व' की हमें उपयोग का एक लक्षण और भी मिला हैपहुंच मोक्ष मे भो है ? हमारी दष्टि से तो उपयोग के 'उवजोगोणाम कोहादि-कसाएहि सह जीवस्स संपजोगो, लक्षण के मोक्ष में उपलब्ध न होने से भी आचार्य ने सिद्धो क्रोधादि कषायो के साथ जीव के सम्प्रयोग होने को को जीव-संज्ञा से बाहर रखा हो और 'सिद्धा ण जीवा' उपयोग कहते है।-जयधवला० (देखें : कसायपाहुड सुत्त, कहा हो तब भी आश्चर्य नही। कलकत्ता, पेज ५७६) इस उक्त लक्षण के प्रकाश में सिद्धो लोक मे शुद्ध-ज्ञान-दर्शन-मात्र को उपयोग मानने की को उपयोगस्वभावी जीव सज्ञा मे रखने के लिए उनमें शायद एक भ्रान्ति रही है-साधारणत. किसी से पूछो, कषायो का प्रादुर्भाव माने या मान्य आचार्य वीरसेन उपयोग क्या है ? वह तुरन्त जवाब देगा-ज्ञान-दर्शन स्वामी के तथ्यपूर्ण कथन 'सिद्धा ण जीवा' को तथ्य माने ? उपयोग है। इसी भ्रान्ति के कारण ससार-प्रसिद्ध जीव- जरा सोचिए ! तत्त्व (चेतन की वैभाविक पर्याय) को चेतन की शुद्ध -सम्पादक उत्थरइ जाण जरो रोयग्गी जा रण डहई देह उडि । इंदिय बलं न वियलइ ताव तुम कुण हि अप्पहियं ॥ -जब तक तेरा बुढ़ापा नहीं आता है और जब तक रोग रूपी अग्नि देहरूपी झोपड़ो को नहीं जलाती है तथा इन्द्रियों का बल नहीं घटता है तब तक तुम आत्मा का हित-साधन करो। जो पावमोहिदमदो लिग घेत्तूरण जिरणवरिंदाणं । उवहसइ लिगिमावं लिगिषु च नारदः लिंगी । -जो पापमोहित बुद्धि वाला तीर्थकरो का दिगम्बर रूप धारण करके भो लिंगिपने की हसी करता है अर्थात् खोटो क्रियाएँ करता है वह लिगियों में नारद के समान लिग धारण करने वाला है। सम्मूहदि रक्वेदि य अट्ट झाएदि बहुपयत्तेण । सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोरणी रग सो समणो । --जो श्रमण वेष धारण करके बहुत प्रयत्न से परिग्रह का संचय करता है, उसकी रक्षा करता है, उसके लिए आर्तध्यान करता है, वह मूछित-(मोह) बुद्धि तियं च योनि है अर्थात् पशु के समान अज्ञानी है।
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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