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________________ eate ४० /१ से जागे- ( चिन्तन के लिए) 'सिद्धा ण जीवा'जीवा' - धवला गतांकों में हम घवला की उक्त मान्यता की पुष्टि आगम के जिन विभिन्न प्रमागो और तर्कों द्वारा कर चुके हैं उनमें एक सकेत यह भी है कि सिद्धो मे जीव का लक्षण उपयोग नही पाया जाता। क्योंकि शास्त्रों में उपयोग के जो विभिन्न लक्षण मिलते है वे सभी लक्षण कर्म की अयोपराम दशा में ही उपयोग की सत्ता की पुष्टि में हैं और आचायों का यह कथन युक्तिसंगत भी है क्योंकि उपयोग संसारी आत्मा का लगाव-रूप एक ऐसा परिणाम है जो अपूर्णदर्शन-ज्ञान यानी क्षयोपशम अवस्था मे ही संभव है । यतयोपशम अवस्था ज्ञानदर्शन चैत परिणाम ) ( चैतन्य की अस्पता की सूचक है और अल्पता ही जिज्ञासा में कारण है और जिज्ञासा ही किसी परिणाम के उत्पन्न होने या परिणाम के परिणामान्तरश्व में कारण है। जिनके घातिया कर्मों का क्षय हो चुका हो, उनमे सर्वज्ञता के कारण समस्त तस्वों की त्रिकाली समस्तपर्यायें प्रकट होने से न तो किसी परिणाम के पैदा होने का प्रसन है और ना ही परिणामांतरश्व का कोई कारण है। मानी हुई और अनुभूत बात है कि कोई भी परिणाम किसी जिज्ञासा (अपूर्णता ) के पूर्ण करने के प्रसंग मे ही जन्म लेता है और सिद्धों में पूर्णज्ञान के कारण किसी जिज्ञासा की सभावना नही रह जाती, जिससे उनके उपयोग-परिणाम हो सके। कहा भी है- ' संसारिणः प्राधान्येनोपयोगिनः, मुक्तेषु तद्भावात् ।' - राजवा० २|१०|४ उपयोग शब्द : अब जरा उपयोग शब्द की व्युत्पत्ति पर भी पान दीजिए— उपयोग शब्द उप उपसर्गपूर्वक जोड़ना-ना अर्थ वा 'जियो' धातु से निष्पन्न है वाले और इसकी व्युत्पत्ति है - 'उपयोजनमुपयोगः, उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेद प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः, कर्मणिघा ।' अभि० रा० पृ० ८५६, अर्थात् जिस कारण जीव वस्तु के परिच्छेद के प्रति व्यापार करता है, या वस्तु के प्रति जुड़ता है बहु उपयोग है। ले० पद्मचंद्र शास्त्री, नई दिल्ली विचार करें कि क्या अनंतज्ञाता सिद्ध भगवान किसी विषय (वस्तु) के परिच्छेद हेतु वस्तु मे अपने ज्ञान दर्शन की अभिमुखता, समीपता या जोडरूपता जैसा कोई व्यापार करते या कर भी सकते है या नही ? जब कि समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायें उनके ज्ञान में स्वतः ही स्पष्ट है । ऐसे मे वस्तु परिच्छेद की बात ही पैदा नहीं होती तत्वदृष्टि । से भी अनन्त ज्ञाता सिद्ध भगवान विषय की ओर स्वयं अभिमुख नहीं होते, अपने शान को स्वयं उससे नहीं जोड़ते, अपितु पदार्थ स्वयं ही उनके दर्पणवत् निर्मल अनतज्ञान में झलकते हैं। ऐसे मे पदार्थों के स्वयमेव ज्ञान में झलकने रूप पदार्थों की प्रक्रिया को, पदार्थों के प्रति सिद्धों का उपयोग जुडाव या लगान कैसे और क्यों कहा या माना जा सकेगा ? अर्थात् नही माना जा सकेगा। फिर जब सिद्धी मे उपयोग परिणाम की उत्पत्ति में कारणभूत ज्ञान-दर्शन को न्यूना क्षयोपशम जैसी कोई बात ही नहीं ना तो क्षयोपशम अवस्था में ही होती है, और । न्यूनना उपयोग, न्यूनता की स्थिति मे ही होता है। फलत ऐसा ही सिद्ध होता है कि अनन्त दर्शन-ज्ञानमयी अशरीरी अवस्था मोक्ष में उपयोग को कोई स्थान नहीं वास्तव में तो क्षायिक दर्शन और ज्ञान ये दोनों पूर्ण ज्ञान दर्शन - उपयोग नहीं है। — उपयोग के भेदों से ससारियों को लक्ष्य कर जो केवसदन और केवलज्ञान को उपयोग कहा है वह भी व्यवहार है और वह अरहंतों में भी मात्र उनके जीव-संज्ञक होने की दृष्टि से ही है-मोक्ष या सिद्ध दशा को दृष्टि से नहीं है। कहा भी है- 'मुक्तेषु तदभावात् गोगः क -राजवा० २०१००५ यहाँ मुक्त से अरहंतो का ग्रहण करना चाहिए वे जीव हैं और जीव के 'संसारिणो मुक्ताश्च' जैसे भेदों में आते हैं और वे आयु आदि औदयिक प्राणो से जीवित हैं और उनका चेतन, घातिया कर्मों से मुक्त हो चुका है। सिद्ध दशा तो मुक्त होने के बाद, -
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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