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२६ वर्ष ४०, कि०३
अनेकान्त
अशरीरी होने-संसार छूटने के बाद की मोक्ष रूप निर्मल कहीं भी उपयोग होने में क्षयोपशम की भांति, आवरण-क्षय अवस्था मात्र है। कहा भी है-'प्रवस्थान्तरं मोक्ष इति ।' के निमित्त होने का मूल-स्पष्ट उल्लेख किया गया हो
। यद्यपि वास्तव में केवलज्ञानी अरहंतों में भी ज्ञान तो उसे विचार श्रेणी में लाया जा सकता है। फिर हमें की अनन्तता होने से उनमें उपयोग को स्थान नही-गोण मान्य प्राचार्य अमृतचन्द्र की इस बात का ध्यान भी रखना होल्पित है- 'गौणः कल्प्यते।'-उनके मन भी नही होगा कि उन्होंने उपयोग को पर-द्रव्य के संयोग का कारण है, फिर भी ज्ञान उनकी दिव्य ध्वनि' में कारणभूत है और और आत्मा का अशुद्ध परिणाम बतलाया है, जिसकी दिव्यध्वनि ज्ञान का कार्य है इसलिए उनमे उपयोग कल्पित सिद्धों में सभावना नही। तथाहि-'उपयोगो हि आत्मनो किया जाता है। इस विषय को धवला में शका समाधान- पर द्रव्य सयोगकारणमशुद्धः।-प्रव० सा० टीका २१६४. पूर्वक स्पष्ट किया गया है कि दिव्य ध्वनि ज्ञान का कार्य इस भौति उपयोग अशुद्ध और विकारी दशा का सचक है। वहां उल्लेख है
___ होने से सिद्धों में नहीं, इसलिए "सिद्धा ण जीवा' कथन 'तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य वचसोऽपि न संत्त्वमिति; सर्वथा उचित है। चेन्न; तस्य ज्ञानकार्यत्वात् ।'-धवला १।१।१२२ पृ. ३६८ प्राण और चेतना: शंका-अरहंत परमेष्ठी मे मन का अभाव होने पर मन हम यह तो स्पष्ट कर ही चुके हैं कि प्राण और
के कार्य रूप बचन का सद्भाव भी नहीं पाया जा चेतना का सम-काल अस्तित्व होना जीव तत्त्व का परिचायक सकता है?
है। प्रमाण-दृष्टि से जीव मे सम-काल मे प्राण और चेतना समाधान-नहीं, क्योंकि वचन ज्ञान के कार्य हैं, मन के दोनों ही होने चाहिए और हैं। श्री वीरसेनाचार्य साधारण नहीं।
आचार्य नही थे उन्होने वास्तविकता को पहिचानकर ही -केवलज्ञानोपयोग के संबंध में एक बात और है जो
जीव-संज्ञा में कारणभूत जीवत्व को औदयिक और नश्वर उभर कर समक्ष पाती है। सर्वार्थसिद्धि हिन्दी टीका मे माता और चेतन सिद्धांत-शास्त्री पं० फलचद जी ने अध्याय १ के सूत्र ६ को रख 'सिद्धा ण जीवा' जैसी घोषणा की। टीका में स्पष्ट लिखा है कि 'मूलज्ञान में कोई भेद नहीं है, विचारना यह भी होगा कि प्राण और चेतना इन पर, प्रावरण के भेद से वह पांच भागों में विभक्त है। दोनों में मुख्य कौन है? चेतना के अस्तित्व मे प्राण है या ज्ञानपीठ संस्करण १९४८, पचाध्यायी में इसी बात को प्राणों के अस्तित्व से चेतना? हमारी दृष्टि से तो आचार्य स्पष्ट रूप में घोषित किया है---'क्षयोपश मिकज्ञानमुपयोगः
मान्यतानुसार प्राण कर्माधीन औदयिक और नश्वर भाव स उच्यते ।'-२१८८०
है और चंतन स्थायी है । और आचार्य की दृष्टि मे जीवत्व पंडित जी जैन सिद्धान्त के ख्यातनामा निष्णात विद्वान् और जीव-संज्ञा औदायक प्राणों पर आधारित हैं। ऐसे में हैं। उनके उक्त कथन से स्पष्ट है और सन्देह को गुजायश
स्थायी भाव चैतन्य नाम को तिरस्कृत कर ओदयिक भावनहीं रह जाती। इसके अनुसार जहाँ आवरण-भेद होता है,
जन्य नश्वर जीव-जीवत्व नाम को प्रधानता देना और वहीं ज्ञान मे भेदरूप-मतिज्ञानादि व्यवहार होता है और
जीवत्व जैसे औदयिक भाव को चेतन का पारिणामिक भाव आवरणक्षय की अवस्था में नही । एतावता ज्ञानावरणरहित
कहना, कैसे संभव है यह सोचने की बात है ? फलतः आचार्य अवस्था-पूर्णज्ञान मे भेदजन्य केवलज्ञानादि जैसा नाम
के कथन 'चेयणगुणमवलम्व्य परूविदमिदि' के परिप्रेक्ष्य में भी क्यों होगा और उक्त नाम के अभाव में कथित-
तो हम 'सिद्धा ण जीवा' के ही पक्ष में हैं । हमारी बुद्धि में
तो समता जीता। केवल ज्ञानाधित उपयोग भी क्यो होगा? फिर जब सर्वत्र लोगों का यह कथन भी सही नहीं बैठता कि- आचार्य ने लक्षणों मे उपयोग को क्षयोपशम की निमित्तता ही स्वीकार सिद्धा ण जीवा' कथन जीवस्व के औदयिक भावाश्रितापेक्षा की गई है तब आवरणक्षयावस्था के ज्ञान-केवलज्ञान की में किया है और पारिणामिकभावापेक्षया जीवत्व का गणना उपयोगों में क्यों होगी? यदि आचार्यों द्वारा निषेध नहीं किया। क्योंकि यदि उन्हें आत्मा के प्रति