SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'सिद्धा न जीवा वसा 1 जीवश्व-भाव का कथंचित् भी पारिणामिकपना स्वीकृत होता तो वे 'चेपणगुणमबलम्व्य' के स्थान पर अवश्य हो 'पारिणामिकभावमलम्य जीवत्वं परूनि मिदि' जैसा कथन करते और जीवश्व का ऐसा निरादर न करते फिर जब जैसा कि लोग समझ रहे हैं वैसा-यदि आचार्य को जोवश्व में व्याप्त चेतन मे औौदधिक ओर पारिणामिक दोनों भाव स्वीकार्य होते, तब वे सिद्धों मे जीवत्व के सर्वया अभाव का स्पष्ट उल्लेख न करते । जब कि एक भाँति भी सिद्धो मे जीवत्व होने पर भी उसका सर्वथा निषेध करना न्याय्य नही कहा जा सकता । मालूम होता है कि वास्तविकता यही है किऔदयिक भावरूप जीवत्व सिद्धों में है नहीं और आत्मप्रति पारिणानिक-भाव में जीवत्व को स्थान नहीउसे तो सदा से वेतन ग्रहण किए बैठा है। जीवा हि महज चेतन्यलक्षणपारिणामिकभावेनानादिनिधना ।' पंचास्ति० टोका ५३ । इसीलिए आचार्य ने नश्वर औदयिक जीवत्व को सर्वथा तिरस्कृत कर वेदणगुण को प्रधानता दे कथन किया है और दो टूक बात कह दी है- 'सिद्धाण जीवा ।' आचार्य ने यह तो वही कहा नहीं कि हम जीवस्व को कथंचित् पारिणामिक भी मानते है और प्रसंग मे हमने मौदयिक भावरूप जीवत्व मात्र का निषेध किया है ? इसके विपरीत उन्होंने इस भाव को ही स्पस्ट किया है कि उमास्वामी ने चेतन गुण के आधार से प्ररूपणा की है। इसमे उनका भाव है कि जीव में एक काल मे पारिणामिकरूप चेतनत्य और ओविकरूप जीवश्व दोनो भाव है और उमास्वामी ने चेतन गुणरूपपारिणामिक भाव को प्रधानकर प्ररूपणा की है और सर्वथा प्राणाधार पर आश्रित जो जो पारिणामिक नहीं है) को सर्वया सर्वचा छोट जोवत्व दिया है। वीरसेन स्वामी जी ने इसी भाव में 'पारिणामिकmraateese refer' न लिख 'चेवणगुणमवलम्ब्य परुविद' परूवित्रमिदि' जैसा वाक्य लिखा है और उमास्वामी ने भी 'मोक्षप्राप्त आत्मा मे शेष गुणों मे जीवत्व की जगह 'सिद्धत्व' शब्द दिया है-अम्बत्र केवल सम्यक्त्व ज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः ।' यदि आचार्य को 'जावत्व' कथमपि चेतन के पारि खामिक रूप में स्वीकृत होता तब जहाँ उन्होंने 'सिद्धाणं वि जीवतं किष्ण इच्छिदे प्रश्न का उत्तर- ( मन मे २७ - ऐसा भाव रखकर कि 'यदि उपचार से भी सिद्धों में जीवत्व मान लिया जाय तो क्या हानि है?' ) 'उबया रस्स सच्चत्ताभावादो' रूपकथन द्वारा दिया, वहां वे 'सिद्धाणं वि जीवत किष्ण इच्छिदे' का सीधा उत्तर सहा जीवतस्साभावो ण, पारिणामियजीवत्तं तु तत्थ अत्थि एव रूप मे भी दे सकते थे। इससे लोगों का यह कथन भी फलित हो जाता कि आचार्य और्वाधिक और पारिणामिक दो प्रकार का जीवत्व मानते है और वे प्रसंग मे पारिनामिक रूप जीवत्व की सत्ता मान रहे हैं। पर, स्पष्ट ऐसा होता है कि उन्हें सिद्धों में जीवत्व किसी भी भांति स्वीकार्य नहीं और इसीलिए वे सिद्धों मे जीवत्व के उपचार (करने मात्र) का भी निषेध कर रहे है-उपचार को ठीक नहीं मान रहे- 'उवया रस्स सच्चताभावादो ।'उक्त तथ्य तब और खुलकर सामने आ जाता है जब आचार्य यह स्पष्ट कह देते हैं कि जीविंद गुम्बा इदि -- सिद्ध पूर्व मे जीवित थे । क्या, इसका यह स्पष्ट भाव नही कि सिद्ध अवस्था मे वे किसी भांति भी जीवित नही कहे जा सकते - वे सिद्ध होने से पूर्व जीवित थे - उनमें जीवत्व था । यदि वास्तव में आचार्य को (लोगो की धारणा की भांति ) सिद्धों में किसी भांति भी जीवत्व स्वीकृत होता तो वे 'जीविदपुव्वा' न कहकर ऐसा ही उल्लेख करते कि वे पहिले औदविकरूप जीवत्व में जीवित थे और सिद्ध अवस्था में पारिणामिक रूप जीवत्व में जीवित हैं। पर, ऐसा कुछ न कह उन्होंने सिद्धों में जीवत्व का सर्वथा ही निषेध कर इस मान्यता को स्पष्ट रूप में उजागर कर दिया कि सिद्धो मे जीवत्व किसी भांति भी नहीं है और जीवन में पारिणामिकपने का व्यवहार भी ससारावस्था तक कहलाता है और बाद मे उसका स्थान चेतन -- का शुद्धरूप 'सिद्धत्व' ले लेता है। फल :: 'सिद्धा ण जीवा' । उपयोग स्वभाव : तस्वार्थसूत्र के कर्ता श्री उमास्वामी आचार्य ने जब जीव का लक्षण उपयोग किया तब एक बार फिर उन्होंने अन्य द्रव्यों की स्वाभाविक परिणति किस रूप में होती है इसका भी खुलासा वर्णन किया है और वह परिणति (जिसे उपग्रह नाम से कहा है) हर द्रव्य का अवश्यंभावी स्वभाव है— जीव में भी सदाकाल होनी चाहिए। तथाहि 'गति स्थित्युपग्रहो धर्माधर्मोपकारः । ।
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy