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बनेकान्त
एक बुटकने साधु ने, किया वस्त्र परिहार।
इतना ही क्यों ? श्वेताम्बर तो आदि तीर्थंकर ऋषभचला दिगम्बर मत तदा, उस दिन से साकार ॥" देव के धर्म को भी अचेलक-दिगम्बर मान रहे हैं। उनमें
- उक्त मनगढन्न कहानी गढ़कर लेखक ने दिगम्बरत्व भी आदि और अन्त के दो तीर्थंकरों को अचेल (दिगम्बर) पर घृणित प्रहार किया है जो सवैया निम्ध है। हम स्वीकार किया गया है । तथाहिश्वेताम्बर ग्रन्थों के कुछ उवरण दे रहे हैं जिनसे दिगम्वरत्व 'आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिगो।' के सदाकाल अस्तित्व की पुष्टि होती है। तथाहि
-पंचाशक १२ समणे भगव महाबोरे संवत्सरं साहिय मास चीवर.
-प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थकर धारी होत्या, तेण परं अचेलर पाणि पाडिम्महिए।'
महावीर का धर्म अचेलक (दिगम्बर) था। -कल्पसूत्र, षष्ठक्षण, पृ० १५७
अब रही अचेलक शब्द के अर्थ की बात । सो अचेल 'तदेवं भगवना सवस्त्र धर्म प्ररूपणाय साधिकमासाधिक
का अर्थ 'ईषतवस्त्र' करना, स्वय में अपने को धोखा देना वर्ष पावद्वस्त्रं स्वीकृत' सपात्रधर्म स्थापनाय च प्रथमां
है। यदि कदाचित् 'ईषत्' अर्थ कर भी लिया जाय तो पारणां पत्रेण कृतवान्, तत' पर तु यावज्जीवं प्रचेलकः
सोचा जाय कि महावीर के पास कौन-सा 'ईषत्' वस्त्र रह पाणिपात्रश्चाभूत।-वही (सुवोधनी) पृ० १५८
गया था ? जब कि पूरा देवघ्य दो भागों में विभक्त होकर 'श्री महावीरदेव: कृपया चीवराधं विप्राय अदात् ।
ब्राह्मण को चला गया। इसके बाद उन्हें किसी ने कभी (स: विप्रः) साधिकमासं वर्ष यात् भगवत पृष्ठमनुगच्छन्
वस्त्र दिया हो तो प्रमाण खोजा जाय ? अन्यथा यही ठीक दक्षिणवाचालासन्नसुवर्णवालुकानदीतटस्पतरुकण्ट के विलग्न
समझा जायगा कि-अचेलक का अर्थ सर्वथा निर्वस्त्र-नग्नदेवदूष्याचं अग्रहीत् ।' -कल्पसूत्र, कल्पलता पृ० १३३
दिगम्बर है और महावीर अचेलक निर्वस्त्र, दिगम्बर थे उक्त अशो से स्पष्ट है कि भ. महावीर साधिकमास
और उनके समय भी दिगम्वर-मत था। जरा, कल्पसूत्र के वर्ष पर्यन्त चीवरधारी (सचेल) रहे और बाद मे आजीवन
'चीवरधारी' शब्द के मुकाबले में उसके विपरीत शब्द अचेल-(निर्वस्त्र) दिगम्बर रहे। उन्होंने आधादेवदूष्य
'अचेलक' को भी गहराई से सोचिए कि-क्यों 'अचेलक' सोमनामा ब्राह्मण को दे दिया और आधा कांटो मे उलझ
की जगह 'चीवर रहित नही कहा गया ? जबकि महावीर कर रह गया, जिसे ब्राह्मण ने उठा लिया। ऐसे में जब
सर्वथा ही चीवर रहित हो गए थे। हमारी दृष्टि तो ऐसी महावीर स्वयं दिगम्बर थे, तब दिगम्बर मत को उनके
है कि 'अचेलक' शब्द का जानबूझ कर प्रयोग किया गया, ६०६ वर्ष बाद से चला बतलाना स्व-वचन वाघिन ही
जिससे 'अ' को भ्रामक अर्थ - ईषत् में लेकर, भद्रबाहु है-जैसे कोई पुत्र अपनी माता को वन्ध्या कह रहा हो।
स्वामी के समय में प्रादुर्भूतश्वेताम्बर मत को पुरातन सिद्ध ऐसे में सोचना चाहिए कि लोग मनगढन्त कहानियों के
किया सा सके। सभी जानते हैं कि 'अ' का प्रयोग सदा आधार पर एक दूसरे पर कब तक कीचड़ उछालते रहेंगे?
ही 'नहीं' 'सर्वथा अभाव' के लिए होता आया है । अस्तु, श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र ने तो दिगम्वरत्व को खुलकर
जो भी हो, हमे समाज में औरों की भांति, एकता के पुष्टि की है। उन्होंने तो कटि-सूत्र मात्र रखने वाले तक
प्रदर्शन कर, एकता के नाम पर सम्प्रदायों मे काटे बोना को भी नपुंसक तक कह दिया है । तथाहि
इष्ट नहीं। हम चाहते हैं कोई, कहीं भी, किसी प्रकार 'कीवो न कुणइ लोयं लज्जइ पडियाइ जलमुवणेई।
कीचड न उछाले--जो जिस मान्यता में है उसी में रहे। सो वाहणो य हिंडइ बंधइ कटि पट्टयमकज्जे ॥'
हम ऐसी एकता से बाज आए। आचार्य धर्मसागर महाराज -सबोध प्रकरण, पृ० १४ -वे केशलोच नहीं करते, प्रतिमावहन करते शरमाते
ने एक बार कहा था-'दोनो के तमो हो सकते है जब है शरीर पर का मैल उतारते हैं, पादुक एं पहिनकर फिरते दाना नग्न हा जाय या दाना कपड़ पाहन ल। पोर ऐसा है और बिना कारण कटिवस्त्र बाधते हैं : वेनीव । हो नहीं सकता।' फलत. सब अपने में बने रहें-कोई
:-जन सा० और इति• पृ० ३५० शान्ति रूपी अमृत में अशान्ति का विष न घोलें।