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१०, वर्ष ४०, कि० ४
अनेकान्त
ताना, आबू एवं कतिपय अन्यत्र प्राप्त अभिलेखों का संग्रह दिल्ली से प्रकाशित हुए हैं। चतुर्थ भाग में ९८८ और स्व० बा० पूर्ण वन्द्र नाहर ने अपने "प्राचीन जैन लेख पंचम में ३७५ अभिलेख संग्रहीत हुए । इन दोनों भागों संग्रह' (३ भागों) में किया, एक अन्य बृहद् सकलन स्व० के प्रारम्भ में ज्ञानपीट-ग्रंथमाला के प्रधान सम्पादक द्वय, अगरचन्द नाहटा ने "बीकानेर लेख संग्रह" के नाम से विद्वद्वर्य डा. हीरालाल जैन एव टा० ए०एन० उपाध्ये किया था, कुछ एक अन्य भी छोटे मोटे मग्रह प्रकाशित के उपयोगी प्रधान-सगदकीय वक्तव्य भी प्रकाशित है। हुए, और इस प्रकार लगभग ३५०० श्वे. जैन शिलालेख इस प्रकार जैन शिलालेख के सग्रह के पाँचों भागो मे कुल प्रकाशित हो चके है।
मिलाकर माधिक २७०० शिलालेख प्रकाशित हो चुके है। दिगम्बर जैन परम्परा म आधनिक साहित्य हासिक इनके अतिरिक्त, आहार के शि० ले०, देवगढ के शिले०, शोधपोज के पुरस्कर्ताओ मे स्व०५० नाथ राम जी प्रेमी मैनपुरी-एटा आदि के तथा मूरत के यत्र व प्रतिमालेख का नाम चिरस्मरणीय रहेगा। दा० गिरनाट की पुस्तक पृथक-पृथक् लघु प्रकाशनो में प्रकाशित हुए है। नाहटा जी से प्रेरणा लेकर, अपनी परम्परा से सम्बद्ध शिलालेखो के के बीकानेर लेख संग्रह में भी अनेक दिगम् जैन अभिप्रकाशन में उन्होंने ही पहल की। फलस्वरूप, श्री माणिक- लेख संग्रहीत है, और जैन सिद्धात भासार, अनेकात, चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रथमाला समिति, जिसके वह मंत्री थे. शोधाक अदि पत्रिकाओं में भी यत्र 17 अक फूटवर के ग्रांक-२८ के रूप मे, १९२८ ई. म. प्रेमी जी ने जैन लेख प्रगशित हुए हैं। अतः अद्यावधि दिगम्बर जैन परशिलालेख संग्रह-भा० का प्रकाशन किया। इग संग्रह का परा मे मारद्ध मब मिलाकर लगभग माढे तीन बार संकलन एवं सपादन उन्होने प्रो. हीरालाल जैन से कराया, हजार शि० ले प्रकाश में आ चुके :: । यदि देश भर के जो अपनी विश्वविद्यालयी शिक्षा समाप्त करके कुछ ही समस्त जिनमदिरों में विराजमान, विभिन्न संग्रहालया में समय पूर्व अमरावती वे किंग एडवर्ड कालिज में संस्कृत संरक्षित, तथा प्राचीन पुरातात्विक स्थलो एव भग्नावके अध्यापक नियुक्त हो गये थे। प्रोफसर मा० ने बडे शेषों मे यत्र-तत्र बिखरी पड़ी खाडेन अखडित जिननिउत्साह एव परिश्रम से इस भाग में श्रवणबेलगोल एवं
माओं के पादपीठ आदि पर अकित अभिलेखों का भी उसके आस-पास के ५०० अभिलेखो के मलपाठो का । आकलन किया जाय तो दिगम्बर जैन परम्परा से सबधित संकलन किया, बहभाग लेनो का हिन्दी मे सक्षेपमार या शिलालेखों की संख्या दश सहस्र से भी अधिक होने की अभिप्राय भी साथ-साथ सूचित किया, लगभग १५० पृष्ठ संभावना है। की विद्वत्तापूर्ण ऐतिहासिक प्रस्तावना भी लिखी, अन्त में जो शिलालेख, जिस प मे भो प्रकाशित है, उनसे नामानुक्रमणिका भी दी। इस सग्रह का दूसरा भाग, उसी अनेक जैन राज्यवों, जिनधर्म के पश्रयदाता अथवा उगके ग्रंथमाला के ग्रंथांक-४५ के रूप मे १९५२ ई० में प्रकाशित प्रति सहिष्ण गजाओं-महाराजाओं, गजमहिनाओ, गजहुआ, जिसमे ३०२ अभिनख संग्रहीत हए। तीसरा भाग, पुरुषो, सामन्त-सरदारो, मन्त्रियों और सेनापनियो, धर्मग्रथाक-४६ के रूप मे १९५६ ई० मे प्रकाशित हुआ, जिसमे प्राण श्रेष्ठियो, साहित्यकारों और कलाकारो, श्रावकी५४४ अभिलेख संग्रहीत हए। इन दोनो भागों के सकलक श्राविकाओ, विभिन्न मुनिसंघों एवं उनके प्रभावक्षेयों, प्रमा. प.विजयमनि शास्त्राचार्य थे, किन्तु तीगरे भाग के प्रारभ वक आचार्यों, मुनिराजो एवं आयिकाओ, अनेक तीयों एवं में स्व. डा० गुलाबचन्द्र चौधरी द्वाग लिवित लगभग सांस्कृतिक केन्द्रों, मदिरो आदि धार्मिक निर्माणों, सस्थाओ पौने दो सौ पृष्ठ की विस्तृत ऐतिहामिक प्रस्तावना भी है। एव प्रवृत्तियों के विषय मे प्रभूत अपयोगी एवं रोक संग्रह के चतुर्थ एवं पचम भाग के संग्रहकर्ता एवं मम्पादक ज्ञातव्य प्राप्त हुए है । तथापि यह जानकारी बहुत कुछ डा. विद्याधर जोहरापुरकर है। प्रत्येक के प्रारभ में स्थूल, सतही या अपर्याप्त ही है। यह युग गभीर तल. उनकी उपयोगी प्रस्तावना भी है। ये दोनो भाग, क्रमशः स्पर्शी शोध-खोज और अनुसंधान का है। उस दृष्टि से १९६४ और १९७१ ई० मे भारतीय ज्ञानपीठ, काशी/ प्रकाशित शिलालेखों का जो रूप एवं विवरण प्राप्त हैं