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________________ शिलालेखों के सर्वांगपूर्ण स्तरीय प्रकाशन की आवश्यकता वह सदोष एवं अपर्याप्त है। प्राप्त शिलालेख पाकृत, से ही सतोष कर लेने से अब काम नहीं चलता । ग्वयं सम्कृत, कन्नड, तामिन, तेलेगु आदि विभिन्न भाषाओ के हमने उपरोक्तरीत्या प्रकाशित प्राय: सभी जैन शिलालेखों हैं । लिपि भी कई प्रकार की प्रयुक्त हई है। काल और का अवलोकन अनेको का गंभीर अध्ययन एव मयन भी क्षेत्र के भी अगर है । जिन अग्रेजी प्रकाशनो से वे लिए किया है, और अनुभव किया है कि अने। बार उनके गए है उनमें वे बहुधा रोमन लिपि मे प्रकाशित है और गूढार्थों, उनमे अन्तनिहित ऐतिहासिक तथ्यो आदि को उनका अविकल शब्दानुवाद क्वचित् ही प्रस्तुत किया गया सम्यक रूप से समझ लेना कितना समय एव श्रमसाध्य है, है । अतएव उपरोक्त जैन शिलालेख-संग्रहो में प्रकाशित फिर भी मन को पूर्ण सतोप नहीं होता। इस विशेषज्ञता, अभिनेको के पाठ मुख्यतया उक्त अग्रेजी प्रकाशनो पर से शोध-खोज एव अनुसंधान के युग मे संदर्भ ग्रयो एव लिए गए होने के कारण बहुधा सदोष, त्रुटिपूर्ण अथवा मौलिक साधन-सामग्री यथा पुराभिलेख आदि, का शुद्ध, अशद्ध भी.--सर्वथा एव सर्वत्र यथावत भी नही। निर्दोष, सर्वांगपूर्ण सम्पादन-प्रकाशन अत्यावश्यक है। सग्रहा में अनेक शिलालेखो का नो मूल पाठ भी नहीं दिया अस्तु, जो शिलालेख आगे से प्रकाशित किये जाए; गया है, केवल मामान्य परिचय या सक्षिप्त अभिप्राय से चाहे वे उपरोक्त जैन-शिलालेख-सग्रह के षष्ठमादि भागों ही सन्ताष कर लिया गया है । सग्रहों के स+लको-सम्पा- के रूप में हो, अयवा उक्त संग्रह के प्रथम, द्वितीय एव दको को शिलालखा का भाषाओ, विशेषकर कन्नड, तमिल, ततीय भाग जो अब प्रायः अप्राप्य हा गए हैं, उनके पुनतेलेगु आदि का प्राय काई ज्ञान हा प्रतीत नहीं होता। मद्रण-प्रकाशन के रूप में हों, अथवा क्षेत्र विशेष या युगइस कारण उनक द्वारा प्रदत्त अभिलखो के परिचय या विशेष से सबधित अभिलेखो के स्वतत्र या सस्थागत प्रकामापसागाद भी अनेक बार अनुमानपरक, सदाष या भ्रात शित संग्रह हो, अथवा नवप्राप्त एकाको आभलख ही हो, हो गए है। शिलालखा के मूल सदर्भ भी अनकबार प्रत्येक अवस्था मे (१) शि० ले० का प्राप्तिरथल, भाषा, सदाष एव अपयाप्त है। लिपि, आकार-प्रकार आदि सक्षिप्त परिचय और स्पष्ट वस्तुतः, जैसा कि जन-शिलालख सग्रह, भाग-४ के स्रोत-सदर्भ, (२) अभिलेख का यथागणव यथाप्राप्त शुद्ध र प्रधान सपाद का डा० हारालाल जीव डा० उपाध्य जी पाठ, (३) उमका अन्वयार्थ, (४) अविकल हिन्दी अनुवाद, ने अपन संयुक्त वक्तव्य (पृ० ७-८) में स्वय स्वीकार (५) विशेपार्थ या आवश्यक टिप्पणी आदि, दिया जाना किया है, "लखा का जा भूलपाठ यहा प्रस्तुत किया गया अत्यावश्यक है। जिस भाषा में अभिनख उपलब्ध है, है, वह सावधानापूवक तो अवश्य लिया गया था, तथापि उसके संपादक को उक्त भाषा का अधिकारी विद्वान होना उस अन्त-प्रमाण हान का दावा नहीं किया जा सकता। चाहिए अथवा ऐसे विद्वान के सहयोग से ही उसका सपादनकन्नड लंखो का यहां जा देवनागरी में लिखा गया है अनुवादादि क ना आवश्यक है। किमी प्रौढ़ एवं अनुभवी उसम मी लिपि भद से अशुद्धियां हा जाना सभव है। इतिहासज्ञ विद्वान तथा पुराभिलेख -विशेषज्ञ का सहयोग पाग पीछ विशिष्ट विद्वानों द्वारा पाठ व अथे संशोधन भी अपेक्षित है। सम्बन्धी लेख लिख ही गए हागे । अतएव विशष महत्व. यदि जैन शिलालेखो के जो भी सग्रह अब प्रकाशित पूर्ण मौलिक स्थापनाओं के लिए सशाधका का मूल स्राता हो वे उपरोक्तरीत्या सपादित हो तो फिर उनके लिए का भी अवलोकन कर लेना चाहिए---कन्नड लख। का उनके अध्येताजी एवं मशोधको को अग्रेजी प्रादि विदेशी जो सार हिन्दी में दिया गया है उसाक आधार मात्र स भाषायो के उन प्रकाशनों की खोज मे नही भटकना कोई नई कल्पनाए नही करना चाहिए । यथावत: य लख पडेगा जो स्वयं सर्वथा निर्दोष या पूर्ण मी नही है। यह संग्रह सामान्य जिज्ञासुओ के लिए तो पर्याप्त है, किन्तु समय की महती आवश्यकता हे और उससे जैन इतिहास विशेष साधको के लिए तो ये मल सामग्री की ओर दिग्निर्देश मात्र ही करते है।" के सम्यक् पुनर्निर्माण में अपूर्व सहायता मिलगी । "कुछ न होने की अपेक्षा कुछ तो हुआ" मात्र इतने -चारबाग, लखनऊ
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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