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________________ बस्त्रधारी महारक कब से हुए संप्रदाय' पु०१४ में भी इसी बादशाहं का उल्लेख है। उत्तर :-ऐसा नही है, दोष लगाना किसी भी भाव वस्त्र धारण की शुरुमात प्रभाचन्द्र ने फिरोजशाह के लिंगी का स्वरूप या लक्षण नही है। अबुद्धि पूर्वक लगना वक्त में की है जैसा कि बुद्धि विलास में लिखा है। यह और बात है और बुद्धि पूर्वक चलाकर दोष लगाना अन्य फिरोजशाह जलालुद्दीन खिलजी हो सकता है। जिमका बात है। अनिचार-दोष लगने पर उनका पतिक्रमण, आलोराज्य काल 'भारतवर्ष का इतिहास' में विक्रम सं० १३४७ चना, प्रायग्नितादि किया जाता है ताकि गलती की से १३५३ तक बताया है। फिरोजशाह तुगलक तो वह पुनावृत्ति न हो। किन्तु जो सदा जान-बूझकर दोष लगाता नही हो सकता क्योंकि तुगलक का राज्यकाल विक्रम स० है और उन्हे उपेक्षगीय मन्तव्य मानता है यहां तक कि १४०८ से १४४५ तक का है। (सन् १३५१ से १५ देखो दोगनी दो। ही नही मानता, उन्हें स्वरूप और जायज भट्टनरक संप्रदाय पृ. १४ टिप्पण नं. ३६)। गानना। वह जैन साधु नही हो सकता । आज प्रायः यहो प्रश्न :-वसन्त कोति पहले ऐतिहासिक भट्टारक हो रहा। धानको का बाम साधुर्यों का संयम पलाना प्रतीत होते है इन्हें वनवासी और शेर द्वारा नमस्तुत कहा है कि मान नही सच्चा मुशिभक्त है जो सबसे बड़ा कहा है। श्रुतसागर सूरि के अनुमार ये ही मुनियों के वस्त्र लाने की धु । म, चतुराई के साथ साधुओ का सयम विगा. धारण के प्रवर्तक थे। यह प्रथा इन्होन मोडलगढ़ मे आ है। जो मका विरोध करते है उन्हे मुनि-निंदक कहा आरम्भ की थी। इनकी जाति बघेरवाल थी। विक्रम स० नाना है। संगार भी बडा विचित्र है । माधु भी मीठे जहर १२६४ को ये पट्रारूढ़ हुए थे (देखो "भारक सप्रदाय" को ही पचात । न यो गोच पाते है कि हम अपना पृ.६३) तब भट्टारक प्रमाचन्द्र (विक्रम स० १३४७ से ही अहिन नही कर रहे है किन्तु जिन-मार्ग-परम्परागका १३५३) द्वारा वस्त्रधारण का प्रारम्भ कैसे बताया जाता विधात कर रहे है। श्रावक भी यह नही सोचते कि साधुओ ने एक तरह से उनके ही भरोसे घर-बार छोड़ उत्तर-पट प्राभूत टीका पृ. २१ मे श्रुतसागर ने महावन अगाकार किया है-दीक्षा ग्रहण की है तब हम अपवाद वेष के रूप में लिखा है कि कालकाल म बच्छादि मिथ्यामोह व उनका सयम घानकर उनके साथ विश्वासलोग नग्न रूप देख मुनियो पर उपद्रव करते है अत: गत घात तो नहीं कर है ? इसी का परिणाम है कि आज कीति ने यह उपदेश दिया कि-"चर्यादि के समय चटाई पवित्र साधु सरया मलिन दूषित नष्ट भ्रष्ट मालोच्य आदि के द्वारा शरीर को ढंक ले, चर्या के बाद उमछाई गौरवहीन हो रही है। आज किसी को इसका अन्तस्ताप दे।" श्रुतसागरसूरि ने अपवाद वेष को मिथ्यात्य बनाया नहीं दिखता। है। पहिले चटाई टाट आदि का ही प्रयोग हुआ था वह नग्न दिगम्बरत्व सिर्फ कुन्दकुन्द की परम्परा नही है भी कुछ काल विशेष के लिए, सदा वस्त्र धारण (सूती) किन्तु जैन परम्परा है जैन ही नही सारी प्रकृति और का प्रचलन नही हुआ था। यह प्रभाचन्द्र के वक्त से हो रामार इसी मुद्रा (नग्न दिगम्बररव) से आकत है चाहे प्रारम्भ हुआ है। यह विशेषता है। पण हो पक्षी हो भन्मजात मनुष्य हो अजीव तक हो सभी वसन्त कीति व्याघ्राति सेवितः शीलसागरः।। "भट्टा- जगत जनन्द्र मुद्रा से ही अकित है। कोई भी वस्त्रालंकार रक संप्रदाय" पृ० ८६ के इस पलोक का जो पृ० ६३ में से मुक्त पंदा नही होता। "शेर द्वारा नमस्कृत" बर्ष किया है वह सही सगत प्रतीत सर्व पश्यत वादिनी जगदिद जैनेन्द्र मुद्रांकित ॥ नहीं होता । उसका अर्थ "बघेरवाल" होना चाहिए। "नोलशास्त्र" (उमास्वामीकृत) जैनो का बाइबल प्रश्न :-पुलाक बकुश कुशील को भावलिंगी साधु सर्वमान्य ग्रन्थ है, दि०० दोनो इसे मानते हैं। बहुत से माना है और मूलादि गुणों में दोष लगाना इनका स्वरूप भाई सोचते है कि इसमे कही भी नग्नत्व का प्ररूपण मामा है तब वस्त्र धारण कर लिया वह भी परिस्थिति नहीं है किन्तु यह मोचना उनका भूल भरा है। क्योंकि वश कालदोष से तो क्या हानि है? इसके अध्याय ६ सूत्र में "शीतोष्णवशमशकनारम्य..."
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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