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हम यूँ ही मर मिटेंगे तुमको खबर न होगी
[पचन्द्र शास्त्री, सम्पादक 'अनेकान्त'
उक्त पक्ति एक गाने की है जो अपने मे बन मायना बाल---HIT जानते है कि यह समागवस्था का मार दई रखती है। हर वह प्राणी जो कुछ जानना---- वह गार है जिसे खोजते-खोले हमे यूं ही बरसो बीत गये गमझना है उसे जीवन में गुनगुनाता रहता है और आखिर यो.बडे-बडे ऋपि-मुनि भी इस रहस्य को खोजते-बोजते में चला जाता है। शायद हमारे महामना पूजप० भी चा बने । आदि श्री कैलाशनन्द्र जी शास्त्री भी जीवन भर इगे नगुनाते आज मैं सोचता है कि वास्तव में पडित जी बड़े दूररह --इमी भाव को लिखते हे और जाते-जाते 'क्ति का दथि और उनका पह दूर-दणन तब राही रूप में अनुभव यं ही छोड गये लोगों को गाने, समझने योर मना करने में आया. जब उनकी रुग्णावस्था मकोठिया जी जैसे कई के लिए।
मनीषियो को बरबस गमाज का ध्यान उनकी ओर मुझे याद है जब मैं स्याद्वाद विद्यालय में काला चना पडा कि वह पडित जी का तीमारदारी करेनहीं गया था--वहा । व्यवस्थापक था। पडिनजी प्रायः नको खबरले । यह बात अलग है कि उनक सुपुत्र आदि शिक्षा-प्रद फिल्मो क देखने के शौकीन थे । उनको और
सम्बन्धी और कुछ पास-पडौमी उनकी सेवा करते रहे हों, साथ म स्व०प० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य को प्रायः
पर, अखिल जैन समाज और घामकर-रामर्थ और नेताकिमी शाम में पिक्चर हाल में आसानी से देख जा
टाइप ममाज का गह परम कर्तव्य था। हम नही जानते सकता था।
कितनों ने पडित जी की तीमारदारी में योग दिया जोर मुझे अक्सर तब महमकर बरबम यूं ही रह जाना उनकी बीमारी में उनको मुघनी? तिनो न उनके उपपडना था जब मै किसी छात्र को पिक्चर देखने के द:
कागेको गही रूप में माना? इमे वे ही जाने ! वरना, समाज स्वरूप कुछ डाट-फटकार मुनाना चाहता था और वा के रवैग्य के प्रति हमागतावमा ही अनुभव है जैसा कि बरबस कह उठना था-'पण्डित जी भाता दख रह थ। पंडित जी ने कहा था - 'हमय ही मर मिटेग, तुमको
एक दिन हिम्मत जुटाकर, विद्यालय की छ। पर बर न होगी।'-पडिन जी चल गये और हमें खबर घुमत हए बातो-जानो में मैं पण्डित जी से कह ही बैठा, कभी न हई औरई तो बड़ी देर स-कछुए की चाल से। कि कभी-कभी लडके ऐसा जवाब देकर कि 'पण्डिन जी .इम प्रमग में ममाज अपने अतीत को भी देखे कि भी तो देख रहे थे, मुझे गौन रहने को मजबूर कर दत :सन अनीतक अनगिनत उपकारिता के प्रति कैसा रवैया है। पण्डित जी को गुझसे स्नेह तो था ही। उन्होने मुझे मानाया ? भले ही ममाज ऐसी हस्तियो को उनके प्रति समझाया--पद्मचन्द्र जी, लड़कों को तो डाटना ही चाहिए, उनके जीवनकाल म उन्हे अभिनन्दन देता रहा हो, उनके वे नासमझ होते हैं, फिल्मों को अच्छाइयो का उन्हें कहाँ जयकारे बोल, उन्हे माल्यार्पण करता रहा हो । पर, उसने बोध होता है ? वे बुराइयों को ही अधि: ग्रहण करते है। उनसे एछ ग्रहण नही किया और जो उन्हे दिया वह अतिम उन्होने आगे कहा-आप जानते है कि मैं दिनभर माहि- दिनों के काम न आया। यदि अभिनन्दन ग्रन्थ आदि ही त्यिक काम करता हूं, तत्त्व-चिनन करता हूं और मुझे से सब काम हो जाता होता, तो क्यों नही, बीमार के पिक्चरो मे भी तत्त्व की ही पकड़ रहती है। उदाहरणार्थ सिहहाने बे रख दिए जाते ? जिनसे बीमार की तीमारउन्होंने अपने मधुर कण्ठ से एक पंक्ति सुनाई-'हम यूं ही दारी हो जाय और कोटिया आदि जैसे प्रबुद्धो को तीमार. मर मिटेंगे, तुमको खबर न होगी।'
दारी के प्रति चिन्तित न होना पड़े। बस्तु: (शेष पृ.६पर)