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४, वर्ष ४०, कि० ४
भनेकान्त
सर्वोत्तम-प्रेरित सहयोगी
बल्कि जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड, आदि को साधारण स्वायाइस यात्रा में स्व. प. कैलाशचन्द्र जी सर्वोपरि थे। यियो के लिए सुगम कर गये है। प्रारम्भ में 'जा.धवल' क्योंकि वे 'अहिंसा' 'भगवान महावीर का अचेलक धर्म' कार्यालय के कारण बना आराण्ह २ से ५ बजे के बैठने,
स्तिकावट भी उसी सीरता से लिखने चिन्तन और लेखन का दायित्व उनका स्वगाव बन गया जिसकी झलक 'जैन सन्देश' के सम्पादकियों में स्पष्ट थी। था। जा जब तक किसी प्रबल असाता के उदय, अयात् 'जन-धर्म' ऐसी मौलिक सुपाठय कृति ने उत्तरकालीन १९८० तक एकरूप से चला । इसके बाद कुछ तथोक्तलेखको को इतना प्रभावित किया था कि इसके तुरन्त प्रशंसको के कारण प्रकृति में परिवर्त', आया। तथापि बाद ही समाज को 'जनशासन' तथा 'जन दर्शन' पुस्तके उन्होने हार नहीं मानी । यही कहते रहे कि 'अभी मुझे देखने को मिली थी। यही कारण था कि 'सघ' ने जब आने में बुढ़ापे के कोई लक्षण नहीं दिखते । शारीरिक 'जयधवल का प्रकाशन हाथ में लिया तोडित (कच.)
दृष्टि से यह सत्य भी था । क्योकि रवावस्था के साथ ही जी ही प्रधान सम्पादक रहे । गौ कि वे मुक्तकंठ से कहा
दमापीड़ित अपनी काया को उन्होने f हा-निग्रह, औषधि करते थे कि इन मूल सिद्धांत ग्रन्थो के उद्धार का श्रेय तथा पोषक- राहण और पत्नी को तीसरी शल्य-प्रसूतिजन्य धीमानों में स्व०५ हीगलाल (सादमल). फलचन्द्र जी मृत्यु के सयोग से बचाने के लिए कृत 'वेद-निया 011 सिद्धांतशास्त्री तथा बालचन्द्र शास्त्री (वीर सेवा मन्दिर)
संयम के द्वारा ऐसा कर लिया था कि परिणत वय में उन्हे को इनके प्रधान सम्पादको (स्व. डा० होरालाल, आ.
देख कर कोई कल्पना भी नही कर सकता था कि ये कमी ने. उपाध्ये) की अपेक्षा अधिक है। तात्पर्य यह कि
दमा के रोगी रहे होंगे । वे अपने जीवन से संतुष्ट थे । सिद्धान्ताचार्य (क०च०) जी को साथियो या समाज ने कहा करते थे-- जी कार्य या पद दिया उसे उन्होने द्यानतदारी से सभाल कर सुख माना । तथा अन्य विद्याव्यासगियो के समान अन्त समयकिसी दायित्व या प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्न नहीं किया। वे अभी क्या जाना, अन्त समय ठीक बीत जाये तो कहा करते थे कि मैं तो 'धर्म और अधर्म द्रव्यों के समान मानगा।' क्या उन्हें अपने भविष्य का आभास था? दांत, तटस्थ या अन्यथासिद्ध कारण है। विद्यालय (स्या० म० आख, कान और अत में स्मति ने भी उनका ख्याल नहीं वि०), 'सघ' तथा प्रकाशनादि के लिए यदि होते है तो किया । जिनधर्मी वाङ्मय का चलता-फिरता रूप विवश में अनुगामी होने में भी सकोच नही करता, नहीं होते तो, हो गया पूर्वबद्ध निकाचिन के उदय के सामने । उनसे में अग्रगामी नहीं बनता।'
अन्तिम भेंट के बाद से ही सोचता हूं-"मित्र-पुष्ट एवं
मान्य जनवाङ्मय का संयत एव सर्मात साधक, अब नही स्पष्ट ज्ञानपुंज
रहेगा । जिज्ञासाए अब भटकेगी।" वह दीपक बुझ गया। उनका अध्ययन, अध्यापन, प्रवचन, लेखन तथा
था अपने गुरुओ, साथियो और हम अनुजो से अधिक कर्मठ,
ओ माथियो और दम । सम्पादन प्रसाद, माधुर्य एव सार-पूर्ण होता था। वे जिन प्राप्ताल्यसतोषी .था आ-चैतन्य शारदा साधक को यदि ग्रन्थों को पढ़ते-पढ़ाते थे वे या उनकी वरतु (मूल विषय)
बुद्धिभ्रन्श हो सकता है, तो हमारा भविष्य ? "विधिरहो उनकी स्मृति में अंकित हो जाती थी। यही कारण है कि बलवानिति मे मतिः" । शत-शत प्रणामों सहितअपने जीवन के अन्तिम तथा कर्मठ दशकों में वे 'जैनन्या' जिनवाङ्मय के इतिहास के समस्त खंडो को ही नही,
-खुशालचन्द्र गोरावाला