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________________ हिन्दी जैन महाकाव्यों में शुङ्गार रस करता है" परन्तु ये भाव क्षणस्थायी है क्यों क नायक ज्ञानी है। मित्र जी ने पति-पत्नी समागम के व्यापक वर्णन का है, विवेकी है अतः रति भाव के प्रसरण से पूर्व ही उसे साहस किया है जिसमे विभाव-अनुभावादि के सपोषण से दमित-विजित कर लेता है। अतएव यहाँ शृगार रस का शृगार रस की सफल निष्पत्ति हुयी हैपरिपोष नही हो पाया है। कवि ने राजकुमार महावीर राजा पीते थे रूपसोम, मद मे कम्पित था रोम रोम के सौन्दर्य पर विमुग्ध तरुणियो के 'पूर्वराग' एव "दिवा- उपवन के पत्ते हिलते थे, कलियों से भौरे मिलते थे स्वप्न' देखने की सहज प्रवृत्ति की मार्मिक भाव- यजना की बुझ बुझ कर आग सुलगती थी. उलझन मे प्रिया उलझती थी है।" नवयौवना राजकुमारी यशोदा के मनोभाव चित्रण मे नारी ने सीखी नयी कला, मन उमड़ा तन उमड़ा मचला।" ही 'श्रृंगार' की अभिव्यक्ति पार्मिक एवं प्रभावकारी बन उपर्युक्त के अतिरिक्त कामदेव दारा प्रेरित अपसराओं पड़ी है। रूप गविता यशोदा, महावीर को पति रूप मे द्वारा साधरारत महावीर को तपस्याच्युत करने के प्रसग कामना करती है, मिलन से पूर्व हृदय पट पर प्रिय के मे भी शृगार रस व्यजना प्रभावशाली है। साधक विविध चित्र सवारती है और प्रिय के सौन्दर्य के दर्शनार्थ महावीर का सुदर्शन व्यक्तित्व अप्सराओ को अत्यधिक द्वार पर आ खड़ी होती है परन्तु वीतरागी वर्द्धमान नतद्ग प्रेमोद्दीप्त करता है और वे काम चेष्टाए प्रदर्शित करती आगे बढ जाते हैं। अत: प्रिय को (आलम्वन) उदासीनता हुयी सयोग को व्याकुल हो उठती है --परन्तु यहां भी से रस की सपूर्ण निष्पत्ति नहीं हो पायी है। तदपि यह आलम्बन (महावीर) की तटस्थना एवं आश्रय की पराजय शृगार रसभासी मधुर प्रसग है। से रस की सम्पूर्ण निष्पत्ति नही हुयी है। तीयंकर महावीर--महाकाव्यकार डा० छैलबिहारी वीरायन' मे वियोग शृगार सम्बन्धी एक मार्मिक गुप्त ने प्रस्तुत कृति मे शृगार रस की नितात उपेक्षा की स्थल है। कलिंग नरेश जितशत्रु को अतीव सुन्दरी षोडशी है। मिद्धार्थ त्रिसला की परस्पर प्रेम व्यजक पक्तियो मे कन्या यशोदा के हृदय में कुमार महावीर से विवाह की इसका आभास तक नहीं होता । कवि ने नायक (वर्तमान उमग जागृत हो चुकी है। उसे मीठे मधुर स्वप्न देखने, महावीर) के यौवन काल का उल्लेख तक अवश्यक नही अपनी कोमल कल्पना का ताना बाना बुनने और अभिसमझा है। बाल-काल क्रीडा वर्णन के तुरत पश्चात् लाषाओं को साकार होते देखने का अवसर मिल पाता कि वर्द्धमान को तीस वर्षीय तपस्वी रूप में प्रस्तुत कर दिया है उमसे पूर्व ही महावीर (प्रिय) के विरागी होकर साधना अत. शृगार रस निष्पत्ति का कही अवकाश ही नही है। हेतु निष्क्रमण की सूचना मिल जाती है। कोमल हृदया ____वीरायन-- महाकवि रघुवीर शरण 'मित्र' ने शृगार यशोदा विरह व्यथा मे डूब जाती है। वह साधारण नारी रस आयोजन के अवम र सिद्धार्थ-त्रिशला के प्रणय विलास की भाति मूछित नही होती पर प्रिय को उपालम्भ अवश्य मे ढढ़ लिए है। कवि ने त्रिशला के पूर्वराग की बड़ी मधुर देती हैव्यजना की है। राजा सिद्धार्थ से विवाह निश्चित होने का पहले चाह व्याह की भर दी, समाचार त्रिशला मे स्त्री सुलभ 'लज्जा' का सचार करता अब विरक्ति के गीत गा रहे । है तथा वे भविष्य के मीठे सपने सजोने लगतो है। इन तन मे मन में आग लगाकर, स्वामी ! तुमको योग भा रहे ॥ पूर्वार्नुभूतियों की शृगारिक अभिव्यक्ति द्रष्टव्य है-- लेकिन किचित् विचार मथन के बाद प्रिय के महत्कार्य आग उठने लगी जो सुहाने लगी, का ज्ञान हो जाने पर यशोदा जिस रूप मे भी सम्भव हो एक लज्जा हृदय को लुभाने लगी। चाँदनी रात के सपने आने लगे, प्रिय की अनुगामिनी-सहयोगिनी बनना चाहती है। कवि आयु फल बात रस की बताने लगे। ने विरहिणी यशोदा के भावोत्कर्ष की हृदयसी अभिजब आशाओं उमगो से भरपूर, नवयौवना त्रिशला व्यजना की हैका सिद्धार्थ से सयोग होता है तो प्रेमाधिक्य में दोनो सुध- तुम तप करने को जाते हो, मैं बदली बनकर साथ चली। बुध बिसरा देते है। आश्रय-आलम्बन का भेद मिट जाता तुमको न घूम लगने पाये, इसलिए धूप में स्वय जली ।।
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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