________________
अनेकान्त
१० वर्ष ४० कि० १
अभी हाल में उसका एक अन्य सस्करण उक्त आचार वृत्ति और आर्यिका ज्ञानमती माता जी के द्वारा किये गए अनुवादादि से सम्पन्न भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा क्रम से ई० सन् १९८४ व १६८६ मे दो भागो मे प्रकाशित किया गया है। उसके अनुवाद आदि कार्य के करने में माता जी ने पर्याप्त परिश्रम किया है किन्तु पूर्व संस्करण में जो प्रचुर अशुद्धियां रही है वे प्रायः सभी इस सस्करण में भी दृष्टिगोचर होती रही है। इसके लिये कानडी लिपि मे लिखित प्राचीन दो चार ताड़पत्रीय प्रतियो से उसके सावधानतापूर्वक पाठ मिलान की आवश्यकता रही है। यदि उनसे पाठ मिलान कर उसे तैयार किया गया होता तो उसका एक प्रामाणिक शुद्ध संस्करण इस प्रकार का बन जाता जिस प्रकार का एक तिलोयपत्ती का शुद्ध प्रामाणिक संस्करण धायिका विशुद्धमती माता जी द्वारा प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों से पाठ मिलान के साथ अनुवाद आदि कार्य करके तैयार किया गया है। मूलाचार के अध्ययन की आवश्यकता
वर्तमान में साधु-साध्वियों की सख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही है। उनमे सामान्य श्रमणाचार से कितने परिचित रहते है, यह कहना कठिन है नवीन दीक्षा देने के पूर्व यदि अपने सघ की सख्या वृद्धि की अपेक्षा न रखकर दीक्षोन्मुख आत्महितैषी को दीक्षा ग्रहण के लिए कुछ समय देकर इस बीच उसकी धर्मानुरूप प्रवृतियों पर ध्यान देते हुए उमे २८ मूलगुण, आहार ग्रहण और अन्यत्र विहार आदि करने की विधि से परिचित करा दिया जाय तथा सामान्य तत्वों का भी बोध करा दिया जाय और तत्पश्चात् दीक्षा दी जाय तो ऐसा करने से नवदीक्षित साधु और दीक्षादाता आचार्य दोनों का ही हित १. प्रस्तुत मूलाचार के ही 'समाचार' अधिकार के
अनुसार दीक्षोन्मुख की तो बात क्या, किन्तु एक संघ का साधु यदि विशेष श्रुत के अध्ययनार्थं दूसरे संघ में आचार्य की अनुज्ञा से जाता है तो एक या तीन दिन उसे विश्राम कराते हुए इस बीच उसके आचरण आदि की परीक्षा की जाती है । यदि वह आचरण मे विशुद्ध प्रमाणित होता है तो उसे अपने सघ मे स्वीकार कर यथेच्छ श्रुत का अध्ययन कराया
है'। यह कण्टकाकीर्ण मार्ग वस्तुतः आत्मकल्याण का है, पर का कल्याण भी इसमे गोण है; इसे कभी भूलना न चाहिए । उक्त विधान के पश्चात् यह भी आवश्यक है कि संघस्थ साधु-साध्वियों को मूलाचार जैसे धमणाचार के प्ररूपक ग्रन्थ का पूर्णतया अध्ययन कराकर उन्हें श्रपणाचार में निष्णात करा दिया जाय। यदि यह स्थिति बनती है तो उससे साथ संघ की प्रतिष्ठा के साथ सघस्य मुनिजनों का आत्मकल्याण भी सुनिश्चित है, जिसके लिए उन्होने घर-द्वार और परिवार आदि को छोड़ा है। साथ ही दिनप्रति दिन जो समाचार पत्रो मे व परस्पर की चर्चा वार्ता मे साधु-साध्वियों से सम्बन्धित अनेक प्रकार की आलोचनायें देखने-सुनने एवं पढ़ने को मिलती है वे भी सम्भव न रहेंगी।
मूलाचारके शुद्ध प्रामाणिक संस्करणको आवश्यकता
इसके लिये बहुत समय से मेरी यह अपेक्षा रही है कि इस महत्वपूर्ण प्राचीन ग्रंथ का एक प्रामाणिक शुद्ध संस्करण तैयार कराया जाय । यह श्रेयस्कर कार्य तभी सम्पन्न हो सकता है जब उसकी प्राचीनतम हस्तलिखित दो-चार प्रतियो को प्राप्त कर उनके आश्रय से पाठो का मिलान करा लिया जाय यह महत्वपूर्ण धर्म प्रभावक कार्य पूज्य श्राचार्य विद्यासागर जी जैसे श्रमण के द्वारा सहज मे सम्पन्न हो सकता है । पू० आ० विद्यासागर जी जैसे सिद्धांत के मर्मज्ञ है वैसे ही सस्कृत-प्राकृत के विद्वान होने के साथ कानडी भाषा और लिपि के भी विशिष्टज्ञाता है । उनके सघ मे कुछ अन्य मुनि भी कानडी से परिचित है। इससे धर्मानुरागी कुछ आगमनिष्ठ सद्गृहस्थों के द्वारा दक्षिण ( मूढविद्री व श्रवणबेलगोला आदि) से ग्रन्थ की कुछ प्राचीनतम प्रतियो को प्राप्त करके
जाता है। इसके विपरीत यदि वह व्रताचरण से अशुद्ध प्रतीत होता है तो सघ मे नही लिया जाता है । यदि कोई आचार्य व्रताचरण में अयोग्य या शिथिल होने पर भी उसे ग्रहण करता है तो उस आचार्य को भी प्रायश्वित्त के योग्य कहा गया है देखिये गा० १६३-६८ ) । यही पर पीछे बाकी बिहार करने का भी कठोर प्रतिषेधया गया है।
( गा० १४७-५०) ।