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मूलाचार व उसकी प्राचारवृत्ति उन्हे समर्पित कराई जा सकती है। इस संघ को यह भी दोनों संस्करणगत अशुद्धियां एक विशेषता है कि तत्त्वाचर्चा और स्वाध्याय आदि के
ऊपर जो मैंने इन दोनों सस्करणो के अन्तर्गत उपअतिरिक्त वहा अन्य कोई चर्चा नही देखी सुनी जाती।
लब्ध कुछ अशुद्धियो का निर्देश किया है उनमे प्रामाणिवर्तमान मे उसकी प्रतियों के प्राप्त करने में पूर्व के समान
कता की दृष्टि से यहां मैं कुछ थोडी-सी विशिष्ट अशुद्धियो कठिनाई नहीं रहेगी। इस प्रकार से इस सघ मे ग्रंथ के वाचनपूर्वक पाठो का मिलान सहज में कराया जा सकता
का उल्लेख कर देना चाहता हूं। जिससे त्यागीवृन्द व है, जिससे उसके शुद्ध प्रामाणिक सस्करण के तैयार होने
विद्वज्जन प्रस्तुत प्रथ के शुद्ध प्रामाणिक सस्करण की आव. मे कुछ कठिनाई नही रहेगी।
श्यकता का अनुभव कर सके । यथामा० ग्रं० मा० सस्करण ज्ञा० पी० सस्करण पृष्ठ
अशुद्ध पाठ
उसके स्थान मे सम्भव शुद्ध पाठ गाथा १.४ वृत्ति
प्राणव्यपरोपण प्रमादः प्राणव्यपरोपण हिसा, प्रमादः
स्तुतेः
नुतेः
१-२४ १-३४
:
:
:
४-२
ܒܘܐ
४-१२
११६
११८
मिथस्तस्य महापुरुषाचरणार्थ अन्यथार्थत्वात् विपरीत गतस्य श्रद्दधान उपक्रमः प्रवर्तन 'कायाः' तस् सहस्य सः, समान पडिछण्णाए उदभ्रम एवोभ्रमको पुच्छयमण्ण भट्टारकपादप्रसन्नः गृहीतार्थश्च सायरसरसो उन्वट्ठण श्रावकादिभिः परियट्ठ सहत्थति चरित
स्थितस्य महाव्रताचरणार्थ अन्यार्थत्वात विपरीततां गतस्य श्रद्धानं उपक्रमः अपवर्तन 'कायास्तस्' 'सहस्य स' समान पडिच्छणाए उभ्रम एवोद्भ्रामको पुत्थयमण्णं' भट्टारकपादपादप्रसन्नः गृहीतार्थस्य सायरसरिसो (वृत्ति मे शुद्ध है) उन्वट्टण श्राविकादिभिः परियट्ट सहच्छति' चरति (वृत्ति में शुद्ध है)
7-१४ ४-१७ (मूल) ४-२५ ४.२७ ४-२८ (मूल) ४-५६ (मूल)
, (वृत्ति) ४-६८ (मूल) ४-७० (मूल) ४-७५ (मूल)
११६
१२६
१३४ १४७
१४६
१५४ १५६
१५६
१. कानडी लिपि मे बहुधा 'त्थ' और 'च्छ' के लिखने मे वर्णव्यत्यय हुआ है-'त्थ' के स्थान मे 'च्छ' और 'छ' के
स्थान मे 'स्थ' लिखा गया है। देखिये आगे गा० ४.७० व ज्ञा० पी० स० में गा० १६१ (पृ० १५६) मे 'सहत्यति' का टिप्पण 'अच्छति' तथा आगे गा० ५-१७६ (जा० पी० स० ३६३, पृ० २६६ मे 'पत्थिदस्स' के स्थान मे 'पछि[च्छिदस्स' लिखा गया है।