________________
मूलाचार व उसकी आचार वृत्ति
श्रीपं० बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री
वट्टकेराचार्य विरचित 'मूलाचार' यह एक श्रमणाचार करके भी उन्होने उसकी सूचना नहीं की। अपवाद के रूप का प्ररूपक महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थ है जो बारह अधिकारो में एक आध बार उन्होंने 'तथा चोक्तं प्रायश्चित्तग्रंयेन में विभक्त है । चारित्रसार, आचारसार और अनगार. एकस्थानमुत्तरगुरणः, एक मक्तं तु मूलगुणः इति' । इस धर्मामृत आदि उसके पीछे इसी के आधार पर रचे गए प्रकार का सामान्य निर्देश करके भी वह प्रायश्चित्तग्रंथ हैं। प्रस्तुत ग्रंय पर आचार्य वसुनन्दी द्वारा 'आचारवृत्ति' कोनसा व किसके द्वारा रचा गया है, इसका भी कुछ नामकी एक उपयोगी विस्तृत टीका लिखी गई है जैसा कि स्पष्टीकरण नही किया । यही कारण है जो उन्हें 'भारतीय ज्ञानपीठ' से प्रकाशित इस मूलाचार के संस्करण इस वृत्ति मे अपने विवक्षित अभिप्राय को प्रायः कहीं भी सम्बन्धित 'माय उपोद्घात' से स्पष्ट है, उस पर एक प्राचीन आगम वाक्यों को उद्धृत कर उनके द्वारा पुष्ट 'मुनिजन चिन्तामगिा' नाम की टीका मेषचन्द्राचार्य द्वारा नहीं करना पड़ा जैसा कि बहुधा पूज्यपाद, भट्टाकलंकदेव कानडी भाषा में भी लिखी गई है। (पृ०१८) । आ. वसु- वीरसेन आदि अन्य कितने ही आचार्यों ने किया है। नन्दी सिद्धान्त के मर्मश विद्वान् रहे है । वे सस्कृत और प्रस्तुत प्रथ का एक संस्करण उक्त 'आचारवृति' के प्राकृत दोनों भाषाओ के अधिकारी उल्लेखनीय ज्ञाता रहे साथ विक्रम संवत् १९७७ और १९८० में मा०दि० जैन हैं उन्होंने अपनी इस वृत्ति में प्रसगानुसार आचार्य देवनन्दी ग्रंथमाला बम्बई से दो भागो में प्रकाशित किया गया था। (पूज्यपाद) के 'जैनेन्द्र व्याकरण' का आश्रय लिया है। हस्तलिखित प्रतियो पर से उसे प्रकाशित करने का यह इस वृत्ति की रचना मे उन्होने अपने से पूर्वकालीन अनेक प्रथम प्रयास था। उसके प्रकाशित करने में भी प्राचीन आगम प्रथो का आश्रय ही नहीं लिया, बल्कि उन ग्रन्थो हस्तलिखित प्रतियां नही उपलब्ध हुई। इसके अतिरिक्त के प्रसंगानुरूप अनेक सन्दों को भी इस मे आत्मसात कर उस समय साधन सामग्री की कमी के साथ संशोउसे पुष्ट व विस्तृत किया है जिनमें षट्खण्डागम, धक विद्वान् भी उपलब्ध नहीं हुए । इससे उसमें अशुद्धियाँ चारित्रप्राभृत, सर्वार्थसिद्धि, जैनेन्द्रव्याकरण, तत्त्वार्थ- बहुत रही हैं, जिन्हें अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। वार्तिक, प. खं० की टीका धवल., पसग्रह' और इससे उसके प्रामाणिक शुख सस्करण की अपेक्षा बनी गोम्मटसार प्रमुख है। इस सबका स्पष्टीकरण आगे उदा- रही है। हरणपूर्वक किया जायगा। विशेषता एक आ० वसुनन्दी जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, उसका दूसरा की यह रही है कि उपर्युक्त अथो से प्रसगानुरूप सन्दर्भो एक संस्करण 'आ० शा० जिनवाणी जीणोद्वार सस्था को इस टीका मे गभित करते हुए भी उन्होने कही किसी फलटण' से भी प्रकाशित हुआ है। उसकी प्रति उपलब्ध अन्य विशेष का या अथकार का उल्लेख नही किया है। न होने से मुझे उसके विषय मे अधिक कुछ जानकारी यही नहीं, कही 'उक्त च' आदि जैसा सामान्य निर्देश नही है। १. यह टीका और 'आचार्य शा० जिनवाणी जीर्णोद्धार किया है-'सग्रहः पंचसंग्रहावयः' । ज्ञा० पी० सं०
सस्था-फलटण' से प्रकाशित वह प्रति मुझे उप- गा० २७६, पृ० २३६ (सम्भव है उससे भा० जानलब्ध नहीं हो सकी।
पीठ से प्रकाशित 'पचस ग्रह का ही अभिप्राय उनका २, दृत्तिहार ने 'पचसग्रह' का उल्लेख इस प्रकार रहा हो)।