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________________ २०, वर्ष ४०, कि०४ अनेकान्त सील सौं सुहित सुचि दीसत न प्रांनि जग, ककथ च्यारि बिगारि जगत् को तिनको नहि सुहावं। सील सब सुख मूल वेद यों रटत है। 'सुरति' सो जन मोहि भावे, ते सिव पंथ बतावै ।। २. 'विनोदीलाल के सवैये': ४. बत्तीस ढाला: 'नेमिनाथ को नव मंगल', 'नेमि ब्याह', 'राजुल सवाई माधोपुर मे उत्पन्न कवि टेकचंद षट् पाहुड़, पच्चीसी', 'नेमिराजुल बारहमासा', आदि नेमिनाथ-राजुल तत्वार्थ सूत्र, सुदृष्टि तरगिणी की वनिकाओ के कारण विषयक काव्य ग्रन्थों की रचना से स्पष्ट है कि विनोदी- जैन भक्तों में बड़े लोकप्रिय है। 'बत्तीस ढाला' इनकी लाल को नेमि-राजुल प्रसंग बड़ा प्रिय था। उन्होने अचचित रचना है। इस छोटी रचना मे वेसरी, गाथा, 'भक्तामर चरित्र भाषा' नामक एक बड़े ग्रन्थ की भी रचना सवैया, कवित्त, कुण्डलियां, छप्पय, चौपाई, सोरठा, चाल की। 'नवकार मत्र महिमा' के नाम से लिखित कवि के अडिल्ल, पद्धड़ि, षड़गा, भुजगी, भरैठा, गीत आदि कई ६०-७० सवैये नीति विषयक हैं। नाम स्मरण के अतिरिक्त छन्दों का प्रयोग करके कवि ने अपने छद-ज्ञान का परिचय इन्द्रिय दमन और दया आदि नीति विषय कवि को प्रिय दिया है। 'बत्तीस ढाला' के ६३ छंद और कुछ ढालों मे है। दया के बिना तीर्थयात्रा, विमिन्न मुद्रायें धारण करना अभिव्यक्त कवि के नीति विषय 'मनुष्य जीवन की महत्ता', निरर्थक है। कवि विनोदी लाल बाह्याचार की उग्र स्वरो 'स्वजनों की क्षणभंगुरता', रजस्वला स्त्री का रहन-सहन', में निन्दा करते हैं: 'विश्वास योग्य पात्र', 'पाप', 'दान' आदि है। चारों द्वारिका के न्हाये कहा, अंग के दगाये कहा, प्रकार के दानो का फल कवि ने इस प्रकार कहा है :संख के बजाये कहा, राम पइयतु है। सो दे भोजन दान, सो मन वांछित पावै । जटा के बढ़ाये कहा, भसम के चढ़ाये कहा, औषधि दे सो दान, ताही न रोग सतावै । घूनी के लगाये कहा, सिव ध्यायतु है। सूत्र तरणे दे दान, ज्ञान स अधिको पावै । कान के फराये कहा, गोरख के ध्याये काहा, प्रभ वान फल जीव, सिद्धि होइ सो अमर कहावै ।। सोंगो के सुनाये काहा, सिद्ध लइयतु है। भोजन करते समय ध्यान रखने योग्य आचरण की क्या धर्म जाने बिना, आपा पहिचाने बिना, महत्त्वपूर्ण बातें 'कुण्डलिया-रचयिता' गिरधरदास की कहत 'विनोदी लाल' कहूं मोष पइयतु है । तरह जैन कवि टेकचद ने जन साधारण को समझाई हैं -- ३. सूरति को 'बारहखड़ी' : भोजन करता जुद्ध कभु नहि ठानिये। जैन कवि सूरति कृत बारहखड़ी में चालीस दोहे और लोक विरोधी जो भोजन नहि मानिये । छत्तीस छन्द हैं। स्वार्थपरता 'कर्मबन्ध' साधु महिमा, पंच बिरुध न मिलि, नहि इक थल खाइये। आत्मचिन्तन इसके वर्ण्य हैं। सांसारिक कुकथाओ से दूर नन मूवि बुधि भोजन, भूलि न खाइये ॥६॥ जाति विरोधी कोई, तहाँ नहिं खाइये । रहकर मागम और अध्यात्म का चिन्तन करते रहना श्रावक कालक्षण है। ऐसा नीतिकार सूरति का मानना संस जुत भोजन नहि, बुधजन पाइये। अंधगमन जहाँ होइ, तहाँ खांनी नहीं। इत्यादिक बुधवान, धरौ हिरवं मही॥२०॥ ससा सोही सुगुर हैं, सुनि सुगुरुन की सीष । सबा रहे सुभ ध्यान मैं, सही जैन को ठीक । ५. 'मनोहर के सवैये' : सही जैन की सही जिनु के, और कछ नहि भाव भाव। मनोहर के नाम से प्राप्त ६०-७० सवैये चिन्ता, कर्ममागम और अध्यातम बानी, पूछ सुनावै गावै । प्रभाब, उद्यम, बाह्याचार, विषयासक्ति परिवार की
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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