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हिन्दी जैन कवियों के कतिपय नीतिकाव्य
डा० गंगाराम गर्ग, भरतपुर
अपभ्रंश की तरह हिन्दी मे भी जैन कवियों ने चरित भी क्षत्रशेष की उक्तियां मर्मस्पर्शी हैं । 'भूख' शान्त करने काव्य और नोति ग्रन्थ दोनो ही लिखे है। महाकवियों के के लिए मनुष्य अनेक नाटक रचता है। छत्रशेष कहते हैंविलास सज्ञक काव्य संग्रहों में से 'बनारसी विलास में'
तन लौनि रूप हर, थूल तन कस कर, मन उत्साह हरं, अध्यात्म बत्तीसी, दश दान विधान, अक्षर माला, दिला. राम विलास मे ज्ञान बत्तीसी, अध्यात्म बारहखडी तथा
बल छीन करता छिमा को मरोरै, गही बिढ़ मरजाव तोरं, पावदास कृत 'पारस विलास' मे 'सुगति बत्तीसी' उपदेश सुअन सहन मद कर
सुअन सहेन भेद कर लाज रहता, धरम प्रवृति जप, तप पच्चीसी, बारहखड़ी, हितोपदेश पाठ आदि नीति विषयक
ध्यान नास कर, धीरज विवेक हरै, करति अथिरता कहां स्वतत्र रचनाए है । महाकवि बुधजत की 'बुधजन सतसई' कुल कानि, कहा राज पंच गुरु, पान सुधा बस होय जीव के अलावा द्यानतराय के 'छहढाला' मे भी नीति तत्त्व के
बहु दोष करता। दर्शन होते है। सांगानेर निवासी जोधराज के दो ग्रन्थ
युवावस्था के कान्तिमान् शरीर की स्थिति वृद्धावस्था 'ज्ञान समद्र' और 'धर्म सरोवर' नीति के बड़े ग्रन्थ है। मे कितनी घणिन हो जाती है:आगरा के रूपचन्द का दोहा परमार्थी' और कामा (भरतपुर) के हेमराज का 'हेमराज शतक' दोनो ही नीति
सकुचो सरीर, अलि गई तुचा, सूषो मांस, काव्य लोकप्रिय हो चुके है। फिर भी हस्तलिखित शास्त्रों
प्रावझत पाउ, पथ चले खेद धरतां । की खोज करने पर पर्याप्त नीति ग्रन्थ मिल सकते हैं।
दांत गयो दाढ़ गई, दिष्टि हू अविष्ट भई, कुछ अचचित नीतिकाव्य इस प्रकार है :
नासा नेन मुख द्वार मल बहु झरता ।
सोस हले हाय हले, वदन निरूप भयो, १. मनमोहन पंचसतो :
बांधव न बूझ बात, नारी हिय जरता। पाच सो सर्वयों से युक्त 'नीति' का सबसे बड़ा ग्रन्थ धिक् यो बुढ़ापो भैया, देख क्यों न खोजौ, है। अभी तक अज्ञात यह विशाल ग्रन्थ अजमेर स्थित मायो जहां पुत्र, पिता की अवग्या धनी करता। सोनी जी की नसियां में विद्यमान शास्त्र भण्डार मे उप- परम्परागत नीतिकारो की तरह क्षत्रशेप के अनुसार लब्ध है । कवि ने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में अपने नामो
शील का आचरण मानसिक और शारीरिक सुख का ल्लेख के अतिरिक्त कुछ और नही बतलाया :
माधार है। यश देने वाला और पूर्व कर्मबन्धो को नष्ट गुन फुर्रा दुरो दुरमति सकल, दुरितारत कारन नसह।
करने वाला है :कहि 'छत्र सहस' परभव विष जिह तिह विधि सब सुष लहह।
सील तं सकल गुन आप हिय बास कर, संवत् १९१६ में रचित इस रचना मे दुर्जन-सज्जन, सील ते सुजस तिहु जग प्रगटत है। कुगुरु, सुपंथ, 'अपराध-निषेध' मित्र-शत्रु आदि सामान्य सील ते विधन प्रोध, रोग सोग दूर होय, नैतिक विषयो की चर्चा के अतिरिक्त जैन दर्शनानुकूल सील तें प्रबल दोष, दुःख विघटत है। 'पुद्गल' का विवेचन है। परम्परागत नैतिक उक्तियो के सील ते सुहाग भाग, विन दिन उर्व होय, साथ-साथ 'भूख', 'वृद्धावस्था' जैसे सामान्य विषयों पर पूरब कर्मबंध रिननि घटत है ।