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________________ १८, वर्ष ४०, कि०४ अनेकान्त काललब्धि है। इसीलिए केवल पुरुषार्थ से ही कार्य की छ महीने आठ समय में छ सौ आठ जीव ही मोक्ष प्राप्त सिद्धि मानना एकान्त है। हर कार्य के होने का समय और करते हैं, कमती-बढ़ती नहीं ऐसा नियम है। यदि नियमन निमित्त नियत है ये सम्यक् नियति है और एक ही से सारे हो तो जब चाहें मोक्ष चले जाएं किन्तु ऐसा नहीं हो कार्यों का होना मानना मिथ्या नियति है, इसको एकान्त- सकता। क्योंकि मोक्ष जाना इसके स्वयं या मात्र पुरुषार्थ वाद कहा है। गोम्मटसार में जहां ३६३ पाखंडों का वर्णन के आधीन नहीं हैं। भवितव्यता के अधीन है। किया है, वहां-सम्यक्-नियति को मानने को एकान्त नही नियति के विषय मे पूज्य क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी कहा है । इस जीव को जब यह श्रद्धा हो जाती है कि जो वर्णी भी कहा करते थे-'जो-जो भाषी वीतराग ने सोहोना होगा सो ही होगा मेरे करने से नहीं होगा तब सो होसी वीरा रे। अनहोनी न होय कभी भी काहे होत उसको पर द्रव्यों से पंचेन्द्रिय के भोगों से और संसार को अधीरा रे।' इसका अर्थ भी यही है कि जो होना है सो बढ़ाने वाले आरम्भ से भी अरुचि हो जाती है और वह वीतरागी (केवल ज्ञानी के ज्ञान मे है) यदि इसको न तत्त्व विचार करने के लिए उद्यमवंत होता है और उसको मानेंगे तो केवलज्ञान नही रहेगा। इसके अतिरिक्त ससार सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और जिमका ससार अभी में देखा भी जाता है कि किसी कार्य के करने का बहुत निकट नही आया वह किसी एक पुरुषार्थ को ही प्रधान उपाय करते हैं परन्तु कार्य की सिद्धि नहीं होती और कभी मानता है, बाकी चार समवायो को उमके प्राधीन मानता कभी एक कार्य के पूरा करने को जाते हैं परन्तु रास्ते में है। उसकी मान्यता सही नही है। क्योकि बुद्धि भवि अनायास ही दूसरे कार्य की सिद्धि हो जाती है। रोग के तव्यता के आधीन है। क्योकि कहा है कि-विनाशकाल विषय में भी देखिए, रोग के आने का कोई उपाा नहीं आने पर बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और निमित्त भी वैसे ही करता परन्तु रोग आ जाता है और अनेक उपाय करने मिलते है। हां, आगम मे पुरुषार्थ करने का उपदेश अवश्य पर भी रोग नही जाता और कभी-कभी बिना दवा खाये दिया है। क्योकि हमको ऐसा पता नहीं कि हमको सम्यग्- श्री रोग ठीक हो जाता है। ये सब नियति नहीं है तो क्या दर्शन कब होन। है ? हाँ इतना जरूर है कि तत्त्व विचार है? सूरज पूरव मे ही उदय होता है और पश्चिम से अस्त के विना सम्यक्त्व नहीं होगा। इसलिए हमें पुरुषार्थ करना होता है। बच्चा पैदा होता है, बड़ा होता है, फिर बूढा चाहिए। परन्तु श्रद्धा यही रखनी चाहिए कि कार्य की भी हो जाता है। जरा एकाग्र चित्त से विचार करिए ये सिद्धि भवितव्यानुसार ही होगी। इस धारणा से हमको नियति नहीं है तो क्या है. यदि निर्यात न हो तो संसार साता असाता के उदय में भी सान्त्वना मिलती है। जिस की व्यवस्था ही नहीं चल सकती। ज्यादा क्या कहें नियति जीव का भला होना होता है उसी को भवितव्यता पर और होनहार इतनी प्रबल है कि इसके विषय मे कहने को विश्वास होता है। यदि ऐसा मान ले कि पुरुषार्थ करने शब्द भी नहीं है। हाँ, इतना अवश्य है कि पुरुषार्थ के से ही मुक्ति हो जायगी तो इस क ल में इमी सहनन से बिना कार्य नही होता परन्तु पुरुषार्थ भी नियति के आधीन तथा इसी पर्याय मे मोक्ष हो जानी चाहिए लेकिन आगम है। यहां तक कि नियति आर होनहार पर विश्वास होना में कहा है कि इस कान मे मोक्ष नहीं होती इसका कारण भी नियति के आधीन हैं। भी यही है कि जब मोक्ष होनी होगी तभी होगी। क्योंकि अन्सारी रोड, दरियागज, नई दिल्ली-२ प्रज्ञैव दुर्लभा सुष्ठु दुर्लभा सान्यजन्मने । तां प्राप्य ये प्रमाद्यन्ते ते शोच्याः खलु धीमताम् ।। -आत्मानुशासनम् ६४
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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