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________________ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के अनिवार्य कारण १७ मोह घटते-घटते उपशम अवस्था को प्राप्त हो जाता है। विचार पुरुषार्थ है। तत्त्व विचार करना इस जीव का सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का यही सच्चा उपाय है। जब यह अपना कार्य है इसलिए आचार्यों ने पुरुषार्य करने का उपजीव इस उपाय को करता है तो पांचों समवाय होते हैं। देश दिया है जिससे यह जीव आलसी न हो जाय । वहां ·ोई किसी के आधीन नहीं है। क्योंकि जिस कार्य (सम्यग्- भी पंच समवाय के निषेध से तात्पर्य नहीं है । तात्पर्य मात्र न) का जिस समय पुरुषार्थ करता है वो समय ही उस इतना है कि हम अपने उपयोग को जितनी शक्ति संसार कार्य की सिद्धि काललब्धि है और जिसका विचार कार्यों में लगाते हैं, उतनी शक्ति तत्त्व विचार करने में करता है वह निमित्त, उसका फल होनहार (भवितव्यता) लगाएं । और जीव की सम्यग्दर्शन के रूप होने की योग्यता उपादान एक दृष्टान्त मरीचि का देखिए, मरीचि भगवान इसलिए अकेले पुरुषार्थ के आधीन सम्यक्त्व की प्राप्ति आदिनाथ का पोता था और जब वह भगवान के समोमानना ठीक नही । टोडरमल जी ने भी मिथ्यात का काल शरण में बैठा था तब उसको बताया कि वह आगे चलकर अनन्त न मानकर (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० ३७६ पर कहा महावीर नाम का अन्तिम तीर्थकर होगा। क्योंकि उसके है कि-'याका उद्यम तो तत्त्वविचार का करने मात्र ही तीर्थकर होने में उस समय बहत कार है।' इसका आय वहां अन्य समवायो का निवेध करना अभी अच्छी नहीं थी। उसको बहुत काल तक संसार में नहीं है और जहां तत्त्व उपदेश भी नही है वहां (नरक में) कई भव धारण करने थे, इससे भगवान की वाणी सुनने भी पूर्व उपदेश के संस्कार होते है, वहा भी तत्त्व विचार पर भी उसकी बुद्धि स्वच्छद होने की हो गई और जब करने से दर्शनमोह की स्थिति घटकर अत: कोटाकोटि उसका संसार निकट आ गया अर्थात् उसकी होनहार प्रमाण रह जाती है और वह मिथ्यात अवस्था में ही घटते अच्छी आ गई तो सिंह की पर्याय में भी उसकी बुद्धि घटते उपशम अवस्था को प्राप्त हो जाती है और सम्य संयम धारण करने की हो गई। इन सभी से सिद्ध होता क्त्व की प्राप्ति हो जाती है । इसके सम्बन्ध मे १० जी ने है कि उपाय करने की बुद्धि भी भवितव्य के आधीन है। यहां तक कह दिया है कि----'कषाय उपशमने ते दुःख दूर कातिकेयानप्रेक्षा में भी कहा हैहोय जाय सो इनकी सिद्धि इनके किये उपायन के आधीन 'जं जस्स जम्हि देसे जेरण विहाणेण जम्हि कालम्हि । नहीं भवितव्य के आधीन है। जाते अनेक उपाय करना त तस्स तम्हि देसे तेण विहाणेण तम्हि कालम्हि ॥ विचार और एक भी उपाय होता न देखिये है बहुरि काक को सक्कइ चालेंदु इदो वा अहमिदो जिणदो वा।' तालीय न्याय करि भवितव्य ऐसा ही होय जैसा आपका अर्थात जिस जीब का जिस देश में जिस निमित से प्रयोजन होय तसा ही उपाय होय अर ताते कार्य की सिद्धि भी होय जाय। बहरि उपाय बनना भी अपने जब जसा हाना होता है उस जीव का उसी देश में उसी आधीन नाहिं भवितव्य के आधीन है (१०७६) पं० निामत्त उसा समय को निमित्त उसी समय वैसा ही होता है, उसे टालने में इन्द्र दौलतराम जी ने भी कहा है.-- 'आतम के अहित विषय या जिनेन्द्र भगवान भी समर्थ नहीं हैं और भी कहा हैकषाय, इनमे मेरी परिणति न जाय।' इन सबका यही 'कारज धीरे होत है काहे होत अधीर । तात्पर्य है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए कषायों को समय आये तरुवर फरे केतो सींचों नीर ॥ कम करके तथा आरम्भ और परिग्रह का भी परिमाण अर्थात् समय आने पर ही कार्य होता है, इसके लिए करके और अपनी मान्यता का भी पक्षपात छोड़कर शान्त कुछ लोयों का कहना है कि टोडरमल जी ने कहा है कि चित्त से जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए सात तत्त्वो का काल लब्धि किछु वस्तु नाहीं इसका अर्थ ये नहीं है कि चिन्तन करना ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय है काल लब्धि कुछ नहीं होती, इसका अभिप्राय तो केवल जिस समय यह भव्य जीव तत्त्वों का विचार करता है तब इतना है कि काललब्धि तो समय है कार्य के होने का। वही समय इसके कार्य की सिद्धि की लब्धि है तथा तत्त्व अर्थात् जिस समय जो कार्य होता है वही उस कार्य की
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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