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१६ बर्ष ४०, कि०४
अनेकान्त
करके निर्वाण प्राप्त किया है।
के अनुसार हो जाती है। ये संसार में देखने में भी माता मो० मा० प्र०। ८० पर कहा है
है कि कोई भी माता-पिता अपनी सस्तान को डोटे मार्ग 'कषाय उपशमने ते दुख दूरि ढोय नाय सुखी होप पर नहीं लगाना चाहते और अच्छे मार्ग पर चलाने का परन्तु इनकी सिद्धि इनके किये गायन के आधीन नाही, पूरा प्रयत्न भी करते है परन्तु बहुतों की सन्तान जिनकी भवितव्य के आधीन है । जात अनेक उपाय करते देखिये __होनहार बुरी है-उनको अपने माता-पिता की अच्छी अर सिद्धि न हो है । वहरि उपाय बनना भी अपने अधीन
शिक्षा अच्छी नहीं लगती। खोटी संगति वालों की बातें नाहिं । भवितव्य के अधीन है । जाते अनेक उपाय करना अच्छी लगती है और खोटे मार्ग पर चलने लगते हैं। ऐसे विचार और एक भी उपाय न होता देखिये है। वहरि अनेको दृष्टान्त देखने में आते हैं। काकतालीयन्याय करि भवितव्य ऐसा ही हो। जैसा अपका प्रयोजन होय तमा ही उपाय होय अर जाते कार्य की सिद्धि
छहढाला की पहली ढाल में भी कहा है-"तहतें मी होय जाय।'
चय थावर तनघरे, यो परिवर्तन पूरे करे।' अर्थात
मिथ्यात्व के काल में पांच परावर्तनों को अनेक बार पूरे इसलिये सम्यक्त की प्राप्ति मे पानाही समवाय को
कर लेते है। इसका यह अभिप्राय है कि इस जीव का मानना पड़ेगा। यदि इनमे से एक भी समवाय का अनाव । ज्यादा समय एक इन्द्रिय में ही व्यतीत होता है क्योंकि होगा तो बाकी चारों समवाय भी न होंगे इसलिए कले वहां पांचों परावर्तनो का काल अनन्त नहीं हां बहुत है पुरुषार्थ से ही सम्यग्दर्शन की प्रप्ति मानना आगमा कल और जब मिथ्यात्व का काल अल्प समय रह जाता है नही है। इसके अतिरिक्त सम्यग्दर्शन से पहले पाच तो उसे अर्धदगन परावर्तन कहते हैं। और तभी वह लब्धियों का होना अति आवश्यक है उनके बिना भी अपने को तथा ससार को समझने का प्रयत्न करता है तब सम्यक्त्व नही होता । इनमें भी चार लब्धियाँ, क्षयोपशम, व्य को मम्यकता की प्राप्ति होती है। कहा भी हैविशुद्धि, देशना तथा प्रायोग ती अने का वारसमय तया । 'तत्पति प्रीतिचिर्तन येन वार्तापि हि अता। निश्चितं सः अभव्यो के भी हो जाती है) वा भी मम्पदशं । हाने का भवेद्भयो भाविनिर्वाण भाजनम्' (पद्मनन्दि पंच विशतिका नियम नही है। हाँ पांचवी करण ब्धि के होने पर (एकत्वशीर्तव : २३) इससे यह मालूम होता है कि जो सम्यग्दर्शन के प्राप्त होने का नियम अवश्य है इसके लिये भव्य है, उसके मिथ्यात्व का काल अनन्त नहीं है क्योकि भी प० टोडरमल जी ने कहा है--
मिथ्या दृष्टि ही मिथ्यात्व का नाश करके सम्यक्त्व को जाकै पूर्व कही च्यारि लधि तो भई होय, प्राप्त करता है। अब रही यह बात कि सम्यक्त्व की अर अंतर्मुहुर्त पीछे जाकै सम्यक्त होना होय । प्राप्ति कैसे होती है ? उसके लिए कहा हैतिसही जीव के करण लब्धि हो है मो इस कारण 'तात जिनतर कथित तत्त्व अभ्यास करीजे, मन्धि वाला के बुद्धि पूर्वक तो इतना ही उद्यम ही है.-
सशय, विभ्रम, मोह त्याग आपो लखि लीजे।' जिस तत्व विचार विष उपयोग नप होय लगावे ।
तत्त्व अभ्यास के लिए पहिले आगम के द्वारा सातो (मो० मा० १० पेज ३८६) तत्त्वो के अर्थ को समझना, फिर उसका बार-बार चिन्तइस करण लब्धि की प्राप्ति उमी जीव को होती है। वन करना श्रेयकर है। सारे आरम्भ और कषाय भावों से जिसको अन्तर्मुहर्त में सम्यग्दर्शन होना होता है। इसके उपयोग को हटाकर तत्त्व विचार में लगाना चाहिए। लिये कहा है-"जैसी जस भवितव्या तैसी मिले सहाय। क्योकि तत्त्व विचार करने का और दर्शन मोहनीय की आपु न पावे ताहि पर ताहि तहाँ ले जाय।' इसका अर्थ--- स्थिति कम होने का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है अर्थात अपना बस होनहार पर नहीं चलता किन्तु बुद्धि होनहार जब यह तत्व अभ्यास में उपयोग को लगाता है तब दर्शन