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________________ हिन्दीन कषियों के कतिपय मोतिकाम्य स्वार्थपरता, 'होनहार' आदि विषयों से सम्बन्धित हैं। सत्संग से श्रेष्ठ बनने की बात 'मनोहर' ने कई लौकिक उदाहरणों से सिद्ध की है :चंदन संग कीये पनि काठ जु, चंदन गंध समान जुले है। पारस सौ परसे जिम लोह जु, कंचन सुख सरूप जु सोहै। पाय रसायनि होत कयीर जू, रूप सरूप 'मनोहर' जोहै। त्यौ नर कोविद संग किये सठ, पंडित होय सबै मन मोहै। ममता की स्थिति में कवि ने शास्त्रपठन, सयम, मोन वृत्त, तप, दान, योग आदि सभी साधनाओं को निरर्थक माना है:ग्रंथन के पढ़े कहा, पर्वत के चढ़े कहा, कोटि लछि बढ़े कहा, कहा रंकपन में । संयम के प्राचरे कहा, मौन वृत्त धरे कहा, तपस्या के करे कहा, कहा फिर बन में। दाहन के दये कहा, छंद करे तै कहा, जोगासन भये कहा, बैठे साधजन मैं । जोलो ममतान छटे, मिथ्या डोरिहन टूठे। ब्रह्म ज्ञान बिना लौ न, लोभ को लगनि मैं। सोचकबन की मन परतीत लोज्यो, तेरौं सोच कीये कछू कारिज सरि है। सोच कोये दुख भास, सुख सबही नास, पूरब न दीयो दान, तातं दुख भारी है। जैसे दुख सुख तेरे होय करम अनुसार ही प्राप सह रे, टार नहिटर है। कोदि बुद्धि करो फिरि फिरि, नाना देश माहि कियो, - बढ़ती न पावं कछ, निश्च तु धरिहै । प्रजा को सुख देना, राजाज्ञा का पालन करना, शीलवती होना और शुभ मार्ग पर चलना क्रमशः राजा, प्रजा, स्त्री और पुरुष को पावनता के मापदण्ड होते हैं। ऐसा लक्ष्मीचद का मत है : पावन राजा होय, प्रजा को सुख उपजाये। पावन परिजा होय, राज सब प्रानि न पाये। पावन नारी होय, सील गुन दिढ़ करि पाल। पावन नर जो होय, भल सुभ मारग वाले। ए च्यारों जु पवित्र हैं, ते पवित्र सहजै बरै। लषमी कहत एह भवसागर तिरं। ६. लक्ष्मीचन्द : उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विभिन्न चरित काव्यों १४ छप्पय, १२ कवित्त और २८ दोहो में लक्ष्मीचद और भक्तिपूर्ण रचनायो के लेखन से जैन कवियों की दष्टि ने 'साधु', 'शील', पुण्य, 'शास्त्र पठन', पवित्रता आदि भक्ति और सिद्धान्त चर्चा में ही नहीं रही. उन्होने आदर्श नीति विषयों पर उक्तियां कही है। 'सुख' और 'दुख' दोनों की 'म' और 'ख' दोनों जीवन की स्थापना मे भी रुचि ली है। गिरते हुए जीवन जावन के का समभाव से सहने का 'गीता' जैसा उपदेश लक्ष्मीचंद ने मूल्यों के इस युग मे ऐसी रचनाएं बड़ी उपयोगी हैं। इन पंक्तियों में दिया है: ११०-ए, रणजीत नगर, भरतपुर (राज.) ___ सम्यग्दृष्टि बाह्य पदार्थों को तो जुदा समझता ही है पर अन्तरंग परिग्रह जो रागादिक हैं उनको भी वह हेय जानता है, क्योंकि बाह्य वस्तु को अपना मानने का कारण अन्तरंग के परिणाम ही तो हैं। यदि अन्तरंग से छोड़ दो तो वह तो छूटी ही है। सम्यग्दृष्टि बाह्य पदार्थों की चिन्ता नही करता, वह उसके मूल कारणों को देखता है। इसलिए उसकी परिणति निराली ही रहती है। -वर्णीवाणी I पृ० ३५०
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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