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________________ सिवानजीवा-बवला २६ पड़ते हैं तब उसमें हम इन सभी को मोक्ष-मार्ग के विधान सोचने की बात यह भी है कि क्या जीव और अजीव में पाते हैं, न कि त्रिकाली स्वतंत्र (द्रव्य) की सत्ता के दोनों की उपस्थिति के बिना आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा रूप में।-"इत्येतन्मोक्षमूलं ।" आदि। पूरा श्लोक इस और मोक्ष हो सकते हैं ? जो इन्हें स्वतंत्र तत्त्व (द्रव्य) प्रकार है माना जा सके? फिर यह भी सोचना है कि जब लोका'काल्यं द्रव्यषटकं, नवपदसहितं जीव षटकाव्य लेश्या। लोक में छह द्रव्यों के सिवाय अन्य कुछ नहीं, तब यह पंचान्ये चास्ति कायाः व्रतसमितिगतिमन चारित्र भेदाः॥ स्वतंत्र तत्त्व कहा से आ गए? शास्त्रों में मानव, बंध, इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितोक्तमहद्भिरीशः । संवर और निर्जरा के जो लक्षण दिए है, उन लक्षणों के प्रत्येति श्रदधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः॥' अनुसार किस तत्त्व का समावेश (अन्तर्भाव) किस स्वतत्र अर्थात्-इनका श्रद्धान ज्ञान और अनुभवन किए द्रव्य मे होता है ? यह भी सोचना होगा। हमारी दृष्टि से बिना मोक्ष या मोक्षमार्ग का अनुसरण नहीं किया जा तो द्रव्यों में कोई भी स्वतंत्र द्रव्य ऐसा नही, जिस किसी सकता। जो भव्य प्राणी इन विधियो, क्रियाओं और एक मे भी स्वतत्ररूप से इन तत्वों का अन्तर्भाव हो सके। स्थितियों का विधिपूर्वक सही-सही श्रद्धान ज्ञान अनुभवन अतः मानना पड़ेगा कि इन उपर्युक्त तत्त्वो की द्रव्यों जैसी करता है वह सम्यग्दृष्टि होता है। इसका आशय ऐसा है कोई स्वतत्र सत्ता नही अपितु ये सभी के सभी चेतन मारी प्राणी को मोक्षमार्ग दर्शाने मे आस्रवादि तत्त्व अचेतन के विकार से निष्पन्न है। इन्हें हम वेतन-अचेतन हैं यामी-सारभूत हैं। इन प्रक्रियाओं को समझे बिना को विकारी क्रिया भी कह सकते हैं और क्रिया या व्यापार कोई जीव मोक्षमार्ग में नही लग सकता-जब कोई जीव कभी द्रव्यवत स्थायी नही होते । अन्यथा यदि व्यापार-क्रिया इन विकृतियों-विकारों को समझेगा, इनसे परिचित ही तत्त्व हो जाय, तो खाना, पीना, सोना, जागना, उठना, होगा तभी वह निवृत्ति-(मोक्षमार्ग) की ओर बढ़गा बैठना आदि व्यापार भी तत्त्व कहलाएंगे और इस प्रकार और काल-लब्धि के आने पर उस भव्य जीव को मोक्ष तत्वों की तत्त्वों की संख्या सात न रहकर असख्यातों तक पहष भी हो सकेगा; आदि। इस प्रकार तत्त्व या पदार्थ नाम जाती जायगी। अत: ऐसा ही मानना चाहिए कि प्रसग मे तत्त्व प्रसिद्ध जो कुछ है वह सब मोक्षमार्ग-दर्शाने के भाव में शब्द का अर्थ सारभूत है और मोक्षमार्गी को इन प्रक्रियाओं नवसारभत है-किसी स्वतत्र सत्ता के भाव में नहीं को जानना चाहिए, क्योकि ये मोक्षमार्ग मे-भेद-विज्ञान है, ऐसा सिद्ध होता है । फलत: मे उपयोगी-सारभूत हैं। इसी प्रकार जो स्थिति इन आनव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष कोई स्वतत्र तत्त्वों की है वही स्थिति जीव की है और जीव भी विकारी तत्त्व (द्रव्य) नहीं-वहां तत्त्व शब्द का अर्थ मोक्षमार्ग में अवस्था है। जब भेद-विज्ञान द्वारा आत्मा को जीवत्व सारमत-प्रयोजनमत मात्र है। भाव ऐसा है कि उक्त पोय का बोध होगा, तब वह अपने को विकारत्व से पृथक सभी अवस्थाएँ विकारी भाव तक सीमित है और उसी कर सकेगा-स्व-शुद्धत्व मे आ सकेगा और उसका विकारी दष्टि में मानी गई हैं। इसी प्रकार 'जीव' संज्ञा भी भाव 'जीवत्व' छूट जायगा-वह 'सिद्ध' या परम आत्मा विकारी होने के भाव में है, जब विकारी आत्मा विकार. या शुद्ध-चेतन हो जायगा। इसी भाव मे श्री वीरसेनाचार्य रहित अवस्था में आ जाता है तब वह जीवरूप में न कहा जी ने घोषणा की है कि-'सिद्धा ण जीवा जाकर 'सिद्ध' या परम-आत्मा कहलाता है और आचार्यवर इस प्रसंग में 'जीवाश्च' सूत्र क्यों कहा और अचेतन वीरसेनाचार्य ने इसी तत्त्व (वास्तविकता) के प्रकाशन के का नामकरण भी अजीव क्यों किया? इसका खुलासा हम लिए स्पष्ट किया है कि-'सियाण जीवा' अर्थात् सिख पहिले ही कर चुके हैं। लोग इस विषय को लोकषणा या जीव नहीं हैं उन्हें जीवितपूर्व कहा जा सकता है- पक्ष-व्यामोह का विषय न बनाएं-यह चितन का ही विषय 'जीविद्पुवा इदि' है । इसे पाठक विचारें, हमें आग्रह नहीं। (क्रमशः)
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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