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________________ गतांक ४०/३ से आगे :(चिन्तन के लिए) "सिद्धा ण जीवा'-धवला 0 श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली-२ प्रसंग तत्वों की पहिचान का है और हम भी 'तत्त्व- स्मरण रहे कि आश्रव, बंध, सवर, निर्जरा आदि जैसे कुतत्त्व पिछाने' वाक्य को पूर्व में दुहरा चुके है। उक्त तत्त्व या पदार्थ नामवाची सभी रूप, चेतन और अचेतन प्रसंग में हमारी धारणा है कि-जैन दर्शन में छः द्रव्यों के मिश्रित-विकारी अस्तित्व है। इनमें से कोई भी स्वतंत्र की स्वतंत्र और पृथक्-पृथक् त्रिकाली सत्ता स्वीकार की या मूलरूप मे वैसा नही जैसे कि छह द्रव्य हैं । फलतः इन गई है तथा छहों द्रव्यों में पुद्गल के सिवाय अन्य सभी तत्त्वों को मूलरूप में वैसे ही स्वीकार नही करना चाहिए द्रव्यों को प्ररूपी बतलाया गया है-'नित्यावस्थितान्य- जैसे छह द्रव्यों को स्वीकार किया जाता है। खुलासा इस रूपाणि', 'रूपिणः पुद्गलाः।-ऐसा भी कथन है कि प्रकार हैलोक-अलोक में छह द्रव्यो के सिवाय कही कोई सातवां जैसे जीव में पुद्गल कर्मों के आगमन मे हेतु भूत द्रव्य नहीं है-सभी इन छह द्रव्यों में समाहित है। ऐसी मन-वचन-काय द्वारा आत्मप्रदेशो के परिस्पन्द को आस्रव स्थिति में हमारी दृष्टि से लोक में अन्य जो भी बुद्धिगम्य कहते हैं और स्वय ये मन-वचन-काय भी किसी एक शुद्ध होता है वह सभी चेतन अचेतन का विकारी रूप है। द्रव्य के शुरूप नही है-वे भी चेतन-अचेतन के मिश्रण द्रव्य, पदार्थ या तत्त्व कुछ भी कहो, सभी शब्द से निष्पन्न है, तब मिश्रण से निष्पन्न आस्रव को मूल या एकार्थक और एक भाववाची जैसे रूप से प्रचलन में चले शुद्ध तत्व (द्रव्य) कैसे माना जा सकता है ? वह तो दो के मिश्रण से होने वाला व्यापार है। ऐसे ही बध भी कोई आ रहे हैं। प्रायः कुछ लोगो की धारणा ऐसी है कि आलव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष भी वैसे ही स्वतंत्र स्वतंत्र मूल तत्व नही, वह भी कषायभाव पूर्वक चेतन के साथ जड़ कर्म के बंधने की क्रिया मात्र है और मिश्रण से स्वभावी तत्व हैं जैसे स्वतंत्र-स्वभावी छह द्रव्य हैं और निष्पन्न क्रिया को मूलतत्त्व (द्रव्य) नहीं माना जा सकता। इन तस्वों या पदार्थों का अस्तित्व द्रव्यों से जुदा है। यही बात सवर मे है। वहां भी मूल तत्त्व चेतन आत्मा ऐसे में सहज प्रश्न उठता है कि जब द्रव्य, तत्त्व और और अचेतन कर्म हैं और वहाँ पुदगल कर्म के आगमन के यदार्थ जैसे सभी सांकेतिक शब्द एकार्थक और एकभाव- सोक्रिया भी दो का fe रुकने रूप क्रिया भी दो का विकार है। इस प्रकार पुदगल वाची प्रसिद्ध हैं और लोक-अलोक में छह द्रव्यो के सिवाय कर्मों का आना, बंधना, रुकना सभी विकारी हैं। ऐसे ही अन्य कोई स्वतंत्र-सत्ता नहीं; तब आचार्यों ने छह द्रव्यो, निर्जरा यानी कर्मों का झड़ना भी चेतन-अचेतन दोनो मूलसात तत्त्वों और नव-पदार्थों का पृथक्-पृथक् वर्णन क्यों तत्वों के विकारी भावो से निष्पन्न व्यापार है-कोई मूल किया? क्या आस्रव, बंध, संवर और निर्जरा तथा पुण्य, स्वतंत्र तत्त्व नहीं है । अब रही मोक्ष तत्त्व की बात । सो पाप की कोई स्वतंत्र, स्वाभाविक सत्ता है ? अथवा यदि वह भी परापेक्षी अवस्था से निष्पन्न है और वहां भी मूल ये सभी स्वतंत्र नहीं हैं तो इनको तत्त्व क्यों कहा गया है तत्त्व शुद्ध चेतन ही है। और क्यों इनके श्रवान को सम्यग्दर्शन का नाम दिया गया? जब हम दिव्य ध्वनि से पूर्व के गौतम (बाद में गणघर) जब कि ये सभी चेतन-अचेतन के आश्रित रूप हैं। के प्रति इन्द्र द्वारा प्रकट की गई जिज्ञासा का मूल श्लोक
SR No.538040
Book TitleAnekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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